शेखर जोशी का जन्म 10 सितंबर 1932 को अल्मोड़ा (उत्तरांचल) के ओलियागांव नामक स्थान पर हुआ। आपने केकड़ी एवं अजमेर में स्कूली शिक्षा प्राप्त की। लगभग तीस वर्षों तक इलाहाबाद के निकट एक सैनिक औद्योगिक प्रतिष्ठान में कार्यरत रहने के बाद आप स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। आपके चर्चित कहानीसंग्रह हैं ‘कोसी का घटवार’,’साथ के लोग’,’दाज्यू’,’हलवाहा’ एवं ‘नौरंगी बीमार है’। आपकी आदमी और कीड़े कहानी को 1955 में धर्मयुग द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। नई कहानी आंदोलन के चर्चित कथाकार ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी पुरस्कार’ और ‘पहल’सम्मान से सम्मानित।
दाज्यू कहानी बाल-श्रमिक पर लिखी गयी कहानी है। मदन एक पहाड़ी बालक है, जो पेट की आग बुझाने के लिए शहर में आकर एक होटल में काम करता है। भोलेपन में जिसे वह अपना ‘दाज्यू’अर्थात् बड़ा भाई समझने लगता है, वही किस प्रकार एक दिन उसके बाल मन पर आघात कर जाता है, इसका मार्मिक चित्रण इस कहानी में हुआ है।
दाज्यू
चौक से निकल कर बायीं ओर जो बड़े साइनबोर्डवाला छोटा कैफे है, वहीं जगदीशबाबू ने उसे पहली बार देखा था। गोरा चिट्टा रंग, नीली शफ्फ़ाफ़ आँखें, सुनहरे बाल और चाल में एक अनोखी मस्ती – पर शिथिलता नहीं। कमल के पत्ते पर फिसलती हुई पानी की बूँद की सी फुर्ती। आँखों की चंचलता देखकर उसकी उम्र का अनुमान केवल नौ-दस वर्ष ही लगाया जा सकता था और शायद यही उम्र उसकी रही होगी।
अधजली सिगरेट का एक लम्बा कश खींचते हुए जब जगदीशबाबू ने कैफे में प्रवेश किया तो वह एक मेज पर से प्लेटें उठा रहा था और जब वे पास ही कोने की टेबल पर बैठे तो वह सामने था। मानो, घंटों से उनकी, उस स्थान पर आनेवाले व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हो। वह कुछ बोला नहीं। हाँ, नम्रता प्रदर्शन के लिए थोड़ा झुका और मुस्कुराया भर था, पर उसके इसी मौन में जैसे सारा ‘मीनू’ समाहित था।‘सिंगल चाय’का आर्डर पाने पर वह एक बार पुनः मुस्करा कर चल दिया और पलक झपकते ही चाय हाज़िर थी।
मनुष्य की भावनाएँ बड़ी विचित्र होती है। निर्जन, एकांत स्थान में निस्संग होने पर भी कभी-कभी आदमी एकाकी अनुभव नहीं करता। लगता है, इस एकाकीपन में भी सब कुछ कितना निकट है, कितना अपना है। परंतु इसके विपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर-नारियों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति होती है। लगता है, जो कुछ है वह पराया है, कितना अपनत्वहीन ! पर यह अकारण ही नहीं होता। इस एकाकीपन की अनुभूति, इस अलगाव की जड़ें होती हैं- विछोह या विरक्ति की किसी कथा के मूल में।
जगदीशबाबू दूर देश से आये हैं, अकेले हैं। चौक की चहल-पहल कैफ़े के शोरगुल में उन्हें लगता है, सब कुछ अपनत्वहीन है। शायद कुछ दिनों रहकर, अभ्यस्त हो जाने पर उन्हें इसी वातावरण में अपनेपन की अनुभूति होने लगे, पर आज तो लगता है यह अपना नहीं अपनेपन की सीमा से दूर, कितना दूर है, और तब उन्हें अनायास ही याद आने लगते हैं, अपने गाँव पड़ोस के आदमी, स्कूल-कालेज के छोकरे, अपने निकट शहर के कैफे होटल…।
“चाय साब !”
जगदीशबाबू ने राखदानी में सिगरेट झाड़ी। उन्हें लगा, इन शब्दों की ध्वनि में वही कुछ है जिसकी रिक्तता उन्हें अनुभव हो रही है और उन्होंने अपनी शंका का समाधान कर लिया-
‘क्या नाम है तुम्हारा?”
‘मदन।’
‘अच्छा, मदन! तुम कहाँ के रहनेवाले हो?’
‘पहाड़ का हूँ, बाबूजी!’
पहाड़ तो सैकड़ों है- आबू, दार्जिलिंग, मसूरी, शिमला, अल्मोड़ा! तुम्हारा गाँव किस पहाड़ में है?’
इस बार शायद उसे पहाड़ और जिले का भेद मालूम हो गया। मुस्करा कर बोला-
“अल्मोड़ा सा’ब अल्मोड़ा।”
“अल्मोड़ा मैं कौन – सा गाँव है?”विशेष जानने की गरज से जगदीशबाबू ने पूछा।
इस प्रश्न ने उसे संकोच में डाल दिया। शायद अपने गाँव की निराली संज्ञा के कारण उसे संकोच हुआ था। इस कारण टालता हुआ सा बोला, वह तो दूर है सा’ब अल्मोड़ा से पंद्रह-बीस मील होगा।’
“फिर भी नाम तो कुछ होगा ही।” जगदीशबाबू ने जोर देकर पूछा।
‘डोट्यालगों’ वह सकुचाता हुआ सा बोला।
जगदीशबाबू के चेहरे पर पुती हुए एकाकीपन की स्याही दूर हो गयीं और जब उन्होंने मुस्करा कर मदन को बताया कि वे भी उसके निकटवर्ती गाँव के रहनेवाले हैं तो लगा जैसे प्रसन्नता के कारण अभी मदन के हाथ से ‘ट्रे’ गिर पड़ेगी। उसके मुँह से शब्द निकलना चाह कर भी न निकल सके। खोया-खोया सा वह अपने अतीत को फिर लौट लौट कर देखने का प्रयत्न कर रहा हो।
अतीत-गाँव… ऊँची पहाड़ियाँ… नदी… ईजा (माँ)…बाबा… दीदी… भुलि (छोटी बहन)… दाज्यू (बड़ा भाई)… ! मदन को जगदीशबाबू के रूप में किसकी छाया निकट जान पड़ी! ईजा?- नहीं, बाबा? नहीं, दीदी, … भुलि? नहीं, दाज्यू? हाँ, दाज्यू !
दो-चार ही दिनों में मदन और जगदीशबाबू के बीच की अजनबीपन की खाई दूर हो गयी। टेबल पर बैठते ही मदन का स्वर सुनाई देता-
‘दाज्यू, जैहिन्न…।’
‘दाज्यू, आज तो ठंड बहुत है।’
‘दाज्यू, क्या यहाँ भी ‘ह्यू’ (हिम) पड़ेगा?’
‘दाज्यू, आपने तो कल बहुत थोड़ा खाना खाया।’ तभी किसी ओर से ‘बॉय’ की आवाज़ पड़ती और मदन उस आवाज़ की प्रतिध्वनि के पहुँचने से पहले ही वहाँ पहुँच जाता! आर्डर लेकर फिर जाते जाते जगदीशबाबू से पूछता, दाज्यू, कोई चीज?”
‘पानी लाओ।’
‘लाया दाज्यू’ शब्द को उतनी ही आतुरता और लगन से दुहराता जितनी आतुरता से बहुत दिनों के बाद मिलने पर भी माँ अपने बेटे को चूमती है।
कुछ दिनों बाद जगदीशबाबू का एकाकीपन दूर हो गया। उन्हें अब चौक, कैफे ही नहीं सारा शहर अपनेपन के रंग में रंगा हुआ सा लगने लगा परंतु अब उन्हें यह बार- बार ‘दाज्यू’ कहलाना अच्छा नहीं लगता और यह मदन था कि दूसरी टेबल से भी ‘दाज्यू’…।
‘मदन! इधर आओ।’
‘आया दाज्यू !’
‘दाज्यू’ शब्द की आवृत्ति पर जगदीशबाबू के मध्यमवर्गीय संस्कार जाग उठे अपनत्व की पतली डोरी ‘अहं’ की तेज धार के आगे न टिक सकी।
‘दाज्यू’, चाय लाऊँ?”
“चाय नहीं, लेकिन यह दाज्यू- दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो दिन रात किसी की प्रेस्टिज का ख्याल भी नहीं है तुम्हें?”
जगदीशबाबू का मुँह क्रोध के कारण तमतमा गया, शब्दों पर अधिकार नहीं रह सका। मदन ‘प्रेस्टिज’ का अर्थ समझ सकेगा या नहीं, यह भी उन्हें ध्यान नहीं रहा, पर मदन बिना समझाये ही सब कुछ समझ गया था। मदन को जगदीशबाबू के व्यवहार से गहरी चोट लगी। मैनेजर से सिरदर्द का बहाना कर वह घुटनों में सर दे कोठरी में सिसकियाँ भर-भर रोता रहा। घर-गाँव से दूर ऐसी परिस्थिति में मदन का जगदीशबाबू के प्रति आत्मीयता प्रदर्शन स्वाभाविक ही था। इसी कारण आज प्रवासी जीवन में पहली बार उसे लगा जैसे किसी ने उसे ईजा की गोदीं से, बाबा की बाँहों के और दीदी के आँचल की छाया से बलपूर्वक खींच लिया हो परंतु भावुकता स्थायी नहीं हो तो रो लेने पर अंतर की घुमड़ती वेदना की आँखों की राह बाहर निकाल लेने पर मनुष्य जो भी निश्चय करता है वे भावुक क्षणों की अपेक्षा अधिक विवेकपूर्ण होते हैं।
मदन पूर्ववत् काम करने लगा।
दूसरे दिन कैफे जाते हुए अचानक ही जगदीशबाबू की भेंट बचपन के सहपाठी हेमंत से हो गयी। कैफे में पहुँच कर जगदीशबाबू ने इशारे से मदन को बुलाया परंतु उन्हें लगा जैसे वह उनसे दूर-दूर रहने का प्रयत्न कर रहा हो। दूसरी बार बुलाने पर ही मदन आया। आज उसके मुँह पर वह मुस्कान न थी और न ही उसने ‘क्या लाऊँ दाज्यू’ कहा। स्वयं जगदीशबाबू को ही कहना पड़ा, ‘दो चाय, दो ऑमलेट’ परंतु तब भी ‘लाया दाज्यू’ कहने की अपेक्षा ‘लाया साब’ कहकर वह चल दिया। मानों दोनों अपरिचित हों।
‘शायद पहाड़िया है?’ हेमंत ने अनुमान लगाकर पूछा।
‘हाँ’, रूखा-सा उत्तर दे दिया जगदीशबाबू ने और वार्तालाप का विषय ही बदल दिया।
मदन चाय ले आया था।
‘क्या नाम है तुम्हारा लड़के?”हेमन्त ने अहसान चढ़ाने की गरज से पूछा।
कुछ क्षणों के लिए टेबुल पर गंभीर मौन छा गया। जगदीशबाबू की आँखें चाय की प्याली पर ही झुकी रह गयीं। मदन की आँखों के सामने विगत स्मृतियाँ घूमने लगीं… जगदीशबाबू का एक दिन ऐसे ही नाम पूछना … फिर… दाज्यू आपने तो कल थोड़ा ही खाया और एक दिन किसी की प्रेस्टिज का ख्याल नहीं रहता तुम्हें… ‘ जगदीशबाबू ने आँखें उठाकर मदन की ओर देखा, उन्हें लगा जैसे अभी वह ज्वालामुखीं सा फूट पड़ेगा। हेमंत ने आग्रह के स्वर में दुहराया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?”
बॉय कहते हैं सा’ब मुझे। संक्षिप्त सा उत्तर देकर वह मुड़ गया। आवेश में उसका चेहरा लाल होकर और भी अधिक सुंदर हो गया था।
शक्काफ – उजली
मीनू – व्यंजन सूची
निस्संग – अकेला
जनश्दमय – शोरगुलयुक्त
हिम – बर्फ
ह्यू – बर्फ
अहं – घमंड
प्रेस्टिज – इज्जत
वेदना – पीड़ा
1. सही विकल्प चुनकर उत्तर लिखिए :-
(1) मदन का गाँव किस पहाड़ी क्षेत्र में था?
(अ) मसूरी
(ब) शिमला
(क) दार्जिलिंग
(ड) अल्मोड़ा
उत्तर – (ड) अल्मोड़ा
(2) कहानी के अंत में नए ग्राहक हेमंत को मदन ने अपना नाम क्या बताया?
(क) बॉय
(ब) पहाड़ो
(अ) मदन
(ड) बेयश
उत्तर – (क) बॉय
2. प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर दीजिए :-
(1) मदन का गाँव किस पहाड़ी क्षेत्र में था?
उत्तर – मदन का गाँव ‘डोट्यालगों’ अल्मोड़ा से पंद्रह-बीस मील दूर पहाड़ी क्षेत्र में था।
(2) नए ग्राहक हेमंत को मदन ने अपना नाम क्या बताया?
उत्तर – नए ग्राहक हेमंत को मदन ने अपना नाम ‘बॉय’ बताया।
(3) जगदीशबाबू के व्यवहार से मदन को चोट क्यों लगी?
उत्तर – जगदीशबाबू में मदन को अपने बड़े भाई की झलक मिलती थी इसलिए वह उनसे अपनेपन की भावना से बात-व्यवहार करता था। परंतु एक दिन जगदीशबाबू ने अति क्रोध में उसे यह एहसास दिला दिया कि वह एक मामूली नौकर के सिवा और कुछ भी नहीं है। इसलिए मदन को बहुत बुरा लगा।
3. प्रश्नों के सविस्तार उत्तर दीजिए :-
(1) जगदीशबाबू को पहले पहले नए शहर आकर कैसा लगता था?
उत्तर – जगदीशबाबू अपने गाँव से पहले-पहले नए शहर आए तो उन्हें भीड़ में भी अजनबी होने का बोध होता था। गाँव का मिलनसार वातावरण शहर के एकाकी जीवन से बिलकुल भिन्न था। ऊपर से वे अकेले रहते थे। इस तरह जगदीशबाबू शहर में आकर अकेलेपन का शिकार हो गए थे।
(2) प्रारंभ में जगदीशबाबू का व्यवहार मदन के प्रति कैसा था?
उत्तर – प्रारंभ में जगदीशबाबू का व्यवहार मदन के प्रति आत्मीयपूर्ण था। वह उसे अपने छोटे भाई की तरह स्नेह देते थे और मदन भी उन्हें बड़े भाई की तरह सम्मान दिया करता था। मदन से मिलकर जगदीशबाबू को ऐसा लगने लगा था कि उनका एकाकीपन कुछ हद तक कम हो गया है।
(3) जगदीशबाबू ने मदन को ‘दाज्यू’ कहने पर क्यों डाँटा?
उत्तर – जगदीशबाबू ने मदन को ‘दाज्यू’ कहने पर डाँटा क्योंकि मदन जब-तब उन्हें ‘दाज्यू’ कहकर पुकारा करता था। इस पर एक दिन जगदीशबाबू को अपने सामाजिक स्तर का भान हो आया और उन्हें लगा कि आखिर मदन है ही क्या एक कैफे में काम करने वाला मामूली-सा नौकर और उसकी इतनी हिम्मत कि सबके सामने मुझे ‘दाज्यू’ कहकर बुलाए। फिर एक दिन उन्होंने मदन को डाँट लगाते हुए कहा कि क्या तुम जब देखो तब दाज्यु कहकर मुझे पुकारते हो। तुम्हें मेरी प्रेस्टीज़ का कोई भी ख्याल नहीं।
(4) ‘दाज्यू’ कहानी में बाल-मन की संवेदना का मार्मिक चित्रण हुआ है- समझाइए।
उत्तर – ‘दाज्यू’ कहानी में बाल-मन की संवेदना का मार्मिक चित्रण हुआ है। पहाड़ी लड़का मदन कैफे में जगदीशबाबू से जब मिलता है और दोनों की जान-पहचान से यह पता चलता है कि वे आस-पास के गाँव के ही हैं तो उनके संबंधों में प्रगाढ़ता बढ़ जाती है। मदन उन्हें अपना बड़ा भाई मानते हुए ‘दाज्यु’ कहकर पुकारने लगता है और जगदीशबाबू भी उससे स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं। फिर एक दिन जगदीशबाबू को अपने सामाजिक स्तर का ख्याल हो आता है और वे मदन को उन्हें यदा-कदा ‘दाज्यु’ कहने पर खूब डाँट लगाते हुए कहते हैं कि तुम्हें मेरी ‘प्रेस्टीज़’ का कुछ भी ख्याल नहीं। इस पर मदन बहुत दुखी होता है। वह घुटनों में सिर डालकर खूब रोता है। उसके बाल-मन पर इस घटना का इतना गहरा असर पड़ता है कि उसके चेहरे पर प्रौढ़ता आ जाती है। वह पल भर में समझदार बन जाता है। और कैफे में आए नए व्यक्ति हेमंत को अपना नाम ‘बॉय’ कहता है।
गाँव की मुलाकात कीजिए और गाँव के मानवीय संबंधों को समझाइए।
उत्तर – गाँव के लोगों के मानवीय संबंध
भूमिका
गाँव भारतीय समाज की आत्मा हैं, जहाँ मानवीय संबंधों की गहराई और मिठास शहरों की तुलना में अधिक देखी जाती है। गाँवों में लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागी होते हैं, जिससे उनमें आत्मीयता, सहयोग और प्रेम का भाव बना रहता है। पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर गाँव के लोग एक मजबूत मानवीय संबंध स्थापित करते हैं।
गाँव के लोगों के संबंधों की विशेषताएँ –
आपसी सहयोग और सद्भाव –
गाँवों में परस्पर सहयोग और सद्भाव की भावना गहरी होती है। खेतों में काम करना हो, किसी के घर शादी या कोई अन्य आयोजन हो, गाँव के लोग एक-दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते हैं।
सामूहिकता और एकता –
गाँवों में लोग एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं। त्योहार, मेले और सामाजिक उत्सव पूरे गाँव के लिए सामूहिक आयोजन बन जाते हैं। यह एकता समाज को मजबूत बनाती है।
सुख-दुख में साझेदारी –
जब किसी गाँववाले पर कोई संकट आता है, तो पूरा गाँव उसका सहारा बनता है। बीमारी, विवाह, मृत्यु या किसी भी कठिनाई के समय गाँववाले एक परिवार की तरह साथ खड़े होते हैं।
बड़ों का सम्मान और परंपराओं का निर्वाह –
गाँवों में बुजुर्गों का विशेष सम्मान किया जाता है। युवा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं और उनसे जीवन के मूल्यों की शिक्षा ग्रहण करते हैं। परंपराओं और रीति-रिवाजों को महत्व दिया जाता है, जिससे संस्कृति संरक्षित रहती है।
आर्थिक और सामाजिक सहयोग –
गाँवों में जरूरतमंदों की सहायता के लिए लोग आर्थिक सहयोग भी करते हैं। चाहे किसी की फसल खराब हो जाए या किसी को धन की आवश्यकता हो, गाँववाले सहायता के लिए आगे आते हैं।
सामाजिक न्याय और पंचायती व्यवस्था –
गाँवों में छोटे-मोटे विवादों का समाधान पंचायत के माध्यम से किया जाता है। इससे आपसी मतभेद कम होते हैं और संबंधों में कटुता नहीं आती।
निष्कर्ष
गाँवों में लोगों के बीच आत्मीयता, सहयोग और पारिवारिक भावनाएँ गहरी होती हैं। ये संबंध समाज की नींव को मजबूत बनाते हैं और सामूहिक जीवन का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। बदलते समय के साथ भले ही आधुनिकता का प्रभाव बढ़ रहा हो, लेकिन गाँवों की यह मानवीयता और अपनापन आज भी लोगों के जीवन का अभिन्न अंग है।
परिश्रम का महत्त्व निबंध लिखिए।
उत्तर – परिश्रम का महत्व
भूमिका
मनुष्य के जीवन में परिश्रम का बहुत बड़ा महत्व है। बिना मेहनत के कोई भी व्यक्ति सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। परिश्रम वह सोने की कुंजी है, जो हर असंभव कार्य को संभव बना सकती है। यह एक ऐसा गुण है, जो व्यक्ति को आत्मनिर्भर, सफल और समाज में सम्माननीय बनाता है।
परिश्रम का अर्थ और आवश्यकता
परिश्रम का अर्थ होता है कठिन परिश्रम करना और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहना। यह केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक और बौद्धिक श्रम भी हो सकता है। विद्यार्थी पढ़ाई में परिश्रम करता है, किसान खेत में मेहनत करता है, वैज्ञानिक नई खोज के लिए रात-दिन मेहनत करता है—सभी क्षेत्रों में सफलता का आधार परिश्रम ही है।
परिश्रम और सफलता का संबंध
यह सत्य है कि परिश्रम से ही सफलता प्राप्त होती है। इतिहास गवाह है कि जो व्यक्ति परिश्रम करता है, वह अवश्य ही सफलता की ऊँचाइयों को छूता है। महान वैज्ञानिक थॉमस एडीसन, जिन्होंने बल्ब का आविष्कार किया, उन्होंने हजारों असफल प्रयोगों के बावजूद हार नहीं मानी और अंततः सफलता प्राप्त की। महात्मा गांधी, अब्दुल कलाम और अन्य महान व्यक्तियों ने भी अपने जीवन में कठिन परिश्रम किया और सफलता प्राप्त की।
भाग्य और परिश्रम
कुछ लोग भाग्य को सफलता का कारण मानते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि भाग्य भी उन्हीं का साथ देता है, जो परिश्रम करते हैं। यदि कोई व्यक्ति मेहनत नहीं करता, तो भाग्य भी उसका साथ नहीं देता। कबीरदास जी ने सही कहा है—
“करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निशान॥”
अर्थात, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान बन सकता है, जैसे कुएं की रस्सी के घर्षण से पत्थर पर निशान बन जाता है।
परिश्रम के लाभ
सफलता प्राप्त होती है – परिश्रम करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।
आत्मनिर्भरता आती है – परिश्रमी व्यक्ति दूसरों पर निर्भर नहीं रहता, बल्कि अपने दम पर आगे बढ़ता है।
मान-सम्मान बढ़ता है – मेहनती व्यक्ति को समाज में हमेशा सम्मान मिलता है।
चरित्र निर्माण होता है – परिश्रम व्यक्ति को अनुशासित और आत्मविश्वासी बनाता है।
राष्ट्र की उन्नति होती है – यदि प्रत्येक नागरिक परिश्रम करे, तो देश भी प्रगति करेगा।
निष्कर्ष
परिश्रम ही जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है। जो व्यक्ति मेहनत से डरता है, वह कभी सफल नहीं हो सकता। इसीलिए हमें अपने जीवन में परिश्रम को अपनाना चाहिए और निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए। सफलता उन्हीं को मिलती है, जो परिश्रम का मूल्य समझते हैं।
बाल श्रमिकों के चित्रों का संग्रह करवाइए।
उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर करवाए।