(जन्म सन् 1938 ई.)
सर्जक, चिंतक, कर्मशील रघुवीर चौधरी का जन्म बापूपुरा (जिला गांधीनगर) उत्तर गुजरात में हुआ। स्कूली शिक्षा माणसा तथा उच्च शिक्षा अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज से, हिंदी का अध्यापन भाषा – साहित्य भवन, गुजरात यूनिवर्सिटी के हिंदी विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर पद से निवृत्त हुए और नई तालीम की संस्थाओं के सूत्रधार बने।
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रघुवीरभाई ने गुजराती भाषा में लगभग सभी विधाओं पर साधिकार लेखन किया है। कथा साहित्य, नाटक, कविता, रेखाचित्र आदि में उल्लेखनीय योगदान दिया है। अमृता, उपरवास कथात्रयी, वेणु-वत्सला, सोमतीर्थ रुद्रमहालय आदि उपन्यास उनकी कीर्ति के स्तंभ हैं। गोकुल – मथुरा द्वारका, अमृता तथा उपरवास कथात्रयी के हिंदी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। ग्रामीण जीवन के निकट संपर्क, शहरी अनुभवों की अभिव्यक्ति के साथ ही ऐतिहासिकता उनकी रचनाओं के प्रमुख आयाम हैं। मूल्यनिष्ठा उनकी रचनाओं के प्रमुख स्वर हैं। उनकी लम्बी कविता ‘बचावनामु’ इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। रघुवीरभाई को ऊपरवास कथात्रयी के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। वे गुजराती के सभी प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं, इनमें रणजितराम सुवर्ण चंद्रक, क. मा. मुनशी स्वर्ण चंद्रक, गोवर्धनराम त्रिपाठी पुरस्कार आदि मुख्य हैं।इन्हें साहित्य अकादमी की मानद् फेलोशिप प्राप्त है। भारत का प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान (2015) ज्ञानपीठ पुरस्कार से आपको सम्मानित किया गया है।
रचना
(शाम का समय है। ग्राम पंचायत के कार्यालय के बंद दरवाजे के पास बैठा चौकीदार जम्हाई ले रहा है। दूर बैठे रमेश, निमेष और नरेश गंभीरता से बात करते दिखाई देते हैं। गोपी प्रवेश करती है।)
गोपी : (दोनों ओर देख लेने के बाद) अविनाशजी यहाँ नहीं आए?
निमेष : अरे गोपी तुम ! क्या कोई काम था अविनाश का?
गोपी : खास तो नहीं पर कल उन्होंने वादा किया था कि आज इसी समय वे मुझे प्रसादजी की कविता समझाएँगे।
रमेश : कविता समझने से कोई फायदा नहीं होगा गोपी, कोई ठोस काम करो या अविनाश को करने दो।
गोपी : आप भी कैसा मजाक कर रहे हैं, रमेश भाई ! कविता तो आत्मा की कला है, संवेदना का सौंदर्य है।
निमेष : पर आत्मा या संवेदना हो तभी न?
गोपी : क्या निमेष भाई के आत्मा नहीं है?
निमेष : कभी थी, आज नहीं है, हम सब आज निर्णय कर चुके हैं कि ये जो हमारे हाथ हैं, वे ही पर्याप्त हैं।
गोपी : हाथ तो सभी के होते हैं।
नरेश : पर हम आज इन हाथों का कमाल दिखाएँगे।
गोपी : मैं समझी नहीं, नरेशभाई !
नरेश : हम इन हाथों का सदुपयोग करेंगे।
गोपी : यह तो आपने और भी मुश्किल बात कही।
रमेश : तुम अभी बच्ची हो जाओ कविता पढ़ो।
गोपी : सो तो आपकी सलाह के बिना भी पढ़ूँगी। लेकिन, सचमुच आप अपने हाथों का सदुपयोग करने जा रहे हैं, तो इच्छा होती है कि मैं भी साथ क्यों न दूँ?
रमेश : तुम्हारे हाथ अभी कोमल हैं, बहिन ! जाओ, अविनाश से मैं कहूँगा कि तुम आई थीं। जाओ। मगर हाँ, उसका इंतजार मत करना। आज हम यहाँ से हटनेवाले नहीं है, न तो पंचायत के किसी सदस्य को हटने देंगे, जब तक वे हमारे सभी सवालों का जवाब न दे दें।
गोपी : जवाब क्यों नहीं देंगे? जो लंबा भाषण कर सकता है उसके लिए जवाब देना तो बड़ा आसान होता है।
नरेश : आसान होता तो वे यहाँ आकर हमसे बात न करते? (खड़ा होकर चौकीदार की ओर जाता है।) देखो तो
निमेष : सही, दरवाजा बंद करके सभी भीतर बैठे हैं। नालायक, उल्लू के पठ्ठे।
नरेश : अपशब्दों के उपयोग पर अविनाश का प्रतिबंध है, याद रखो।
रमेश : तभी तो हम अभी तक शांत हैं। कितनी बार तो हमने प्रार्थनापत्र दिए? कितने दिन तक प्रतीक्षा की? आखिर हारकर आज उपवास पर बैठे हैं।
रमेश : (नरेश की बात को आगे बढ़ाते हुए) ठीक दो घंटे पहले उनकी मीटिंग शुरू हुई थी। बीच में हमने बार – बार कहलवाया कि हमको अंदर बुलाओ या बाहर आकर हमसे बात करो। बस, जवाब ही नहीं दिया।
नरेश : जैसे हमारी हस्ती ही उन्हें कुबूल नहीं।
निमेष : ऐसा तो नहीं है, पर वे जानते हैं कि पिंजरापोल के मवेशियों की तरह ये कुछ नहीं कर सकते
रमेश : (ऊँची आवाज में) हम कुछ नहीं कर सकते?
निमेष : जवाब-तलब कर सकते हैं।
रमेश : (गोपी से) आखिर सदस्य साहबों ने कहलवाया कि तुम चाहो तो शिष्ट भाषा में आवेदन पत्र दे सकते हो।
गोपी : बड़ी मेहरबानी की उन्होंने। पर क्या आप शिष्ट भाषा का उपयोग कर सकेंगे?
नरेश : अविनाश कर सकता है। हमने कहा कि जाओ भाई एकांत में बैठकर संस्कृत प्रचुर भाषा में लिख लाओ। पर बड़ी देर की….. ।
रमेश : शिष्ट शब्द खोज रहा होगा !
गोपी : आप उनकी मदद करते तो अच्छा होता।
नरेश : बस, हमने मैटर दे दिया है।
गोपी : मैं जान सकती हूँ?
नरेश : क्यों नहीं? सारा गाँव जानता है। इन सदस्य महोदयों ने बेशर्म होकर भ्रष्टाचार के कई मामलों में जो सहयोग किया है….।
गोपी : चलिए एक क्षेत्र में तो सहकार की भावना फली।
रमेश : गोपी, इस बात पर तुम भीतर जाकर इन लोगों को बधाई दो। मजा आएगा।
निमेष : वे हमारा मजाक समझ पाएँ तभी न…. ।
नरेश : वे समझेंगे कि गोपी जैसी होनहार लड़की ने हमें बधाई दी है, तारीफ़ की है।
गोपी : क्या सबके सब बुद्धू हैं?
निमेष : हैं तो बड़े चालाक पर जरूरत पड़ने पर बुद्धू भी बन सकते हैं। अविनाश अभी क्यों नहीं आया? जरा देखो तो सही गोपी, वह शायद दद्दा के घर बैठा हो।
गोपी : आप लोगों को हर्ज न हो तो उनके साथ यहाँ आऊँ।
रमेश : हर्ज तो शायद तुम्हारे बड़े भाई साहब को होगा।
गोपी : यह आपकी गलतफहमी है। मैं आऊँगी। (जाती है)
(नरेश बंद दरवाजे के पास जाकर दरार से देखने की कोशिश करता है। चौकीदार हाथ पकड़कर उसे हटा देता है।)
रमेश : क्या कुछ पता चला?
नरेश : कैसे चले? मुँह में मुँह डाले खुसुर-फुसुर कर रहे हैं सभी।
अविनाश : (प्रवेश करते हुए) किसी का तिरस्कार मत करो नरेश। हम इस गाँव के पढ़े-लिखे युवक हैं, हमारी जिम्मेदारी कुछ ज्यादा है।
रमेश : सो तो है ही। (अविनाश से आवेदनपत्र लेकर पढ़ता है।)
निमेष : क्या लिखा?
अविनाश : बस वही, उनके सभी घोटाले पंचायत के घाटे के कारण, उर्वरकों के वितरण का प्रश्न, गरीबों के लिए आनेवाले रेशन को काला बाजार में बेचने की बात
निमेष : वे तो कह देंगे कि रेशन वगैरह का काम तो सहकारी मंडली करती है।
रमेश : मगर उस मंडली पर कुंडली मारकर तो वे ही बैठे हैं या कोई और?
नरेश : ठीक है, ठीक है, जाओ दे आओ अविनाश !
अविनाश : आप दे आइए, रमेशभाई।
निमेष : हाँ, आप बड़े हैं हम सबसे।
रमेश : इससे क्या? हमको जगाया तो है अविनाश ने ही।
अविनाश : छोड़िए इन फालतू बातों को। आप दे आइए और कहिए कि हमें आज ही जवाब चाहिए।
रमेश : अभी।
नरेश : अच्छा (चौकीदार के पास जाकर) दरवाजा खोल दो ! मैं कहता हूँ दरवाजा खोल दो ! क्या? हुकुम नहीं है? हुकुम की ऐसी-तैसी ! मैं कहता हूँ कि खोल दो, वरना तोड़कर भीतर जाऊँगा।
अविनाश : अरे, रमेशभाई ! आप इस पर क्यों बिगड़ते हैं? ऐसा कीजिए – पत्र इसे दीजिए। भीतर जाकर दे आएगा।
रमेश : ठीक है, लो, जाओ दे आओ।
(चौकीदार पत्र लेकर भीतर जाता है। अंदर से दरवाजा बंद कर देता है। रमेश कुछ देर वहाँ खड़ा रहकर लौट आता है।) बड़ी प्यास लगी है।
नरेश : मुझे तो भूख भी ऐसी लगी हैं कि….।
निमेष : मैं तो जीवन में पहली बार उपवास कर रहा हूँ।
अविनाश : किसने कहा था कि….।
रमेश : मैंने। उपवास का कुछ अच्छा असर पड़ता है। पुलिस पकड़कर ले नहीं जाती।
निमेष : पुलिस तो यहाँ है ही कहाँ?
रमेश : यहाँ न हो, पड़ोस के गाँव में तो है।
नरेश : तो क्या?
अविनाश : कुछ नहीं। वह आएगी तो हम उसे बता देंगे कि तुम्हें कानून का भंग करनेवालों को पकड़ना है तो पकड़ो (दरवाजे की ओर निर्देश करके) उन लोगों को।
नरेश : और वे आपकी बात मान लेंगे?
अविनाश : आज नहीं तो कल।
रमेश : तुम बड़े आशावादी हो, अविनाश !
अविनाश : हाँ, हूँ तभी तो इस काम में ……लो चौकीदार आ गया।
(सभी उत्सुकता से चौकीदार के पास जाते हैं। वह बिना बोले ही ताला लगाने लगता है। नरेश उसे रोककर भीतर झाँक लेता है, रमेश भी। चौकीदार निमेष को रोककर ताला लगाकर शांति से चला जाता है।)
नरेश : लो, भाग गए सभी उस दरवाजे से।
अविनाश : (धैर्य तथा दृढ़ता से) भागकर जाएँगे कहाँ? उन्हें हमारे प्रश्नों का जवाब देना ही पड़ेगा, आज नहीं तो कल…….
रमेश : कल की आशा छोड़ो। अब तो हमारा आवेदन पत्र फाइल हो गया।
निमेष : वे लोग अब खा-पीकर चैन से सोएँगे और हम यहाँ….।
नरेश : हम उन्हें चैन से सोने नहीं देंगे। उनकी नींद हराम कर देंगे।
अविनाश : (चिंता से) क्या करोगे?
रमेश : दरवाजा तोड़कर अपना वह पत्र खोज निकालेंगे। फिर जाएँगे उनके घर।
नरेश : वहाँ तो उनके पालतू कुत्ते हमें रोकेंगे। मेरा ख्याल है कि (हाथ में पत्थर लेने का अभिनय करता है।)
रमेश : ठीक है। पथराव की बात सुनकर सभी दौड़े आएँगे…. (पत्थर उठाता है।)
निमेष : चलिए अविनाश भाई ! उठाइए पत्थर।
अविनाश : मजाक छोड़ो।
रमेश : इसे तुम अभी मजाक समझ रहे हो? वाह रे पंडित ! चलो, उठाओ पत्थर, एक साथ बार करें।
अविनाश : नहीं। यह असंभव है। हम इस मकान को तनिक भी नुकसान नहीं पहुँचा सकते। जो हमारा ही है उसे….
रमेश : अब भी इसी भ्रम में हो कि यह हमारा है? चलो नरेश, निमेष, देर क्यों कर रहे हो?
(तीनों कुछ कदम आगे बढ़कर पथराव करते हैं।)
अविनाश : रुक जाओ, मैं कहता हूँ रुक जाओ। तुम नहीं जानते हो कि तुम क्या कर रहे हो। रुक जाओ वरना….
नरेश : वरना क्या? तुम्हीं ने तो हमें इसके लिए भड़काया था।
अविनाश : भड़काया नहीं था, जगाना चाहा था। शायद वह मेरी गलती थी। मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। रमेशभाई, कम से कम आपसे तो….
रमेश : (रुककर) तुम यहाँ से जाओ, मैं जानता हूँ यह तोड़फोड़ देखकर तुम्हें दुख होगा। जाओ ….
अविनाश : मैं इस प्रकार पलायन नहीं कर सकता।
निमेष : तो हमें साथ दो।
नरेश : हाँ, हमसे तो ज्यादा ताकतवर हो, आओ हाथ बँटाओ।
(तीनों जोरों से पथराव शुरू कर देते हैं। टूटने-फूटने की आवाजें आने लगती हैं।)
अविनाश : आप लोग मेरी बात सुनना नहीं चाहते? जैसी आपकी मर्जी।
(कार्यालय के दरवाजे के पास जाकर खड़ा रहता है।) भले ही मुझको चोट लगे।
रमेश : हम तुम्हें चोट नहीं पहुँचाएँगे। हम निशाना लगाना जानते हैं।
(निमेष, नरेश, अविनाश को बचाकर पत्थर फेंकते हैं।)
नरेश : हाँ, हाँ, वे थोड़े ही हमारे दुश्मन हैं?
(पथराव चल रहा है, वहीं गोपी दौड़ती हुई आती है। अविनाश को सामने खड़ा देखकर चीख पड़ती है।)
गोपी : ओह, यह क्या? आप लोग अविनाश जी पर वार कर रहे हैं?
रमेश : नहीं, मकान पर।
नरेश : इन्हें समझाओ कि बीच से हट जाएँ।
गोपी : वे नहीं हटेंगे।
निमेष : तो हमारे पत्थर भी….
गोपी : इन्हें चोट पहुँची तो?
रमेश : हम कब कहते हैं कि ये चोट खाएँ? हम तो इन्हें बचाते रहेंगे पर हो सकता हैं कोई पत्थर छिटककर …
गोपी : हाँ, हो सकता है। अच्छा हो कि इसका लाभ मुझे भी मिले। आप तो सुशिक्षित हैं, बुद्धिमान हैं, रुक जाइए।
(गोपी इन लोगों के आगे इधर-उधर चलती रहती है ताकि वे पत्थर फेंक न सकें। परंतु वे गोपी को बचाकर वार करने का मौका नहीं छोड़ते।)
अविनाश : (ऊँची आवाज से) इन्हें रोको मत गोपी ! ये सुशिक्षित हैं, समझदार भी हैं परंतु अभी इन्होंने अपने हाथ से कुछ रचा नहीं है। मुझे इस मकान से लगाव है, क्योंकि जब इसकी नींव तैयार हो रही थी तब मैंने स्वेच्छा से हाथ बढ़ाया था।
रमेश : (जैसे अविनाश की बात छू गई हो) रुक जाओ निमेष, नरेश ! (नरेश नहीं रुकता। रमेश इसका हाथ पकड़कर रोकना चाहता है, नरेश पत्थर फेंकते वक्त संतुलन गँवा देता है, अविनाश को चोट लगती है।)
गोपी : ओह, आपने यह क्या किया? (दौड़कर अविनाश के पास पहुँचती है। नरेश लज्जित होकर रुक जाता है।)
अविनाश : यह तो कुछ भी नहीं है गोपी! (दो कदम आगे आकर) सामने से आग के गोले आते तो भी मैं नहीं हटता। यदि निमेष या नरेश ने भी मेरी तरह इस मकान की रचना में हाथ बँटाया होता तो वे भी मेरे स्थान पर खड़े होते और अंत तक अडिग रहते। पर ये लोग तोड़ते हैं, क्योंकि इन्होंने रचा नहीं।
रमेश : हमें माफ करो अविनाश ! तुमने आज हमें सही अर्थ में जगाया है, अपने प्राणों की बाजी लगाकर। हम संकल्प करते हैं कि तुम्हारी या किसी की रचना को तोड़ेंगे नहीं, प्रतीक्षा करेंगे, सहेंगे….।
गोपी : इसमें तो मैं भी आपका साथ दूँगी।
निमेष : फिर प्रसादजी की कविता का क्या होगा?
गोपी : हो सकता है किसी नए प्रसाद की रचना इस विद्रोह और प्रतीक्षा के बीच जन्म ले। (आगे आकर बैठती है, सभी उसका अनुसरण करते हैं।)
ग्राम पंचायत – गाँव की अगुआई (प्रशासन) करने वाली संस्था
जम्हाई – उवासी ऊब जाने के बाद की शारीरिक प्रक्रिया
शिष्ट भाषा – मान्य भाषा
पलायन – गायब
मुहावरा
नींद हराम कर देना – चैन से सोने नहीं देना।
1. निम्नलिखित प्रश्नों के नीचे दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प चुनकर उत्तर लिखिए :-
(1) गोपी को प्रसादजी की कविता कौन समझाने वाला था?
(अ) निमेष
(ब) नरेश
(क) अविनाश
(ड) रमेश
उत्तर – (क) अविनाश
(2) ‘तुम चाहो तो शिष्ट भाषा में आवेदन पत्र दे सकते हो।’ यह वाक्य कौन कहता है?
(अ) रमेश
(ब) निमेष
(क) नरेश
(ड) गोपी
उत्तर – (अ) रमेश
2. निम्नलिखित प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-
(1) ‘कविता क्या है? इस प्रश्न का गोपी क्या उत्तर देती है?
उत्तर – ‘कविता आत्मा की कला है, संवेदना का सौंदर्य है।’ कविता के संदर्भ में गोपी ने यह उत्तर दिया।
(2) रमेश और नरेश ग्राम पंचायत के सदस्यों का विरोध क्यों करते थे?
उत्तर – रमेश और नरेश ग्राम पंचायत के सदस्यों का विरोध करते थे क्योंकि पंचायत के सदस्य तरह-तरह के घोटाले कर रहे हैं और पूछने पर जवाब भी नहीं दे रहे थे।
(3) अविनाश नरेश को किसी का तिरस्कार न करने के लिए क्यों कहता है?
उत्तर – अविनाश नरेश को किसी का तिरस्कार न करने के लिए कहता है क्योंकि अविनाश का मानना है कि हम गाँव के पढ़े-लिखे युवक है और इस लिहाज से हमारी दूसरों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी बनती है।
(4) रमेश ने अविनाश को आशावादी क्यों कहा?
उत्तर – रमेश ने अविनाश को आशावादी कहा क्योंकि रमेश सही तरीके से न्याय पाना चाहता था और पुलिस के आने पर भी बिना विचलित हुए सही समय का इंतज़ार करना चाहता था।
3. निम्नलिखित प्रश्न के दो-तीन वाक्यों में उत्तर लिखिए :-
(1) गाँव के युवक पंचायत के पदाधिकारियों से किस बात पर नाराज थे?
उत्तर – गाँव के युवक पंचायत के पदाधिकारियों से अनेक बातों पर नाराज थे, जैसे – गाँव की बेहतरी के लिए आने वाले राशि का घोटाला, उर्वरकों के वितरण में हेर-फेर, गरीबों के लिए आनेवाले रेशन को काला बाजार में बेचने की बात आदि।
(2) अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिए उन्होंने किन-किन साधनों का उपयोग किया?
उत्तर – अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिए गाँव के कुछ युवकों ने पहले तो अनशन किया, फिर शिकायत पत्र लिखे, फिर खुद भी वहीं बैठ गए और पंचायत के सदस्यों को भी जाने नहीं दिया, इसके बाद जब उनकी दरख्वास्त फाइल होने के बाद पंचायत सदस्य चले गए तो वे पथराव करने तक की सोचने लगे।
(3) नरेश और उसके साथी अपने हाथों का कौन-सा कमाल दिखाना चाहते थे?
उत्तर – नरेश और उसके साथी अपने मजबूत हाथों का कमाल पंचायत के सदस्यों को पीटकर दिखाना चाहते थे क्योंकि उनका मानना था कि लातों के देवता बातों से नहीं मानते।
(4) रमेश पथराव क्यों करना चाहता है?
उत्तर – रमेश पथराव करना चाहता है क्योंकि उसका मानना था कि जब तक हम अनुनय-विनय करते रहेंगे हमारी समस्या का समाधान नहीं निकलने वाला। अगर हम पथराव करते हैं तो उन्हें डर के कारण मजबूरन ही सही हमारी बात सुननी पड़ेगी और उस पर अमल भी करना पड़ेगा।
4. निम्नलिखित प्रश्न के पाँच-छह वाक्यों में उत्तर लिखिए :-
(1) अविनाश पथराव का विरोध क्यों करता है?
उत्तर – अविनाश एक पढ़ा-लिखा और समझदार युवक है। उसे यह भली-भाँति पता है कि पथराव से कोई भी रास्ता नहीं निकलने वाला। ऐसा करना कानून को हाथ में लेने के बराबर है। उसका मानना है कि बातचीत से सभी मसले हल किए जा सकते हैं। दूसरा कारण पथराव का विरोध करने के पीछे यह भी है कि उस मकान के निर्माण में अविनाश ने हाथ लगाया था। वह उस मकान को अपनी रचना मानता है और अपनी रचना को किसी भी कीमत पर वह खंडित नहीं होने देना चाहता।
(2) ‘रचना’ एकांकी से हमें क्या सीख मिलती है?
उत्तर – ‘रचना’ एकांकी से हमें अनेक सीख मिलती है, जैसे –
साहित्य की महिमा और इसका रसास्वादन अद्वितीय होता है।
किसी भी विपरीत परिस्थिति में हमें अपशब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए।
किसी भी समस्या के समाधान हेतु बैठकर विचार-विमर्श करना चाहिए।
हिंसात्मक गतिविधि से हम अपने साथ-साथ दूसरों का नुकसान करते हैं। इसके साथ-साथ सार्वजनिक संपत्ति की भी क्षति होती है।
5. निम्नलिखित वाक्य किसने कहे हैं, लिखिए –
(1) ये सुशिक्षित हैं, समझदार भी हैं परंतु अभी इन्होंने अपने हाथ से कुछ रचा नहीं है।
उत्तर – अविनाश जी रमेश से
(2) कविता समझने से कोई फायदा नहीं होगा।
उत्तर – रमेश जी गोपी से
(3) अपशब्दों के उपयोग पर अविनाश का प्रतिबंध है।
उत्तर – रमेश जी निमेष से
(4) हो सकता है, किसी नए प्रसाद की रचना इस विद्रोह और प्रतीक्षा के बीच जन्म ले।
उत्तर – गोपी जी निमेष जी
(1) कविता आत्मा की कला है, संवेदना का सौंदर्य है।
उत्तर – इस पंक्ति का आशय यह है कि कविता भावों का लयात्मक प्रस्तुति होती है। यह हमारी आत्मा की उपज होती है। इसमें हमारे मन के भाव प्रस्फुटित होते हैं जो आत्मानुभव से निकलते हैं और श्रोताओं या पाठकों को भी भावविभोर करते हैं। कविता में प्राय: सुखद – दुखद संवेदनाएँ होती हैं जिनमें अपार सौंदर्य और साहित्यिक सौष्ठव होता है।
7. निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए :-
फायदा – घाटा
शिक्षित – अशिक्षित
कोमल – कठोर
भ्रष्टाचार – सदाचार
सहयोग – असहयोग
जयशंकर प्रसाद की कविता ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से ढूँढ़कर पढ़िए।
उत्तर – हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के-रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!
- प्रस्तुत एकांकी का कक्षा में अभिनय कीजिए।
उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर करें।
- क्या नवनिर्माण के लिए प्राचीन का विनाश जरूरी है? इस विषय पर कक्षा में वाद-विवाद का आयोजन कीजिए।
उत्तर – यह प्रश्न एक गहरे विचार का विषय है और इसमें दोनों पक्षों के लिए तर्क दिए जा सकते हैं। आइए, इसे दो दृष्टिकोणों से देखें:
पक्ष 1: हाँ, प्राचीन का विनाश जरूरी है
प्रगति के लिए परिवर्तन आवश्यक है: जब समाज में परिवर्तन की आवश्यकता होती है, तो पुराने विचार, व्यवस्थाएँ और संरचनाएँ रुकावट का कारण बन सकती हैं। नवनिर्माण के लिए कभी-कभी पुराने तरीके, परंपराएँ और प्रणालियाँ, जो अब अप्रचलित हो चुकी होती हैं, उन्हें समाप्त करना पड़ता है। जैसे विज्ञान और तकनीक में लगातार सुधार होता है, ऐसे में पुराने मॉडल को बदलना ज़रूरी होता है।
नई सोच का जन्म: नवनिर्माण के लिए प्राचीन संरचनाओं का ढहना नई विचारधारा और दृष्टिकोण को जन्म दे सकता है। जब पुराने ढांचे समाप्त होते हैं, तब नए विचार और दृष्टिकोण अपनी जगह बना सकते हैं, जो अधिक प्रासंगिक और प्रभावी होते हैं।
विकास की गति: अगर हम प्राचीन विचारों और व्यवस्थाओं से बंधे रहते हैं, तो विकास की गति धीमी हो सकती है। समय के साथ बदलते हुए समाज की ज़रूरतों और चुनौतियों का सामना करने के लिए पुराने विचारों को छोड़ना आवश्यक होता है।
पक्ष 2: नहीं, प्राचीन का विनाश जरूरी नहीं है
प्राचीन ज्ञान का संरक्षण: कई प्राचीन विचार और प्रणालियाँ, जो आज के समय में भी प्रासंगिक हैं, हमें महत्वपूर्ण जीवनदृष्टि और अनुभव प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए, प्राचीन सभ्यताओं से मिलने वाले नैतिक और दार्शनिक विचार हमें समकालीन समस्याओं को समझने में मदद कर सकते हैं।
नवीनता का सृजन पुरानी धरोहर से हो सकता है: नवनिर्माण और विकास केवल पुराने को नष्ट करने से नहीं, बल्कि पुराने को नए तरीके से अपनाने और सुधारने से भी हो सकता है। हमें प्राचीन परंपराओं और ज्ञान का सम्मान करते हुए उन्हें आधुनिक समय में लागू करने का प्रयास करना चाहिए।
समाज का संतुलन: यदि हम पूरी तरह से पुराने को नष्ट कर देंगे, तो हम उस संतुलन को खो सकते हैं जो पुराने और नए के बीच होता है। दोनों का एक साथ अस्तित्व समाज की स्थिरता और विकास के लिए जरूरी हो सकता है।
निष्कर्ष:
यह कहना कि ‘प्राचीन का विनाश जरूरी है’ या ‘नहीं है,’ इस पर विचार करते हुए दोनों पक्षों के तर्कों को समझना महत्वपूर्ण है। शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि नवनिर्माण के लिए जरूरी नहीं कि हमेशा प्राचीन का पूर्ण विनाश हो, बल्कि पुरानी बातों का उचित संशोधन और आधुनिक संदर्भ में पुनर्विचार कर के नये निर्माण की दिशा तय की जा सकती है।