(जन्म सन् 1939 ई.)
गुजरात विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति डॉ. चन्द्रकान्त मेहता बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। डॉ. मेहता की मातृभाषा गुजराती है किन्तु संस्कृत, प्राकृत एवं हिंदी पर भी उनका समान अधिकार है। लगभग 50 वर्षों से हिंदी एवं गुजराती लेखन के प्रति समर्पित डॉ. मेहता की गुजराती एवं हिंदी में कई रचनाएँ प्रकाशित हैं।
‘साथ- साथ चल रही किरन’ निबंध संग्रह पर भारत सरकार ने उन्हें नेशनल अवोर्ड से सम्मानित किया है एवं उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ ने गुजराती हिंदी की सेतु रूप सेवाओं के लिए ‘सौहार्द सम्मान’ दिया है। अन्य कृतियों में दिया जलाना कब मना है’ , ‘दिशान्तर जरा ठहर जाओ’ , ‘अन्वेषक और अन्य आदि प्रमुख हैं।
प्रस्तुत निबंध में चाहे जितना धन कमाओ, चाहे ऊँचे महल बनाओ, ऐशो-आराम की जिंदगी में भौतिक सुख तो अवश्य मिलता है, सोने-चाँदी के गहनों आभूषणों से लद जाओ पर जब तक भीतरी शांति नहीं मिलती तब तक जीवन व्यर्थ है। सुख पैसे रुपयों से नहीं मिलता। जीवन का सुख उदारता और त्याग में समाया है।
जब ‘द्रव्य – भक्ति’ बढ़ जाती है तब जीवन – भक्ति कम हो जाती है। जब लोग अमीर बनने के कृत्रिम चाव में फँस जाते हैं तब अंत:करण की अमीरी की सुगंध खो देते हैं। तृष्णा तो परंपरागत डाकूरानी होती है। जब तृष्णाएँ बढ़ती हैं तो मनुष्य की नेकी के समाप्त होने में देरी नहीं लगती।
मनुष्य के लिए जीना कोई मुश्किल काम नहीं है, हाँ, पर पवित्रतापूर्वक जीना अवश्य ही मुश्किल है। धन सुख का जादूगर भी है और शांति का डकैत भी। अभी तक किसी कोई भी दरजी ऐसा अँगरखा नहीं सिल पाया है जिसे पहनकर तृष्णातुर मनुष्य चैन की साँस ले सके।
कहा जाता है कि पोम्पीनगर के खंडहरों में खुदाई करते हुए एक नर कंकाल प्राप्त हुआ था। उसकी मुट्ठी खोलने में काफी परेशानी हुयी थी। मुट्ठी खुलने के बाद पता चला कि मृत व्यक्ति ने अपने हाथ में सोना पकड़ रखा था। इसी प्रकार इसी शहर के एक व्यापारी ने अपनी अंतिम साँस लेते समये तकिए के नीचे से पैसों से भरी हुई एक थैली बाहर निकाली थी तथा अपने प्राण त्यागने के समय तक उसे खूब मजबूती से अपने हाथ में पकड़ रखी थी।
हमारे यहाँ पहले डाल-डाल पर सोने की चिड़ियाँ रहती थीं। आज अमीरों की पारिवारिक समस्याओं को दर्शाते हुए धारावाहिकों की ‘मानव-चिड़ियाँ’ गहनों से लदीफदी रहती हैं। घर के भीतर गहनों से सजी-सँवरी और खूब महँगी – महँगी साड़ियों में रौब से घूमती अभिमानी स्त्रियाँ संस्कारिता की धज्जियाँ उड़ाती हुई बेहूदे षड्यंत्रों में संलग्न रहती हैं। इनमें भारतीयता का तिलमात्र भी दर्शन होता है क्या? पहले त्याग द्वारा आनंद की प्राप्ति होती थी पर अब ‘भोगने के बाद फेंक देना’ मूलमंत्र हो गया है।
आज के जीवन में धन ही जीवन का नियंत्रक परिबल बन गया है अतः आज के मनुष्य की वृत्ति व प्रवृत्ति दोनों ही भ्रष्ट हो गयी हैं। अमीर को और अधिक अमीर बनने के लिए धन की प्यास है जबकि गरीब को अपना तन ढकने के लिए रुपयों की जरूरत है। गरीब स्वयं खून-पसीना एक करके धन कमाता है जबकि अमीर दूसरों को उल्लू बनाकर धन कमाता है। यदि गरीब अपने ‘गहने’ को संभाल सके तो उसका गहना तो केवल स्वाभिमान ही है।
जब तक पैसे की खोज नहीं हुयी थी तब तक मनुष्य अंदर से अमीर था। एक लेखक के शब्द ध्यान देने योग्य हैं। वह कहता है ‘सहृदयता, आत्मीयता, आशा, उल्लास तथा प्रेम ही वास्तविक धन है। इस पृथ्वी के एक छोटे से अंश को पाने के लिए मुझे इतना सख्त परिश्रम करने की आखिर क्या आवश्यकता है? समग्र पृथ्वी ही तो मेरी है। अगर कायदे-कानून की भाषा में यह पृथ्वी किसी और की कहलाती है तो इसमें इतनी ईर्ष्या क्यों करनी चाहिए? यह उसी की संपत्ति है जो इसका उपयोग कर पाता है। अत: संपत्ति के मालिकों से मुझे क्यों ईर्ष्या करनी चाहिए? मैं रेल का किराया देकर देशभर की सैर कर सकता हूँ। मेरा मन हो तो ताजगीभरी सुंदर हरी घास, छोटे- बड़े पौधे, मैदानों में लगे कीर्ति स्तंभ तथा सुंदर बारीक कारीगरी वाले शिल्प व सुंदर चित्रों का आनंद ले सकता। उन सब को अपने साथ घर ले जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि जहाँ पर ये सब हैं, वहाँ उनकी देखभाल व उनकी व्यवस्था जितनी अच्छी तरह से की गयी है, उससे आधी देखभाल भी मैं नहीं कर पाऊँगा। इस सृष्टि ने मुझे इस प्रकार की अनेक चीजें प्रदान की हैं। वन में घूमते हुए प्राणी हमारे हैं, नक्षत्र तथा महकते हुए फूल हमारे हैं।
समुद्र, हवा, पक्षी तथा वृक्ष भी हमारे हैं। अब हमें दूसरी किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। इस युग से पहले के सभी युग हमारे लिए काम करके गए हैं। हमें तो केवल अन्न व वस्त्र प्राप्त करने की आवश्यकता हैं और ये प्राप्त करना इस धरती पर बहुत आसान है।’
वाल्मिकी, स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, दयानंद, अरविंद के पास आखिर कौन-सा जमा किया हुआ धन था? फिर भी क्या हम उन्हें गरीब कहने की हिम्मत कर सकते हैं?
भाग्य के स्रष्टाओं’ में जॉन डंकन नामक एक स्कॉटलैंड के निवासी बुनकर के गरीब पुत्र की अमीरी का एक प्रेरणादायक उदाहरण है। जॉन बिलकुल अनपढ़, संकुचित दृष्टि का अशक्त, कुबड़ा तथा आर्थिक दृष्टि से कंगाल परिवार का पुत्र था। जब वह अपने मुहल्ले में से गुजरता था तब बच्चे उसे चिढ़ाते थे। बहुत बार तो पत्थर भी मार दिया करते थे। उसने ढोर चराने का काम शुरू किया तो उसके मालिक ने भी उसके साथ अत्याचार किया। कभी-कभी जॉन कपड़ों को निचोड़ते-निचोड़ते ठंड में काँपते – काँपते पूरी रात गुजार देता। एक दिन जॉन की इच्छा हुई कि वह पढ़ाई करना सीखे। कुछ समय के पश्चात् जब वह बुनाई के काम पर गया, तब उसने स्कूल में पढ़नेवाली एक बारह वर्ष की लड़की से उसे पढ़ाने की विनती कीं। सोलह वर्ष की उम्र में जॉन ने मूल अक्षर सीखने शुरू किए और इसके बाद तो वह खूब जल्दी से लिखना पढ़ना सीखता ही गया। पहले से जंगल में इधर-उधर भटकने के कारण उसे वनस्पतियों की काफी अच्छी जानकारी थी। उसने वनस्पतिशास्त्र का एक ग्रंथ खरीदने के लिए पाँच शिलिंग जमा करने के लिए खूब जी तोड़ मेहनत से काम किया तथा वनस्पतिशास्त्र का गहरा अध्ययन करके उस विषय का पंडित बन गया। अब उसे पढ़ाई में इतनी अधिक रुचि हो गयी थी कि अस्सी वर्ष की वृद्धावस्था में भी एक पौधे को प्राप्त करने के लिए उसने बारह मील की पैदलयात्रा की थी। उसका शरीर दुर्बल था और जीर्ण-शीर्ण पहनावा, पर उसके दिमाग की करामात अद्भुत ! एक बार उसे एक अमीर आदमी मिला। जब उसे पता चला कि बाहर से एकदम साधारण सा दिखनेवाला जॉन वनस्पतिविज्ञान का महापंडित है, तो वह इस पर फिदा हो गया और उसने उसका जीवन चरित्र अखबार में छपवा दिया। उसके बारे में पढ़कर बहुत से लोगों ने जॉन के पास काफी बड़ी-बड़ी रकम के चैक भेजे। परंतु उसने इस धन को अपने लिए प्रयुक्त नहीं किया और अपने वसीयतनामे में लिखा “मुझे प्राप्त सारी धन राशि का उपयोग गरीब विद्यार्थियों के प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन के लिए किया जाय तथा उनको प्रोत्साहन देने के लिए ‘स्कोलरशिप’ तथा ‘पारितोषिक’ भी दिए जाएँ।” जॉन ने कीमती पुस्तकों का अपना ग्रंथालय भी आम लोगों के उपयोग के लिए दान में दे दिया था।
भारत के अनेक महापुरुष भी इसी प्रकार गरीबी, अभाव तथा कठिनाइयों के दलदल में खिलने वाले कमल हैं। अपने-अपने क्षेत्रों में इन्होंने मूल्यवान प्रदान दिए हैं। धन के लिए उन्होंने धर्म (कर्तव्यपरायण) को लज्जित नहीं किया है। द्रव्य के लोभ में अपनी नीयत खराब नहीं की है। पद के लिए प्रतिष्ठा के साथ छेड़छाड़ नहीं की है।
मनुष्यत्व अर्थात् उदारता तथा उदात्तता के प्रयोग के लिए प्राप्त हुआ दैवीय वरदान ! इसीलिए मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि मनुष्य यदि उदार बनता है तो देवदूत और यदि नीच बनता है तो शैतान। सोक्रेटिस के मतानुसार दुनिया में सम्मानपूर्वक जीने के लिए सबसे सरल और आवश्यक उपाय है कि आप अपने आपको जैसा बाहर से दिखाना चाहते हैं, वैसा ही भीतर भी बनें। वास्तव में मनुष्य स्वयं का ही विरोधी है। हम अपने सद्गुणों को स्वार्थ की बेआवाज बुलट से छलनी करते रहते हैं जीवनभर ! बाहर ही नहीं, अंदर से श्रीमंत अथवा अमीर बनना ही पैसा पचाने की कला है।
द्रव्यभक्ति – धनलोभ
तृष्णा – लोभ, इच्छा, अपेक्षा
चैन – शांति
रौब – गर्व, अभिमान
शिलिंग – ब्रिटिश पौंड से छोटी मुद्रा
जीर्ण-शीर्ण – जर्जर
बुलट – बंदूक की गोली
मुहावरें
चैन की साँस लेना – शांति होना
खून पसीना एक करना – सख्त परिश्रम करना
1. निम्नलिखित प्रश्नों के नीचे दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प चुनकर उत्तर लिखिए :-
(1) किसके बढ़ने पर जीवन – भक्ति कम हो जाती है?
(अ) द्रव्य-भक्ति
(ब) तरल भक्ति
(क) धन-भक्ति
(ड) प्रभु भक्ति
उत्तर – द्रव्य-भक्ति
(2) पोम्पीनगर के खंडहरों से मिले एक नर कंकाल की मुट्ठी में क्या था?
(अ) चाँदी
(ब) सोना
(क) मोती
(ड) हीरा
उत्तर – (ब) सोना
(3) मनुष्य अंदर से कब तक अमीर था?
(अ) विज्ञान की खोज नहीं हुई थी तब तक
(ब) टी.वी. को खोज नहीं हुई थी तब तक
(क) टेलीफोन की खोज नहीं हुई थी तब तक
(ड) पैसों की खोज नहीं हुई थी तब तक
उत्तर – (ड) पैसों की खोज नहीं हुई थी तब तक
(4) इनमें से वनस्पतिविज्ञान का महान पंडित कौन बन गया?
(अ) विवेकानंद
(ब) दयानंद
(क) डंकन
(ड) श्री अरविंद
उत्तर – (क) डंकन
2. निम्नलिखित प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-
(1) लोग अंतःकरण की अमीरी की सुगंध कब खो देते हैं?
उत्तर – लोग जब अमीर बनने के कृत्रिम चाव में फँस जाते हैं तब अंत:करण की अमीरी की सुगंध खो देते हैं।
(2) सुख का जादूगर और शांति का डकैत कौन-सा है?
उत्तर – धन ही सुख का जादूगर भी है और शांति का डकैत भी।
(3) आज जीवन का नियंत्रक परिबल कौन है?
उत्तर – आज के जीवन में धन ही जीवन का नियंत्रक परिबल बन गया है।
(4) अमीर धन कैसे कमाता है?
उत्तर – अमीर दूसरों को उल्लू बनाकर अर्थात् दूसरों को बेवकूफ बनाकर धन कमाता है।
3. निम्नलिखित प्रश्नों के दो-तीन वाक्यों में उत्तर लिखिए :-
(1) तृष्णा को परंपरागत डाकूरानी क्यों कहा गया है?
उत्तर – तृष्णा को परंपरागत डाकूरानी कहा गया है क्योंकि जब तृष्णाएँ बढ़ जाती हैं तो मनुष्य में ‘द्रव्य-भक्ति’ बढ़ जाती है। ‘द्रव्य-भक्ति’ बढ़ने से जीवन-भक्ति कम हो जाती है तो ऐसे में मनुष्य की मानवता और नेकी के समाप्त होने में देरी नहीं लगती।
(2) व्यापारी ने अपनी अंतिम साँस लेते समय रुपयों की थैली मजबूती से हाथ में क्यों पकड़ रखी थी?
उत्तर – व्यापारी ने अपनी अंतिम साँस लेते समय रुपयों की थैली मजबूती से हाथ में पकड़ रखी थी क्योंकि उसने अपना पूरा जीवन उस धन को इकट्ठा करने में व्यतीत किया था। इस वजह से उसे उस धन से गहरा लगाव हो गया था।
(3) आज वास्तविक धन कौन-कौन से गुण में हैं? क्यों?
उत्तर – आज सहृदयता, आत्मीयता, आशा, उल्लास तथा प्रेम ही वास्तविक धन है। पाठ में ऐसा कहा गया है क्योंकि आज के युग में इन गुणों का नितांत अभाव है। इन गुणों की कमी के कारण ही मनुष्य मनुष्यता से हीन होता जा रहा है। दूसरी तरफ इतिहास इस बात का प्रमाण भी प्रस्तुत करता है कि जिनमें भी ये दुर्लभ गुण पाए गए हैं वे इतिहास के पन्नों पर अमर बन चुके हैं।
(4) आज मनुष्य की वृत्ति व प्रवृत्ति दोनों ही भ्रष्ट क्यों हो गई है?
उत्तर – आज के जीवन में धन ही जीवन का नियंत्रक परिबल बन गया है इसलिए आज के मनुष्य की वृत्ति व प्रवृत्ति दोनों ही भ्रष्ट हो गई हैं। अमीर को और अधिक अमीर बनने के लिए धन की प्यास है, जिस वजह से वह दूसरों को बेवकूफ़ बनाकर भी धन कमाने में नहीं हिचकिचाता।
(5) डंकन के जीवन से क्या संदेश मिलता है?
उत्तर – डंकन के जीवन से हमें अनेक संदेश मिलते हैं, जैसे- पहला यह कि ज्ञानार्जन के लिए कोई भी आयुसीमा नहीं होती। दूसरा, धन की आवश्यकता हमारे जीवन में केवल उतनी ही होनी चाहिए जितने में हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी हो सकें। तीसरा, हम जिस पथ पर बढ़ रहे हैं दूसरों को भी उस पथ पर बढ़ने में सहायता करें। अंतिम और चौथा, हमें अपने जीवन में कुछ इस तरह से रहना चाहिए कि हमसे बहुत से लोग लाभान्वित हो सके।
4. निम्नलिखित प्रश्नों के चार-पाँच वाक्यों में उत्तर लिखिए :-
(1) पोम्पीनगर के खंडहरों के कंकाल और एक व्यापारी के हाथ में अंतिम समय तक क्या था? क्यों?
उत्तर – पोम्पीनगर के खंडहरों से प्राप्त नर कंकाल की मुट्ठी खोलने पर पता चला कि उसने अपने हाथ में सोना पकड़ रखा था। इसी शहर के एक व्यापारी ने अपनी अंतिम साँस लेते समय धन की थैली को खूब मजबूती से अपने हाथ में पकड़ रखा था। इन दोनों स्थितियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इनके ऐसा करने के पीछे इनकी धन प्राप्ति की प्रबल इच्छा विद्यमान थी। वास्तव में मनुष्य के लिए धन संचय की स्पृहा अप्रयोजनीय है। वह इस जगत का प्राणीश्रेष्ठ है। उसे तो अपना जीवन अनुकरणीय और अमर्त्य बनाने पर ज़ोर देना चाहिए।
(2) डंकन वनस्पतिशास्त्र का महापंडित कैसे बना?
उत्तर – सोलह वर्ष की आयु में अनेक विसंगतियों से जूझने के बाद जॉन डंकन को पढ़ने-लिखने की इच्छा हुई। तब उसने स्कूल में पढ़नेवाली एक बारह वर्ष की लड़की से उसे पढ़ाने की विनती की। सोलह वर्ष की उम्र में जॉन ने मूल अक्षर सीखने शुरू किए और इसके बाद तो वह खूब जल्दी से लिखना पढ़ना सीखता ही गया। पहले से जंगल में इधर-उधर भटकने के कारण उसे वनस्पतियों की काफी अच्छी जानकारी थी। उसने वनस्पतिशास्त्र का एक ग्रंथ खरीदने के लिए पाँच शिलिंग जमा करने के लिए खूब जी तोड़ मेहनत से काम किया तथा वनस्पतिशास्त्र का गहरा अध्ययन करके उस विषय का महापंडित बन गया।
(3) भारत के महापुरुषों को कीचड़ में खिलने वाले कमल क्यों कहा है?
उत्तर – पाठ में वर्णित जॉन डंकन की तरह ही भारत के अनेक महापुरुष भी इसी प्रकार गरीबी, अभाव तथा कठिनाइयों के दलदल में खिलने वाले कमल के समान हैं। चन्द्रशेखर वेंकट रामन्, ए पी जे अब्दुल कलाम, बी.आर. अंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली महानुभावों ने अपने-अपने क्षेत्रों में मूल्यवान योगदान प्रदान किया है। इन्होंने धन के लिए धर्म (कर्तव्यपरायण) को लज्जित नहीं किया है। द्रव्य के लोभ में अपनी नीयत खराब नहीं की है। पद के लिए प्रतिष्ठा के साथ छेड़छाड़ नहीं की है।
(4) ‘बाहर ही नहीं अंदर से श्रीमंत अथवा अमीर बनना ही पैसा पचाने की कला है।’ समझाइए।
उत्तर – ‘बाहर ही नहीं अंदर से श्रीमंत अथवा अमीर बनना ही पैसा पचाने की कला है।’ इस कथन में जीवन का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। मनुष्य अगर चाहे तो अपने आपको कई गुणों का स्वामी बना सकता है, कितने ही विषयों में पारंगत हो सकता है। ऐसा मुकाम हासिल कर लेने के बाद धनार्जन के द्वार स्वत: ही खुल जाते हैं। परंतु आज के युग में इस परंपरा के विरुद्ध लोग धनार्जन पर अधिक बल देते हैं और ज्ञानार्जन पर कम। इस वजह से ही दुनिया में अशांति का वातावरण बना हुआ है।
5. निम्नलिखित कथनों को समझाइए :-
(1) ‘धन सुख का जादूगर भी है और शांति का डकैत भी।’
उत्तर – इस पंक्ति का आशय यह है कि धन से सुख तो आता ही है पर कहीं धन के अभाव से आया हुआ सुख हमसे छूट न जाए इस बात की आशंका ही हमारे जीवन की शांति को छीन लेती है। इस वजह से धन का अक्षय श्रोत बहाते रहने के लिए मनुष्य अमानवीय कार्यों में भी संलग्न हो जाता है।
(2) ‘पहले त्याग द्वारा आनंद की प्राप्ति होती थी पर अब भोगने के बाद फेंक देना’ – मूल मंत्र हो गया है।
उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि पहले आनंद की अनुभूति या प्राप्ति त्याग के द्वारा होती थी। पर आज के युग में आनंद की अनुभूति भोगकर फेंक देने में होती है। यह हमें बदलते जमाने की आत्मकेंद्रित मानसिकता की ओर इशारा करती है।
(3) ‘आज जीवन में धन ही जीवन का नियंत्रक परिबल बन गया है।’
उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि आज के युग में पैसा ही भगवान बन चुका है। अगर कोई धनवान व्यक्ति है तो लोग उसकी ईश्वर से ज्यादा भक्ति करते हुए मिल जाते हैं। आज के युग में यहाँ तक देखा गया है कि पैसे के बल पर ही सच को दबा दिया जाता है और अपराधियों को सज़ा तक नहीं मिलती।
6. सूचनानुसार लिखिए :-
(1) मुहावरों का अर्थ देकर वाक्य में प्रयोग कीजिए :-
चैन की साँस लेना – अपने काम को पूरा करने के बाद ही सुधीर ने चैन की साँस ली।
खून-पसीना एक करना – लोग अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए खून-पसीना एक कर देते हैं।
(2) दिए गए शब्दों के विशेषण बनाइए :-
अमीर – अमीर
परिवार – पारिवारिक
अभिमान – अभिमानी
परिश्रम – परिश्रमी
दिन – दैनिक
दर्शन – दार्शनिक
(3) दिए गए शब्दों से भाववाचक बनाइए
मनुष्य – मनुष्यता
डाकू – डाका
व्यक्ति – व्यक्तित्व
दुर्बल – दुर्बलता
लज्जा – लाज
वाल्मीकि, स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद के जीवनकार्य की जानकारी एकत्रित कीजिए।
उत्तर – 1. वाल्मीकि
वाल्मीकि, जिन्हें ‘आदिकवि’ (प्रथम कवि) के रूप में भी जाना जाता है, भारतीय महाकाव्य रामायण के रचयिता थे। उनका जीवन संघर्षपूर्ण था और उनका मार्गदर्शन हमें यह सिखाता है कि परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, आत्म-निर्माण और सद्गुणों की ओर बढ़ना संभव है।
वाल्मीकि का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, लेकिन बाद में उनका जीवन एक डाकू के रूप में बीता। एक दिन, संत नारद जी के उपदेश से उन्होंने अपने जीवन की दिशा बदल दी और आत्ममंथन कर अपने पापों से मुक्ति पाई। इसके बाद, वाल्मीकि ने ध्यान और साधना के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया और रामायण की रचना की। उनका रामायण हिंदू धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है और इसमें भगवान राम के जीवन के आदर्शों और सिद्धांतों का विवरण है।
- स्वामी रामतीर्थ
स्वामी रामतीर्थ एक महान भारतीय संत, योगी और वेदांत के प्रवक्ता थे। उनका जन्म 1873 में पंजाब में हुआ था। स्वामी रामतीर्थ ने पश्चिमी शिक्षा और भारतीय वेदांत के विचारों का संगम किया और इस बात का प्रचार किया कि जीवन का सर्वोत्तम उद्देश्य आत्मा की पहचान और ब्रह्म के साथ एकात्मता है।
स्वामी रामतीर्थ ने ‘आत्मज्ञान’ और ‘भक्ति’ के बीच संतुलन बनाए रखते हुए, भारतीय संस्कृति और शास्त्रों का पश्चिमी दुनिया में प्रचार किया। वे अमेरिका और यूरोप में भी गए, जहाँ उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों को प्रस्तुत किया और भारतीय संस्कृति को पश्चिमी दुनिया में सम्मानित किया। उनका जीवन दर्शन यह था कि आत्मज्ञान और आत्मविश्वास से ही मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।
- स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद भारतीय संत, योगी और समाज सुधारक थे, जिन्होंने 1893 में शिकागो विश्व धर्म महासभा में अपने प्रसिद्ध भाषण से भारतीय संस्कृति और धर्म का वैश्विक प्रचार किया। उनका जीवन भारतीय संस्कृति, शिक्षा और समाज की उन्नति के लिए समर्पित था।
स्वामी विवेकानंद ने ‘युवा शक्ति’ का महत्त्व समझाया और उन्हें अपने राष्ट्र की सेवा के लिए प्रेरित किया। उनका कहना था कि युवाओं में शक्ति है, और वे अपने देश और समाज की दिशा बदल सकते हैं यदि उन्हें सही मार्गदर्शन और शिक्षा प्राप्त हो। उनका उद्धारण प्रसिद्ध है, ‘उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए”।
स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य के रूप में तात्त्विक ज्ञान प्राप्त किया और वेदांत और योग के गहरी शिक्षाएँ दीं। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों का विरोध किया और समाज सुधार की दिशा में कार्य किया। उनके विचार आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।
इन तीनों महान व्यक्तित्वों ने भारतीय समाज और संस्कृति को गहरे रूप से प्रभावित किया है। उनका जीवन कार्य और दर्शन हमें अपने जीवन में आत्मविकास, सेवा, और समाज के प्रति जिम्मेदारी का बोध कराता है।
- ‘भीतरी समृद्धि’ पर वक्तृत्व स्पर्धा का आयोजन कीजिए।
उत्तर – सामान्यतः जब हम ‘समृद्धि’ शब्द सुनते हैं, तो हमारे दिमाग में धन, संपत्ति, आलीशान घर, और महँगे सामानों की छवि उभर आती है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि सच्ची समृद्धि क्या है? क्या यह सिर्फ भौतिक चीजों से ही जुड़ी होती है, या फिर कुछ और है जिसे हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। आज हम बात करेंगे ‘भीतरी समृद्धि’ की, जो असली समृद्धि है, जो हमारे भीतर ही छुपी होती है।
भीतरी समृद्धि का मतलब है मानसिक शांति, आत्मविश्वास, संतुलन और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण। यह समृद्धि बाहरी चीजों से नहीं, बल्कि हमारे आंतरिक गुणों और विचारों से उत्पन्न होती है। जब हम अपने भीतर के गुणों जैसे दया, सहानुभूति, ईमानदारी, और परिश्रम को अपनाते हैं, तब हम जीवन में सच्ची समृद्धि प्राप्त करते हैं।
हम सभी जानते हैं कि भौतिक समृद्धि जीवन को आरामदायक बना सकती है, लेकिन यह कभी भी भीतर की शांति और संतोष का स्थान नहीं ले सकती। हमारे पास धन हो सकता है, लेकिन अगर हमारे भीतर मानसिक शांति नहीं है, तो वह धन हमारी खुशी और संतुष्टि का कारण नहीं बन सकता। यही कारण है कि बहुत से लोग धन के बावजूद संतुष्ट नहीं होते। वे खुद को खोया हुआ महसूस करते हैं, क्योंकि उनकी आंतरिक समृद्धि खाली है।
भीतरी समृद्धि का एक उदाहरण महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्तित्वों में देखा जा सकता है। उनका जीवन न केवल साधारण था, बल्कि उनके भीतर एक असीम शांति और उद्देश्य था। वे केवल बाहरी वस्तुओं के लिए नहीं जीते थे, बल्कि उनके जीवन का उद्देश्य मानवता की सेवा और आत्मविकास था। यही कारण है कि उनका जीवन आज भी हमें प्रेरणा देता है।
अब सवाल यह उठता है कि हम भीतरी समृद्धि को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इसके लिए हमें सबसे पहले अपने विचारों और भावनाओं पर नियंत्रण रखना होगा। अगर हम सकारात्मक सोचें, अच्छे कार्य करें, और दूसरों की भलाई के लिए काम करें, तो हमारी आत्मा में शांति और संतोष पैदा होगा। आत्म-संवर्धन और निरंतर शिक्षा भी हमें आंतरिक समृद्धि की ओर बढ़ने में मदद करती है।
इसके अलावा, जब हम अपनी गलतियों को स्वीकार करते हैं और सुधारने की कोशिश करते हैं, तो हम आत्मविकास की दिशा में कदम बढ़ाते हैं। यह हमें न केवल बेहतर इंसान बनाता है, बल्कि हमारे अंदर एक गहरी संतुष्टि और खुशी भी लाता है।
हम सभी को यह समझने की आवश्यकता है कि जीवन का वास्तविक अर्थ बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर की स्थिति में छुपा हुआ है। जब हमारे भीतर आंतरिक समृद्धि होती है, तो हम किसी भी स्थिति में खुश रह सकते हैं और किसी भी चुनौती का सामना कर सकते हैं।
अंत में, मैं यही कहना चाहूँगा कि भीतरी समृद्धि ही असली समृद्धि है। यह हमें न केवल बाहरी सफलता दिलाती है, बल्कि जीवन को सही मायनों में जीने की कला सिखाती है। यदि हम अपनी आंतरिक दुनिया को सशक्त बनाएँ, तो बाहरी दुनिया भी हमारे लिए एक बेहतर स्थान बन जाएगी।
धन्यवाद!
‘जीवन में धन से ज्यादा महत्त्व गुणों का है।’ इस कथन को समझाइए।
उत्तर – यह कथन जीवन के वास्तविक मूल्य और प्राथमिकताओं को दर्शाता है। इसका मतलब है कि धन की बजाय गुणों, जैसे – सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, दयालुता, समझदारी, परिश्रम आदि का अधिक महत्त्व है।धन एक बाहरी साधन है जो कुछ समय तक सुख और सुविधा दे सकता है, लेकिन जब तक हमारे पास अच्छे गुण नहीं होते, तब तक वह संतुष्टि और स्थायित्व नहीं दे सकता। गुण जीवन को वास्तविक अर्थ और दिशा प्रदान करते हैं, क्योंकि वे इंसान को अपनी सामाजिक और व्यक्तिगत जिम्मेदारियों को सही ढंग से निभाने में मदद करते हैं। इसके अलावा, गुण व्यक्ति की पहचान बनाते हैं, और वे दूसरों के साथ रिश्ते और समाज में सम्मान प्राप्त करने का रास्ता खोलते हैं। जबकि धन कभी भी कम या अधिक हो सकता है, अच्छे गुण हमेशा व्यक्ति की अंदरूनी समृद्धि और आत्म-सम्मान को बढ़ाते हैं।
सारांश में, यह कथन हमें यह सिखाता है कि बाहरी संपत्ति (धन) से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हमारे आंतरिक गुण होते हैं, क्योंकि वे जीवन को सही मायने में सार्थक और समृद्ध बनाते हैं।