(जन्म: 1850 ई. : निधनः सन् 1885 ई.)
भारतेन्दु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चंद्र’ था ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दुजी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासको के अमानवीय शोषण के चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया। भारतेन्दु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। हिंदी में नादकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतेन्दुने हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने ‘हरिश्चंद्र पत्रिका’, ‘कवि वचन सुधा’ और ‘बाल प्रबोधिनी’ पत्रिकाओं का संपादन भी किया। वे एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त, व्यंगकार सफल नाटककार, जागरुक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार थे। इसके अलावा वे लेखक, कवि, संपादक, निबंधकार एवं कुशल वक्ता भी थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ ‘भारतेन्दुकला’ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ ‘सत्य हरिश्चंद्र’, ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेरे नगरी’ (नाट्य साहित्य) ‘पूर्ण प्रकाश’, ‘चंद्रप्रभा’ (उपन्यास) ‘स्त्रियों की उत्पत्ति’, ‘बादशाह दर्पण’, (नाट्यशास्त्र) ‘कश्मीर कुसुम’, ‘रामायण का समय (शोध रचना) ‘सुंदरी सिलक’, ‘पावस कवितासंग्रह’ (काव्य) आदि। भारतेन्दुजी ने मात्र 34 वर्ष की अल्पायु में ही विशाल साहित्य की रचना की। पैंतीस वर्ष की आयु में उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से इतना लिखा, इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक बन गया। आपका महान साहित्यिक कर्म देवीशक्ति से प्रेरित ही माना जाएगा।
प्रस्तुत एकांकी में महंत और उनके दो शिष्य एक नगरी में पहुँचते है, जहाँ मूर्ख राजा और मूर्ख प्रजा से उनका पाला पड़ता है। नगरी में सर्वत्र अज्ञान का अंधकार था। अनुशासन रहित विवेकहीन प्रजा में किसी से प्रेम आत्मियता का नामोनिशान दिखाई नहीं देता था। अच्छे-बुरे में अंतर नहीं, सच और झूठ का ज्ञान नहीं, भाजी का मूल्य और खाजे का मूल्य एक टका। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ कहावत के अनुसार राजा भी मूर्ख और प्रजा भी मूर्ख ऐसे लोग अपनी मूर्खता के कारण अपने विनाश का कारण बन जाते हैं। ‘अधेर नगरी’ एकांकी से लेखक पाठकों को इसी अविवेकी अज्ञानी वृत्ति से परिचित करवाकर इससे बचे रहने की प्रेरणा देते हैं।
अँधेर नगरी
पात्र – परिचय
महंत
नारायणदास महंत के शिष्य
गोवर्धनदास : महंत के शिष्य
चौपट राजा : अँधेर नगरी का राजा
कुँजड़िन, हलवाई, फ़रियादी, कल्लू बनिया, कारीगर,
चूनेवाला, भिस्ती, कसाई, गड़रिया, कोतवाल, सिपाही आदि।
पहला दृश्य
स्थान – शहर से बाहर सड़क; महंतजी और दो चेले बातें कर रहे हैं।
महंत : बच्चा नारायणदास, यह नगर तो दूर से बड़ा सुंदर दिखाई पड़ता है। देख, कुछ भिक्षा मिले तो भगवान को भोग लगे और क्या !
नारायणदास : गुरुजी महाराज, नगर तो बहुत ही सुंदर है, पर भिक्षा भी सुंदर मिले तो बड़ा आनंद हो !
महंत : बच्चा गोवर्धनदास, तू पश्चिम की ओर जा और नारायणदास पूर्व की ओर जाएगा।
(गोवर्धनदास जाता है।)
गोवर्धनदास : : (कुँजड़िन से) क्यों, भाजी क्या भाव?
कुँजड़िन : बाबा जी, टके सेर !
गोवर्धनदास : सब भाजी टके सेर ! वाह वाह ! बड़ा आनंद है। यहाँ सभी चीजें टके सेर।
(हलवाई के पास जाकर) क्यों भाई, मिठाई क्या भाव?
हलवाई : टके सेर !
गोवर्धनदास : वाह वाह ! बड़ा आनंद है। सब टके सेर क्यों, बच्चा? इस नगरी का नाम क्या है?
हलवाई : अँधेर नगरी।
गोवर्धनदास : और राजा का नाम क्या है?
हलवाई : चौपट राजा।
गोवर्धनदास : वाह वाह !
अँधेर नगरी चौपट राजा।
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा॥
हलवाई : तो बाबाजी, कुछ लेना हो तो ले लें !
गोवर्धनदास : बच्चा, भिक्षा माँगकर सात पैसा लाया हूँ, साढ़े तीन सैर मिठाई दे दे।
(महंतजी और नारायणदास एक ओर से आते हैं और दूसरी ओर से गोवर्धनदास आता है।)
महंत : बच्चा गोवर्धनदास, क्या भिक्षा लाया, गठरी तो भारी मालूम पड़ती है !
गोवर्धनदास : गुरुजी महाराज, सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से साढ़े तीन सेर मिठाई मोल ली है।
महंत : बच्चा, नारायणदास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब चीजें टके सेर मिलती हैं तो मैंने इसकी बात पर विश्वास नहीं किया। बच्चा, यह कौन-सी नगरी है और इसका राजा कौन है, जहाँ टके सेर भाजी और टके सेर खाजा मिलता है?
गोवर्धनदास : अँधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।
महंत : तो बच्चा ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके सेर खाजा बिकता है। मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भी नहीं रहूँगा।
गोवर्धनदास : गुरुजी, मैं तो इस नगर को छोड़कर नहीं जाऊँगा और जगह जगह दिन भर माँगो तो भी पेट नहीं भरता। मैं तो यहीं रहूँगा।
महंत : देख, मेरी बात मान, नहीं तो पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूँ पर इतना कहे जाता हूँ कि कभी संकट पड़े तो याद करना। (यह कहते हुए महंत चले जाते हैं।)
दूसरा दृश्य
(राजा, मंत्री और नौकर लोग यथास्थान बैठे हैं परदे के पीछे से ‘दुहाई है’ का शब्द होता है।)
राजा : कौन चिल्लाता है, उसे बुलाओ तो।
(दो नौकर एक फ़रियादी को लाते है।)
फ़रियादी : दुहाई, महाराज, दुहाई !
राजा : बोलो, क्या हुआ?
फ़रियादी : महाराज, कल्लू बनिए की दीवार गिर पड़ी, सो मेरी बकरी उसके नीचे दब गई। न्याय हो।
राजा : कल्लू को पकड़कर लाओ !
(नौकर लोग दौड़कर बाहर से बनिए को पकड़ लाते हैं।)
राजा : क्यों रे बनिए, इसकी बकरी दबकर मर गई?
बनिया : महाराज, मेरा कुछ दोष नहीं। कारीगर ने ऐसी दीवार बनाई कि गिर पड़ी।
राजा : अच्छा कल्लू को छोड़ दो, कारीगर को पकड़ लाओ।
(कल्लू जाता है। नौकर कारीगर को पकड़ लाते हैं।)
राजा : क्यों रे कारीगर, इसकी बकरी कैसे मर गई?
कारीगर : महाराज, चूनेवाले ने चूना ऐसा खराब बनाया कि दीवार गिर पड़ी।
राजा : अच्छा, उस चूनेवाले को बुलाओ।
(कारीगर निकाला जाता है। चूनेवाले को पकड़कर लाया जाता है।)
राजा : क्यों रे चूनेवाले, इसकी बकरी कैसे मर गई?
चूनेवाला : महाराज, भिश्ती ने चूने में पानी ज्यादा डाल दिया, इसी से चूना कमज़ोर हो गया।
राजा : तो भिश्ती को पकड़ो।
(भिश्ती को लाया जाता है।)
राजा : क्यों रे भिश्ती, इतना पानी क्यों डाल दिया कि दीवार गिर पड़ी और बकरी दबकर मर गई?
भिश्ती : महाराज, गुलाम का कोई कसूर नहीं, कसाई ने मशक इतनी बड़ी बना दी थी कि उसमें पानी ज्यादा आ गया।
राजा : अच्छा, भिश्ती को निकालो, कसाई को लाओ !
(नौकर भिश्ती को निकालते हैं और कसाई को लाते हैं।)
राजा : क्यों रे कसाई, तूने ऐसी मशक क्यों बनाई?
कसाई : महाराज, गड़रिए ने टके की ऐसी बड़ी भेड़ मेरे हाथ बेची कि मशक बड़ी बन गई।
राजा : अच्छा, कसाई को निकालो, गड़रिए को लाओ !
(कसाई निकाला जाता है, गड़रिया लाया जाता है।)
राजा : क्यों रे गड़रिए ऐसी बड़ी भेड़ क्यों बेची?
राजा : महाराज, उधर से कोतवाल की सवारी आई, भीड़-भाड़ के कारण मैंने छोटी-बड़ी भेड़ का ख्याल ही नहीं किया। मेरा कुछ कसूर नहीं।
राजा : इसको निकालो, कोतवाल को पकड़कर लाओ।
(कोतवाल को पकड़कर लाया जाता है।)
राजा : क्यों रे कोतवाल, तूने सवारी धूम-धाम से क्यों निकाली कि गड़रिए ने घबराकर बड़ी भेड़ बेच दी?
कोतवाल : महाराज, मैंने कोई कसूर नहीं किया।
राजा : कुछ नहीं ! ले जाओ, कोतवाल को अभी फाँसी दे दो!
(सभी कोतवाल को पकड़कर ले जाते हैं।)
तीसरा दृश्य
(गोवर्धनदास बैठा मिठाई खा रहा है।)
गोवर्धनदास गुरुजी ने हमको बेकार यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देश बहुत बुरा है पर अपना क्या ! खाते-पीते मस्त पड़े हैं।
(चार सिपाही चार ओर से आकर उसको पकड़ लेते हैं।)
सिपाही : चल बे चल, मिठाई खाकर खूब मोटा हो गया। आज मजा मिलेगा !
गोवर्धनदास : (घबराकर) अरे, यह आफ़त कहाँ से आई? अरे भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो मुझे पकड़ते हो?
सिपाही : बात यह है कि कल कोतवाल को फाँसी का हुक्म हुआ था। जब उसे फाँसी देने को ले गए तो फाँसी का फंदा बड़ा निकला, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले-पतले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज की। इस पर हुक्म हुआ कि किसी मोटे आदमी को फाँसी दे दो क्योंकि बकरी मरने के अपराध में; किसी-न-किसी को सजा होनी जरूरी है, नहीं तो न्याय न होगा।
गोवर्धनदास : दुहाई परमेश्वर की ! अरे, मैं नाहक मारा जाता हूँ। अरे, यहाँ बड़ा ही अँधेर है। गुरुजी, आप कहाँ हो? आओ मेरे प्राण बचाओ।
(गोवर्धनदास चिल्लाता है। सिपाही उसे पकड़कर ले जाते हैं।)
गोवर्धनदास : हाय, बाप रे! मुझे बेकसूर ही फाँसी देते हैं।
सिपाही : अबे चुप रह, राजा का हुक्म भला कहीं टल सकता है।
गोवर्धनदास : हाय, मैंने गुरुजी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरुजी, कहाँ हो? बचाओ, गुरुजी। गुरुजी!
महंत : अरे बच्चा गोवर्धनदास, तेरी यह क्या स्थिति है?
गोवर्धनदास : (हाथ जोड़कर) गुरुजी, दीवार के नीचे बकरी दब गई, जिसके लिए मुझे फाँसी दी जा रही है। गुरुजी, बचाओ !
महंत : कोई चिंता नहीं। (भौंह चढ़ाकर सिपाहियों से) सुनो, मुझे अपने शिष्य को अंतिम उपदेश देने दो।
(सिपाही उसे थोड़ी देर के लिए छोड़ देते हैं। गुरुजी चेले को कान में कुछ समझाते हैं।)
महंत : नहीं बच्चा, हम बूढ़े हैं, हमको चढ़ने दे।
(इस प्रकार दोनों बहस करते हैं। सिपाही परस्पर चकित होते हैं। राजा, मंत्री और कोतवाल आते हैं।)
राजा : यह क्या गोलमाल है?
सिपाही : महाराज, चेला कहता है, मैं फाँसी चढूँगा और गुरु कहता है, मैं चलूँगा। कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है !
राजा : (गुरु से) बाबाजी, बोलो, आप फाँसी क्यों चढ़ना चाहते हैं?
महंत : राजा, इस समय ऐसी शुभ घड़ी में जो मरा, सीधा स्वर्ग जाएगा।
मंत्री : तब तो हम फाँसी चढ़ेंगे।
गोवर्धनदास : नहीं, हम हमको हुक्म है !
कोतवाल : हम लटकेंगे ! हमारे कारण से तो दीवार गिरी।
राजा : चुप रहो सब लोग! राजा के जीते जी और कौन स्वर्ग जा सकता है। तो हमको फाँसी चढ़ाओ, जल्दी-जल्दी करो. !
(राजा को नौकर लोग फाँसी पर लटका देते हैं। परदा गिरता है।)
महंत – मंदिर का बड़ा पुजारी
कुंजड़िन – तरकारी बेचनेवाली स्त्री
खाजा – एक प्रकार की मिठाई
भिश्ती – मशक में भरकर पानी ढोनेवाला
गड़रिया – भेड़, बकरी पालनेवाला
नाहक – व्यर्थ
टके सेर – टका (पुराने दो पैसों के बराबर का एक सिक्का) काफी सस्ता
मशक – चमड़े की खाल का बड़ा थैला
दुहाई – न्याय के लिए की गई पुकार या प्रार्थना
सबब – कारण
कसूर – दोष
हुज्जत – दलील, तकरार, बहस
फ़रियादी – न्याय माँगनेवाला
मुहावरा
मोल लेना – दाम देकर खरीदना
कहावत
अँधेर नगरी चौपट राजा – कर्तव्यभ्रष्ट शासक
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा – जहाँ अव्यवस्था तथा लूट-खसोट का बोल-बाला रहता हैं।
1.प्रश्नों के एक-दो वाक्यों में उत्तर लिखिए :-
(1) महंत ने नगर की असलियत जानने पर क्या फ़ैसला लिया?
उत्तर – महंत ने नगर की असलियत जानने पर फ़ैसला लिया कि वे तत्काल इस नगर को छोड़ देंगे।
(2) अँधेर नगरी में भाजी और खाजा किस भाव से बिकता था?
उत्तर – अँधेर नगरी में भाजी और खाजा टके सेर में बिकता था।
(3) कसाई ने भेड़ किससे मोल ली थी?
उत्तर – कसाई ने भेड़ गड़रिये से मोल ली थी।
(4) महंत ने गोवर्धनदास को क्या सलाह दी थी?
उत्तर – महंत ने गोवर्धनदास को तत्काल अँधेर नगरी छोड़ देने की सलाह दी और जब गोवर्धनदास नहीं माना तो महंत ने जाते-जाते इतना कहा कि कभी संकट पड़े तो याद करना।
(5) राजा फाँसी चढ़ने को क्यों तैयार हो गया?
उत्तर – राजा ने स्वर्ग जाने की चाह के कारण फाँसी चढ़ने को तैयार हो गया।
2. प्रश्नों के पाँच-छह वाक्यों में उत्तर लिखिए :-
(1) गोवर्धनदास ने खुश होकर अँधेर नगरी में ही रहने का फैसला क्यों लिया?
उत्तर – गोवर्धनदास ने खुश होकर अँधेर नगरी में ही रहने का फैसला लिया क्योंकि इस नगर में सभी चीज़ें टके सेर में ही मिल जाया करती थीं। गोवर्धनदास भिक्षावृत्ति करते थे और कम भिक्षा मिलने पर भी पेट भरकर खाने की व्यवस्था इस नगर में बड़ी आसानी से हो जा रही थी। दूसरा कारण यह भी था कि इस नगर के लोग थोड़े मूर्ख थे और इसका लाभ गोवर्धनदास भरपूर उठाना चाहते थे।
(2) बकरी की मौत के लिए किस-किसको अपराधी ठहराया गया? राजा ने किसे और क्यों फाँसी चढ़ाने का फैसला किया?
उत्तर – बकरी की मौत के लिए कल्लू बनिया, कारीगर, चूनेवाला, भिश्ती, कसाई और कोतवाल को अपराधी ठहराया गया। अंत में बकरी की मौत के लिए राजा ने कोतवाल को फाँसी पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। लेकिन जब कोतवाल को फाँसी देने को ले गए तो फाँसी का फंदा बड़ा निकला, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले-पतले थे। इसलिए हुक्म हुआ कि किसी मोटे आदमी को फाँसी दे दी जाए। बेचारा गोवर्धनदास चूँकि मोटा-तगड़ा था इसलिए अब उसे ही बकरी मरने के अपराध में फाँसी पर लटकाया जाने लगा।
(3) गोवर्धनदास पर पछताने की बारी क्यों आ गई?
उत्तर – बकरी की मौत का न्याय करने के लिए जब कोतवाल की जगह गोवर्धनदास को फाँसी पर लटकाया जाने लगा तो वह यह सोच कर पछताने लगा कि महंत जी ठीक ही कह रहे थे कि यह अँधेर नगरी है। यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है। पर मेरी ही मति मारी गई थी कि मैंने अपने गुरु की बात नहीं मानी।
(4) महंत गोवर्धनदास की जान बचाने में सफल कैसे हो गए?
उत्तर – गोवर्धनदास को जब फाँसी पर लटकाया जा रहा था तो महंत अपने शिष्य को अंतिम उपदेश देने के बहाने एक योजना गुप्त तरीके से उसके कानों में कह देते हैं। इसके बाद गुरु और शिष्य दोनों ही फाँसी पर लटकने के लिए हुज्जत करने लगते हैं। यह देखकर राजा विस्मित होते हैं और कारण का पता लगाते हैं। तब महंत उन्हें बताते हैं कि यह ऐसी शुभ घड़ी है कि अभी मरेगा वह सीधा स्वर्ग जाएगा। इस पर राजा स्वर्ग जाने की चाह में अपनी प्रभुता के कारण स्वयं फाँसी पर लटक जाते हैं। इस तरह महंत गोवर्धनदास की जान बचाने में सफल हो जाते हैं।
(5) पाठ को ‘अँधेर नगरी’ शीर्षक क्यों दिया गया?
उत्तर – पाठ को ‘अँधेर नगरी’ शीर्षक दिया गया है क्योंकि भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अपने युग में यह महसूस किया था कि यहाँ के राजाओं की मूर्खता, विलासिता और चापलूसी से प्रभावित हो जाने के कारण विदेशियों का शासन भारत पर बढ़ता जा रहा है और देखते-देखते हम परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ दिए गए। भारतेन्दु जी ने इसी कटु सत्य को आम जनता के सामने प्रस्तुत करने के लिए अपने नाटक का नाम ‘अँधेर नगरी’ रखा ताकि जनता के साथ-साथ राजा और रियासतदार अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत हो जाएँ।
3. आशय स्पष्ट कीजिए :-
(1) अँधेरी नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि जिस राज्य का राजा निपट मूर्ख हो और जहाँ चाटुकारिता और चापलूसी को सही मान लिया जाता हो उस राज्य में सभी ओर अव्यवस्था होना तय है। इस राज्य की स्थिति भी ठीक ऐसी ही है। यहाँ का राजा उसकी न्याय व्यवस्था बिलकुल चौपट है। दूसरी ओर यहाँ व्यवसाय के क्षेत्र में भी काफी विसंगति देखने को मिलती है क्योंकि यहाँ सही वस्तुओं की कीमत टके सेर ही है।
(2) राजा के जीतेजी और कौन स्वर्ग जा सकता है? हमको फाँसी चढ़ाओ, जल्दी करो।
उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि जो लोग मूर्ख होते हैं उन्हें यह तक पता नहीं होता है कि उनके द्वारा किए गए काम का क्या अंजाम हो सकता है। इस पाठ में भी महंत अपने शिष्य की जान बचाने के लिए यह अफवाह फैला देते हैं कि यह ऐसी शुभ घड़ी है कि जो अभी मरेगा वह सीधा स्वर्ग जाएगा। स्वर्ग के लालच में राजा अपने प्रभुता का प्रयोग करके स्वयं स्वर्ग पहुँचने के लिए स्वयं फाँसी पर लटक जाता है।
4. सही शब्द चुनकर वाक्य पूर्ण कीजिए :-
(1) महंत अँधेर नगरी में __________ रहना नहीं चाहते? (यथासमय, क्षणभर)
उत्तर – क्षणभर
(2) मंत्री और नौकर लोग __________बैठे हैं। (इकट्ठा, यथास्थान)
उत्तर – यथास्थान
(3) कोतवाल तूने __________ धूमधाम से क्यों निकाली? (मिठाई, सवारी)
उत्तर – सवारी
(4) मुझे अपने __________ को अंतिम उपदेश देने दो।
उत्तर – शिष्य
(5) शुभघड़ी में जो मरा, सीधा __________ जाएगा। (महल, स्वर्ग)
उत्तर – स्वर्ग
5. निम्नलिखित शब्दसमूह के लिए एक शब्द दीजिए :-
(1) न्याय माँगनेवाला – फरियादी
(2) तरकारी बेचनेवाली स्त्री – कुंजड़िन
(3) चमड़े की खाल का बड़ा थैला – मशक
(4) भेड़-बकरे चरानेवाला – गड़रिया
(5) मिठाई बेचनेवाला – हलवाई
प्रस्तुत एकांकी का मंचन कीजिए।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
‘यथा राजा तथा प्रजा’ कहावत समझ कर कक्षा में अभिव्यकत कीजिए।
उत्तर – इसका अर्थ यह हुआ कि जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा भी होती है। हालाँकि यह शत-प्रतिशत सही नहीं है।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र नादक, अँधेर नगरी के संवाद विद्यार्थियों के पास तैयार करवाइए और विद्यार्थी प्रार्थनासभा या शालेय अवसर पर प्रस्तुत करें।
उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर करें।