Gujrat State Board, the Best Hindi Solutions, Class IX, Bharteey Sanskriti Me Gurushishya Sambandh, Anandshankar Madhwan, भारतीय संस्कृति में गुरुशिष्य संबंध (निबंध) आनंदशंकर माधवन

श्री आनंदशंकर माधवन का जन्म केरल प्रदेश के क्विलन जिले में हुआ। डॉ. जाकिरहुसेन के संपर्क में आने से हिन्दु-मुस्लिम के मधुर संबंधों के पक्षधर बन गए। महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में भी माधवनजी का सक्रीय सहभाग रहा। जेल में रहकर हिंदी भाषा का अध्ययन किया। जेल से छूटकर आप भारतभ्रमण को निकल पड़े और बाद में बिहार में मंदार विद्यापीठ की स्थापना की। सन् 1984 में ‘अद्वैत मिशन’ और सन् 1985 में शिवधाम अभिनव शिक्षा नगरी की स्थापना की। अब आप तीनों संस्थाओं के संचालक हैं। मलयालम तथा तमिल दोंनो ही भाषाओं पर पूर्ण अधिकार होने के बावजूद आपने हिंदी साहित्य में सृष्टि की। आपके विषयों में दार्शनिकता, आधुनिकता एवं आध्यात्मिकता का बाहुल्य हैं। ‘बिखरे हीरे’, ‘अनलशलाका’, ‘हिंदी आंदोलन’, ‘आमंत्रित मेहमान’, ‘आरती’, ‘उषा’, ‘संजीवनी’ आदि आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं। ‘आमंत्रित मेहमान’ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा पुरस्कृत है।

माधवनजी ने प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा की गरिमा को स्पष्ट करते हुए वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर परोक्ष रूप में करारा व्यंग्य किया है। हमारे समाज में व्यावसायिक संस्कृत का बोलबाला है। इस कारण गुरु-शिष्य संबंधों में परिवर्तन आया है। पहले विद्यालय मंदिर के समान माने जाते थे। शिक्षा देना एक आध्यात्मिक अनुष्ठान था। वह परम सुख प्राप्ति का एक माध्यम था। उस जमाने में पैसे देकर शिक्षा खरीदी नहीं जाती थी। क्या आज वैसी स्थिति है? क्या आज शिक्षा के क्षेत्र में वहीं निष्ठा, वहीं त्याग नजर आता है? लेखक ने हमें अंतर्मुख होकर सोचने के लिए बाध्य किया है।

भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य संबंध

हमारे समाज में व्यावसायिक संस्कृति का बोलबाला है, इसी कारण गुरु-शिष्य संबंधों में परिवर्तन आया है। पहले विद्यालय मंदिर के समान माने जाते थे। शिक्षा देना एक आध्यात्मिक अनुष्ठान था। वह परमेश्वर प्राप्ति का एक माध्यम था। पैसे देकर शिक्षा खरीदी नहीं जाती थी। आज स्थिति बिलकुल बदल गई है और अब शिक्षणकार्य पेट पालने का साधन बन गया है।

जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाना चाहिए वह आज भारतीय मानसिक क्षितिज में क्रियाशील नहीं है। आज एक प्रकार की अव्यवस्थित व्यावसायिक संस्कृति व्याप्त है जिसकी जड़ शायद यूरोप में है। भारतीयों के सार्वजनिक व्यवहार में गुरु-शिष्य संबंध का भी तद्नुरूप परिवर्तन हो गया है। यहाँ गुरु वेतनभोगी नहीं होते थे और न शिष्य को ही शुल्क देना पड़ता था। पैसे देकर विद्या खरीदने की यह क्रय-विक्रय पद्धति निस्संदेह उस भारतीय मिट्टी का उपज नहीं है। शिक्षणालय एक प्रकार के आश्रम अथवा मंदिर के समान थे। गुरु को साक्षात् परमेश्वर ही समझा जाता था। शिष्य पुत्र से अधिक प्रिय होते थे। यहाँ सम्मान मिलना ही शक्ति पाने का रहस्य है। प्राचीन काल में गुरु की शिक्षादान क्रिया उनका आध्यात्मिक अनुष्ठान था, परमेश्वरप्राप्ति उनका एक माध्यम था। वह आज पेट पालने का जरिया बन गई है।

प्रारंभ में विवेकानंद को भारत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ पर जब उन्होंने अमेरिकन नाम कमा लिया तो भारतवासी दौड़े मालाएँ लेकर स्वागत करने रवींद्रनाथ ठाकुर को भी नोबल पुरस्कार मिला तो बंगाली लोग दौड़े यह राग अलापते हुए अमादेर ठाकुर अमादेर कठोर सुपूत…। दक्षिण भारत में कुछ समय पहले तक भरतनाट्यम् और कथकली को नहीं पूछता था, पर जब उसे विदेशों में मान मिलने लगा तो आश्चर्य से भारतवासी सोचने लगे अरे, हमारी संस्कृति में इतनी अपूर्व चीजें भी पड़ी थीं क्या…। यहाँ के लोगों को अपनी खूबसूरती नहीं नजर आती; मगर पराए के सौंदर्य को देखकर मोहित हो जाते हैं। जिस देश में ज्ञान पाने के लिए मैक्समूलर ने जीवनभर प्रार्थना की उस देश के निवासी आज जर्मनी और विलायत जाना स्वर्ग जाने जैसा अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को प्राचीन गुरु-शिष्य संबंध की महिमा सुनाना गधे को गणित सिखाने जैसा व्यर्थ प्रयास ही हो सकता है।

एक बार सुप्रसिद्ध भारतीय पहलवान गामा मुंबई आए। उन्होंने विश्व के सारे पहलवानो को कुश्ती में चैलेंज दिया। अखबारों में यह समाचार प्रकाशित होते ही एक पारसी पत्रकार ने उत्सुकतावश उनके निकट पहुँचकर उनसे पूछा, ‘साहब, विश्व के किसी भी पहलवान से लड़ने के लिए आप तैयार हैं तो आप अपने अमुक शिष्य से ही लड़कर विजय प्राप्त करके दिखाओ। गामा आजकल के शिक्षाक्रम में रंगे नहीं थे। इसलिए उन्हें इन शब्दों ने हैरान कर दिया। आँखे फाड़कर उस पत्रकार का चेहरा ताकते ही रह गए। बाद में धीरे से कहा, “भाई साहब, मैं हिंदुस्तानी। हमारा अपना एक निजी रहन-सहन है। शायद इससे आप परिचित नहीं है। जिस लड़के का आपने नाम लिया, वह मेरे पसीने की कमाई, मेरा खून है और मेरे बेटे से भी अधिक प्यारा है इसमें और मुझमें फ़रक़ ही कुछ नहीं। मैं लड़ा था वह लड़ा, दोनों बराबर ही होगा। हमारी इस परंपरा को आप समझने की चेष्टा कीजिए। हम लोगों को वंशपरंपरा से शिष्य परंपरा अधिक प्रिय है। ख्याति और प्रभाव में हम सदा यह चाहते हैं कि हम अपने शिष्यों से कम प्रभावी रहें। यानी हम यही चाहेंगे कि संसार में जितना नाम मैंने कमाया उससे कहीं अधिक मेरे पिता कमाएँ। मुझे लगता है, आप हिंदुस्तानी नहीं है…।”

भारत में गुरु-शिष्य संबंध का वह भव्य रूप आज साधुओं, पहलवानों और संगीतकारों में थोड़ा बहुत ही सही पाया जाता है। भगवान रामकृष्ण बरसों योग्य शिष्य को पाने के लिए प्रयत्न करते रहे। उनके जैसे व्यक्ति को भी उत्तम शिष्य के लिए रो-रोकर प्रार्थना करनी पड़ी थी। इसे समझा जा सकता है कि एक गुरु के लिए उत्तम शिष्य कितना महँगा और महत्त्वपूर्ण है। संतान प्राप्ति वर्ग उन्हें दुख नहीं देता पर बगैर शिष्य के रहने के लिए वे एकदम तैयार नहीं होते। इस संबंध में भगवान ईसा का एक कथन सदा स्मरणीय है। उन्होंने कहा था, ‘मेरे अनुयायी लोग मुझसे कहीं अधिक महान है और उनकी जूतियाँ होने की योग्यता भी मुझमें नहीं है।’ यही बात है, गांधीजी बनने की क्षमता जिनमें है उन्हें गांधीजी अच्छे लगते हैं और वे ही उनके पीछे चलते भी हैं। विवेकानंद सिर्फ उन्हें पसंद आएँगे जिनमें विवेकानंद बनने की अद्भुत शक्ति निहित है।

कविता के मर्मज्ञ और रसिक स्वयं कवि से अधिक महान होते हैं। संगीत के पागल सुननेवाले ही स्वयं संगीतकार से अधिक संगीत का रसास्वादन करते हैं। यहाँ पूज्य नहीं, पुजारी ही श्रेष्ठ है। यहाँ सम्मान पानेवाले नहीं, सम्मान देनेवाले महान हैं। स्वयं पुष्प में कुछ नहीं है, पुष्प का सौंदर्य उसे देखनेवाले की दृष्टि में है। दुनिया में कुछ नहीं है, जो कुछ भी है हमारी चाह में, हमारी दृष्टि में है। यह अद्भुत भारतीय व्याख्या अजीब-सी लग सकती है, पर हमारे पूर्वज सदा इसी पथ के यात्री रहे हैं।

`उत्तम गुरु में जातिभावना भी नहीं रहती। कितने ही मुसलमान पहलवानों के हिंदू चेले हैं और संगीतकारों के मुसलमान शिष्य रहे हैं। यहाँ परख गुण की साधना की और प्रतिभा की होती भक्ति और श्रद्धा की ही कीमत है, न कि जातिसंप्रदाय, आचार-विचार या धर्म की। मुझे क्या लिखाया था एक विद्वान मुसलमान ने ही। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि यह हिंदू है और मुसलमान बनाना चाहिए। पुराने जमाने में मौलवी लोग बड़े-बड़े रामाणी होते थे और आज देहांतों में भरत मियाँ, रंजीत मियाँ आदि अधिक संख्या में दिखाई देते हैं।

आज के गुरु भी सिर्फ सेवा लेने में ही चतुर हैं, देने में नहीं। उपनिषदों में आचार्यों ने कहा, सेवा देने की चीज है, लेने की नहीं’। सेवा लेने के अधिकारी बच्चे, रोगी, असहाय और वृद्ध को ही है। बच्चों को परमेश्वर का ही मूर्त रूप समझना चाहिए। सेवा रूपी पूजा से उनकी शक्ति को प्रज्वलित करने की क्षमता और सहृदयता रखनेवाले ज्ञानी और तपस्वी पुरोहित आजकल के गुरु नहीं रह गए। किसी भी देवमंदिर की मूर्ति की शक्ति उतनी मात्रा तक ही संभव है जितनी मात्रा तक उसके पुजारी की भावपूजा में नैवेद्यभावना भरी रहती है।

 

व्यावसायिक – Commercial

आध्यात्मिक – Spiritual

अनुष्ठान – Organisation

संस्कृति – Culture

मानसिक – Mental

क्षितिज – पृथ्वी और आकाश के मिलने का स्थान, Horizon

अव्यवस्थित – Unorganised

व्याप्त – फैला हुआ

सार्वजनिक – सभी के लिए, Public

तद्नुरूप – उसके अनुसार

निस्संदेह – बिना संदेह के

जरिया – निमित्त, माध्यम

महत्त्वपूर्ण – ज़रूरी, Important

मैक्समूलर – एक जर्मन विद्वान

पहलवान – Wrestler

चैलेंज – चुनौती

खून – लहू, रक्त

प्रार्थना – विनती

अनुयायी – followers

अद्भुत – विलक्षण

मर्मज्ञ – मर्म/भाव को जाने वाला

प्रतिभा – Talent

सहृदयता – अपनेपन का भाव

नैवेद्यभावना – अपर्ण करने की भावना

परिवर्तन – बदलाव

सुप्रसिद्ध – सर्वश्रेष्ठ

निजी – अपना

उत्तम – श्रेष्ठ

अनुयायी – शिष्य

मुहावरे

गधे को गणित सिखाना – व्यर्थ प्रयास करना

ताकते रहना – आश्चर्य से देखते ही रहना

पसीने की कमाई – कठिन परिश्रम का फल

रंग जाना – (किसी काम में) निमग्न होना

1. प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-

(1) प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा केन्द्र कैसे थे?

उत्तर – प्राचीनकाल में भारतीय शिक्षाकेन्द्र एक प्रकार के गुरुकुल आश्रम हुआ करते थे जिसे मंदिर के समान पवित्र माना जाता था।

(2) जब रवींद्रनाथ ठाकुर को नोबल पुरस्कार मिला तब बंगाली लोग कौन-सा राग आलापने लगे?

उत्तर – जब रवींद्रनाथ ठाकुर को नोबल पुरस्कार मिला तब बंगाली लोग ‘अमादेर ठाकुर, अमादेर कठोर सपूत’ का राग अलापने लगे।

(3) भगवान रामकृष्ण बरसों तक योग्य शिक्षा पाने के लिए क्या करते थे?

उत्तर – परम गुरु रामकृष्ण परमहंस योग्य शिष्य पाने के लिए वर्षों तक रो-रोकर भगवान से प्रार्थना करते थे।

(4) भगवान ईसा का कौन-सा कथन सदा स्मरणीय है?

उत्तर – भगवान ईसा का यह कथन सदा स्मरणीय रहेगा कि – “मेरे अनुयायी मुझसे कहीं अधिक महान हैं और उनकी जूतियाँ धोने लायक योग्यता भी मुझमें नहीं है।”

(5) गांधीजी किन्हें अच्छे लगते है?

उत्तर – गांधीजी उन लोगों को अच्छे लगते हैं जिनमें गांधीजी बनने की क्षमता है और जो उनका अनुसरण करना चाहते हैं।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के विस्तार से उत्तर लिखिए :-

(1) यूरोप के प्रभाव के कारण आज गुरु-शिष्य संबंधो में क्या अंतर आया है?

उत्तर – भारत में यूरोप के प्रभाव से पहले, प्राचीन भारत में विद्या अनुष्ठान मंदिर के समान पवित्र माने जाते थे। शिक्षा प्रदान करना आध्यात्मिक कार्य हुआ करता था। गुरु को गोविंद का स्थान प्राप्त था। गुरु-शिष्य परंपरा समाज में एक मिसाल बना करती थी। पर आज यूरोप के प्रभाव के कारण भारत में शिक्षक और छात्रों के मध्य व्यावसायिक संबंध स्थापित हो गया है। शिक्षा आज के दौर का सबसे बड़ा व्यवसाय बन चुका है। शिक्षक वेतनभोगी हो गए हैं। छात्र शुल्क देकर शिक्षा प्राप्त करते हैं।

(2) पुजारी की शक्ति मूर्ति में कैसे विकसित होने लगी?

उत्तर – सबसे पहले किसी काम को पूरा करने में जो अहम भूमिका निभाता है, वह है विश्वास और अपने लक्ष्य के प्रति श्रद्धा। यह तो हम सभी जानते हैं कि पत्थर की मूर्ति जड़ होती है। परंतु उसमें चेतना डालने का काम उसे जीवंत बनाने का काम, हमारी उस मूर्ति में अडिग विश्वास और श्रद्धा ही करती है। यही काम मंदिरों में पुजारी जी किया करते थे। पुजारी की अखंड शक्ति, आस्था, विश्वास और श्रद्धा के कारण ही उस मूर्ति में दिव्य दर्शन होने लगते हैं और इस तरह से पुजारी की शक्ति मूर्ति में विकसित होने लगी।

(3) विवेकानंद और रवींद्रनाथ ठाकुर को इस देश में अधिक महत्त्व कब मिला?

उत्तर – विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। आरंभ में उन्हें भारत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ था। लेकिन वे जब अमेरिका गए और उन्होंने वहाँ नाम कमाया, तब भारतवासियों ने उन्हें सिर-आँखों पर बिठाना शुरू कर दिया किया। इसी प्रकार रवींद्रनाथ ठाकुर को भी यहाँ कोई खास प्रसिद्धि प्राप्त नहीं थी। परंतु जब उन्हें उनकी रचना ‘गीतांजलि’ के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया तब बंगालवासियों ने उनकी प्रतिभा पहचानी। वे बंगाल के नहीं, सारे देश के लिए गौरव बन गए। इस प्रकार विदेशों में सम्मानित होने पर ही विवेकानंद और रवीन्द्रनाथ ठाकुर को इस देश में महत्व मिला।

3. आशय स्पष्ट कीजिए :-

(1) सम्मान पानेवालों से सम्मान देनेवाले

उत्तर – पाठ के संदर्भ में इस पंक्ति का यह आशय है कि सम्मान पानेवालों से सम्मान देनेवाले का स्थान सदा से ऊँचा रहा है। सम्मान पाने वाला कोई एक व्यक्ति होता है जबकि उसे सम्मान देने वाले बहुत लोग होते हैं। उन बहुत लोगों की प्रशंसा और सम्मान पाकर सम्मानित व्यक्ति देश-दुनिया के लिए बेहतरीन काम करने हेतु प्रेरित होते हैं। इसलिए कहा गया है कि सम्मान पानेवालों से सम्मान देनेवाले का स्थान श्रेष्ठ है।

(2) “जो गुरु से मार खाते हैं उनका भविष्य उज्ज्वल होगा ही।”

उत्तर – इस पंक्ति का आशय यह है कि एक समय हुआ करता था जब छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल जाया करते थे। शिक्षा ग्रहण करने के दौरान उनसे काफी त्रुटियाँ हो जाया करती थीं ऐसे में गुरु उन्हें दंड दिया करते थे। इस दंड का सकारात्मक प्रभाव उन पर यह पड़ता था कि अगली बार किसी भी प्रकार की त्रुटि न करने के लिए प्रस्तुत रहते थे। और इसी तरह विविध अनुशासन में रहकर वे अपना भविष्य उज्ज्वल बनाया करते थे।

 

4. सूचना के अनुसार काल परिवर्तन कीजिए :-

(1) इसमें ओर मुझमें फ़रक ही कुछ नहीं है। (भविष्यकाल)

उत्तर – इसमें ओर मुझमें फ़रक ही कुछ नहीं होगा

(2) हम अपने शिष्यों से कम प्रमुख रहें। (पूर्ण भूतकाल)

उत्तर – हम अपने शिष्यों से कम प्रमुख थे।

(3) उपनिषदों में आचार्यों ने कहा है। (सामान्य भूतकाल)

उत्तर – उपनिषदों में आचार्यों ने कहा था।

 

5. मुहावरों का अर्थ देकर वाक्य प्रयोग कीजिए :-

ताकते रहना – पर्यटक ताज महल की सुंदरता को ताकते रह जाते हैं।

पसीने की कमाई – किसान-मजदूर अपने पसीने की कमाई खाते हैं।

रंग जाना – आजकल के बच्चे आधुनिकता के रंग में रह गए हैं।

पढ़ो हिंदी, बोलो हिंदी में और जोड़ो भारत निबंध का लेखन कीजिए।

उत्तर – पढ़ो हिंदी, बोलो हिंदी और जोड़ो भारत

भूमिका

हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की पहचान, संस्कृति और एकता का प्रतीक है। यह देश के करोड़ों लोगों की मातृभाषा होने के साथ-साथ संचार का प्रमुख माध्यम भी है। ‘पढ़ो हिंदी, बोलो हिंदी और जोड़ो भारत’ केवल एक नारा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक विरासत को मजबूत करने का संदेश है।

हिंदी का महत्त्व

हिंदी भारत की राजभाषा है और इसे संविधान द्वारा विशेष मान्यता प्राप्त है। यह भाषा विभिन्न प्रदेशों, संस्कृतियों और समुदायों को आपस में जोड़ने का कार्य करती है। हिंदी साहित्य, काव्य, सिनेमा और पत्रकारिता के माध्यम से हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है।

पढ़ो हिंदी – शिक्षा में हिंदी का योगदान

हिंदी में शिक्षा प्राप्त करना न केवल ज्ञान का विस्तार करता है, बल्कि हमारी सोच और संस्कृति को भी मजबूत करता है। यदि विद्यार्थी हिंदी में अध्ययन करें, तो वे विषयों को आसानी से समझ सकते हैं और अपने विचारों को प्रभावी ढंग से व्यक्त कर सकते हैं। हिंदी शिक्षा हमें अपनी जड़ों से जोड़ने में मदद करती है।

बोलो हिंदी – संवाद की भाषा

हिंदी आम जनमानस की भाषा है। यदि हम हिंदी में बातचीत करें, तो विचारों का आदान-प्रदान सरल और प्रभावशाली बनता है। कई बार अंग्रेज़ी भाषा को प्राथमिकता देने के कारण हिंदी को उपेक्षित कर दिया जाता है, लेकिन हमें हिंदी के महत्त्व को समझकर इसे अपने दैनिक जीवन में अधिकाधिक अपनाना चाहिए।

जोड़ो भारत – राष्ट्रीय एकता का प्रतीक

हिंदी भाषा विभिन्न राज्यों और समुदायों के बीच सेतु का कार्य करती है। यह देश के कोने-कोने में रहने वाले लोगों को एक-दूसरे से जोड़ती है। यदि पूरे देश में हिंदी को समान रूप से अपनाया जाए, तो यह राष्ट्रीय एकता और भाईचारे को और अधिक मजबूत बना सकती है।

निष्कर्ष

“पढ़ो हिंदी, बोलो हिंदी और जोड़ो भारत” का उद्देश्य केवल हिंदी का प्रचार-प्रसार करना नहीं, बल्कि पूरे देश को एक सूत्र में पिरोना है। हमें हिंदी को अपने जीवन में अधिक महत्त्व देना चाहिए और इसे सम्मानपूर्वक अपनाना चाहिए, ताकि हमारी सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ बनी रहे।

पढ़ो हिंदी, बोलो हिंदी में और जोड़ो भारत निबंध का लेखन कीजिए।

उत्तर – पढ़ो हिंदी, बोलो हिंदी और जोड़ो भारत

भूमिका

हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की पहचान, संस्कृति और एकता का प्रतीक है। यह देश के करोड़ों लोगों की मातृभाषा होने के साथ-साथ संचार का प्रमुख माध्यम भी है। ‘पढ़ो हिंदी, बोलो हिंदी और जोड़ो भारत’ केवल एक नारा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक विरासत को मजबूत करने का संदेश है।

हिंदी का महत्त्व

हिंदी भारत की राजभाषा है और इसे संविधान द्वारा विशेष मान्यता प्राप्त है। यह भाषा विभिन्न प्रदेशों, संस्कृतियों और समुदायों को आपस में जोड़ने का कार्य करती है। हिंदी साहित्य, काव्य, सिनेमा और पत्रकारिता के माध्यम से हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है।

पढ़ो हिंदी – शिक्षा में हिंदी का योगदान

हिंदी में शिक्षा प्राप्त करना न केवल ज्ञान का विस्तार करता है, बल्कि हमारी सोच और संस्कृति को भी मजबूत करता है। यदि विद्यार्थी हिंदी में अध्ययन करें, तो वे विषयों को आसानी से समझ सकते हैं और अपने विचारों को प्रभावी ढंग से व्यक्त कर सकते हैं। हिंदी शिक्षा हमें अपनी जड़ों से जोड़ने में मदद करती है।

बोलो हिंदी – संवाद की भाषा

हिंदी आम जनमानस की भाषा है। यदि हम हिंदी में बातचीत करें, तो विचारों का आदान-प्रदान सरल और प्रभावशाली बनता है। कई बार अंग्रेज़ी भाषा को प्राथमिकता देने के कारण हिंदी को उपेक्षित कर दिया जाता है, लेकिन हमें हिंदी के महत्त्व को समझकर इसे अपने दैनिक जीवन में अधिकाधिक अपनाना चाहिए।

जोड़ो भारत – राष्ट्रीय एकता का प्रतीक

हिंदी भाषा विभिन्न राज्यों और समुदायों के बीच सेतु का कार्य करती है। यह देश के कोने-कोने में रहने वाले लोगों को एक-दूसरे से जोड़ती है। यदि पूरे देश में हिंदी को समान रूप से अपनाया जाए, तो यह राष्ट्रीय एकता और भाईचारे को और अधिक मजबूत बना सकती है।

निष्कर्ष

“पढ़ो हिंदी, बोलो हिंदी और जोड़ो भारत” का उद्देश्य केवल हिंदी का प्रचार-प्रसार करना नहीं, बल्कि पूरे देश को एक सूत्र में पिरोना है। हमें हिंदी को अपने जीवन में अधिक महत्त्व देना चाहिए और इसे सम्मानपूर्वक अपनाना चाहिए, ताकि हमारी सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ बनी रहे।

(1) ‘गुरु-शिष्य संबंध’ कल और आज

उत्तर – गुरु-शिष्य संबंध: कल और आज

भूमिका

गुरु-शिष्य संबंध भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। यह केवल ज्ञान प्रदान करने का संबंध नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक मार्गदर्शन का भी आधार है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक इस संबंध में कई बदलाव आए हैं, लेकिन इसका महत्त्व आज भी बना हुआ है।

गुरु-शिष्य संबंध: प्राचीन काल में –

गुरुकुल परंपरा – प्राचीन भारत में शिष्य गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। वे केवल शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं, बल्कि जीवन के उच्च आदर्शों को भी अपनाते थे।

पूर्ण समर्पण और श्रद्धा – शिष्य अपने गुरु की सेवा और आज्ञा का पालन पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा के साथ करते थे। गुरु भी अपने शिष्य को अपने पुत्र की तरह मानते थे।

व्यावहारिक शिक्षा – केवल ग्रंथों का अध्ययन नहीं, बल्कि शारीरिक, मानसिक और नैतिक शिक्षा पर भी जोर दिया जाता था।

गुरु दक्षिणा – शिक्षा पूर्ण होने के बाद शिष्य अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार गुरु को दक्षिणा अर्पित करता था।

 

गुरु-शिष्य संबंध: आधुनिक काल में –

विद्यालय और विश्वविद्यालय प्रणाली – अब शिक्षा संस्थानों में औपचारिक शिक्षा दी जाती है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध अधिकतर कक्षा तक ही सीमित रह गया है।

व्यावसायिकता का प्रभाव – पहले शिक्षा निःस्वार्थ भाव से दी जाती थी, लेकिन आज यह अधिकतर एक व्यवसाय बन चुकी है।

तकनीकी विकास – आज शिक्षा डिजिटल प्लेटफॉर्म, ऑनलाइन कक्षाओं और इंटरनेट के माध्यम से भी दी जा रही है, जिससे गुरु-शिष्य का सीधा संबंध कम होता जा रहा है।

आदर और अनुशासन में बदलाव – पहले गुरु को अत्यधिक सम्मान दिया जाता था परंतु आज यह भावना कुछ हद तक कम हो गई है।

गुरु-शिष्य संबंध में बदलाव के कारण

तकनीकी विकास और डिजिटल शिक्षा

शिक्षा का व्यावसायीकरण

सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव

प्रतिस्पर्धात्मक माहौल और व्यक्तिगत स्वतंत्रता

निष्कर्ष

गुरु-शिष्य संबंध समय के साथ बदल गया है, लेकिन इसकी महत्ता आज भी बनी हुई है। भले ही आधुनिक शिक्षा प्रणाली तकनीकी और व्यावसायिक बन गई हो, लेकिन एक अच्छे शिक्षक का मार्गदर्शन आज भी किसी भी विद्यार्थी के लिए अनमोल होता है। यदि शिक्षकों और छात्रों के बीच आदर, अनुशासन और ज्ञान की परंपरा बनी रहे, तो यह संबंध आज भी उतना ही प्रभावशाली हो सकता है जितना प्राचीन काल में था।

(2) वर्तमान शिक्षा में अनुशासन का महत्त्व

उत्तर – वर्तमान शिक्षा में अनुशासन का महत्त्व

भूमिका

शिक्षा केवल ज्ञान अर्जन का माध्यम नहीं, बल्कि व्यक्ति के संपूर्ण विकास का आधार भी है। शिक्षा का उद्देश्य केवल विषयों का ज्ञान देना नहीं, बल्कि विद्यार्थियों में अनुशासन, नैतिकता और आत्मनियंत्रण विकसित करना भी है। अनुशासन वह मूलभूत तत्व है, जो किसी भी छात्र को सफलता की ओर अग्रसर करता है और उसे एक सुसंस्कृत नागरिक बनने में मदद करता है।

अनुशासन का अर्थ और इसकी आवश्यकता –

अनुशासन का अर्थ है—नियमों का पालन करना, आत्मनियंत्रण रखना और समय प्रबंधन के साथ कार्य करना। यह शिक्षा में अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि बिना अनुशासन के न तो शिक्षा प्राप्त की जा सकती है और न ही जीवन में सफलता हासिल की जा सकती है।

शिक्षा में अनुशासन का महत्त्व –

सफल अध्ययन में सहायता – अनुशासनप्रिय विद्यार्थी पढ़ाई में ध्यान केंद्रित कर पाते हैं और अपनी शिक्षा को सुचारू रूप से आगे बढ़ा सकते हैं।

चरित्र निर्माण – अनुशासन छात्रों को नैतिकता, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का पाठ सिखाता है, जिससे उनका व्यक्तित्व निखरता है।

समय प्रबंधन – अनुशासन से विद्यार्थी समय का सही उपयोग करना सीखते हैं, जिससे वे अपने कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से पूरा कर पाते हैं।

प्रतिस्पर्धा में सफलता – आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में अनुशासन ही सफलता की कुंजी है। जो विद्यार्थी अनुशासित होते हैं, वे कठिन परिस्थितियों में भी बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं।

शिक्षकों और सहपाठियों के प्रति सम्मान – अनुशासन विद्यार्थियों को अपने शिक्षकों और सहपाठियों का सम्मान करना सिखाता है, जिससे शैक्षिक माहौल बेहतर बनता है।

जीवन में अनुशासन का स्थायी प्रभाव – विद्यालय में सीखा गया अनुशासन जीवनभर व्यक्ति के व्यवहार और कार्यशैली को प्रभावित करता है।

वर्तमान समय में अनुशासन की चुनौतियाँ

डिजिटल शिक्षा और अनुशासनहीनता – ऑनलाइन कक्षाओं और मोबाइल फोन के अधिक प्रयोग से विद्यार्थियों में अनुशासन की कमी देखी जा रही है।

अनुशासन के प्रति लापरवाही – आधुनिक शिक्षा प्रणाली में अनुशासन पर कम ध्यान दिया जा रहा है, जिससे छात्रों में जिम्मेदारी की भावना कम हो रही है।

पारिवारिक और सामाजिक प्रभाव – परिवार और समाज में अनुशासन की कमी का असर भी विद्यार्थियों के व्यवहार पर पड़ता है।

अनुशासन बनाए रखने के उपाय –

विद्यालयों में अनुशासन संबंधी नियमों को सख्ती से लागू करना।

माता-पिता और शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा देना।

अनुशासन को एक दंड न मानकर एक आदत के रूप में विकसित करना।

डिजिटल माध्यमों का संतुलित और अनुशासित उपयोग करना।

निष्कर्ष

वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अनुशासन का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि यह विद्यार्थियों को एक सफल और सशक्त नागरिक बनने में सहायता करता है। अनुशासनहीनता केवल शिक्षा ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए घातक हो सकती है। इसलिए, प्रत्येक विद्यार्थी को अनुशासन को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहिए, ताकि वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें और राष्ट्र के विकास में योगदान दे सकें।

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