मोहन राकेश
(जन्म: 8 जनवरी सन् 1925- मृत्यु – 1972 ई)
मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी 1925 को हुआ। उनके पिता कर्मचंद भुगलानी एक वकील थे। 8 फरवरी 1941 को पिता की आकस्मिक मृत्यु हुई। 16 वर्षीय राकेश को समाज के कड़वे जीवन यथार्थ झेलना पड़ा तथा संघर्ष के पथ पर चलना पड़ा। 1952 में पंजाब विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. की परीक्षा उतीर्ण की। सन् 1947 में भारत विभाजन ने उनके परिवार को जमीन से उखाड़ फेंका। वे मुंबई आ पहुँचे। फिल्मी दुनिया में पटकथा लेखक के रूप में काम किया। मन नहीं लगा तो छोड़ दिया। फिर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में काम किया। यहाँ पर भी उनका स्वाभिमान आड़े आया। काफी भागदौड़ के बाद डी.ए.वी. कॉलेज अमृतसर में प्राध्यापक का पद संभाला किन्तु उससे भी मुक्त हो गए। फिर दिल्ली आकर ‘अक्षर प्रकाशन से नाता जोड़ा। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनने के साथ-साथ 1962 में ‘सारिका’ का संपादन भार ग्रहण किया। उनके शोधकर्म पर उन्हें 1 लाख रूपए का नेहरू फेलोशिप पुरस्कार मिला। गोविंद चातक ने उनके वैवाहिक और पारिवारिक जीवन के बारे में लिखा हैं कि “वे कभी भी स्थिर नहीं रहे, न नौकरी से बंधे, न व्यक्तियों से, घर उन्हें डराता रहा’”।
मोहन राकेश हिंदी साहित्य में एक कहानीकार, नाटककार, उपन्यासकार, निबंधकार, अनुवादक, डायरी लेखक, संस्मरण लेखक के रूप में सुपरिचित हैं। वे नई कहानी आन्दोलन के प्रमुख कर्णधार रहे। वे एक ऐसे नाटककार थे जिन्होंने हिंदी नाट्यकला को रंगमंचीय श्रेष्ठता और पहचान दी। वे आधुनिक शैली के नाटककार थे।
उनकी पहली कहानी थी जो 1944 के ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। उनकी व्यक्ति केंद्रित कहानियों में पात्रों की स्थिति और मनःस्थितियों का ऐसा सच्चा चित्रण है कि व्यक्ति उसे पढ़ने के साथ-साथ महसूस भी करता है। स्त्री-पुरुष के तनाव, घुटन, अलगाव के साथ-साथ उन्होंने वैवाहिक जीवन-मूल्यों के सत्य को भी उद्घाटित किया है।
रचनाएँ :
कहानी संग्र हः इन्सान के खंडहर, नये बादल, जानवर और जानवर, एक और जिंदगी, चेहरे, फौलाद का आकाश, मलवे का मालिक।
नाटक : आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे अधूरे उपन्यास: अंधेरे बंद कमरे, न आनेवाला कल, काँपता हुआ दरिया, नीली रोशनी की बाँह ,
संस्मरण : आखिरी चट्टान, ऊँची झील
डायरी : मेरा पन्ना
परमात्मा का कुत्ता
बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे, जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो- एक व्यक्ति पगड़ियाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सड़क के किनारे बिखर गए थे। छोले-कुलचे वाले का रोजगार गरम था, और कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा था। नल के पास कुर्सी डालकर बैठा अर्जीनवीस धड़ाधड़ अर्जियाँ टाइप कर रहा था। उसके माथे से बहकर पसीना उसके होंठों पर आ रहा था, लेकिन उसे पोंछने की फुरसत नहीं थी। सफेद दाढ़ियों वाले दो-तीन लम्बे ऊँचे जाट अपनी लाठियाँ पर झुके हुए उसके खाली होने का इन्तजार कर रहे थे। धूप से बचने के लिए अर्जीनवीस ने जो टाट का परदा लगा रखा था, वह हवा से उड़ा जा रहा था। थोड़ी दूर मोढ़े पर बैठा उसका लड़का अँग्रेजी प्राइमर को रट्टा लगा रहा था-सी ए टी केट-केट माने बिल्ली, बी ए टी बेट बेट माने बल्ला एफ ए टी फेट-फेट माने मोटा…। कमीजों के आधे बटन खोले और बगल में फाइलें दबाए कुछ बाबू एक-दूसरे से छेड़खानी करते रजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब्रांच की तरफ जा रहे थे। लाल बेल्ट वाला चपरासी, आस-पास की भीड़ से उदासीन, अपने स्टूल पर बैठा मन-ही-मन कुछ हिसाब कर रहा था। कभी उसके होंठ हिलते थे और कभी सिर हिल जाता था। सारे कम्पाउंड में सितम्बर की खुली धूप फैली थी। चिड़ियों के कुछ बच्चे डालों से कूदने और फिर ऊपर को उड़ने का अभ्यास कर रहे थे और कई बड़े-बड़े कौए पोर्च के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चहलकदमी कर रहे थे। एक सत्तर- पचहत्तर की बुढ़िया, जिसका सिर काँप रहा था और चेहरा झुर्रियों के गुंझल के सिवा कुछ नहीं था, लोगों से पूछ रही थी कि वह अपने लड़के के मरने के बाद उसके नाम एलाट हुई जमीन की हकदार हो जाती है या नहीं…?
अंदर हॉल कमरे में फाइलं धीरे-धीरे चल रही थीं। दो-चार बाबू बीच की मेज के पास जमा होकर चाय पी रहे थे। उनमें से एक दफ्तरी
कागज पर लिखा अपनी ताजा गजल दोस्तों को सुना रहा था और दोस्त इस विश्वास के साथ सुन रहे थे कि वह जरूर उसने ‘शमा’ या ‘बीसवीं सदी’ के किसी पुराने अंक में से उड़ाई है।
“अजीज साहब, ये शेर आज ही कहे हैं, या पहले कहे हुए शेअर आज अचानक याद हो आए हैं?” साँवले चेहरे और घनी मूँछा वाले एक बाबू ने बायीं आँख को जरा-सा दबाकर पूछा। आस-पास खड़े सब लोगों के चेहरे खिल गए।
“यह बिल्कुल ताजा गजल है,” अजीज साहब ने अदालत में खड़े होकर हलफिया बयान देने के लहजे में कहा, ‘इससे पहले भी इसी वजन पर कोई ओर चीज कही हो तो याद नहीं।” और फिर आँखों से सबके चेहरों को टटोलते हुए वे हल्की हँसी के साथ बोले, “अपना दीवाना तो कोई रिसर्चदां ही मुरत्तब करेगा…. | “
एक फरमायशी कहकहा लगा जिसे ‘शी-शी’ की आवाजों ने बीच में ही दबा लिया। कहकहे पर लगायी गयी इस ब्रेक का मतलब था कि कमिश्नर साहब अपने कमरे में तशरीफ ले आए हैं। कुछ देर का वक्फा रहा, जिसमें सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह की फाइल एक मेज से एक्शन के लिए दूसरी मेज पर पहुँच गयी, सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह मुसकराता हुआ हॉल से बाहर चला गया, और जिस बाबू की मेज से फाइल गयी थी, वह पाँच रूपये के नोट को सहलाता हुआ चाय पीने वालों के जमघट में आ शामिल हुआ। अजीज साहब अब आवाज जरा धीमी करके गजल का अगला शेर सुनाने लगे।
साहब के कमरे से घंटी हुई। चपरासी मुस्तैदी से उठकर अंदर गया, और उसी मुस्तैदी से वापस आकर फिर अपने स्टूल पर बैठ गया।
चपरासी से खिड़की का पर्दा ठीक कराकर कमिश्नर साहब ने मेज पर रखे ढेर से कागजों पर एक साथ दस्तखत किए और पाइप सुलगाकर ‘रीडर्ज डाइजेस्ट’ का ताजा अंक बैग से निकाल लिया। लेटीशिया बाल्ड्रिज का लेख कि उसे इतालवी मर्दों से क्यों प्यार है, वे पढ़ चुके थे। और लेखों में हृदय की शल्य चिकित्सा के सम्बन्ध में जे.डी. रेडक्लिफ का लेख उन्होंने सबसे पहले पढ़ने के लिए चुन रखा था। पृष्ठ एक सौ ग्यारह खोलकर वे हृदय के नए ऑपरेशन का ब्योरा पढ़ने लगे।
तभी बाहर से कुछ शोर सुनाई देने लगा। कंपाउंड में पेड़ के नीचे बिखरकर बैठे लोगों में चार नए चेहरे आ शामिल हुए थे। एक अधेड़ आदमी था, जिसने अपनी पगड़ी जमीन पर बिछा ली थी और हाथ पीछे करके तथा टाँगे फैलाकर उस पर बैठ गया था। पगड़ी के सिरे की तरफ उससे जरा बड़ी उम्र की एक स्त्री और एक जवान लड़की बैठी थीं और उनके पास खड़ा एक दुबला-सा लड़का आस-पास की हर चीज को घूरती नजर से देख रहा था। अधेड़ मरद की फैली हुई टाँग धीरे-धीरे पूरी खुल गयी थीं और आवाज इतनी ऊँची हो गयी थी कि कम्पाउंड के बाहर से भी बहुत से लोगों का ध्यान उसकी तरफ खिंच गया। था। वह बोलता हुआ, साथ अपने घुटने पर हाथ मार रहा था। “सरकार वक्त ले रही है। दस – पाँच साल में सरकार फैसला करेगी कि अर्जी मंजूर होनी चाहिए या नहीं। सालो, यमराज भी तो हमारा वक्त गिन रहा है। उधर वह वक्त पूरा होगा और इधर तुमसे पता चलेगा कि हमारी अर्जी मंजूर हो गयी है।”
चपरासी की टाँगें जमीन पर पुख्ता हो गयी, और वह सीधा खड़ा हो गया। कम्पाउंड में बिखरकर बैठे और लेटे हुए लोग अपनी-अपनी जगह पर कस गये। कई लोग उस पेड़ के पास आ जमा हुए।
“दो साल से अर्जी दे रखी है कि सालो, जमीन के नाम पर तुमने मुझे जो गड्ढा एलाट कर दिया है, उसकी जगह कोई दूसरी जमीन दो। मगर दो साल से अर्जी यहाँ के दो कमरे ही पार नहीं कर पायी!” वह आदमी अब जैसे एक मजमे में बैठकर तकरीर करने लगा, “इस कमरे से उस कमरे में अर्जी के जाने में वक्त लगता है। इस मेज से उस मेज तक जाने में भी वक्त लगता है। सरकार वक्त ले रही है! लो में आ गया हूँ आज यहीं पर अपना सारा घर-बार लेकर ले लो जितना वक्त तुम्हें लेना है!…. सात साल की भुखमरी के बाद सालों ने जमीन दी है मुझे सो मरले का गड्ढा ! उसमें क्या मैं बाप-दादों की अस्थियाँ गड़ूँगा? अर्जी दी थी कि मुझे सो मरले की जगह पचास मरले दे दो लेकिन जमीन तो दो! मगर अर्जी दो साल से वक्त ले रही है। में भूखा मर रहा हूँ, और अर्जी वक्त ले रही है!”
चपरासी अपने हथियार लिए हुए आगे आया – माथे पर त्योरियाँ और आँखों में क्रोध। आस-पास की भीड़ को हटाता हुआ वह उसके पास आ गया। “ए मिस्टर, चल हियाँ से बाहर!” उसने हथियारों की पूरी चोट के साथ कहा, “चल… उठ… !!”
“मिस्टर आज यहाँ से नहीं उठ सकता।” वह आदमी अपनी टाँग थोड़ी और चौड़ी करके बोला, “मिस्टर आज यहाँ का बादशाह है। पहले मिस्टर देश के बेताज बादशहों की जय बुलाता था। अब वह किसी की जय नहीं बुलाता। अब वह खुद यहाँ का बादशाह है….. बेताज बादशाह उसे कोई लाज शरम नहीं है। उस पर किसी का हुक्म नहीं चलता। समझे, चपरासी बादशाह!”
“अभी तुझे पता चल जाएगा कि तुझ पर किसी का हुक्म चलता है या नहीं”, चपरासी बादशाह और गरम हुआ, “अभी पुलिस के सुपुर्द कर दिया जाएगा तो तेरी सारी बादशाही निकल जाएगी…।”
“हा हा!” बेताज बादशाह हँसा। “तेरी पुलिस मेरी बादशाही निकालेगी? तू बुला पुलिस को में पुलिस के सामने नंगा हो जाऊँगा और कहूँगा कि निकालो मेरी बादशाही! हममें से किस-किसकी बादशाही निकालेगी पुलिस? ये मेरे साथ तीन बादशाह और हैं। यह मेरे भाई की बेवा है-उस भाई की, जिसे पाकिस्तान में टाँगों से पकड़कर चीर दिया गया था। यह मेरे भाई की लड़की है, जो अब ब्याहने लायक हो गयी है। इसकी बड़ी कुँवारी बहन आज भी पाकिस्तान में है। आज मैंने इन सबको बादशाही दे दी है। तू ले आ जाकर अपनी पुलिस, कि आकर इन सबकी बादशाही निकाल दे। कुत्ता साला…!
अंदर से कई – एक बाबू निकलकर बाहर आ गये थे। ‘कुत्ता साला’ सुनकर चपरासी आपे से बाहर हो गया। वह तैश में उसे बाँह से पकड़कर घसीटने लगा, “तुझे अभी पता चल जाता है कि कौन साला कुत्ता है। मैं तुझे मार-मारकर…” और उसने उसे अपने टूटे हुए बूट की एक ठोकर दी। स्त्री और लड़की सहमकर वहाँ से हट गयीं। लड़का एक तरफ खड़ा होकर रोने लगा।
बाबू लोग भीड़ को हटाते हुए आगे बढ़ आए और उन्होंने चपरासी को उस आदमी के पास से हटा लिया। चपरासी फिर भी बड़बड़ाता रहा, “कमीना आदमी, दफ्तर में आकर गाली देता है। में अभी तुझे दिखा देता कि…”
“एक तुम्हीं नहीं, यहाँ तुम सबके सब कुत्ते हो,” वह आदमी कहता रहा, “तुम सब भी कुत्ते हो, और में भी कुत्ता हूँ। फर्क इतना है कि तुम लोग सरकार के कुत्ते हो- हम लोगों की हड्डियाँ चूसते हो और सरकार की तरफ से भौंकते हो। में परमात्मा का कुत्ता हूँ। उसकी दी हुई हवा खाकर जीता हूँ, और उसकी तरफ से भौंकता हूँ। उसका घर इन्साफ का घर है। में उसके घर की रखवाली करता हूँ। तुम सब उसके इन्साफ की दौलत के लुटेरे हो। तुम पर भौंकना हमारा फर्ज है, मेरे मालिक का फरमान है। मेरा तुमसे असली बेर है। कुत्ते का बेरी कुत्ता होता है। तुम मेरे दुश्मन हो, में तुम्हारा दुश्मन हूँ। मैं अकेला हूँ, इसलिए तुम सब मिलकर मुझे मारो। मुझे यहाँ से निकाल दो। लेकिन में फिर भी भौंकता रहूँगा। तुम मेरा भौंकना बन्द नहीं कर सकते। मेरे अंदर मेरे मालिक का नूर है, मेरे वाहगुरू का तेज है। मुझे जहाँ बन्द कर दोगे, में वहाँ भौंकूँगा, और भौंक – भौंककर तुम सबके कान फाड़ दूँगा। साले, आदमी के कुत्ते, जूठी हड्डी पर मरनेवाले कुत्ते, दुम हिला-हिलाकर जीनेवाले कुत्ते…. !”
“बाबाजी, बस करो,” एक बाबू हाथ जोड़कर बोला, “हम लोगों पर रहम खाओ, और अपनी यह सन्तबानी बन्द करो। बताओ तुम्हारा नाम क्या है, तुम्हारा केस क्या है…?”
“मेरा नाम हे बारह सौ छब्बीस बटा सात! मेरे माँ-बाप का दिया हुआ नाम खा लिया कुत्तों ने। अब यही नाम है जो तुम्हारे दफ्तर का दिया हुआ है। में बारह सौ छब्बीस वटा सात हूँ। मेरा और कोई नाम नहीं है। मेरा यह नाम याद कर लो। अपनी डायरी में लिख लो। वाहगुरू का कुत्ता – बारह सो छब्बीस बटा सात।”
“बाबाजी, आज जाओ, कल या परसों आ जाना। तुम्हारी अर्जी की कार्रवाई तकरीबन – तकरीबन पूरी हो चुकी है! और मैं खुद ही तकरीबन – तकरीबन पूरा हो चुका हूँ! अब देखना यह है कि पहले कार्रवाई पूरी होती है, कि पहले मैं पूरा होता हूँ। एक तरफ सरकार का हुनर है और दूसरी तरफ परमात्मा का हुनर है। तुम्हारा तकरीबन तकरीबन अभी दफ्तर में ही रहेगा और मेरा तकरीबन – तकरीबन कफन में पहुँच जाएगा। सालों ने सारी पढ़ाई खर्च करके दो लफ्ज ईजाद किए हैं-शायद और तकरीबन। “शायद आपके कागज ऊपर चले गए हैं- ‘तकरीबन – तकरीबन कार्रवाई पूरी हो चुकी है’ ! शायद से निकालो और तकरीबन में डाल दो। तकरीबन से निकालो और शायद में गर्क कर दो। तकरीबन तीन चार महीने में तहकीकात होगी।… शायद महीने दो महीने में रिपोर्ट आएगी।” मैं आज शायद और तकरीबन दोनों घर पर छोड़ आया हूँ। मैं यहाँ बैठा हूँ और यहीं बैठा रहूँगा। मेरा काम होना है, तो आज ही होगा और अभी होगा। तुम्हारे शायद और तकरीबन के ग्राहक ये सब खड़े हैं। यह ठगी इनसे करो….
बाबू लोग अपनी सद्भावना के प्रभाव से निराश होकर एक-एक करके अंदर लौटने लगे।
“बैठा है, बैठा रहने दो।”
“बकता है, बकने दो।”
“साला बदमाशी से काम निकालना चाहता है।”
“लेट हिम बार्क हिमसेल्फ टू डेथ।”
बाबुओं के साथ चपरासी भी बड़बड़ाता हुआ अपने स्टूल पर लौट
गया। “ में साले के दाँत तोड़ देता। अब बाबू लोग हाकिम हैं ओर हाकिमों का कहा मानना पड़ता है, वरना…”
“अरे बाबा, शान्ति से काम ले। यहाँ मिन्नत चलती है। पैसा चलता है। धोंस नहीं चलती, “ भीड़ में से कोई उसे समझाने लगा।
वह आदमी उठकर खड़ा हो गया।
“मगर परमात्मा का हुक्म हर जगह चलता है,” वह अपनी कमीज उतारता हुआ बोला, “और परमात्मा के हुक्म से आज बेताज बादशाह नंगा होकर कमिश्नर साहब के कमरे में जाएगा। आज वह नंगी पीठ पर साहब के डंडे खाएगा। आज वह बूटों की ठोकरें खाकर प्राण देगा। लेकिन वह किसी की मिन्नत नहीं करेगा। किसी को पैसा नहीं चढ़ाएगा। किसी की पूजा नहीं करेगा। जो वाहेगुरू की पूजा करता है, वह और इससे पहले कि वह अपने कहे को किए में परिणत करता, दो-एक आदमियों ने बढ़कर तहमद की गाँठ पर रखे उसके हाथ को पकड़ लिया। बेताज बादशाह अपना हाथ छुड़ाने के लिए संघर्ष करने लगा।
“मुझे जाकर पूछने दो कि क्या महात्मा गाँधी ने इसीलिए इन्हें आजादी दिलाई थी कि ये आजादी के साथ इस तरह सम्भोग करें? उसकी मिट्टी खराब करें? उसके नाम पर कलंक लगाएँ? उसे टके-टके की फाइलों में बाँधकर जलील करें? लोगों के दिलों में उसके लिए नफरत पैदा करें? इनसान के तन पर कपड़े देखकर बात इन लोगों की समझ में नहीं आती। शरम तो उसे होती है जो इनसान हो। मैं तो आप कहता हूँ कि में इनसान नहीं, कुत्ता हूँ… !”
सहसा भीड़ में एक दहशत-सी फैल गयी। कमिश्नर साहब अपने कमरे से बाहर निकल आए थे। वे माथे की त्योरियाँ और चेहरे की झुर्रियाँ को गहरा किए भीड़ के बीच में आ गए।
“क्या बात है? क्या चाहते हो तुम?”
“आपसे मिलना चाहता हूँ, साहब, वह आदमी साहब को घूरता हुआ बोला, “सौ मरले का एक गड्ढा मेरे नाम एलाट हुआ है। वह गड्ढा आपको वापस करना चाहता हूँ ताकि सरकार उसमें एक तालाब बनवा दे, और अफसर लोग शाम को वहाँ जाकर मछलियाँ मारा करें। या उस गड्ढे में सरकार एक तहखाना बनवा दे और मेरे जैसे कुत्तों को उसमें बन्द कर दे… !”
“ज्यादा बक-बक मत करो और अपना केस लेकर मेरे पास आओ।” “मेरा केस मेरे पास नहीं है, साहब! दो साल से सरकार के पास है- आपके पास है। मेरे पास अपना शरीर और दो कपड़े हैं। चार दिन बाद ये भी नहीं रहेंगे, इसलिए इन्हें भी आज ही उतार दे रहा हूँ। इसके बाद बाकी सिर्फ बारह सौ छब्बीस बटा सात रह जाएगा। बारह सौ छब्बीस बटा सात को मार-मारकर परमात्मा के हुजूर में भेज दिया जाएगा…।”
“यह बकवास बन्द करो और मेरे साथ अंदर आओ।’
और कमिश्नर साहब अपने कमरे में वापस चले गए। वह आदमी भी कमीज कन्धे पर रखे उस कमरे की तरफ चल दिया।
“दो साल चक्कर लगाता रहा, किसी ने बात नहीं सुनी। खुशामदें करता रहा, किसी ने बात नहीं सुनी। वास्ते देता रहा, किसी ने बात नहीं सुनी…।”
चपरासी ने उसके लिए चिक उठा दी और वह कमिश्नर साहब के कमरे में दाखिल हो गया। घंटी बजी, फाइलें हिलीं, बाबुओं की बुलाहट हुई, और आधे घंटे के बाद बेताज बादशाह मुस्कराता हुआ बाहर निकल आया। उत्सुक आँखों की भीड़ ने उसे आते देखा, तो वह फिर बोलने लगा, “चूहों की तरह बिटर- बिटर देखने से कुछ नहीं होता। भौंको, भौंको, सबके सब भौंको। अपने-आप सालों के कान फट जाएँगे। भौंको कुत्तों, भौंको….
उसकी भौजाई दोनों बच्चों के साथ गेट के पास खड़ा इन्तजार कर रही थी। लड़के और लड़की के कन्धे पर हाथ रखते हुए वह सचमुच बादशाह की तरह सड़क पर चलने लगा।
“हयादार हो, तो सालहों-साल मुँह लटकाए खड़े रहो। अर्जियाँ टाइप कराओ और नल का पानी पियो। सरकार वक्त ले रही है! नहीं तो बेहया बनो। बेहयाई हजार बरकत है।”
वह सहसा रूका और जोर से हँसा।
“यारो, बेहयाई हजार बरकत है।”
उसके चले जाने के बाद कम्पाउंड में और आस-पास मातमी वातावरण पहले से और गहरा हो गया। भीड़ धीरे-धीरे बिखरकर अपनी जगहों पर चली गयी। चपरासी की टाँगें फिर स्टूल पर झुलने लगीं। सामने के केंटीन का लड़का बाबुओं के कमरे में एक सेट चाय ले गया। अर्जीनवीस की मशीन चलने लगी और टिक-टिक की आवाज के साथ उसका लड़का फिर अपना सबक दोहराने लगा। ‘पी ई एन पेन-पेन माने कलम, एच ई ए हेन माने मुर्गी, डी ई ऐन डेन-डेन माने अँधेरी गुफा… !”
शब्दार्थ :
मातम – शोक
कंपाउंड – अहाता
क्यू – पंक्ति
अर्जियाँ – आवेदन पत्र, प्रार्थना पत्र
फरमाइश – आदेश
तशरीफ लाना – पदार्पण करना
मुस्तैदी से – फूर्ती से
बोरा – विवरण
एलाट – आबंटन
मजमे:- जमघट, भीड़भाड़, लोगों का जमाव,
आस्थियाँ – हड्डियाँ
सुपुर्द – हवाले
बेवा – विधवा
लायक – योग्य, काबिल,
तैश – गुस्सा इंसाफ-न्याय
फर्ज – कर्तव्य
फरमान – आज्ञा, आदेश
चमक – ज्योति
बेरी – दुश्मनी
नूर – चमक,
रहम – दया
तकरीबन – लगभग
हुनर – कला.
लफज – शब्द, बोल
ईज़ाद – आविष्कार, किसी नवीन वस्तु का निर्माण
गर्क – निमग्न, डूबा हुआ
तहकीकात – छानबीन
खोज – अनुसंधान
हुक्म – आदेश
मिलत- गुहार, निवेदन
तहमद – गमछा
जलील – बदनामी, निंदा
दहशत – डर, खौफ, भय,
दहशत – डर, खौफ, भय,
इन्सान – मनुष्य
नहरवाना – तलगृह
बरकत – फायदा, लाभ,
बेहया – बेशर्म
हयादार – लज्जाशील
इन्तजार – अपेक्षा
भोजाई – भाभी, भावज
बुलावट – पुकार, बुलावा
बकवास – बेकार की बात
प्राइमर – बालकविता
कमीज़ों – कुर्ता
गुंझल – गुच्छा
अदालत – न्यायालय
लहजे – शैली
फ़रमायशी – निवेदन
मतलब – अर्थ
पुख्ता – टिकना
बेलाज – निर्लज्ज
फर्क – अन्तर
सिर्फ – केवल
इन्साफ – न्याय
हुनर – कला
गर्क – गाढना
कमीजों – कुर्ता
लहजे – शैली
फ़रमायशी – निवेदन
दहशत – कोलाहल
ज्यादा – अधिक
हयादार – पानीदार
मातवी – रोवन
निम्न प्रश्नों के उत्तर दस-बारह वाक्यों में दीजिए।
1. बूढ़े ने अपने को बेताज बादशाह क्यों कहा?
उत्तर – साधारणत: बादशाह वह होता है जिसके पास राज्य और प्रजा हो। जो राज्य में सबसे ऊपर हो। जिसका कहा सब कोई माने उसे ही बादशाह कहते हैं। पर उसे बूढ़े सिक्ख के पास ऐसा कुछ नहीं था। वह तो दो साल से अपने नाम एलॉट हुई 100 मरले गड्ढे वाली ज़मीन बदलवाने के लिए कचहरी के चक्कर लगा रहा था। जब उसके सब्र का बाँध टूट गया तब उसने बादशाहों वाला सख्त रवैया अपनाया और अपने आपको बेताज बादशाह कहकर पुकारने लगा। जिस प्रकार बादशाहों के हुक्म की तामील तत्काल होती है उसी प्रकार वह भी बेताज बादशाह बनकर अपने हुक्म की तामील करवाने के लिए आमादा हो गया। अंतत: उसे बेताज बादशाह सफलता भी मिली।
2. बूढ़े ने कंपाउंड में आकर क्या किया?
उत्तर – बूढ़े ने कंपाउंड में आकर अपनी पगड़ी जमीन पर बिछा ली थी और हाथ पीछे करके तथा टाँगे फैलाकर उस पर बैठ गया था। उस सिक्ख बूढ़े की फैली हुई टाँग धीरे-धीरे पूरी खुल गई थीं। उसके विद्रोह भरे वाणी की आवाज इतनी ऊँची हो गई थी कि कंपाउंड के बाहर से भी बहुत-से लोगों का ध्यान उसकी तरफ खिंच गया। था। वह बोलते हुए अपने घुटने पर हाथ मार रहा था। वह सरकारी बाबुओं और अफसरों से ज़ोर-ज़ोर से कह रहा था कि “सरकार वक्त ले रही है। दस – पाँच साल में सरकार फैसला करेगी कि अर्जी मंजूर होनी चाहिए या नहीं। सालो, यमराज भी तो हमारा वक्त गिन रहा है। उधर वह वक्त पूरा होगा और इधर तुमसे पता चलेगा कि हमारी अर्जी मंजूर हो गई है।” वास्तव में वह पिछले दो वर्षों से सरकारी कामकाज की प्रणाली से तंग आ चुका था। उसकी अर्जी आगे ही नहीं बढ़ रही थी। इसलिए आज वह पूरे तैश में था।
3. बूढ़े के साथ और कौन कौन थे, उनकी कैसी दशा थी?
उत्तर – बूढ़े के साथ कुल तीन लोग और थे जिसमें उससे जरा बड़ी उम्र की एक स्त्री थी, जो उसके बड़े भाई की बेवा थी जिसे पाकिस्तान में टाँगों से पकड़कर चीर दिया गया था। एक जवान लड़की थी। यह उसके बड़े भाई की, लड़की है, जो अब ब्याहने लायक हो गई है। इसकी बड़ी कुँवारी बहन आज भी पाकिस्तान में ही है। उनके साथ एक दुबला-सा लड़का भी है जो आस-पास की हर चीज को घूरती नजर से देख रहा था। चपरासी ने जब अपने टूटे हुए बूट से बूढ़े को पीटा तो स्त्री और लड़की सहमकर वहाँ से हट गईं। लड़का एक तरफ खड़ा होकर रोने लगा। यह सब देखकर यही लग रहा था कि वे विस्थापित थे और सरकार और समय दोनों के सताए हुए थे।
4. ऑफिस के अंदर का दृश्य कैसा था?
उत्तर – ऑफिस के अंदर कमीजों के आधे बटन खोले और बगल में फाइलें दबाए कुछ बाबू एक-दूसरे से छेड़खानी करते रजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब्रांच की तरफ जा रहे थे। लाल बेल्ट वाला चपरासी, आस-पास की भीड़ से उदासीन, अपने स्टूल पर बैठा मन-ही-मन कुछ हिसाब कर रहा था। कभी उसके होंठ हिलते थे और कभी सिर हिल जाता था।
अंदर हॉल वाले कमरे में फाइलें धीरे-धीरे चल रही थीं। दो-चार बाबू बीच की मेज के पास जमा होकर चाय पी रहे थे। उनमें से एक दफ्तरी
कागज पर लिखा अपनी ताजा गजल दोस्तों को सुना रहा था। इसी बीच ‘शी-शी’ की आवाज से कहकहे पर ब्रेक लगाई गई क्योंकि कमिश्नर साहब अपने कमरे में तशरीफ ला रहे थे। इस क्रम में सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह की फाइल एक मेज से एक्शन के लिए दूसरी मेज पर पहुँच गई, सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह मुसकराता हुआ हॉल से बाहर चला गया, और जिस बाबू की मेज से फाइल गई थी, वह पाँच रूपये के नोट को सहलाता हुआ चाय पीने वालों के जमघट में आ शामिल हुआ। अजीज साहब अब आवाज जरा धीमी करके गजल का अगला शेर सुनाने लगे। कुल मिलाकर सभी अपने-अपने आवश्यक-अनावश्यक कामों में व्यस्त ही थे।
5. कमिशनर साहब ने ऑफिस में आकर क्या किया?
उत्तर – कमिशनर साहब ने ऑफिस में आकर सबसे पहले चपरासी से खिड़की का पर्दा ठीक करवाया। उसके बाद मेज पर रखे ढेर से कागजों पर एक साथ दस्तखत किए और पाइप सुलगाकर ‘रीडर्ज डाइजेस्ट’ का ताजा अंक बैग से निकाल लिया। पन्ने पलटने के दौरान लेटीशिया बाल्ड्रिज का लेख कि उसे इतालवी मर्दों से क्यों प्यार है, उसे वे पढ़ चुके थे। दूसरे लेखों हृदय की शल्य चिकित्सा के संबंध में जे.डी. रेडक्लिफ का लेख उन्होंने सबसे पहले पढ़ने के लिए चुन लिया और पृष्ठ एक सौ ग्यारह खोलकर वे हृदय के नए ऑपरेशन का ब्योरा बड़े ध्यान से पढ़ने लगे।
6. बूढ़े को ऑफिस के लोगों ने किस तरह समझाया?
उत्तर – सिक्ख बूढ़े के आक्रामक रूप को देखकर दफ्तर का एक बाबू हाथ जोड़कर बोला “बाबाजी, बस करो”, “हम लोगों पर रहम खाओ, और अपनी यह सन्तबानी बंद करो। बताओ तुम्हारा नाम क्या है, तुम्हारा केस क्या है…?” केस जानने के बाद जब दूसरे बाबू ने उनसे कहा, “बाबाजी, आज जाओ, कल या परसों आ जाना। तुम्हारी अर्जी की कार्रवाई तकरीबन – तकरीबन पूरी हो चुकी है! इस पर सिक्ख बूढ़ा और क्रोधित होते हुए बोलने लगा, “और मैं खुद ही तकरीबन – तकरीबन पूरा हो चुका हूँ! अब देखना यह है कि पहले कार्रवाई पूरी होती है, कि पहले मैं पूरा होता हूँ।” अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए सिक्ख बूढ़ा फिर चिल्लाने लगा, “सालों ने सारी पढ़ाई खर्च करके दो लफ्ज ईजाद किए हैं-शायद और तकरीबन। शायद आपके कागज ऊपर चले गए हैं- ‘तकरीबन – तकरीबन कार्रवाई पूरी हो चुकी है!” शायद से निकालो और तकरीबन में डाल दो।” जिद में बूढ़े ने यही कहा कि मैं यहाँ बैठा हूँ और यहीं बैठा रहूँगा। मेरा काम होना है, तो आज ही होगा और अभी होगा। जब बूढ़े को समझा पाने में बाबू लोग असफल हो गए तो एक-एक करके अंदर लौटने लगे। उनमें से एक कहने लगा, “बैठा है, बैठा रहने दो।” “बकता है, बकने दो।” “साला बदमाशी से काम निकालना चाहता है।” “लेट हिम बार्क हिमसेल्फ टू डेथ।”
7. ऑफिस के बाहर चिल्लाने से बूढ़े को कैसा लाभ मिला?
उत्तर – ऑफिस के बाहर चिल्लाने से सिक्ख बूढ़े की दो वर्षों की तपस्या का फल तत्काल ही मिल गया। बूढ़े के चिल्लाने से एक दहशत-सी फैल गई थी और कमिश्नर साहब अपने कमरे से बाहर निकल आए थे। सारे मामले को जानने के बाद उन्होंने बूढ़े को अपने कार्यालय में बुलाया। चपरासी ने बूढ़े के लिए चिक उठा दी और वह कमिश्नर साहब के कमरे में दाखिल हो गया। घंटी बजी, फाइलें हिलीं, बाबुओं की बुलाहट हुई, और आधे घंटे के बाद बेताज बादशाह मुस्कराता हुआ बाहर निकल आया। अर्थात् उसके नाम एलॉट हुई गड्ढे वाली ज़मीन की जगह उसे दूसरी ज़मीन मिल गई।
8. ‘परमात्मा का कुत्ता’ कहानी का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – ‘परमात्मा का कुत्ता’ कहानी भारत-पाकिस्तान विभाजन के एक बेबस सिक्ख परिवार की कहानी है। जिसमें कहानी के मुख्य पात्र बूढ़े सिक्ख के भाई को पाकिस्तान में दोनों पैर चीरकर मार दिया गया था। उसकी दो बेटियों में से एक अभी भी पाकिस्तान में ही है। अब भारत में सिक्ख बूढ़े के साथ उसके भाई की बेवा और उसकी बेटी है साथ में एक दुबला-पतला लड़का भी है जो संभवत: बूढ़े का बेटा मालूम होता है। उस बूढ़े के नाम 100 मरले जमीन एलॉट हुई है जो ज़मीन कम और गड्ढा ज़्यादा है। वहाँ न तो घर ही बन सकता है और न ही खेती हो सकती हैं। इस बात से परेशान बूढ़े ने कचहरी में अर्जी दे रखी है कि उसे कोई दूसरी ज़मीन दी जाए। पर लगभग दो वर्ष बीत जाने के बाद भी जब उसकी अर्जी एक मेज़ से दूसरी मेज़ तक नहीं पहुँच पाती है तो वह बेचैन हो उठता है। वह उस दिन सारे सरकारी कर्मचारियों को उनके गैर-जिम्मेदाराना हरकत, घूसख़ोरी, कामों में ढिलाई के लिए अपशब्दों का प्रयोग करता है। कचहरी के कंपाउंड में उसकी वजह से खूब हो-हल्ला होता है। इसकी परिणति यह होती है कि स्वयं कमिश्नर साहब बाहर आते हैं। उसकी केस का पूरा ब्योरा लेते हैं और उसका काम मात्र आधे घंटे में ही पूरा हो जाता है। लेखक इसमें इसी बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि जहाँ अनुनय-विनय से काम न बनें वहाँ सख्त रवैया अपनाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
9. इस कहानी के माध्यम से लेखक हमें क्या संदेश देना चाहते हैं? उत्तर – इस कहानी के माध्यम से लेखक हमें यह संदेश देना चाहते हैं कि बहरों तक अपनी आवाज़ पहुँचाने के लिए धमाका करना पड़ता है और यही काम उस सिक्ख बूढ़े ने किया। पिछले दो वर्षों से कचहरी के चक्कर लगाकर उसके धैर्य का बाँध टूट चुका था। इसलिए उसने उग्र रूप धारण कर लिया और मूक-बधिर सरकारी कर्मचारियों से अपना काम निकलवा लिया। आज के दौर में भी जहाँ आपका काम अनुनय-विनय से नहीं बन रहा है और अगर आप सही हैं तो आपको आवाज़ उठानी ही चाहिए। आपके काम की संजीदगी, तात्कालिकता और आवश्यकता से केवल आप ही परिचित हैं दूसरों को उससे कुछ लेना देना नहीं है। ऐसी स्थिति में आपको उग्र रूप धारण करने के लिए भी कमर कसे रहने की ज़रूरत है।
10. ‘परमात्मा का कुत्ता’ शीर्षक की सार्थकता प्रतिपादित कीजिए।
उत्तर – जन प्रचलित अमानक भाषा में सरकारी कर्मचारियों को जो अपना काम सही से नहीं करते या करने के लिए रिश्वत रूपी हड्डियों की माँग करते हैं उन्हें ‘सरकारी कुत्ता’ कहा जाता है। इस पाठ में भी सिक्ख बूढ़े की फाइल एक मेज़ से दूसरी मेज़ तक केवल इस वजह से ही नहीं जा पा रही थी क्योंकि उसने रिश्वत नहीं दी थी और इसी की वजह से पिछले दो वर्षों से उसकी अर्जी धूल खा रही थी। बर्दाश्त की सीमा का अतिक्रमण होते ही बूढ़े ने वहाँ मौजूद सभी कर्मचारियों को कुत्ता कहकर संबोधित करना शुरू कर दिया। ऐसा कुत्ता जो गरीबों को नोचता है, काटता है और खुद को परमात्मा का कुत्ता कहने लगा क्योंकि वह उसकी दी हुई हवा खाता है। इस दृष्टि से पाठ का शीर्षक ‘परमात्मा का कुत्ता’ अपनी सार्थकता प्रतिपादित करता है।