(जन्म: 1532 ई. : निधनः सन् 1623 ई.)
भक्त चूड़ामणि, लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास हिंदी के शीर्ष कवि के रूप में ख्यात हैं। आपका जन्मस्थान – राजपुर, जिला बाँदा (उत्तर प्रदेश) माना गया है। आपके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। बाल्यावस्था में आपको माता- पिता का सुख प्राप्त नहीं हुआ। बाबा नरहरिदास ने आपको अपने पास रखा। इन्हीं के साथ गोस्वामीजी ने वर्षों तक काशी, अयोध्या और चित्रकूट में रहकर वेद, वेदांग, इतिहास पुराण, दर्शन का गहन अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त किया। बाबा नरहरिदास ने ही राम- नाम की दीक्षा दी थी। कहते हैं कि पत्नी रत्नावली की भर्त्सना के बाद आप रामभक्ति की ओर उन्मुख हुए। बाद में तो आप राम के परम भक्त बन गए। आपकी रचनाओं का संबंध प्रधान रूप में राम से है। वज्र और अवधी दोनों भाषाओं में आपने काव्य रचे हैं। अपने समय की प्रचलित प्रधान काव्यशैलियों में आपने रामसाहित्य का सृजन किया है। इस नाते तुलसी को अपने समय का प्रतिनिधि कवि भी कहा गया है. ‘रामचरित मानस’ आपका श्रेष्ठ ग्रंथ है। भारत की जनता में राम को ईश्वर रूप में जो मान्यता प्राप्त है, उसका श्रेय तुलसी को ही दिया जा सकता है। ‘रामचरित मानस को धर्मग्रंथ भी माना जाता है। ‘रामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘कवितावली’, ‘गीतावली’, ‘दोहावली’, ‘श्रीकृष्ण गीतावली’, ‘बरवै रामायण’, ‘जानकी मंगल’, ‘पार्वती मंगल’, ‘रामाज्ञा प्रश्नावली’, ‘रामलला नहछू तथा ‘वैराग्यसंदीपनि’ आपकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
अहं अथवा घमंड जीवन में उत्पन्न होनेवाली अनेकानेक समस्याओं का कारण हुआ करता है। यदि व्यक्ति अपने अहं का नाश कर विनय को धारण कर सके तो वह जीवन में अनेक संकटों से बच सकता है। इन पदों में तुलसीदास ने अपने आराध्य देव राम के प्रति अपनी विनय भावना का प्रदर्शन करते हुए आराध्य को छोड़कर अन्यत्र न जाने का निश्चय व्यक्त किया है। एक भक्त की यह विनय भावना यदि आज के व्यक्ति अपने जीवन में उतार सकें तो संघर्षो की धूप में झुलसते हुए संसार के प्राणों को एक नई चेतना मिल सकती है।
तुलसी के पद
(1)
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतितपावन जग, केहि अति दीन पियारे॥
कौने देव बराई बिरदहित हठि हठि अधम उधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिदप जड़, जवन कवन सुर तारे॥
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज, सब मायाबिबस बिचारे।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु कहा अपनपौ हारे॥
(2)
तू दयालू, दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पापपुंजहारी॥
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो?
मो समान आरत नहि, आरतिहर तोसो॥
बह्म तू हौं जीव, तू ठाकुर, हौं चेरो।
तात, मात, गुरु, सखा तू सब बिधि हितु मेरो॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक मानिए जो भावें।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु ! कृपालु ! चरन-सरन पावै॥
(‘विनयपत्रिका’)
तुलसी के पद – व्याख्या सहित
(1)
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतितपावन जग, केहि अति दीन पियारे॥
कौने देव बराई बिरदहित हठि हठि अधम उधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे॥
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज, सब मायाबिबस बिचारे।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु कहा अपनपौ हारे॥
व्याख्या – यह पद श्रीराम भक्त गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित है और इसमें वे भगवान श्रीराम की शरणागति और करुणा का वर्णन कर रहे हैं। इस पद में तुलसीदास जी अपनी विनम्रता व्यक्त करते हुए प्रभु श्रीराम से प्रश्न करते हैं कि यदि मैं आपके चरणों को छोड़ दूँ, तो कहाँ जाऊँ?
तुलसीदास जी कहते हैं कि हे प्रभु! यदि मैं आपके चरणों को छोड़ दूँ, तो फिर कहाँ जाऊँ? इस संसार में और कौन है, जो पतितों को तारने वाला हो और जो दीन-दुखियों से अत्यंत स्नेह करता हो? भगवान श्रीराम ही करुणानिधान हैं, जो अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे कौन-से देवता या भगवान हैं, जो अपने श्रेष्ठ आचरण के कारण हठपूर्वक अधमों (गिरे हुए लोगों) को तारने का संकल्प करते हैं? वे आगे उदाहरण देकर बताते हैं कि भगवान श्रीराम ने गरुड़ (जटायु), मृग (मारीच), वाल्मीकि (ब्याध), अहिल्या (पाषाण बनी स्त्री), वेदहीन, अज्ञानी (यमलार्जुन, कुबेर के पुत्र नलकुबेर और मणिग्रीव नारद के शापवश गोकुल में दो अर्जुन वृक्षों के रूप में उत्पन्न हुए।) और शूद्रों (सबरी) को भी तार दिया। इसलिए, कौन-से अन्य देवता उनके समान हैं, जो इतने दयालु और कृपालु हैं? तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि देवता, दानव, मुनि, नाग और मनुष्य—सब ही माया के वश में हैं। ऐसे में जब ये सभी स्वयं ही माया के प्रभाव से बँधे हुए हैं, तो वे मुझे कैसे तार सकते हैं? अतः हे प्रभु! तुलसीदास तो आपका दास है, अब आप ही बताइए कि आप अपने इस सेवक को कैसे छोड़ सकते हैं?
विशेष –
यह पद भक्ति मार्ग की अहंकारहीनता, शरणागति और भगवान की कृपा पर संपूर्ण विश्वास को प्रकट करता है।
भगवान श्रीराम ने हमेशा नीच से नीच और पतित से पतित व्यक्ति को भी अपनाया, इसलिए सच्चे हृदय से शरण में जाने वाले को वे अवश्य स्वीकारते हैं।
भक्त को किसी अन्य देवता या शक्ति की ओर नहीं देखना चाहिए, बल्कि उसे पूर्ण निष्ठा के साथ प्रभु की शरण में रहना चाहिए।
(2)
तू दयालू, दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पापपुंजहारी॥
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो?
मो समान आरत नहि, आरतिहर तोसो॥
बह्म तू हौं जीव, तू ठाकुर, हौं चेरो।
तात, मात, गुरु, सखा तू सब बिधि हितु मेरो॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक मानिए जो भावें।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु ! कृपालु ! चरन-सरन पावै॥
व्याख्या – यह पद गोस्वामी तुलसीदास जी की प्रभु श्रीराम के प्रति शरणागतिभाव और दास्य भाव को व्यक्त करता है। इसमें वे अपनी विनम्रता प्रकट करते हुए प्रभु के समक्ष पूर्ण समर्पण की भावना प्रकट कर रहे हैं।
तुलसीदास जी प्रभु श्रीराम से कहते हैं – “हे प्रभु! आप दयालु हैं और मैं अत्यंत दीन-हीन हूँ। आप दान देने वाले हैं, और मैं आपसे भिक्षा माँगने वाला भिखारी हूँ।” वे आगे कहते हैं – “मैं तो संसार में पापी के रूप में प्रसिद्ध हूँ, लेकिन आप पापों का नाश करने वाले हैं।” यहाँ तुलसीदास जी अपनी शरणागत भक्ति व्यक्त कर रहे हैं और बता रहे हैं कि प्रभु की शरण में जाने से सभी पाप मिट जाते हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं – “हे नाथ! आप अनाथों के नाथ (रक्षक) हैं, लेकिन मुझसे बड़ा अनाथ और कोई नहीं है।”, “मेरे समान दुखी और कोई नहीं है, और आपके समान दुखियों का उद्धार करने वाला भी कोई नहीं है।” यहाँ वे प्रभु श्रीराम की दीनदयालुता और भक्तवत्सलता का वर्णन कर रहे हैं कि श्रीराम सदा अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और दुखियों का दुख हरते हैं।
तुलसीदास जी पुनः श्रीराम के गुणों का बखान करते हुए कहते हैं कि – “हे प्रभु! आप ब्रह्म (परमात्मा) हैं और मैं केवल एक जीव (प्राणी) हूँ। आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ।”, “आप ही मेरे पिता हैं, आप ही मेरी माता हैं, आप ही मेरे गुरु और सखा (मित्र) हैं। हर प्रकार से आप ही मेरे हितैषी हैं।” यहाँ तुलसीदास जी द्वारा संपूर्ण समर्पण व्यक्त किया गया है। भक्त को भगवान से हर रिश्ते में जुड़ने की भावना रखनी चाहिए—वे पिता, माता, गुरु और मित्र सभी के रूप में रक्षा करने वाले हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं – “हे प्रभु! आपके और मेरे बीच अनेक प्रकार के नाते जोड़े जा सकते हैं—जैसा आपको अच्छा लगे।” लेकिन तुलसी की केवल एक ही इच्छा है कि किसी भी तरह, किसी भी रूप में वह आपके कृपालु चरणों की शरण पा ले। यहाँ निश्छल भक्ति और समर्पण का चरम भाव प्रकट होता है। तुलसीदास जी का एकमात्र लक्ष्य प्रभु के चरणों में स्थान पाना है।
विशेष –
शरणागति भाव – भक्त जब भगवान की शरण में जाता है, तो उसे अपने सभी दोषों और कमजोरियों को स्वीकार कर लेना चाहिए।
प्रभु की दयालुता – भगवान अपने भक्तों की रक्षा करने वाले, उनके पापों को नष्ट करने वाले और अनाथों के नाथ हैं।
भगवान से सभी रिश्ते संभव हैं – भक्त भगवान को पिता, माता, मित्र, गुरु, और स्वामी किसी भी रूप में मान सकता है।
परम लक्ष्य प्रभु चरणों की शरण – जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य भगवान की शरण प्राप्त करना ही होना चाहिए।
शब्दार्थ और टिप्पणी
पतितपावन – पापियों का उद्धार करनेवाला ईश्वर
बराई – बड़प्पन, श्रेष्ठता, महिमा
बिरद – बड़ाई
अधम – पापी, दुष्ट, नीच, निकृष्ट
उधारना – उद्धार करना
दनुज – राक्षस, असुर
मुनि – तपस्वी, त्यागी
नाग – सर्प,
मनुज – मनुष्य
अपनपौ – अपनापन
पातकी – पापी
अनाथ – जिसकी रक्षा करनेवाला कोई न हो, अशरणा, असहाय
आरत – दुःखी
चेरो – दास
विशेष- समझ
खग : जटायु, रामायण का एक प्रसिद्ध गिद्ध। वह सूर्य के सारथी अरुण का पुत्र था। सीताहरण के समय इसने रावण से युद्ध किया और वह घायल हुआ था। राम का सीताहरण का समाचार देने के बाद प्राण छोड़े।
मृग : मारीच, एक राक्षस जो ताड़का राक्षसी का पुत्र तथा रावण का अनुचर था। वह सुवर्णमृग के रूप में राम द्वारा मारा गया था।
व्याध : वाल्मीकि, पहले हिंसावृत्ति से जीवन यापन करते थे, परंतु बाद में सनकादि ऋषियों के उपदेश से जीवहिंसा छोड़कर तपस्या में लगे और महर्षि वाल्मीकि कहलाए। इन्होंने रामायण की रचना की।
पषान : अहल्या, महर्षि गौतम की पत्नी। शापवश वह पथ्थर बन गई थी। राम के चरणों के स्पर्श से इसका उद्धार हुआ।
बिटप : यमलार्जुन, कुबेर के पुत्र नलकुबेर और मणिग्रीव नारद के शापवश गोकुल में दो अर्जुन वृक्षों के रूप में उत्पन्न हुए। किसी अपराध पर जब यशोदा ने कृष्ण को इन पेड़ों से बाँधा तो वे गिर पड़े और उनका उद्धार हो गया।
1. एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-
(1) तुलसीदास के मत से कौन पतितपावन हैं?
उत्तर – तुलसीदास के मत से केवल प्रभु श्रीराम ही पतितपावन हैं।
(2) भगवान को अति दीन कैसे लगते हैं?
उत्तर – भगवान को अति दीन बहुत प्रिय लगते हैं।
(3) भगवान ने हठ करके किनका उद्धार किया?
उत्तर – भगवान ने हठ करके खग अर्थात् जटायु, मृग अर्थात् मारीच, व्याध अर्थात् वाल्मीकि, पाषाण अर्थात् अहिल्या, वृक्ष अर्थात् यमलार्जुन का उद्धार किया।
(4) माया के प्रति विवश होकर कौन-कौन सोचते हैं?
उत्तर – देवता, राक्षस, मुनि, नाग, मनुष्य – ये सभी माया में लिप्त हो चुके हैं इसलिए माया के प्रति विवश होकर सोचते हैं।
(5) प्रभु दानी है तो कवि क्या है?
उत्तर – प्रभु दानी है तो कवि तुलसीदास स्वयं को भिखारी मानते हैं।
(6) कवि पाप पुंजहारी किसे कहते हैं?
उत्तर – कवि पाप पुंजहारी प्रभु श्रीराम को कहते हैं।
2. विस्तार सहित उत्तर लिखिए :-
(1) तुलसीदासजी प्रभु के चरणों को छोड़कर कहीं ओर क्यों नहीं जाना चाहते हैं?
उत्तर – तुलसीदासजी प्रभु के चरणों को छोड़कर कहीं ओर नहीं जाना चाहते हैं क्योंकि प्रभु श्रीराम पतितों का उद्धार करने वाले पतितपावन हैं। वे दुखी जनों के दुख हरने वाले हैं। तुलसीदासजी का तो यहाँ तक मानना है कि उन्होंने हठ करके अनेक पतितों और अधमों का उद्धार किया है। खग अर्थात् जटायु, मृग अर्थात् मारीच, व्याध अर्थात् वाल्मीकि, पाषाण अर्थात् अहिल्या, वृक्ष अर्थात् यमलार्जुन और नजाने कितनों को पापमुक्त और अभिशापमुक्त किया है। तुलसीदासजी का मानना है कि अन्य देवता, मुनि और मनुष्य आदि सभी माया के वशीभूत हैं। उनमें ‘स्व’ की भावना का ज़ोर है जबकि श्रीराम में ‘परहिताय’ की भावना का प्राबल्य है।
(2) तुलसीदास ने अपने और भगवान के बीच कौन-कौन से संबंध जोड़े हैं? क्यों?
उत्तर – तुलसीदास ने अपने और भगवान के बीच में कई संबंध जोड़े हैं, जिनमें स्वयं को हीन और प्रभु को श्रेष्ठ बताते हुए – भिखारी और परमदानी का, पतित और पतितपावन का, दास और स्वामी का, दुखी और दुखहर्ता का। इसके अतिरिक्त वे प्रभु को अपने माता, पिता, गुरु, मित्र आदि भी मनाने को तैयार हैं क्योंकि तुलसीदास जी जानते हैं कि इस पूरे ब्रह्मांड में प्रभु श्रीराम जैसा कोई है ही नहीं। उनकी शरण में चले जाना साक्षात् जीवन को सफल बनाने के समान है।
(3) ‘तोहि – मोहि नाते अनेक मानिए जो भावे’ का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – तुलसीदास जी कहते हैं – “हे प्रभु! आपके और मेरे बीच अनेक प्रकार के नाते जोड़े जा सकते हैं—जैसा आपको अच्छा लगे।” लेकिन तुलसी की केवल एक ही इच्छा है कि किसी भी तरह, किसी भी रूप में वह प्रभु के कृपालु चरणों की शरण पा ले। यहाँ निश्छल भक्ति और समर्पण का चरम भाव प्रकट होता है। तुलसीदास जी का एकमात्र लक्ष्य प्रभु के चरणों में स्थान पाना है।
3. भावार्थ स्पष्ट कीजिए :-
(1) देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज, सब मायाबिबस बिचारे।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु कहा अपनपौ हारे॥
उत्तर – इन पंक्तियों में तुलसीदास जी कहते हैं कि देवता, दानव, मुनि, नाग और मनुष्य—सब ही माया के वश में हैं। ऐसे में जब ये सभी स्वयं ही माया के प्रभाव से बँधे हुए हैं, तो वे मुझे कैसे तार सकते हैं? अतः हे प्रभु! तुलसीदास तो आपका दास है, अब आप ही बताइए कि आप अपने इस सेवक को कैसे छोड़ सकते हैं?
(2) नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोंसो?
मो समान आरत नहि, आरतिहर तोसो॥
उत्तर – इन पंक्तियों का भावार्थ यह है कि तुलसीदास जी कहते हैं – “हे नाथ! आप अनाथों के नाथ (रक्षक) हैं, लेकिन मुझसे बड़ा अनाथ और कोई नहीं है।”, “मेरे समान दुखी और कोई नहीं है, और आपके समान दुखियों का उद्धार करने वाला भी कोई नहीं है।” यहाँ वे प्रभु श्रीराम की दीनदयालुता और भक्तवत्सलता का वर्णन कर रहे हैं कि श्रीराम सदा अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और दुखियों का दुख हरते हैं।
4. समानार्थी शब्द लिखिए।
अधम – पातकी, नीच
दनुज – दानव, राक्षस
मनुज – मनुष्य, मानव
पातकी – अधम, नीच
आरत – दुख, पीड़ा
चेरो – दास, सेवक
5. शब्दसमूह के लिए एक शब्द दीजिए।
(1) पापियों का उद्धार करनेवाला ईश्वर – पतितपावन
(2) जिसकी रक्षा करनेवाला कोई न हो – असहाय
काव्य में दिये गए पात्रों से जुड़े प्रसगों की विस्तृत जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर छात्रों को बताएँ।
तुलसीदासजी के जीवन और साहित्य सर्जन के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कीजिए। तुलसीदासजी का चलचित्र में प्रसिद्ध एक पद खोजिए और उसको गाकर कक्षा में सुनाइए।
उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर छात्रों को सुनाएँ।
तुलसीदास के चित्र प्राप्त करके छात्रों से उनके जीवन और काव्य के चार्टस तैयार करवाइए।
उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर छात्रों को सुनाएँ।