2. Class +2 Second Year CHSE, BBSR Sahitya Sudha Solutions Ramchandra Shukla Utsaah रामचंद्र शुक्ल – उत्साह

रामचंद्र शुक्ल

(जन्म सन् 1884 ई0 – मृत्यु – सन् 1940 ई.)

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सन् 1884 ई. में उत्तर प्रेदश के बस्ती जिले के अगोना गाँव में हुआ। उनके पिता पंडित चंद्रबली शुक्ल अंग्रेजी और उर्दू के समर्थक थे। इसलिए शुक्ल जी की आरंभिक शिक्षा उर्दू-फारसी से हुई। परंतु हिंदी के प्रति असीम अनुराग के कारण वे हिंदी की कक्षा में जाकर हिंदी पढ़ते थे। फिर पिताजी के साथ वे मिर्जापुर आए। वहीं से हाईस्कूल की परीक्षा पास की। इलाहाबाद से बी. ए. की डिग्री हासिल की। स्वाध्याय से साहित्य, मनोविज्ञान, इतिहास आदि का मनोयोग पूर्वक अध्ययन किया। हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी साहित्य का डटकर अध्ययन किया। पंडित केदारनाथ पाठक और बदरीनारायण ‘प्रेमघन’ जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों के संपर्क में आकर साहित्य लेखन की ओर प्रेरित हुए। आगे चलकर वारणासी की ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ में सहायक के पद पर कार्य किया। ‘हिंदी शब्द सागर’ ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का कुशल संपादन किया। महामना मदन मोहन मालवीय ने उन्हें हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यापक के पद पर नियुक्त किया। सन् 1937 ई. में वे वहीं पर हिंदी विभागाध्यक्ष बने।  

आचार्य शुक्ल जी की प्रतिभा बहुमुखी और विलक्षण थी। एक कुशल संपादक के साथ-साथ वे हिंदी के सर्वोत्कृष्ट आलोचक, निबंधकार और उच्चकोटि के इतिहासकार हैं। उन्होंने मनोवैज्ञानिक और समीक्षात्मक निबंध लिखे। ‘चिंतामणि’ (भाग-1 और 2) में संकलित निबंधों के जरिए नए विचार, स्वस्थ चिंतन, नई अनुभूति और प्रौढ़ भाषा-शैली पाठकों के सामने प्रस्तुत हुई। उन्होंने व्याख्यात्मक और सूत्रात्मक शैली अपनाई। उनके निर्बंधों में व्यक्ति और विषय का ऐसा सफल समन्वय हुआ है कि इस बात का निर्णय करना कठिन हो जाता है कि उन्हें व्यक्ति प्रधान कहें या विषय प्रधान। शुक्लजी भारतीय और पाश्चात्य साहित्य शास्त्र के विद्वान थे। सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने रस को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया।

प्रमुख रचनाएँ:

इतिहास : हिंदी साहित्य का इतिहास

निबंध : चिन्ता मणि (भाग 1 और 2 )

आलोचना : त्रिवेणी, महाकवि सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, रस मीमांसा, काव्य में रहस्यवाद संपादन : हिंदी शब्दसागर, जायसी ग्रंथावली, तुलसी ग्रंथावली, भ्रमरगीत सार, नागरी प्रचारिणी पत्रिका

दुख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद वर्ग में उत्साह का है। भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप में दुखी ओर कभी कभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान भी होते हैं। उत्साह में हम आनेवाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म-सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान होते हैं। उत्साह में कष्ट या हानि सहने की दृढ़ता के साथ-साथ कर्म में प्रवृत हाने के आनंद का योग रहता है। साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है। कर्म-सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं।

जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अंतर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भेद हो जाते हैं। साहित्य- मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्ध-वीर, दान-वीर, दयावीर इत्यादि भेद किए हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्धवीरता है जिसमें आघात, पीड़ा क्या, मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से पड़ता चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फूरित नहीं होता। उसके साथ आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिए। बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जाएगा, पर उत्साह नहीं। इस प्रकार चुपचाप बिना हाथ-पैर हिलाये घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना साहस और कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटना धीरता कही जाएगी। ऐसे साहस और धीरता को उत्साह के अंतर्गत तभी ले सकते हैं जब कि साहसी या धोर उस काम को आनंद के साथ करता चला जाएगा जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते हैं। सारांश यह कि आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा ही उत्साह का दर्शन होता है, केवल कष्ट सहने के निश्चेष्ट साहस में नहीं। धृति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है।

दानवीर में अर्थ त्याग का साहस अर्थात् उसके कारण होने वाले कष्ट या कठिनता को सहने की क्षमता अंतर्निहित रहती है। दान वीरता तभी कही जाएगी जब दान के कारण दानी को अपने जीवन निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट या कठिनता दिखाई देगी। इस कष्ट या कठिनता की मात्रा या सम्भावना जितनी ही अधिक होगी, दानवीरता उतनी ही ऊँची समझी जाएगी। परंतु इस अर्थ त्याग के साहस के साथ ही जब तक पूर्ण तत्परता और आनंद के चिह्न न दिखाई पड़ेंगे तब तक उत्साह का स्वरूप न खड़ा होगा।

युद्ध के अतिरिक्त संसार में और भी ऐसे विकट काम होते हैं जिनमें घोर शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और प्राण हानि तक की संभावना रहती है। अनुसन्धान के लिए, तुषार मंडित अभ्रभेदी अगम्य पर्वतों की चढ़ाई, ध्रुवदेश या सहारा के रेगिस्तान का सफर, क्रूर, बर्बर जातियों के बीच अज्ञात घोर जंगलों में प्रवेश इत्यादि भी पूरी – वीरता और पराक्रम के कर्म हैं। इनमें जिस आनंदपूर्ण तत्परता के साथ लोग प्रवृत्त हुए हैं, वह भी उत्साह ही है।

मनुष्य शारीरिक कष्ट से ही पीछे हटने वाला प्राणी नहीं है। मानसिक क्लेश की संभावना से भी बहुत से कर्मों की ओर प्रवृत्त होने का साहस उसे नहीं होता। जिन बातों से समाज के बीच उपहास, निंदा, अपमान इत्यादि का भय रहता है उन्हें अच्छी और कल्याणकारिणी समझते हुए भी बहुत से लोग उनसे दूर रहते हैं। प्रत्यक्ष हानि देखते हुए भी कुछ प्रथाओं का अनुसरण बड़े-बड़े समझदार तक इसलिए करते चलते हैं कि उनके त्याग से वे बुरे कहे जायेंगे, लोगों में उनका वैसा आदर-सम्मान न रह जाएगा। उनके लिए मान – ग्लानि का कष्ट सब शारीरिक क्लेशों से बढ़कर होता है। जो लोग मान-अपमान का कुछ भी ध्यान न करके, निंदा-स्तुति की कुछ भी परवाह न करके किसी प्रचलित प्रथा के विरुद्ध पूर्ण तत्परता और प्रसन्नता के साथ कार्य करते जाते हैं वे एक ओर तो उत्साही और वीर कहलाते हैं दूसरी ओर भारी बेहया।

किसी शुभ परिणाम पर दृष्टि रखकर निंदा – स्तुति, मान-अपमान आदि की कुछ परवाह न करके प्रचलित प्रथाओं का उल्लंघन करने वाले वीर या उत्साही कहलाते हैं। यह देखकर बहुत से लोग केवल इस विरुद्ध के लोभ में ही अपनी उछल-कूद दिखाया करते हैं। वे केवल उत्साही या साहसी कहे जाने के लिए ही चली आती हुई प्रथाओं को तोड़ने की धूम मचाया करते हैं। शुभ या अशुभ परिणाम से उनसे कोई मतलब नहीं उनकी ओर उनका ध्यान लेश मात्र नहीं रहता। जिस पक्ष के बीच को सुख्याति का वे अधिक महत्त्व समझते हैं उसकी वाहवाही से उत्पन्न आनंद की चाह में वे दूसरे पक्ष के बीच की निंदा या अपमान की कुछ परवाह नहीं करते। ऐसे अच्छे लोगों के साहस या उत्साह की अपेक्षा उन लोगों का उत्साह या साहस भाव की दृष्टि से वही अधिक मूल्यवान है जो किसी प्राचीन प्रथा की चाहे वह वास्तव में हानिकारिणी ही हो- उपयोगिता का सच्चा विश्वास रखते हुए प्रथा तोड़नेवालों की निंदा, उपहास, अपमान आदि सहा करते हैं।

उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है। किसी भाव के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है। वही उत्साह जो कर्त्तव्य कर्मों के प्रति इतना सुंदर दिखाई पड़ता है अकर्त्तव्य कर्मों की ओर होने पर वैसा श्लाघ्य नहीं प्रतीत होता। आत्मरक्षा, पररक्षा, देश रक्षा आदि के निमित्त साहस की जो उमंग देखी जाती ही उसके सौंदर्य को परपीड़न, डकैती आदि कर्मों का साहस कभी नहीं पहुँच सकता। यह बात होते हुए भी विशुद्ध उत्साह या साहस की प्रशंसा थोड़ी-बहुत होती ही है। अत्याचारियों या डाकुओं के शौर्य और साहस की कथाएँ भी लोग तारीफ करते हुए सुनते हैं।

अब तक उत्साह का प्रधान रूप ही हमारे सामने रहा, जिसमें साहस का पूरा योग रहता है। पर कर्ममात्र के सम्पादन में जो तत्परतापूर्ण आनंद देखा जाता है वह भी उत्साह ही कहा जाता है। सब कामों में साहस अपेक्षित नहीं होता, पर थोड़ा-बहुत आराम विश्राम सुभीते इत्यादि का त्याग सबमें करना पड़ता है, और कुछ नहीं तो उठकर बैठना, खड़ा होना या दस – पाँच कदम लेना ही पड़ता है। जब तक आनंद का लगाव किसी क्रिया, व्यापार या उसकी भावना के साथ नहीं दिखाई पड़ता तब तक उसे उत्साह की संज्ञा प्राप्त नहीं होती। यदि किसी प्रिय मित्र के आने का समचार पाकर हम चुपचाप ज्यों के त्यों आनन्दित होकर बैठे रह जायें या थोड़ा हँस भी दें तो यह हमारा उत्साह नहीं कहा जाएगा। हमारा उत्साह तभी कहा जाएगा जब हम अपने मित्र का आगमन सुनते ही उठ खड़े होंगे, उससे मिलने के लिए चल पड़ेंगे और उसके ठहरने आदि के प्रबंध में प्रसन्नमुख इधर-उधर आते-जाते दिखाई देंगे। प्रयत्न और कर्मसंकल्प उत्साह नामक आनंद के नित्य लक्षण हैं।

प्रत्येक कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का योग भी रहता है। कुछ कर्मों में तो बुद्धि की तत्परता और शरीर की तत्परता दोनों बराबर साथ-साथ चलती हैं। उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ-पैर चलवाती है उसी प्रकार बुद्धि से भी काम कराती है। ऐसे उत्साह वाले वीर को कर्मवीर कहना चाहिए या बुद्धिवीर – यह प्रश्न ‘मुद्राराक्षस’ नाटक बहुत अच्छी तरह हमारे सामने लाता है। चाणक्य और राक्षस के बीच जो चोटें चली हैं वे नीति की हैं- शास्त्र की नहीं। अतः विचार करने की बात यह है कि उत्साह की अभिव्यक्ति बुद्धि-व्यापार के अवसर पर होती है अथवा बुद्धि द्वारा निश्चित उद्योग में तत्पर होने की दशा में हमारे देखने में तो उद्योग की तत्परता में ही उत्साह की अभिव्यक्ति होती है अतः कर्मवीर ही कहना ठीक है।

बुद्धिवीर के दृष्टान्त कभी-कभी हमारे पुराने ढंग के शास्त्रार्थों में देखने को मिल जाते हैं। जिस समय किसी भारी शास्त्रार्थी पंडित से भिड़ने के लिए कोई विद्यार्थी आनंद के साथ सभा में आगे आता है उस समय उसके बुद्धि- साहस की प्रशंसा अवश्य होती है। वह जीते या हारे, बुद्धि-वीर समझा ही जाता है। इस जमाने में वीरता का प्रसंग उठाकर वाग्वीर का उल्लेख यदि न होगा तो बात अधूरी ही समझी जाएगी। ये वाग्वीर आज कल, बड़ी-बड़ी सभाओं के मंचों पर से लेकर स्त्रियों के उठाये हुए, पारिवारिक प्रपंचों तक में पाये जाते हैं और काफी तादाद में।

थोड़ा यह देखना चाहिए कि उत्साह में ध्यान किस पर रहता है कर्म पर, उसके फल पर अथवा व्यक्ति या वस्तु पर। हमारे विचार में उत्साही वीर का ध्यान आदि से अंत तक पूरी कर्म-शृंखला पर से होता हुआ उसकी सफलता-रूपी समाप्ति तक फैला रहता है। इसी ध्यान से जो आनंद की तरंग उठती हैं वह ही सारे प्रयत्न को आनंदमय कर देती हैं। युद्ध-वीर में विजेतव्य को आलंबन कहा गया है उसका अभिप्राय यही है कि विजेतव्य कर्म-प्रेरक के रूप में वीर के ध्यान में स्थिर रहता है, वह कर्म के स्वरूप का भी निर्धारण करता है। पर आनंद और साहस के मिश्रित भाव का सीधा लगाव उसके साथ नहीं रहता। सच पूछिए तो वीर के उत्साह का विषय विजय- विधेयक कर्म या युद्ध ही रहता है। दानवीर और धर्मवीर पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। दान दयावश, श्रद्धावश या कीर्तिलोभवश दिया जाता है। यदि श्रद्धावश दान दिया जा रहा है तो दानपात्र वास्तव में श्रद्धा का और यदि दयावश दिया जा रहा है तो पीड़ित यथार्थ में दया का विषय या आलंबन ठहरता है। अतः उस श्रद्धा या दया की प्रेरणा से जिस कठिन या दुस्साध्य कर्म की प्रवृत्ति होती है उसी की ओर उत्साही का साहसपूर्ण आनंद उन्मुख कहा जा सकता है। अतः और रसों में आलंबन का स्वरूप जैसा निर्दिष्ट रहता है वैसा वीर रस में नहीं। बात यह है कि उत्साह एक यौगिक भाव है जिसमें साहस और आनंद का मेल रहता है।

जिस व्यक्ति या वस्तु पर प्रभाव डालने के लिए वीरता दिखाई जाती है उसकी ओर उन्मुख कर्म होता है और कर्म की ओर उन्मुख उत्साह का सीधा लगाव नहीं होता। समुद्र लाँघने के लिए जिस उत्साह के साथ हनुमान् उठे हैं उसका कारण समुद्र नहीं समुद्र लाँघने का विकट कर्म है। कर्म-भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है, वस्तु या व्यक्ति की भावना नहीं।

किसी कर्म के संबंध में जहाँ आनंदपूर्ण तत्परता दिखाई पड़ी कि हम उसे उत्साह कह देते हैं। कर्म के अनुष्ठान में जो आनंद होता है उसका विधान तीन रूपों में दिखाई पड़ता है-

1. कर्म-भावना से उत्पन्न,

2. फल – भावना से उत्पन्न, और

3. आगन्तुक अर्थात् विषयान्तर से प्राप्त।

इनमें कर्म – भावना – प्रसूत आनंद को ही सच्चे वीरों का आनंद समझना चाहिए जिसमें साहस का योग प्रायः बहुत अधिक रहा करता है। सच्चा वीर जिस समय मैदान में उतरता है उसी समय उसमें उतना आनंद भरा रहता है जितना औरों को विजय या सफलता प्राप्त करने पर होता है। उसके सामने कर्म और फल के बीच या तो कोई अंतर होता ही नहीं या बहुत सिमटा हुआ होता है। इसी से कर्म की ओर वह उसी झोंक से लपकता है। जिस झोंक से साधारण लोग फल की ओर लपका करते हैं। इसी कर्म- प्रवर्तक आनंद की मात्रा के हिसाब से शोर्य और साहस का स्फुरण होता है।

फल की भावना से उत्पन्न आनंद भी साधक को कर्मों की ओर हर्ष और तत्परता के साथ प्रवृत्त करता है। पर फल का लोभ जहाँ प्रधान रहता है वहाँ कर्म विषयक आनंद उसी फल की भावना की तीव्रता और मन्दता पर अवलम्बित रहता है। उद्योग के प्रवाह के बीच जब-जब फल की भावना मन्द पड़ती है उसकी आशा कुछ धुंधली पड़ जाती है, तब तब आनंद की उमंग गिर जाती है और उसी के साथ उद्योग में भी शिथिलता आ जाती है। पर कर्म – भावना – प्रधान उत्साह बराबर एक रस रहता है। फलासक्त उत्साही असफल होने पर खित्र और दुःखी होता है, पर कर्मासक्त उत्साही केवल कर्मानुष्ठान के पूर्व की अवस्था में हो जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि कर्म-भावना- प्रधान उत्साह ही सच्चा उत्साह है। फल-भावना- प्रधान उत्साह तो लोभ ही का एक प्रच्छन्न रूप है।

उत्साह वास्तव में कर्म और फल की मिली-जुली अनुभूति है जिसकी प्रेरणा से तत्परता आती है। यदि फल दूर ही पर दिखाई पड़े, उसकी भावना के साथ ही उसका लेशमात्र भी कर्म या प्रयत्न के साथ लगाव न मालूम हो, तो हमारे हाथ पाँव कभी न उठें और उस फल के साथ हमारा संयोग ही न हो। इससे कर्म – शृंखला की पहली कड़ी पकड़ते ही फल के आनंद की भी कुछ अनुभूति होने लगती है। यदि हमें यह निश्चय हो जाए कि अमुक स्थान पर जाने से हमें किसी प्रिय व्यक्ति का दर्शन होगा तो उस निश्चय के प्रभाव से हमारी यात्रा भी अत्यंत प्रिय हो जाएगी। हम चल पड़ेंगे और हमारे अंगों की प्रत्येक गति में प्रफुल्लता दिखाई देगी। यही प्रफुल्लता कठिन से कठिन कर्मों के साधन में भी देखी जाती है। वे कर्म भी प्रिय हो जाते हैं और अच्छे लगने लगते हैं। जब तक फल तक पहुँचाने वाला कर्म-पथ अच्छा न लगेगा तब तक केवल फल का अच्छा लगना कुछ नहीं। फल की इच्छा मात्र हृदय में रखकर जो प्रयत्न किया जाएगा वह अभावमय और आनंद – शून्य होने के कारण निर्जीव सा होगा।

कर्म- रूचि – शून्य प्रयत्न में कभी कभी इतनी उतावली और आकुलता होती है कि मनुष्य साधना के उत्तरोत्तर काम का निर्वाह न कर सकने के कारण बीच ही में चूक जाता है। मान लीजिए कि एक उँचे पर्वत के शिखर पर विचरते हुए किसी व्यक्ति को नीचे बहुत दूर तक गई हुई सीढियाँ दिखाई दीं और यह मालूम हुआ कि नीचे उतरने पर सोने का ढेर मिलेगा। यदि उसमें इतनी सजीवता है, कि उक्त सूचना के साथ ही वह उस स्वर्ण – राशि के साथ एक प्रकार के मानसिक संयोग का अनुभव करने लगा तथा उसका चित्त प्रफुल्ल और अंग सचेष्ट हो गये, तो उसे एक-एक सीढ़ी स्वर्णमयी दिखाई देगी, एक-एक सीढ़ी उतरने में उसे आनंद मिलता जाएगा, एक- एक क्षण उसे सुख से बीतता हुआ जान पड़ेगा और वह प्रसन्नता के साथ उस स्वर्ण-राशि तक पहुँचेगा। इस प्रकार उसके प्रयत्न – काल को भी फल- प्राप्ति काल के अंतर्गत ही समझना चाहिए। इसके विरुद्ध यदि उसका हृदय दुर्बल होगा और उसमें इच्छा मात्र ही उत्पन्न होकर रह जाएगी तो अभाव के बाद के कारण उसके चित्त में यही होगा कि कैसे झट से नीचे पहुँच जाएँ। उसे एक-एक सीढ़ी उतरना बुरा मालूम होगा और आश्चर्य नहीं कि वह या तो हारकर बैठ जाए या लड़खड़ाकर मुँह के बल गिर पड़े।

फल की विशेष आसक्ति से कर्म के लाघव की वासना उत्पन्न होती है। चित्त में यही आता है कि कर्म बहुत कम या बहुत सरल करना पड़े और फल बहुत सा मिल जाए। श्रीकृष्ण ने कर्म मार्ग से फलासक्ति की प्रबलता हटाने का बहुत ही स्पष्ट उपदेश दिया पर उनके समझाने पर भी भारतवासी इस वासना से ग्रस्त होकर कर्म से तो उदासीन हो बैठे और फल के इतने पीछे पड़े कि गरमी में ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने लगे चार आने रोज का अनुष्ठान कराके व्यापार में लाभ, शत्रु पर विजय, रोग से मुक्ति धन-धान्य की वृद्धि तथा ओर भी जाने क्या-क्या चाहने लगे। आसक्ति प्रस्तुत या उपिस्थत वस्तु में ही ठीक कही जा सकती है। कर्म सामने उपस्थित रहता है इससे आसक्ति उसी में चाहिए फल दूर रहता है, इससे उसकी ओर कर्म का लक्ष्य काफी है। जिस आनंद से कर्म की उत्तेजना होती है और जो आनंद कर्म करते समय तक बराबर चला चलता है उसी का नाम उत्साह है।

कर्म के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अंतिम फल तक न भी पहुँचे तो भी उसकी दशा, कर्म न करनेवाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी क्योंकि एक तो कर्मकाल में उसका जो जीवन बीता, वह संतोष या आनंद में बीता, उसके उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। फल पहले से कोई बना-बनाया पदार्थ नहीं होता, अनुकूल प्रयत्न-कर्म के अनुसार, उसके एक-एक अंग की योजना होती है। बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परम्परा का नाम ही प्रयत्न है। किसी मनुष्य के घर का कोई प्राणी बीमार है। वह वैद्यों के यहाँ से जब तक औषधि ला- लाकर रोगी को देता जाता है और इधर-उधर दौड़-धूप करता जाता है तब तक उसके चित्त में जो सन्तोष रहता है-प्रत्येक नये उपचार के साथ जो आनंद का उन्मेष होता रहता है- यह उसे कदापि न प्राप्त होता, यदि वह रोता हुआ बैठा रहता। प्रयत्न की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह में बीता, अप्रयत्न की दशा में उतना ही अंश केवल शोक और दुःख में कटता। इसके अतिरिक्त रोगी के न अच्छे होने की दशा में भी वह आत्मग्लानि के उस कठोर दुख से बचा रहेगा जो उसे जीवन भर यह सोच-सोचकर होता कि मैंने पूरा प्रयत्न नहीं किया।

कर्म में आनंद अनुभव करनेवालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्त्ता को वे कर्म ही फल स्वरूप लगते हैं। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और तुष्टि होती है वही लोकोपकारी कर्म-वीर का सच्चा सुख है। उसके लिए सुख तब तक के लिए रूका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त न हो जाए बल्कि उसी समय से थोड़ा-थोड़ा करके मिलने लगता है जब से वह कर्म की ओर हाथ बढ़ाता है।

कभी-कभी आनंद का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनंद के कारण एक ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न होती है जो बहुत से कामों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर करती है। इसी प्रसन्नता और तत्परता को देख लोग कहते हैं कि वे काम बड़े उत्साह से किए जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत-सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्ष और तत्परता को भी लोग उत्साह ही कहते हैं। इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सुखप्राप्ति की आशा या निश्चय से उत्पन्न आनंद, फलोन्मुख प्रयत्नों के अतिरिक्त और दूसरे व्यापारों के साथ संलग्न होकर, उत्साह के रूप में दिखाई पड़ता है। यदि हम किसी ऐसे उद्योग में लगे हैं जिससे आगे चलकर हमें बहुत लाभ या सुख की आशा है तो हम उस उद्योग को तो उत्साह के साथ करते हैं अन्य कार्यों में भी प्रायः अपना उत्साह दिखा देते हैं।

वह बात उत्साह में ही नहीं, अन्य मनोविकारों में भी बराबर पाई जाती है। यदि हम किसी बात पर क्रुद्ध बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई बात सीधी तरह भी पूछता है तो भी हम उस पर झुँझला उठते हैं। इस झुँझलाहट का न तो कोई निर्दिष्ट कारण होता है, न उद्देश्य। यह केवल क्रोध की स्थिति के व्याघात को रोकने की क्रिया है, क्रोध की रक्षा का प्रयत्न है। इस झुँझलाहट द्वारा हम यह प्रकट करते हैं कि हम क्रोध में हैं और क्रोध ही में रहना चाहते हैं। क्रोध को बनाये रखने के लिए हम उन बातों से भी क्रोध ही संचित करते हैं जिनसे दूसरी अवस्था में हम विपरीत भाव प्राप्त करते। इसी प्रकार यदि हमारा चित्त किसी विषय में उत्साहित रहता है तो हम अन्य विषयों में भी अपना उत्साह दिखा देते हैं। यदि हमारा मन बढ़ा हुआ रहता है तो हम बहुत से काम प्रसन्नतापूर्वक करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसी बात का विचार करके सलाम-साधक लोग हाकिमों से मुलाकात करने से पहले अर्दलियों से उनका मिजाज पूछ लिया करते हैं।

शब्दार्थ –  

प्रयत्नवान – चेष्टित, प्रयासरत

साहित्य मीमांसक- साहित्य समीक्षक या विवेचक

परवाह – खातिर

श्लाघ्य प्रशंसनीय,

प्रहार – चोट, आघात

धीरता – धेर्य

निश्चेष्ट – निष्क्रिय, चेतनाशून्य

धृति-  धैर्य, सहनशक्ति

विकट – भयंकर,

अनुसंधान – खोज, तलाश,

तुषार मंडित – बर्फ से ढका

अगम्य – जहाँ न जाया जा सके

रेगिस्तान – मरुभूमि

सफर – यात्रा, भ्रमण

ध्रुवदेश – पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी सिरे जिन के बीचोंबीच अक्षरेखा की स्थिति

पराक्रम – वीरता, सामर्थ्य

क्रूर – निष्ठुर

क्लेश – पीड़ा, दुःख,

ग्लानि – पछतावा, अनुशोचना

स्तुति – प्रशंसा, वाहवाही

उद्योग – कर्म व्यापार

वाग्वीर- बातों में पटुः

कर्म शृंखला – कर्म व्यापार

विजेतव्य – जिस पर विजय प्राप्त की जाएगी

आलंबन – किसी भाव या विषय के उद्रेक का आधार या कारण

दुस्साध्य कर्म – अत्यंत कष्टसाध्य काम

मुद्राराक्षस – विशाखादत्त का लिखा संस्कृत नाटक

यौगिक भाव – मिश्रित भाव

लगाव – संबंध

अवलंबित – आधारित, आश्रित

धुँधली – अस्पष्ट,

शिथिलता – निष्क्रियता

प्रफुल्लता – खुशी, आनंद

आसक्ति – लगाव

पछतावा – खेद, पश्चात्ताप

दौड़धूप – परिश्रम

उन्मेष – उद्रेक, आविर्भाव,

कर्मण्य – कर्मठ, कर्म कुशल

शमन – संयम

तुष्टि – संतोष

स्फूर्त्ति – फूर्तिला, चंचल,

फलोन्मुख प्रयत्न – फल प्राप्ति के लिए किया गया प्रयास

मनोविकार – मनोभाव

अर्दली – चपरासी

हाकिम- अधिकारी

मुलाकात – साक्षात्, भेंट,

मिजाज – मनोभाव, स्वभाव

प्रस्तुत पाठ ‘उत्साह’ शुक्लजी की ‘चिंतामणि, भाग -1 पुस्तक से लिया गया है। यह एक मनोविकार संबंधी निबंध है। शुक्ल जी ने मानव मन के इस स्थायी भाव को बड़ी सूक्ष्मता और स्पष्टता से समझाया है। प्रेम, क्रोध, भय, घृणा, हर्ष, दुख आदि स्थायी भावों की भाँति उत्साह भी मानव मन का एक स्थायी भाव है। इसका स्थान आनंद वर्ग में आता है। उत्साह में जीवन में आनेवाली कठिनाई को कर्म सुख और साहस से मुकाबला किया जाता है। साथ ही इसमें कष्ट या हानि सहने की दृढ़ता भी होती है। साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है। केवल पीड़ा सह लेने को उत्साह नहीं कहा जाता, आनंदपूर्ण वीरता ही उत्साह कहलाती है। कर्म-सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही होते हैं। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के कई भेद होते हैं जैसे – युद्धवीर, दानवीर, दयावीर आदि। इनमें से युद्धवीरता प्राचीन और प्रधान मानी जाती है क्योंकि इसमें पीड़ा ही नहीं, मृत्यु तक की परवाह नहीं होती।

युद्ध के अलावा अनुसंधान के लिए बर्फ मंडित अगम्य पर्वतों की चढ़ाई, ध्रुवदेश या सहारा जैसे रेगिस्तान का सफर आदि कामों में यदि आनंदपूर्ण साहस और तत्परता पाई जाए तो उसे भी उत्साह कहा जाएगा। उत्साह अच्छे गुणों में गिना जाता है क्योंकि इसका उपयोग कर्त्तव्य कर्मों के प्रति तथा शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है। आत्मरक्षा, पररक्षा, राष्ट्ररक्षा आदि कर्मों में जिस साहस की उमंग पाई जाती है, वह परपीड़न, डकैती आदि कर्मों में नहीं। उत्साहपूर्ण कर्म में बुद्धि का भी योग रहता है जिससे हम शुभ और अशुभ का विचार कर सके। सवाल यह उठता है कि उत्साह में उत्साही व्यक्ति का ध्यान किस पर केंद्रित होता है? कर्म पर, उसके फल पर अथवा व्यक्ति या वस्तु पर? निबंधकार के विचार से उत्साही व्यक्ति का ध्यान आरंभ से अंत तक पूरी कर्म-शृंखला ये होता हुआ फल प्राप्ति तक बना रहता है। कर्म भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है, वस्तु या व्यक्ति की भावना नहीं। कर्म के अनुष्ठान में होनेवाले आनंद का विधान तीन रूपों में दिखाई देता है, यथा कर्म भावना से उत्पन्न आनंद, फल भावना से उत्पन्न आनंद और आगंतुक अर्थात् विषयांतर से प्राप्त आनंद। इनमें से कर्म भावना से प्रसूत आनंद ही सच्चे वीरों का आनंद हुआ करता है क्योंकि कर्मवीर को कर्म करते रहने का आनंद प्राप्त होता है, उसके कर्म और फल में कोई अंतर नहीं होता या फिर बहुत कम होता है। सच में कर्म और फल की मिली जुली अनुभूति ही उत्साह है। परंतु यदि उत्साह में फल की विशेष आसक्ति हो तो फिर उससे कर्म के लाघव की वासना उत्पन्न होती है। कम कर्म से अधिक फल प्राप्ति की इच्छा जाग्रत होती है जो सही नहीं है। इसलिए श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट उपेदश दिया: ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’। परंतु उनके समझाने पर भी भारतवासी इस वासना से ग्रस्त होकर कर्म से उदासीन होते गए और फल के पीछे पड़ गए। यहाँ तक कि गरमी में ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने लगे तथा चार आने का अनुष्ठान करके व्यापार में लाभ, शत्रु पर विजय, रोग से मुक्ति आदि चाहने लगे। कर्म में आनंद अनुभव करने वालों का नाम कर्मण्य होता है। धर्म और उदारता में, अत्याचार के दमन और क्लेश के शमन में मन में जो दिव्य आनंद होता है, वह कर्मवीर का सच्चा सुख होता है।

प्रश्न- अभ्यास

(क) कैसे उपासक सच्चे उत्साही कहलाते हैं?

क. भक्ति सौंदर्य के उपासक

ख. कर्म-सौंदर्य के उपासक

ग. प्रेम-सौंदर्य के उपासक

घ. धन-सौंदर्य के उपासक

उत्तर – ख. कर्म-सौंदर्य के उपासक

(ख) बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होने को क्या कहा जाएगा?

क. धैर्य

ख. शक्ति

ग. बल

घ. साहस

उत्तर – घ. साहस

(ग) धृति और साहस दोनों का संचरण किसके बीच हुआ करता है?

क. प्रेम

ख. धर्म

ग. उत्साह

घ. प्रशंसा

उत्तर – ग. उत्साह

(घ) कौन शारीरिक कष्ट से पीछे हटने वाला प्राणी नहीं है?

क. बंदर

ख. कुत्ता

ग. मनुष्य

घ. बिल्ली

उत्तर – ग. मनुष्य

(ङ) उत्साही वीर का ध्यान मूलतः किस पर रहता है?

क. फल

ख. वस्तु

ग. व्यक्ति

घ. कर्म

उत्तर – घ. कर्म

(च) किसने कर्म मार्ग से फलासक्ति की प्रबलता हटाने का स्पष्ट उपदेश दिया?

क. अर्जुन

ख. युधिष्ठिर

ग. श्रीकृष्ण

घ. कबीर

उत्तर – ग. श्रीकृष्ण

(छ) किसने समुद्र लाँघने का विकट कर्म संपादित किया था?

क. रावण

ख. हनुमान

ग. मेघनाद

घ. अंगद

उत्तर – ख. हनुमान

(क) कौन सच्चे उत्साही कहलाते हैं?

उत्तर – कर्म-सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं।

(ख) कैसी उमंग का नाम उत्साह है?

उत्तर – साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है।

(ग) युद्धवीरता की क्या विशेषता है?

उत्तर – युद्धवीरता की विशेषता है कि इसमें आघात, पीड़ा क्या, मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती।

(घ) कैसी वीरता सबसे प्राचीन और प्रधान है?

उत्तर – युद्धवीरता सबसे प्राचीन और प्रधान है।

(ङ) कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटने को क्या कहा

जाता है?

उत्तर – कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटना धीरता कही जाएगी।

(च) उत्साह के दर्शन किससे हुआ करते हैं?

उत्तर – आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा से ही उत्साह के दर्शन हुआ करते हैं।

(छ) किसके भेद के अनुसार उत्साह के भेद हो जाते हैं?

उत्तर – कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भेद हो जाते हैं।

(ज) किसे उत्साह नामक आनंद का नित्य लक्षण कहा जाता है?

उत्तर – प्रयत्न और कर्मसंकल्प को उत्साह नामक आनंद के नित्य लक्षण कहा जाता है।

(झ) विजेतव्य किसके ध्यान में स्थिर रहता है?

उत्तर – विजेतव्य कर्म-प्रेरक के रूप में वीर के ध्यान में स्थिर रहता है।  

(ञ) किसे युद्धवीर का आलंबन कहा गया है?

उत्तर – विजेतव्य को युद्धवीर का आलंबन कहा गया है।

(ट) उत्साह में किस-किसका मेल रहता है?

उत्तर – उत्साह एक यौगिक भाव है जिसमें साहस और आनंद का मेल रहता है।

(ठ) क्या उत्साह उत्पन्न करता है?

उत्तर – कर्म-भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है।

(ड) किसे सच्चे वीरों का आनंद समझना चाहिए?

उत्तर – कर्म – भावना – प्रसूत आनंद को ही सच्चे वीरों का आनंद समझना चाहिए।

(ढ) कर्म और फल की मिली-जुली अनुभूति क्या होती है?

उत्तर – उत्साह वास्तव में कर्म और फल की मिली-जुली अनुभूति है।  

(ण) कौन ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने लगे?

उत्तर – फलासक्ति की प्रबलता से ग्रसित व उदासीन भारतवासी ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने लगे हैं।

(त) कर्मण्य किसका नाम है?

उत्तर – कर्म में आनंद अनुभव करनेवालों ही का नाम कर्मण्य है।

(थ) कौन हाकिमों से मुलाकात करने से पहले अर्दलियों से उनका

मिजाज पूछ लिया करते हैं?

उत्तर – सलाम-साधक लोग हाकिमों से मुलाकात करने से पहले अर्दलियों से उनका मिजाज पूछ लिया करते हैं।

(क) किसे उत्साही के साथ-साथ बेहया भी कहा जाता है?

उत्तर – जो लोग मान-अपमान का कुछ भी ध्यान न करके, निंदा-स्तुति की कुछ भी परवाह न करके किसी प्रचलित प्रथा के विरुद्ध पूर्ण तत्परता और प्रसन्नता के साथ कार्य करते जाते हैं वे एक ओर तो उत्साही और वीर कहलाते हैं दूसरी ओर भारी बेहया।

(ख) ‘मुद्राराक्षस’ नाटक हमारे सामने कौन-सा प्रश्न लाता है?

उत्तर – विशाखादत्त का लिखा संस्कृत नाटक ‘मुद्राराक्षस’ जिसका हिंदी अनुवाद भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया था, इसमें उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ-पैर चलवाती है उसी प्रकार बुद्धि से भी काम कराती है। ऐसे उत्साह वाले वीर को कर्मवीर कहना चाहिए या बुद्धिवीर – यह प्रश्न ‘मुद्राराक्षस’ नाटक बहुत अच्छी तरह हमारे सामने लाता है।

(ग) कर्म के अनुष्ठान वाले आनंद का विधान कितने रूपों में दिखाई

पड़ता है और वे क्या क्या हैं?

उत्तर – कर्म के अनुष्ठान में जो आनंद होता है उसका विधान तीन रूपों में दिखाई पड़ता है-

1. कर्म-भावना से उत्पन्न,

2. फल-भावना से उत्पन्न, और

3. आगन्तुक अर्थात् विषयान्तर से प्राप्त।

(घ) कर्म के मार्ग पर चलता हुआ उत्साही फल न मिलने पर भी क्यों नहीं पछताता?

उत्तर – कर्म के मार्ग पर चलता हुआ उत्साही मनुष्य फल न मिलने पर भी नहीं पछताता क्योंकि उसका जीवन तो कर्मकाल में बीता, संतोष या आनंद में बीता, उसके उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा नहीं रहता कि मैंने प्रयत्न नहीं किया।

(ङ) कर्मवीर के दो लक्षण लिखिए?

उत्तर – प्रयत्नशीलता और कर्मसंकल्पित विचार कर्मवीर के दो लक्षण हैं। इन्हीं दो गुणों के कारण उसका जीवन कर्मरत् रहते हुए बीतता है।  

(च) किसे श्रेष्ठ वीर कहा गया है और क्यों?

उत्तर – युद्धवीर को ही श्रेष्ठ वीर कहा गया है क्योंकि इसमें युद्धवीर को आघात, पीड़ा क्या, मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से श्रेष्ठ माना जा रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं।

(क) कर्मवीर किसे कहा जाता है?

उत्तर – जो व्यक्ति कर्म में लीन रहते हुए आनंद की प्राप्ति करता है उसे ही कर्मवीर कहा जाता है। ऐसे कर्मवीरों के लिए कर्म और फल में कोई अंतर नहीं होता या फिर बहुत कम होता है। ऐसे व्यक्ति जीवन की सार्थकता कर्म करते रहने में ही अर्जित करते हैं।

(ख) कर्मवीर और युद्धवीर में क्या अंतर है?

उत्तर – कर्मवीर अपने कर्म में सदैव लीन रहते हैं और अपना जीवन सार्थक बनाते हैं। इनके लिए फल से ज़्यादा महत्त्व कर्म का होता है इसलिए इसने जीवन में सुख, शांति सदा बनी रहती हैं। दूसरी ओर  युद्धवीर जिसे श्रेष्ठ वीर भी कहा जाता है इन्हें आघात, पीड़ा क्या, मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती। ये कर्म और फल दोनों को समान रूप से देखते हैं।

(ग) वाग्वीर की क्या विशेषता होती है?

उत्तर – वाग्वीर ऐसे व्यक्तियों को कहा जाता है जो अपनी चमत्कृत और लालित्यपूर्ण वाणी से अपना प्रभाव स्थापित करते हैं। वास्तव में  वाग्वीरों के पक्ष में दो बातें सामने उभरकर आती हैं, या तो सचमुच ये वैसे ही होते हैं जैसा ये कहते हैं या फिर केवल अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए आदर्शवादी बातें करते हैं और निजी जीवन में  व्यावहारिकता को ही अपनाते हैं।

(घ) प्रयत्न क्या है? सोदाहरण समझाइए।

उत्तर – किसी मनवांछित कार्य को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से किया गया व्यापार ही प्रयत्न है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई छात्र भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रति रुझान रखता है और खुद को उच्च पदाधिकारी के रूप में देखने के लिए पूर्ण उत्साह के साथ मानसिक और शारीरिक रूप से विविध व्यापार करता है और उसे सफलता भी प्राप्त होती है तो उसका प्रयत्न सफल कहलाता है।

(क) उत्साह क्या है और उसके लक्षण क्या-क्या होते हैं?

उत्तर – किसी कार्य को पूर्ण करने में उत्पन्न होने वाली मानसिक प्रतीति, जैसे – साहस, आनंद और उमंग का नाम उत्साह है। जिन-जिन  व्यक्तियों में उत्साह देखा जाता है उनके लक्षण कुछ इस प्रकार के होते हैं –

– किसी भी परिस्थिति में वे कर्म के प्रति निष्ठावान बने रहते हैं।

– फल की आशा उनमें कर्मों की अपेक्षा कम ही होती है।

– ऐसे व्यक्ति जीवन में सदा सुखी और संतुष्ट होते हैं।

– ऐसे व्यक्तियों को किसी कारणवश फल की प्राप्ति न होने पर भी पछतावा नहीं होता है।

– ऐसे व्यक्तियों को युद्धवीर, कर्मवीर, दानवीर, दयावीर, धर्मवीर आदि श्रेणियों में विभाजित किया जाता है।

– ऐसे उत्साही व्यक्ति समाज के स्वर्ण फूल की तरह कीमती और प्रशंसनीय होते हैं।         

(ख) कर्म अनुष्ठान वाले आनंद का विधान कितने रूपों में हुआ करता है और वे क्या-क्या हैं?

उत्तर – कर्म अनुष्ठान वाले आनंद का विधान तीन रूपों में दिखाई पड़ता है-

1. कर्म-भावना से उत्पन्न,

2. फल-भावना से उत्पन्न, और

3. आगन्तुक अर्थात् विषयान्तर से प्राप्त।

1. कर्म-भावना से उत्पन्न-  कर्म-भावना-प्रसूत आनंद ही सच्चे वीरों का आनंद है। ऐसे व्यक्तियों के लिए कर्म और फल के बीच या तो कोई अंतर होता ही नहीं या बहुत सिमटा हुआ होता है। इसी से वे कर्म की ओर उसी झोंक से लपकते हैं जिस झोंक से साधारण लोग फल की ओर लपका करते हैं।

2. फल-भावना से उत्पन्न – फल की भावना से उत्पन्न आनंद भी व्यक्तियों को कर्मों की ओर हर्ष और तत्परता के साथ प्रवृत्त करता है। पर फल का लोभ जहाँ प्रधान रहता है वहाँ कर्म विषयक आनंद उसी फल की भावना की तीव्रता और मंदता पर अवलंबित रहता है। अर्थात् जब फल निकट दिखने लगता है तो कर्मों में तीव्रता आ जाती है और जब फल अति दूर-दूर तक नहीं दिखता तो कर्मों में मंदता आ जाती है।

3. आगन्तुक अर्थात् विषयान्तर से प्राप्त – कभी-कभी हमें किसी व्यक्ति के आगमन का समाचार मिलते ही हममें चंचलता आ जाती है। उसके आगमन की तैयारियाँ हम पूरे जोश के साथ करने लगते हैं। या फिर किसी से मिलने जाते वक्त जब हमें रास्ते भी अच्छे लगने लगते हैं तो इस तरीके का उत्साह इस श्रेणी में रखा जाता है।   

(ग) कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के क्या-क्या भेद हैं?

उत्तर – कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी कुछ भेद हो जाते हैं। साहित्य- मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्ध-वीर, दान-वीर, दयावीर इत्यादि भेद किए हैं।

युद्धवीर – इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्धवीरता है जिसमें आघात, पीड़ा क्या, मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता में साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं।

दानवीर – दानवीर में अर्थ (धन) त्याग का साहस अर्थात् उसके कारण होने वाले कष्ट या कठिनता को सहने की क्षमता अंतर्निहित रहती है। दान वीरता तभी कही जाएगी जब दान के कारण दानी को अपने जीवन निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट या कठिनता दिखाई देगी।

दयावीर – दया करना भी वीरों का ही कार्य है। इतिहास में अनेक ऐसे दयावीर हुए हैं जिन्होंने अपने शत्रुओं को दयारूपी जीवन दान दिया है। इसके अतिरिक्त बेबस, मज़लूम, लाचार, मजबूरों की दयनीय स्थिति से दयावीरों का हृदय पसीज जाता है और वे उनके उत्थान के लिए अपना पौरुष परदर्शन करते हैं। 

 (घ) “उत्साह वास्तव में कर्म और फल की मिलीजुली अनुभूति है।”-

स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – “उत्साह वास्तव में कर्म और फल की मिली-जुली अनुभूति है।” इसका तात्पर्य यह है कि उत्साह की प्रेरणा से ही तत्परता आती है। यदि किसी कर्म के संपादन में हमारा उद्देश्य फल पर टिका होता है और फल बहुत कर्मों के संपादन के पश्चात् प्राप्त होने की संभावना होती है तो ऐसे में कम उत्साही व्यक्ति फल के प्रति विश्वास खो देते हैं। उनके मन में दो तरह की भावनाएँ जन्म लेती हैं पहली तो यह कि बिना कर्म के ही फल की प्राप्ति ही जाए और दूसरी यह कि वे अपने आप को उस फल के योग्य नहीं मानते। दूसरी तरफ कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिन्हें कर्मवीर या युद्धवीर कहा जाता है। ये फल की विशेष चिंता न करते हुए कर्म के प्रति पूर्ण निष्ठावान होते हैं। ये कर्म करते रहते हैं, समय और समपर्ण दोनों इनके कर्म में देखने को मिलती हैं। वास्तव में यही उत्साही व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अगर किसी कारण से अपने फल की प्राप्ति नहीं होती तब भी ये संतुष्ट होते हैं कि मैंने प्रयत्न और कर्म तो किया ही था। 

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