Gujrat State Board, the Best Hindi Solutions, Class X, Ramprasad Bismil, Meri Maa, मेरी माँ (आत्मकथा अंश) रामप्रसाद बिस्मिल

(जन्म 1887 ई., निधन 1927 ई.)

रामप्रसाद का जन्म शाहजहाँपुर (उत्तरप्रदेश) में एक साधारण परिवार में हुआ था। उनके जन्म के कुछ वर्ष पहले ही उनके पितामह रोजी-रोटी की तलाश में ग्वालियर के अपने गाँव से आकर यहाँ बसे थे। पिता साधारण पढ़े-लिखे थे। कचहरी में सरकारी स्टाम्प बेचकर परिवार का पालन किया तथा बच्चों को शिक्षा दिलाई। उर्दू मिडिल की परीक्षा में दो बार असफल होने पर अंग्रेजी मिडिल की पढ़ाई की। स्वाध्याय से बांग्ला भाषा सीखी। आरंभ में आर्यसमाज की प्रवृत्तियों से जुड़े बाद में क्रांतिकारी संगठन में सक्रिय हुए।’ काकोरी रेल डकैती कांड का मुख्य अभियुक्त मानकर इन्हें फाँसी की सजा हुई और वे शहीद हो गए।

आरंभ में ‘राम’ तथा ‘अज्ञात’ नाम से पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। बांग्ला से हिंदी में अनुवाद भी किए। ‘आत्मकथा’ फाँसी के दो दिन पहले जेल में पूरी करके उन्होंने किसी तरह बाहर भिजवाई। जिसके कुछ अंश श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के संपादन में ‘काकोरी के शहीद’ नाम से छपे।

माँ केवल जन्म ही नहीं देती, व्यक्तित्व का निर्माण भी करती है। अपनी आत्मकथा के इन अंशों में प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ अपने जीवन-निर्माण में अपनी माँ के अवर्णनीय योगदान के प्रति नतमस्तक होते हैं और जन्म-जन्मांतर में उनके ऋण से उऋण होने की कोई संभावना नहीं दिखाई देती।

 

लखनऊ कांग्रेस में जाने के लिए मेरी बड़ी इच्छा थी। दादीजी और पिताजी तो विरोध करते रहे, किंतु माताजी ने मुझे खर्च दे ही दिया। उसी समय शाहजहाँपुर में सेवा समिति का आरंभ हुआ था। मैं बड़े उत्साह के साथ सेवा समिति में सहयोग देता था। पिताजी और दादीजी को मेरे इस प्रकार के कार्य अच्छे न लगते थे, किंतु माताजी मेरा उत्साह भंग न होने देती थीं, जिसके कारण उन्हें अक्सर पिताजी की डाँट फटकार तथा दंड सहन करना पड़ता था। वास्तव में, मेरी माताजी देवी है। मुझमें जो कुछ जीवन तथा साहस आया, वह मेरी माताजी तथा गुरुदेव श्री सोमदेव जी की कृपाओं का ही परिणाम है। दादीजी और पिताजी मेरे विवाह के लिए बहुत अनुरोध करते, किंतु माताजी यह कहतीं कि शिक्षा पा चुकने के बाद ही विवाह करना उचित होगा। माताजी के प्रोत्साहन तथा सद्व्यवहार ने मेरे जीवन में वह दृढ़ता उत्पन्न की कि किसी आपत्ति तथा संकट के आने पर भी मैंने अपने संकल्प को न त्यागा।

एक समय मेरे पिताजी दीवानी मुकदमे में किसी पर दावा करके वकील से कह गए थे कि जो काम हो वह मुझसे करा लें। कुछ आवश्यकता पड़ने पर वकील साहब ने मुझे बुला भेजा और कहा कि मैं पिताजी के हस्ताक्षर वकालतनामे पर कर दूँ। मैंने तुरंत उत्तर दिया कि यह तो धर्म विरुद्ध होगा, इस प्रकार का पाप मैं कदापि नहीं कर सकता। वकील साहब ने बहुत समझाया कि मुकदमा खारिज हो जाएगा। किंतु मुझ पर कुछ भी प्रभाव न हुआ, न मैंने हस्ताक्षर किए। अपने जीवन में हमेशा सत्य का आचरण करता था, चाहे कुछ हो जाए, सत्य बात कह देता था।

ग्यारह वर्ष की उम्र में माताजी विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं। उस समय वह नितांत अशिक्षित एक ग्रामीण कन्या के समान थीं। शाहजहाँपुर आने के थोड़े दिनों बाद दादीजी ने अपनी छोटी बहन को बुला लिया। उन्होंने माताजी को गृहकार्य की शिक्षा दी। थोड़े दिनों में माताजी ने घर के सब काम-काज को समझ लिया और भोजनादि का ठीक-ठीक प्रबंध करने लगीं। मेरे जन्म होने के पाँच या सात वर्ष बाद उन्होंने हिंदी पढ़ना आरंभ किया। पढ़ने का शौक उन्हें खुद ही पैदा हुआ था। मुहल्ले की सखी-सहेली जो घर पर आया करती थीं, उन्हीं में जो शिक्षित थीं, माताजी उनसे अक्षर-बोध करतीं। इस प्रकार घर का सब काम कर चुकने के बाद जो कुछ समय मिल जाता, उसमें पढ़ना-लिखना करतीं। परिश्रम के बल से थोड़े दिनों में ही वह देवनागरी पुस्तकों का अध्ययन करने लगीं। मेरी बहनों को छोटी आयु में माताजी ही शिक्षा दिया करती थीं। जबसे मैंने आर्यसमाज में प्रवेश किया, माताजी से खूब वार्तालाप होता। उस समय की अपेक्षा अब उनके विचार भी कुछ उदार हो गए हैं। यदि मुझे ऐसी माता न मिलतीं तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों की भाँति संसार-चक्र में फँसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की है, जैसी मेजिनी को उनकी माता ने की थी। माताजी का सबसे बड़ा आदेश मेरे लिए यही था कि किसी की प्राणहानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राणदंड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे मजबूरन दो एक बार अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी थी।

जन्मदात्री जननी ! इस जीवन में तो तुम्हारा ऋण उतारने का प्रयत्न करने का भी अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि मैं अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूँ तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने जिस प्रकार अपनी देववाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देशसेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका भी श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक झुक जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया। यदि मैंने धृष्टतापूर्ण उत्तर दिया तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुमने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन- पोषण ही नहीं किया बल्कि आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मांतर परमात्मा ऐसी ही माता दे।

महान से महान संकट में भी तुमने मुझे अधीर नहीं होने दिया। सदैव अपनी प्रेम भरी वाणी को सुनाते हुए मुझे सांत्वना देती रहीं। तुम्हारी दया की छाया में मैंने अपने जीवन भर में कोई कष्ट अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं।केवल एक इच्छा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु की दुखभरी खबर सुनाई जाएगी। माँ ! मुझे विश्वास है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता भारत माता की सेवा में अपने जीवन को बलि देवी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कोख कलंकित न की, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्ज्वल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जाएगा। गुरु गोबिंद सिंह जी की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु की खबर सुनी तो बहुत प्रसन्न हुई थीं और गुरु के नाम पर धर्म रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बाँटी थीं। जन्मदात्री ! वर दो कि अंतिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूँ।

 

प्रोत्साहन – उत्साह बढ़ाना, हिम्मत बँधाना

सद्व्यवहार – अच्छा व्यवहार, अच्छा चाल-चलन

संकल्प – दृढ़ निश्चय

वकालतनामा – अदालत में पैरवी करने का अधिकार पत्र

नितांत – बिलकुल, पूरी तरह

जीवन निर्वाह – जीवन व्यतीत करना, जीवन जीना

मेजिनी – मेजिनी (1805 1875) का जन्म इटली में हुआ था। वह लोकतंत्र का प्रबल समर्थक, परम देशभक्त, सक्रिय और निर्भीक नेता था। अनेक भागों में बँटे इटली को एक करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। वह ऑस्ट्रियन शासन से इटली को मुक्त कराने के लिए जीवन भर लड़ता रहा।

जन्मदात्री –  जन्म देने वाली माता, माँ

अवर्णनीय – जिसका वर्णन न हो सके

धृष्टता – उद्दंडता, ढिठाई, दुस्साहस

आत्मिक – आत्मा से संबंधित

जन्म-जन्मांतर – अनेक जन्मों तक

सांत्वना – तसल्ली देना, ढाढ़स बँधाना

धर्मं-रक्षार्थ – धर्म की रक्षा के लिए

विचलित – अस्थिर, डिंगा हुआ, चंचल

1.निम्नलिखित प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-

(1) बिस्मिल की माताजी का सबसे बड़ा आदेश क्या था?

उत्तर – बिस्मिल की माताजी का बिस्मिल के लिए सबसे बड़ा आदेश यही था कि किसी की प्राणहानि न हो। बिस्मिल अपने शत्रु को भी कभी प्राणदंड न दे।

(2) बिस्मिल की एक मात्र इच्छा क्या थी?

उत्तर – बिस्मिल की एक मात्र इच्छा यह थी कि एक बार वह श्रद्धापूर्वक अपनी माँ के चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता।

(3) बिस्मिल ने वकालत नामे में हस्ताक्षर क्यों नहीं किए?

उत्तर – बिस्मिल ने वकालत नामे में हस्ताक्षर नहीं किए क्योंकि वकील ने उन्हें उनके पिताजी के हस्ताक्षर करने के लिए कहा था जिसे वे धर्म के विरुद्ध मान रहे थे।

(4) बिस्मिल की माताजी के विचार पहले की अपेक्षा अधिक उदार कब हो गए थे?

उत्तर – बिस्मिल की माताजी के विचार पहले की अपेक्षा उस समय अधिक उदार हो गए जब उन्होंने हिंदी पढ़ना-लिखना सीख लिया और अपनी बेटियों को भी हिंदी पढ़ाने लगीं।

 

2. निम्नलिखित प्रश्नों के दो-तीन वाक्यों में उत्तर लिखिए :–

(1) बिस्मिल को अपनी एकमात्र इच्छा क्यों पूरी होती दिखाई नहीं दे रही थी?  

उत्तर – बिस्मिल को अपनी एकमात्र इच्छा कि वह अपनी माता के चरणों की सेवा कर सके पूरी होती दिखाई नहीं दे रही थी क्योंकि माताओं की माता भारत माता की सेवा में उन्हें अपना जीवन का बलिदान करना पड़ रहा है।  

(2) अंतिम समय के लिए बिस्मिल अपनी माँ से क्या वर माँगते हैं?

उत्तर – अंतिम समय के लिए बिस्मिल अपनी जन्मदात्री से यह वर माँगते हैं कि अंतिम समय में भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूँ।

(3) गुरु गोबिन्द सिंह की पत्नी ने अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई क्यों बाँटी?

उत्तर – गुरु गोबिंद सिंह जी की धर्मपत्नी अजीत कौर ने जब अपने पुत्रों की शहादत की खबर सुनी तो उन्हें गर्व मिश्रित प्रसन्नता हुई और गुरु के नाम पर धर्म रक्षा के लिए अपने पुत्रों के बलिदान होने पर मिठाइयाँ बाँटीं थीं।

(4) बिस्मिल की माँ ने शिक्षा प्राप्त करने के लिए क्या-क्या प्रयत्न किए?

उत्तर – ग्यारह वर्ष की उम्र में बिस्मिल की माँ विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं। शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्होंने उनके घर में आने वाली शिक्षित सखी-सहेली से अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। घर के सारे काम समाप्त करने के बाद वह पढ़ने-लिखने बैठती। इस प्रकार परिश्रम के बल से थोड़े दिनों में ही वह देवनागरी पुस्तकों का अध्ययन करने लगीं।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के चार-पाँच वाक्यों में उत्तर लिखिए :-

(1) बिस्मिल की आत्मिक, धार्मिक और सामाजिक उन्नति में उनकी माँ का क्या योगदान रहा?

उत्तर – बिस्मिल की आत्मिक, धार्मिक और सामाजिक उन्नति में उनकी माँ का अभूतपूर्व योगदान रहा है।  अपनी देववाणी का उपदेश देकर उन्होंने बिस्मिल का आत्मिक विकास किया है। किसी कारणवश अगर उन्हें बिस्मिल को ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया करती थीं। अपने मनोहर रूप से कभी-कभी बिस्मिल के धृष्टतापूर्ण आचरणों का प्रेम भरे शब्दों में ही उत्तर दिया। यदा-कदा उनके आचरण में निहित खामियों को दूर कर सामाजिक उन्नति की ओर अग्रसर किया।

(2) बिस्मिल की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए?

उत्तर – बिस्मिल की चारित्रिक विशेषताएँ हैं-

देशभक्त – बिस्मिल में देशभक्ति की भावना का बाहुल्य है। पिताजी और दादी के मना करने पर भी वह लखनऊ कांग्रेस में जाता है अंतत: देशभक्ति के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर देता है।

मातृभक्त – बिस्मिल देशभक्त के अतिरिक्त मातृभक्त भी है। वह यह स्वीकार करता है कि उसके व्यक्तित्व के विकास में उसकी माता जी का बहुत बड़ा हाथ है।

ईमानदार – वकील के कई बार कहने पर भी वह अपने पिताजी के हस्ताक्षर नहीं करता। उसके लिए यह धर्म विरुद्ध है।

ऋण बोध भाव – उसे इस बात का बोध है कि इस जन्म में वह अपनी माता का ऋण नहीं चुका पाया है इसलिए वह यह कहता है कि मैं तुम्हारा ऋण नहीं चुका पाया हूँ। अगले कई जन्मों तक तुम्हारा पुत्र बनकर जन्म लेने पर भी तुम्हारा कर्ज उतार पाना मेरे लिए संभव नहीं है।

(3) आपको बिस्मिल की माता के किन गुणों ने सबसे अधिक प्रभावित किया और क्यों?  

उत्तर – मुझे बिस्मिल की माता के दो गुण सर्वाधिक प्रभावित करते हैं जिसमें पहला है पढ़ाई-लिखाई को महत्त्व देना। ग्यारह साल की उम्र में ब्याही गई बिस्मिल की माँ अपने ससुराल के सारे कामों को पूरा करने के बाद पढ़ना-लिखना सीखती थी। अपने प्रयत्नों के आधार पर ही वह हिंदी पढ़ना-लिखना सीख गई और अपनी बेटियों को भी पढ़ाने लगीं। दूसरा, देश के प्रति कर्तव्यों का बोध। उन्हें अपने गुलाम देश के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध था इसीलिए उसने अपने बेटे को हर वो अवसर देने की कोशिश की जिससे उसका बेटा अपनी माता से बढ़कर भारत माता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सके।

4. निम्नलिखित शब्दों के विरुद्धार्थी शब्द लिखिए :-

विरोध – समर्थन

खर्च – कमाई

आरंभ – अंत

उत्साह – हतोत्साह

सद्व्यवहार – दुर्व्यवहार

उत्तर – प्रश्न, दक्षिण

  1. निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए :-

माँ – माता, जननी

संकट – समस्या, कठिनाई

सत्य – सच, साँच

ऋण – कर्ज़, उधार

परमात्मा – परमेश्वर, परमपिता

6.अर्थ की दृष्टि से वाक्य के प्रकार बताइए :-

(1) मैं बड़े उत्साह के साथ सेवा समिति में सहयोग देता था।

उत्तर – विधानवाचक वाक्य

(2) अब मैं तुमसे नहीं मिल सकूँगा।

उत्तर – निषेधवाचक वाक्य

(3) परमात्मा जन्म-जन्मान्तर ऐसी ही माता दे।

उत्तर – इच्छावाचक वाक्य

(4) क्या मैं कभी तुम्हारा कर्ज चुका सकूँगा।

उत्तर – प्रश्नवाचक वाक्य

  • ‘बच्चे माँ-बाप की विशेष संपत्ति हैं।’ इस विषय पर वक्तृत्व स्पर्धा का आयोजन कीजिए।

उत्तर – बच्चे माँ-बाप की विशेष संपत्ति होते हैं क्योंकि वे परिवार की पहचान, उम्मीदों और भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। बच्चों में माता-पिता की संस्कारों, मूल्यों और शिक्षाओं की झलक होती है। उनका जीवन केवल माता-पिता के प्रेम और देखभाल से आकार लेता है, और यही कारण है कि वे उनके लिए अनमोल होते हैं। माँ-बाप अपनी पूरी जिंदगी बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए समर्पित कर देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि बच्चों की सफलता, खुशियाँ और समृद्धि उनका सबसे बड़ा उपहार हैं। बच्चों का पालन-पोषण और उनकी शिक्षा में माता-पिता अपने अनुभव और मार्गदर्शन से उन्हें जीवन के कठिन रास्तों पर चलने की क्षमता प्रदान करते हैं। इसलिए, बच्चे सिर्फ शारीरिक रूप से नहीं, बल्कि भावनात्मक और मानसिक रूप से भी माँ-बाप की सबसे मूल्यवान संपत्ति होते हैं।

 

‘अपने जीवन में माता-पिता की भूमिका’ विषय पर छात्रों को मौखिक अभिव्यक्ति का अवसर दें।

उत्तर – माता-पिता का जीवन में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे न केवल हमारे पहले शिक्षक होते हैं, बल्कि हमारे जीवन के मार्गदर्शक भी होते हैं। उनका प्रेम, समर्थन और मार्गदर्शन हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं।

माता-पिता हमारे पहले संस्कारदाता होते हैं, जो हमें अच्छे और बुरे का फर्क सिखाते हैं। वे हमें जीवन के मूल्यों, नैतिकता और सिद्धांतों का पाठ पढ़ाते हैं, जो आगे चलकर हमारे जीवन में सफलता और संतुलन का कारण बनते हैं। वे हमें संघर्ष और चुनौती से निपटने का तरीका बताते हैं, और हर परिस्थिति में हमारे साथ खड़े रहते हैं।

माता-पिता की भूमिका केवल बचपन में ही नहीं, बल्कि पूरे जीवन में बनी रहती है। वे हमारे दोस्तों, मार्गदर्शकों, सलाहकारों और सबसे अच्छे साथी बनकर हमारे जीवन के हर पहलू में हमारे साथ रहते हैं। उनका आशीर्वाद और समर्थन हमें आत्मविश्वास और साहस देते हैं।

साथ ही, माता-पिता हमें सुरक्षा का अहसास दिलाते हैं और हमें अपने जीवन के फैसले लेने में मार्गदर्शन करते हैं। वे हमें अपने आत्म-सम्मान, स्वावलंबन और समाज में सकारात्मक योगदान देने के महत्त्व को समझाते हैं।

अंत में, माता-पिता का प्रेम बिना शर्त होता है, और वे हमेशा हमें सही दिशा में प्रेरित करने का प्रयास करते हैं। उनके बिना, जीवन अधूरा सा लगता है, क्योंकि उनका योगदान हमारे जीवन की सबसे मूल्यवान संपत्ति होता है।

-स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने वाले किन्हीं दो क्रांतिकारियों के जीवन-कार्य के बारे में विद्यार्थियों को बतलाएँ।

उत्तर – स्वाधीनता आंदोलन में अनेक क्रांतिकारियों ने अपनी जान की आहुति दी, जिनमें से दो प्रमुख क्रांतिकारी भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस थे।

  1. भगत सिंह: भगत सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपने साहसिक कार्यों से अंग्रेजों को हिला दिया। उनका जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था। भगत सिंह ने ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ और ‘कॉन्सपिरेसी’ के खिलाफ ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। 1929 में दिल्ली विधानसभा में बम फेंकने के बाद, उन्होंने आत्मसमर्पण किया और अंग्रेजों के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए। उनका प्रसिद्ध नारा “इंकलाब जिंदाबाद” आज भी हर भारतवासी के दिल में गूंजता है। भगत सिंह को 1931 में फांसी दी गई, लेकिन उनकी शहादत ने स्वतंत्रता संग्राम में नई ऊर्जा का संचार किया।
  2. सुभाष चंद्र बोस: सुभाष चंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रमुख नेता थे, जिन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व से अलग होकर स्वतंत्रता संग्राम को और तीव्र किया। उनका जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ था। बोस ने ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन किया और जापान, जर्मनी जैसे देशों से सहयोग लेकर भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लड़ा। उनका प्रसिद्ध उद्घोष “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा” भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरणास्त्रोत के रूप में जाना जाता है। सुभाष चंद्र बोस का जीवन देशभक्ति और संघर्ष का प्रतीक बन गया, और उनका योगदान भारतीय इतिहास में अमर रहेगा।

इन दोनों क्रांतिकारियों ने अपने अदम्य साहस, संघर्ष और बलिदान से भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया।

 

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