Gujrat State Board, the Best Hindi Solutions, Class IX, Dohe, Kabeer, दोहे (दोहे) कबीर

(जन्म सन् 1398 ई. निधन सन् 1518 ई.)

भक्तिकालीन निर्गुण संत परंपरा में कबीर का स्थान सर्वोपरि हैं। जनश्रुति है कि कबीर की पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। तत्कालीन सामाजिक अव्यवस्था के कारण कबीर विधिवत् शिक्षा नहीं पा सके किंतु प्रेम का दाई अक्षर पढ़कर पंडित हो गए थे। उन्होंने कहा है कि, “मसिकागद छूयौ नहीं, कलम गह्यौ नहीं हाथ” कबीर को स्वामी रामानंद से वेदांत का, सूफी कवि शेख तकी से सूफीमत का और वैष्णव साधुओं के संपर्क में आने से अहिंसा का तत्त्व मिला। उनकी कविता अनुभव का अथाह ज्ञान भण्डार हैं। जीवन की सच्चाई और वाणी में विश्वास के कारण उनकी कविता हृदय के तार झनझना देती है। कबीर ने अपने

युग की विसंगतियों तथा अन्तर्विरोधों को देखकर अपनी कविताओं के माध्यम से उन पर खुलकर तीखा प्रहार किया है। “मैं कहता आखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी” से स्पष्ट होता है कि वे जन्म से विद्रोही, समाज सुधारक, धर्म सुधारक और अपने समय के अनुरूप कवि थे। इन्होंने अपनी रचनाओं में ‘सधुक्कड़ी’ भाषा का उपयोग किया है। जिसमें खड़ी बोली, ब्रजभाषा, पंजाबी, पूर्वी हिन्दी, अवधी आदि कई बोलियों का मिश्रण है। कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद साखी। रमैनी और सबद ये गेय पद हैं तथा साखी में दोहे संकलित हैं।

प्रस्तुत दोहों में कबीर ने विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात किया है। प्रथम दोहे में परमात्मा घट-घट में व्याप्त है, फिर भी हम देख नहीं पाते हैं, दूसरे दोहे में मुझमें जो कुछ है, वह ईश्वर का ही है और वह ईश्वर को सौंपने से अपना कुछ नहीं रहता है, तीसरे दोहे में जन्म सार्थक करने हेतु साधु पुरुषों की संगति करने का, चौथे दोहे में अप्रामाणिक रूप से संपत्ति इकट्ठी करके उसमें से दान करने पर स्वर्गप्राप्ति नहीं हो सकती हैं, पाँचवे दोहे में दुर्जनों की सज्जनों की विशेषता है, छठे में दूसरों की संपत्ति देखकर दुःखी होने के बजाय ईश्वर ने हमें जो दिया है उसमें संतोष रखना चाहिए, सातवें में संसार के पंच रत्न के बारे में, आठवें में बाह्याडंबर का विरोध, नौवे में सुख में भी भगवान को याद किया जाय तो दुःख हो ही क्या ?

कबीर के दोहे

कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूँढे बन माहिं।

ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं॥1॥

मेरा मुझमें कछु नहीं, जो कछु हय सो तेरा।

तेरा तुझको सौंपते, क्या कागेगा मेरा॥2॥

संत मिले सुख उपजे, दुष्ट मिले दुःख होय।

सेवा कीजे संत की, तो जनम कृतार्थ सोय॥3॥

एहरन की चोरी करे, करे सूई का दान।

ऊँचे चढ़कर देखते कैतिक दूर विमान ॥4॥

सोना सज्जन साधु जन, टूटि जुरै सौ बार।

दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एकै धका दरार॥5॥  

रुखा सूखा खाई कै ठण्डा पानी पीव।

देख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव॥6॥

कबीर ! इस संसार में, पंच रत्न हैय सार।

साधु मिलन, हरिभजन, दया दीन- उपकार॥7॥

काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई चिनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बाँग दें, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥8॥

दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय॥9॥

कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूँढे बन माहिं।

ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं॥1॥

व्याख्या – इस दोहे में संत कबीर दास जी ने एक सुंदर उपमा के माध्यम से यह समझाया है कि ईश्वर हमारे भीतर ही बसे हैं, लेकिन हम उन्हें बाहर की दुनिया में ढूँढते रहते हैं। यह अज्ञानता का प्रतीक है कि लोग ईश्वर को बाहरी साधनों में खोजते हैं, जबकि वे हमारे हृदय (अंतर्मन) में ही मौजूद हैं। कस्तूरी मृग के नाभि (कुंडल) में ही बसती है, यानी उसकी खुशबू उसके भीतर से ही आती है। लेकिन वह मृग इस सुगंध को बाहरी जंगल में ढूँढता रहता है, यह जाने बिना कि वह सुगंध उसी के शरीर से निकल रही है। यह मृग की अज्ञानता और भ्रम को दर्शाता है। इसी तरह, ईश्वर हर व्यक्ति के हृदय (आत्मा) में बसे हैं, लेकिन मनुष्य उन्हें बाहर मंदिरों, तीर्थों और अन्य बाहरी चीजों में खोजता रहता है। मनुष्य अज्ञानता और मोह में फँसकर यह समझ नहीं पाता कि सच्चे ईश्वर की अनुभूति बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि अपने भीतर ध्यान और आत्मचिंतन से की जा सकती है। “घट-घट” का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति के भीतर, यानी ईश्वर सर्वव्यापी हैं, लेकिन फिर भी लोग उन्हें बाहरी साधनों में खोजते हैं।

मेरा मुझमें कछु नहीं, जो कछु हय सो तेरा।

तेरा तुझको सौंपते, क्या कागेगा मेरा॥2॥

व्याख्या – इस दोहे में संत कबीर दास जी ने अहंकार त्यागने, ईश्वर के प्रति समर्पण, और सच्ची भक्ति का संदेश दिया है। उन्होंने यह बताया कि मनुष्य के पास जो कुछ भी है, वह वास्तव में उसका नहीं, बल्कि सब कुछ ईश्वर का ही है। कबीर जी कहते हैं कि मेरे अंदर या मेरे पास कुछ भी मेरा अपना नहीं है। जो कुछ भी मेरे पास है—शरीर, बुद्धि, साँसें, धन, ज्ञान, शक्ति—सब कुछ ईश्वर का ही दिया हुआ है। यह मनुष्य के ‘मैं’ (अहंकार) को समाप्त करने की बात है, क्योंकि वास्तव में हम कुछ भी अपने आप से नहीं बना सकते, सब कुछ प्रभु का ही दिया हुआ है। जब सब कुछ ईश्वर का ही है, तो मैं उसी को समर्पित कर रहा हूँ। यह पूर्ण समर्पण और भक्ति का प्रतीक है—जो भी मेरे पास है, उसे मैं ईश्वर को अर्पित कर रहा हूँ। जब मैंने अपने अस्तित्व, कर्म और सांसारिक वस्तुओं को भगवान को समर्पित कर दिया, तो अब मेरा अहंकार कैसा? अब कुछ भी मेरा नहीं रहा।

संत मिले सुख उपजे, दुष्ट मिले दुःख होय।

सेवा कीजे संत की, तो जनम कृतार्थ सोय॥3॥

व्याख्या – इस दोहे में संत कबीर दास जी ने सज्जनों (संतों) और दुष्टों की संगति के प्रभाव को बताया है। वे समझाते हैं कि अच्छे और बुरे लोगों की संगति हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करती है और हमें किस मार्ग पर चलना चाहिए। यदि हमें संतों और सज्जन व्यक्तियों का संग मिलता है, तो हमारे जीवन में सुख, शांति और ज्ञान का प्रकाश आता है। संतों की संगति से अच्छे विचार, प्रेम, करुणा और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है, जिससे जीवन सुखमय बनता है। इसके विपरीत, यदि हम दुष्टों और बुरे व्यक्तियों की संगति में रहते हैं, तो दुःख, अशांति और पाप बढ़ते हैं। दुष्ट स्वभाव वाले लोग हमें गलत मार्ग पर ले जाते हैं, जिससे हमारे जीवन में कष्ट बढ़ जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति संतों की सेवा करता है, उनके बताए हुए मार्ग पर चलता है और अच्छे कार्य करता है, तो उसका जीवन सार्थक (कृतार्थ) हो जाता है। इसलिए, हमें सच्चे संतों और सज्जनों की संगति करनी चाहिए और उनके उपदेशों के अनुसार जीवन जीकर इसे सफल बनाना चाहिए।

एहरन की चोरी करे, करे सूई का दान।

ऊँचे चढ़कर देखते कैतिक दूर विमान ॥4॥

व्याख्या – इस दोहे में संत कबीर दास जी ने दिखावे की भलाई और असली नैतिकता के बीच के अंतर को उजागर किया है। इसमें उन्होंने उन लोगों पर व्यंग्य किया है जो बड़े पाप करते हैं लेकिन छोटी-छोटी भलाई दिखाकर खुद को धार्मिक या परोपकारी दिखाने की कोशिश करते हैं। एहरन यानी लोहार की निहाई (जिस पर लोहे को पीटकर आकार दिया जाता है।) जो एक बड़ी वस्तु है उसे चुरा लेते हैं लेकिन फिर वे दिखावे के लिए छोटी-छोटी चीजें दान करते हैं, जैसे एक सुई (जो बहुत छोटी होती है)। यह उनकी दोगली मानसिकता को दर्शाता है—बड़ी गलतियाँ करने के बाद भी वे खुद को पुण्यात्मा दिखाने के लिए छोटे-छोटे दान करते हैं। ये लोग ऊँचे स्थान (अहंकार और दिखावे के मंच) पर चढ़कर सोचते हैं कि वे बहुत आगे देख सकते हैं, यानी वे खुद को महान समझते हैं। परंतु उनकी वास्तविकता यह है कि वे खुद को धोखा दे रहे हैं। यहाँ विमान अर्थात् भगवान की पूजास्थली का ज़िक्र है जहाँ ये अपने आपको अधिष्ठित करना चाहते हैं। वे ये सोचते रहते हैं कि किस तरह मैं उस स्थान पर अर्थात् विमान पर अधिष्ठित हो जाऊँ कि लोग मेरी पूजा करें।

सोना सज्जन साधु जन, टूटि जुरै सौ बार।

दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एकै धका दरार॥5॥  

व्याख्या – इस दोहे में संत कबीर दास जी ने सज्जन (अच्छे) और दुर्जन (बुरे) व्यक्तियों के स्वभाव की तुलना सोने और मिट्टी के घड़े से की है। सज्जन, साधु और अच्छे लोग सोने के समान होते हैं। जैसे सोना अगर सौ बार भी टूट जाए, तो उसे फिर से पिघलाकर पहले जैसा बना सकते हैं, वैसे ही अच्छे लोग कठिनाइयों और अपमान को सहकर भी फिर से पहले जैसे विनम्र और उदार बन जाते हैं। अच्छे लोगों का स्वभाव होता है कि वे क्षमा कर देते हैं और परिस्थितियों से घबराते नहीं हैं। इसके विपरीत, दुष्ट व्यक्ति कुम्हार के मिट्टी के घड़े (कुंभ) के समान होते हैं। मिट्टी का घड़ा यदि एक बार भी ज़रा सा टूट जाए, तो वह कभी जुड़ नहीं सकता। इसी तरह, दुष्ट व्यक्ति यदि किसी से एक बार नाराज हो जाएँ, तो उनका हृदय कठोर हो जाता है और वे दुश्मनी पाल लेते हैं। वे क्षमा करने की बजाय, द्वेष और घृणा को बनाए रखते हैं।

रुखा सूखा खाई कै ठण्डा पानी पीव।

देख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव॥6॥

व्याख्या – यह दोहा संत कबीर दास जी की सादगी, संतोष और संयम की शिक्षा को दर्शाता है। इसमें उन्होंने मनुष्य को जीवन में संतोष रखने और लालच से बचने की सीख दी है। कबीर दास जी कहते हैं कि अगर आवश्यकता हो, तो साधारण और सादा भोजन (रूखा-सूखा रोटी) खाकर भी संतोष करना चाहिए। साथ में ठंडा पानी पीकर भी यदि मनुष्य संतोष करता है, तो वह सुखी रहता है।यहाँ “रूखा-सूखा” भोजन प्रतीकात्मक है, जिसका अर्थ है सादा जीवन जीना और इच्छाओं को सीमित रखना। पराए (दूसरों के) घी-चुपड़ी रोटी को देखकर मन को लालच नहीं करना चाहिए। “चुपड़ी” यानी घी लगी हुई रोटी, जो समृद्धि और भौतिक सुख-सुविधाओं का प्रतीक है। कबीर का मानना है कि सच्चा सुख भौतिक चीज़ों में नहीं, बल्कि मन की शांति में है।

कबीर ! इस संसार में, पंच रत्न हैय सार।

साधु मिलन, हरिभजन, दया, दीन-उपकार॥7॥

व्याख्या – यह दोहा संत कबीर दास जी के आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को दर्शाता है। इसमें उन्होंने जीवन में सार्थक और मूल्यवान पाँच रत्नों (गुणों) का उल्लेख किया है, जिनका पालन करने से मनुष्य का जीवन सफल और धन्य हो जाता है। कबीर दास जी कहते हैं कि इस संसार में पाँच रत्न (बहुमूल्य गुण) ऐसे हैं, जो सबसे महत्वपूर्ण और सार्थक हैं। ये रत्न आध्यात्मिक उन्नति, मानवता और सद्गुणों का प्रतीक हैं। इनका पालन करने से मनुष्य का जीवन सफल और पवित्र बनता है। इन पाँच रत्नों का वर्णन इस प्रकार है—

साधु मिलन अर्थात् संतों का संगति करना क्योंकि अच्छे और धार्मिक विचारों वाले संत-महात्माओं की संगति करना अत्यंत लाभकारी होता है।

हरि भजन अर्थात् ईश्वर का भजन करना। भगवान का स्मरण और भजन करना आत्मा की शुद्धि का मार्ग है।

दया अर्थात् सभी प्राणियों पर दया भाव रखना। दया एक महान गुण है, जिससे मनुष्य निःस्वार्थ भाव से दूसरों की मदद कर सकता है।

दीन-उपकार अर्थात् धर्म के कार्य और जरूरतमंदों की सहायता करना। समाज के गरीब और असहाय लोगों की मदद करना सबसे बड़ा पुण्य कर्म है।

काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई चिनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बाँग दें, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥8॥

व्याख्या – यह दोहा संत कबीर दास जी की सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों पर प्रहार करने वाली महत्वपूर्ण दोहों में से एक है। इसमें उन्होंने अंधविश्वास, बाहरी दिखावे और धर्म के नाम पर किए जाने वाले आडंबरों की आलोचना की है। कबीर दास जी कहते हैं कि लोग पत्थरों और ईंटों को जोड़कर एक बड़ी मस्जिद का निर्माण करते हैं जो यह दर्शाता है कि मनुष्य ईश्वर की भक्ति के लिए भव्य इमारतें बनाता है, लेकिन उसकी भक्ति और सच्ची आस्था कहीं खो जाती है। बाहरी आडंबरों पर ध्यान दिया जाता है, जबकि आंतरिक भक्ति और सच्चे प्रेम की उपेक्षा होती है। जब मस्जिद बन जाती है, तो उसके ऊपर चढ़कर मौलवी (मुल्ला) अजान (बाँग) देता है। कबीर जी यहाँ एक व्यंग्य करते हैं कि क्या भगवान (खुदा) बहरा हो गए हैं, जो उन्हें जोर से पुकारना पड़ता है? ईश्वर तो सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं, वे तो मन की सच्ची प्रार्थना को भी सुन सकते हैं, फिर उन्हें ऊँची आवाज़ में पुकारने की क्या आवश्यकता?

दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय॥9॥

व्याख्या – यह दोहा संत कबीर दास जी की अमूल्य ज्ञान निधियों में से एक है, जिसमें उन्होंने मनुष्य के स्वभाव और भक्ति के महत्व को सरल शब्दों में समझाया है। जब इंसान कष्ट, संकट या परेशानी में होता है, तब वह भगवान को याद करता है, प्रार्थना करता है और उनसे सहायता की गुहार लगाता है। लेकिन जब वह सुखी होता है, उसके जीवन में कोई परेशानी नहीं होती, तो वह ईश्वर को भूल जाता है और भक्ति नहीं करता। यह मनुष्य का स्वाभाविक स्वार्थी स्वभाव दर्शाता है कि वह केवल जरूरत पड़ने पर ही भगवान को याद करता है।कबीर जी कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति सुख के समय भी भगवान को याद करे, उनका सुमिरन और भजन करे, तो उसे कभी दुःख नहीं होगा। इसका अर्थ यह नहीं कि उसे जीवन में कोई कठिनाई नहीं आएगी, बल्कि यह कि वह मानसिक रूप से इतना दृढ़ रहेगा कि कोई भी कठिनाई उसे विचलित नहीं कर पाएगी।

 

शब्दार्थ और टिप्पणी

कस्तूरी – मृगनाभि से निकलनेवाला एक सुगंधित द्रव्य

कुंडली – नाभि

मृग – हरिन, हिरन

कृतार्थं – जिसका कार्य सिद्ध हो चुका हो, संतुष्ट, मुक्त

एहरन – निहई (एरण), लोहार का एक औज़ार

दरार – दरज

चूपड़ी – चूपड़ी हुई

सार – मुख्य,

सत – दीन

नम्र – विनीत

काँकर – कंकड़

पाथर – पत्थर

सुमिरन – स्मरण

1. एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-

(1) मृग कस्तूरी को कहाँ ढूँढ़ता है?

उत्तर – मृग कस्तूरी को वन में ढूँढ़ता है।

(2) हमारा जन्म कृतार्थ करने के लिए किसकी सेवा करनी चाहिए?

उत्तर – हमें हमारा जन्म कृतार्थ करने के लिए संतों, साधुओं और सज्जनों की सेवा करनी चाहिए।

(3) भवसागर तरने के लिए कौन-कौन से पाँच तत्त्व हैं?

उत्तर – भवसागर तरने के लिए हमें मुख्य रूप से पाँच तत्त्वों का अनुपालन करना अनिवार्य हैं – साधु की संगति, ईश्वर का भजन, दया भाव का प्रदर्शन, धर्म सम्मत कार्य और परोपकार

2. निम्नलिखित भावार्थवाले दोहे ढूँढ़कर उनका गान कीजिए —

(1) परमात्मा घट-घट में व्याप्त है, फिर भी हम देख नहीं पाते हैं।

उत्तर – कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूँढे बन माहिं।

      ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं॥

(2) हमें जो कुछ मिला है, वह ईश्वर का ही है और वह ईश्वर को सौंपने से अपना कुछ नहीं रहता है।

उत्तर – मेरा मुझमें कछु नहीं, जो कछु हय सो तेरा।

      तेरा तुझको सौंपते, क्या कागेगा मेरा॥

(3) अप्रामाणिक रूप से संपत्ति इकट्ठी करके उसमें से दान करने पर स्वर्गप्राप्ति नहीं हो सकती है।

उत्तर – एहरन की चोरी करे, करे सूई का दान।

      ऊँचे चढ़कर देखते कैतिक दूर विमान ॥

(4) दूसरों की संपत्ति देखकर दुःखी होने के बजाय ईश्वर ने हमें जो कुछ दिया है उसमें संतोष रखना चाहिए।

उत्तर – रुखा सूखा खाई कै ठण्डा पानी पीव।

      देख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव॥

3. निम्नलिखित दोहों का भावार्थ स्पष्ट कीजिए —

(1) संत मिले सुख उपजे, दुष्ट मिले दुःख होय।

सेवा किजे संत की, तो जनम् कृतार्थ सोय॥

उत्तर – कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि अच्छे लोगों की संगति से ज्ञान और शांति प्राप्त होती है, जबकि बुरे लोगों के साथ रहने से जीवन में दुःख आता है। इसलिए, हमें सच्चे संतों और सज्जनों की संगति करनी चाहिए और उनके उपदेशों के अनुसार जीवन जीकर इसे सफल बनाना चाहिए।

(2) सोना सज्जन साधु जन, टूटि जुरै सौ बार।

दुर्जन कुंभ कुम्हार के एकै धका दरार॥

उत्तर – संत कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि हमें सज्जनता और सहनशीलता का गुण अपनाना चाहिए। हमें क्षमा और विनम्रता से जीवन जीना चाहिए, न कि क्रोध और कटुता से। सज्जन व्यक्ति हर परिस्थिति में खुद को संभाल लेते हैं, जबकि दुष्ट व्यक्ति छोटी-छोटी बातों में भी संबंध तोड़ देते हैं। इसलिए, हमेशा सज्जनों की तरह बनें और जीवन को शांतिपूर्ण बनाएँ।

(3) काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई चुनाय।

   ता चढि मुल्ला बाँग दै, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥

उत्तर – कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से यह बताना चाहते हैं कि केवल बाहरी पूजा-पाठ, मंदिर-मस्जिद बनाने या ऊँची आवाज़ में प्रार्थना करने से ईश्वर नहीं मिलते। सच्चा धर्म आडंबरों से नहीं, बल्कि प्रेम, करुणा और सच्ची श्रद्धा से मिलता है।

(4) दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।

   जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय॥  

उत्तर – यह दोहा हमें सिखाता है कि यदि हम निरंतर अर्थात् सुख-दुख दोनों स्थितियों में भगवान को याद रखें, तो हमारे जीवन में दुःख का प्रभाव कम हो जाएगा और हम हर परिस्थिति में संतुलित रह सकेंगे।

कबीर के अन्य दोहे पढ़िए और संग्रह कीजिए।

उत्तर – संत कबीर दास जी के 20 प्रसिद्ध दोहे और उनकी सीख

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।

जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥

अर्थ- दूसरों में बुराई देखने से पहले अपने भीतर झाँकना चाहिए।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥

अर्थ- व्यक्ति की जाति नहीं, बल्कि उसका ज्ञान और गुण महत्वपूर्ण होता है।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥

अर्थ- हर कार्य समय के अनुसार होता है, धैर्य रखना जरूरी है।

दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय॥

अर्थ- यदि हम सुख में भी भगवान को याद करें, तो हमें कभी दुःख नहीं होगा।

तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।

सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होय॥

अर्थ- असली साधु वही है जो मन से भी निर्मल और त्यागी हो।

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहि।

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूंगी तोहि॥

अर्थ- मनुष्य को अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि अंत में सब मिट्टी में मिल जाते हैं।

पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।

घर की चक्की कोई ना पूजे, जासे पीस खाए संसार॥

अर्थ- अंधविश्वास छोड़कर वास्तविकता को अपनाना चाहिए।

साँई इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय।

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥

अर्थ- ईश्वर से इतना ही माँगना चाहिए कि स्वयं भी संतुष्ट रहें और दूसरों की भी सहायता कर सकें।

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय॥

अर्थ- हमेशा मधुर वाणी बोलनी चाहिए, जिससे दूसरों को और स्वयं को शांति मिले।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।

सब अँधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या माहीं॥

अर्थ- अहंकार के रहते भगवान नहीं मिलते, जब अहंकार मिटता है तो ईश्वर का प्रकाश मिलता है।

निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

 अर्थ- आलोचक हमारे चरित्र को सुधारते हैं, इसलिए उन्हें अपने पास रखना चाहिए।

कबीरा सो धन संचिए, जो आगे को होय।

सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय॥

अर्थ- सांसारिक धन की बजाय सद्गुण और सत्कर्म का संचय करना चाहिए।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

कह कबीर हरि पाइए, मन ही के परतीत॥

अर्थ- जीत और हार मन की स्थिति पर निर्भर करती है।

लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल॥

अर्थ- ईश्वर से प्रेम करने वाले व्यक्ति स्वयं भी प्रेममय हो जाते हैं।

तिनका कबहुँ ना निंदिए, जो पाँवन तर होय।

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय॥

अर्थ- किसी को भी छोटा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि वही कभी बड़ा दुःख दे सकता है।

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।

दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥

अर्थ- संसार में हर कोई संघर्षों में पिसता रहता है, इससे कोई नहीं बच सकता।

राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।

अवसर फिर न आएगा, बहुरि ना मिलेगी छूट॥

अर्थ- ईश्वर के नाम का ध्यान अभी कर लो, बाद में अवसर नहीं मिलेगा।

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।

फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत कथो गियानी॥

अर्थ- आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, यह ज्ञानी व्यक्ति ही समझ सकता है।

रुखा सूखा खाइ के, ठंडा पानी पीव।

देख पराई चूपड़ी, मत ललचावे जीव॥

अर्थ- संतोषी जीवन जीना चाहिए और दूसरों की संपत्ति देखकर लालच नहीं करना चाहिए।

सोना सज्जन साधु जन, टूटे जुड़ै सौ बार।

दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एकै धक्का दरार॥

अर्थ- सज्जन व्यक्ति क्षमाशील और विनम्र होते हैं, जबकि दुष्ट एक बार अपमानित होने पर रिश्ते तोड़ देते हैं।

 

इकाई में समाविष्ट दोहों का समूहगान करवाइए।

उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर  करवाएँ।

कबीर के उन दोहों को ढूँढ़कर पढ़िए जिनमें बाह्याडंबरों का विरोध किया गया है।

उत्तर – कबीर के दोहे जो बाह्याडंबरों (ढोंग और पाखंड) का विरोध करते हैं

संत कबीर दास ने समाज में फैले अंधविश्वास, कर्मकांड और बाह्याडंबरों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने दिखावे की भक्ति, जात-पात, मंदिर-मस्जिद में भगवान की खोज, तथा आडंबरपूर्ण पूजा-पाठ पर करारा प्रहार किया। उनके कुछ प्रसिद्ध दोहे इस प्रकार हैं –

  1. मंदिर-मस्जिद में ईश्वर को ढूँढना व्यर्थ है

“मोको कहाँ ढूँढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास।

ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास॥”

अर्थ- ईश्वर को बाहर मंदिर, मस्जिद, काबा या कैलाश में खोजने की जरूरत नहीं, वह हमारे हृदय में ही निवास करता है।

  1. मूर्तिपूजा पर कटाक्ष

“पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।

घर की चक्की कोई ना पूजे, जासे पीस खाए संसार॥”

अर्थ- यदि पत्थर की मूर्ति पूजने से ईश्वर मिलता, तो मैं पहाड़ को पूजता। लेकिन जिस चक्की से पूरा संसार अन्न पाता है, उसकी कोई पूजा नहीं करता।

  1. बाहरी आडंबर से भक्ति नहीं होती

“माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका डारि के, मन का मनका फेर॥”

अर्थ- लोग वर्षों तक माला फेरते रहते हैं, लेकिन मन का भाव नहीं बदलता। असली भक्ति हाथ की माला फेरने में नहीं, बल्कि मन को सच्चे प्रेम और भक्ति से बदलने में है।

  1. गंगा स्नान से पाप नहीं धुलते

“जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग।

तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग॥”

अर्थ- जैसे तिल में तेल और पत्थर में आग छिपी होती है, वैसे ही ईश्वर हमारे भीतर है। यदि हम सच में जागरूक बनें, तो हमें बाहरी दिखावे की जरूरत नहीं होगी।

  1. ऊँच-नीच और जातिवाद का विरोध

“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥”

अर्थ- किसी भी व्यक्ति की जाति नहीं, बल्कि उसके ज्ञान और गुणों को महत्व देना चाहिए। जैसे तलवार की धार महत्वपूर्ण होती है, न कि उसका म्यान (खोल)।

  1. धार्मिक कट्टरता और आडंबर पर प्रहार

“काँकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥”

अर्थ- पत्थरों को जोड़कर मस्जिद बनाई जाती है, फिर उसमें बैठकर अजान दी जाती है। क्या ईश्वर बहिरा (बहरा) हो गया है जो उसे जोर से पुकारने की जरूरत है?

  1. तीर्थ यात्रा से मोक्ष नहीं मिलता

“तीर्थ गया क्या हुआ, मन मैला ना जाय।

मणि समंद समाना, मैल तो ऊपर आय॥”

अर्थ- तीर्थयात्रा करने से कुछ नहीं होता, यदि मन मैला ही बना रहे। जैसे समुद्र में मोती डूब जाते हैं लेकिन गंदगी ऊपर आ जाती है, वैसे ही तीर्थ केवल दिखावा बन जाता है यदि मन शुद्ध न हो।

  1. ढोंगी साधुओं पर कटाक्ष

“तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।

सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होय॥”

अर्थ- बहुत से लोग केवल शरीर से संन्यासी (योगी) बनते हैं, लेकिन सच्चा संन्यास वही है जो मन से निर्मल हो।

  1. बाहरी पूजा से सच्ची भक्ति नहीं होती

“दास कबीर जतन करि, ओढ़ी झीनी चादर।

ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं, जस की तस धरी दीन्हीं॥”

अर्थ- कबीर कहते हैं कि उन्होंने ईश्वर से प्राप्त पवित्र जीवनरूपी चादर को जतन से ओढ़ा और बिना मैला किए वापस कर दिया। यानी, बिना पाखंड किए सच्चा जीवन जिया।

  1. वास्तविक ईश्वर की पहचान

“हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहे रहमान।

आपस में दोऊ लड़ी-लड़ी मरे, मरम न जाना कोय॥”

अर्थ- हिंदू राम को पूजते हैं, मुस्लिम रहमान को, लेकिन दोनों आपस में झगड़ते रहते हैं और किसी को भी ईश्वर का वास्तविक रहस्य समझ में नहीं आता।

“कबीर आज भी प्रासंगिक है।” इस विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन कीजिए।

उत्तर – संत कबीर दास के दोहे और विचार सदियों पहले कहे गए थे, लेकिन वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। उन्होंने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, पाखंड, जातिवाद और आडंबरों का विरोध किया और प्रेम, करुणा, सत्य, और ईश्वर की सच्ची भक्ति का मार्ग दिखाया। आज भी समाज में भेदभाव, लोभ, अहंकार और धार्मिक कट्टरता जैसी समस्याएँ मौजूद हैं, जिनका समाधान कबीर के विचारों में निहित है। उनका यह दोहा—”निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय”—आज के समय में आत्मसुधार और सहिष्णुता की सीख देता है। इसी तरह, उनका सादा जीवन और संतोष का संदेश उपभोक्तावादी संस्कृति में भी महत्वपूर्ण है। कबीर केवल एक संत नहीं, बल्कि समाज सुधारक और दार्शनिक थे, जिनकी शिक्षा हमें सही मार्ग दिखाती है। इसलिए, चाहे समय कितना भी बदल जाए, कबीर के विचार सदा प्रासंगिक रहेंगे।

 

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