मन्नू भंडारी
(जन्म: 3 अप्रैल सन् 1931 ई.)
मन्नू भंडारी का जन्म मध्यप्रदेश के भानपुरा कस्बे में 3 अप्रैल, सन् 1931 ई. को हुआ। उनके पिता श्री सुख संपत राय भंडारी जानेमाने लेखक और पत्रकार थे। इसलिए मन्नू भंडारी को लेखन का संस्कार विरासत में मिला। उनके बचपन का नाम महेन्द्र कुमारी था परंतु लेखन के लिए उन्होंने ‘मन्नू’ नाम का चुनाव किया। एम. ए. की डिग्री हासिल करने के अपरांत उन्होंने कुछ समय के लिए कलकत्ता में अध्यापन-कार्य किया। फिर दिल्ली के मीरांडा हाउस में प्राध्यापिका बन गईं। उनका विवाह हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार श्री राजेंद्र यादव से हुआ।
विद्यार्थी जीवन से ही मन्नू भंडारी की रुचि कहानी लेखन की ओर रही। वे नई कहानी आंदोलन की प्रमुख पक्षघर रहीं। उनकी अधिकांश कहानियाँ नारी के अकेलेपन और उसकी त्रासदी की संवेदनापूर्ण अभिव्यक्ति के लिए चर्चित रहीं। नारी होने के नाते वे और भी अधिक गहराई और बारीकी से उसे अभिव्यक्त करने में सफल हुईं। वे नारी को पूर्वाग्रह मुक्त नारी की दृष्टि से देखे जाने के पक्षधर हैं, इसलिए अपनी कहानियों और उपन्यासों में वे नारी की सच्ची और यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ पुस्तक की भूमिका में वे लिखती हैं- “उस पुरानी बात में कहीं एक बहुत बड़ी सच्चाई है। यातना और करुणा हमें दृष्टि देती है। अपने सुख और उल्लास के क्षणों में हम अपने से बाहर होते हैं और औरों के साथ होते हैं। हो सकता है, उल्लास और प्रसन्नता के क्षण मेरी ज़िंदगी के सर्वश्रेष्ठ क्षण रहे हों, लेकिन यातना के वे क्षण मेरे अपने हैं और सृजनधर्मी हैं। इन्हें विभिन्न कहानियों में अभिव्यक्ति न मिली होती तो निस्संदेह ज़िंदगी का बहुत कुछ टूट-बिखर गया होता।”
मन्नू भंडारी हिंदी के लोकप्रिय कथाकारों में से हैं। नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच आम आदमी की पीड़ा और दर्द की गहराई को उद्घाटित करनेवाले उनके उपन्यास ‘महाभोज’ पर आधारित नाटक अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। इसी प्रकार ‘यही सच है’ पर आधारित ‘रजनीगंधा’ नामक फिल्म अत्यंत लोकप्रिय हुई और उसको सन् 1974 ई. की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त उन्हें हिंदी अकादमी, दिल्ली का शिखर सम्मान, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता ; राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, व्यास सम्मान आदि कई सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।
प्रमुख रचनाएँ:
कहानी-संग्रह : एक प्लेट सैलाब में हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है, अकेली, त्रिशंकू, आँखों देखा झूठ
उपन्यास : आपका बंटी, महाभोज, एक इंच मुस्कान।
नाटक : बिना दीवारों का घर।
फिल्म पटकथा : रजनीगंधा, स्वामी, निर्मला, दर्पण
मजबूरी
“बेटू को खिलावे जो एक घड़ी,
उसे पिन्हाऊँ में सोने की घड़ी।
बेटू को खिलावे जो एक पहर,
उसे दिलाऊँ में सोने की मोहर।”
बूढ़ी अम्मा जोर-जोर से यह लोरी गा रही थीं, और लाल मिट्टी से कमरा लीप रही थीं। उनके घोंसले जैसे बालों में से एक मोटी-सी लट निकलकर उनके चेहरे पर लटक आई थी, और उनके हिलते सिर के साथ हिल – हिलकर मानो लोरी पर ताल ठोंक रही थी। बरतन मलने के लिए आई हुई नर्बदा ने जो यह देखा तो हैरत में आ गई, बोली, “अम्मा, यह क्या हो रहा है? कल तो गठिया में जुड़ी पड़ी थीं, दरद के मारे तन-बदन की सुध नहीं थी, और आज ऐसी सरदी में आँगन लीपने बैठ गई।”
एक क्षण को अम्मा का हाथ रुका, फिर पुलकित स्वर में वे बोलीं, “अरी नर्बदा, मेरा बेटू आ रहा है कल !” और फिर गाने के लहजे में बोली, “बेटा मेरा आवेगा…”
ओहो, तो रामेसुर लल्ला आ रहे हैं कल !” नर्बदा बोली।
“मैं कह नहीं रही थी कि छुट्टी मिली नहीं कि वह दौड़ा आएगा। अम्मा के मारे तो उसके प्राण सूखते हैं। इतना बड़ा हो गया, फिर भी यहाँ आएगा तो रात में एक बार मेरी गोदी में ज़रूर सोएगा। पर इस बार मैं कह दूँगी कि चल, मैं तुझे गोदी में नहीं लूँगी, अब तू गोदी में सोएगा कि बेटू?” और वे हँस पड़ीं, जैसे कोई भारी मजाक कर दिया हो। फिर एकाएक काम का खयाल आ जाने से बोलीं, “ले री, मैंने खड़िया भिगो रखी है, जरा बाहर के आँगन को माँड़ दे। बस ऐसा मांडना कि सब देखते ही रह जाएँ। क्या करूँ, आजकल हाथ काँपने लगा है, नहीं तो में माँड़ लेती !”
नर्बदा को खड़िया के काम में लगाकर वे फिर गाने लगीं :
“आओ री चिड़िया चून करो
बेटू ऊपर राइ-नून करो
नून करो-नून करो…”
“ले, मैं तो भूल ही गई क्या है इसके आगे? रामेसुर छोटा था तो ढेरों याद थीं, उसके बाद तो छोटा बच्चा ही घर में नहीं रहा सो सब भूल गई। मेरा रामेसुर तो बिना लोरी सुने कभी सोता ही नहीं था, बेटू भी जरूर उसी पर पड़ा होगा। अब तो दौड़ता-फिरता होगा आँगन में।” और उसकी धुँधली आँखों के आगे जैसे दौड़ते-फिरते बेटू के चित्र बनने-बिगड़ने लगे। उसकी कल्पना में खोई-खोई वे बोलती गई, “पहले बहू लेकर आई थी तब तो दो महीने का था, बस पालने में पड़ा पड़ा हाथ-पैर मारता था और में जाकर खड़ी हो जाती थी तो टुकुर-टुकुर मुझे ही निहारा करता था। सूरत भी एकदम रामेसुर पर ही पड़ी है उसकी। अब तो खुद देख लेना, सारा घर नापता फिरेगा।” और वे हँस पड़ी। इन सब कल्पनाओं से ही उनका शरीर रोमांचित हो उठा।
अम्मा का काम समाप्त हुआ तो मिट्टी में सनी दोनों हथेलियों को जमीन पर पूरे जोर से टिकाते हुए उन्होंने उठने का प्रयत्न किया, पर एक सर्द आह-सी उनके मुँह से निकलकर रह गई। वे उठ नहीं पाईं तो बड़े ही कातर स्वर में बोलीं, “अरे, नर्बदा मुझे जरा उठा दे री, घुटने तो जैसे फिर जुड़ गए।”
“जुड़ेंगे तो सही। ऐसी सर्दी में कब से मिट्टी में सनी बैठी हो? बेटे- बहू आ रहे हैं तो ऐसी क्या नवाई हो रही है? सभी के घर आते हैं।” और नर्बदा ने अम्मा को सहारा देकर उठाया, उसके हाथ धुलाए और खटिया पर लिटा दिया।
“तू भी कैसी बात करती है नर्बदा? तीन बरस बाद मेरा बेटा आ रहा है और में आँगन भी न लीपूँ?”
“तीन बरस बाद आ रहा है तो मैं तो यही कहूँगी कि उनमें मोहमाया नहीं है। तुम यों ही मरी जाती हो उनके पीछे।”
“देख नर्बदा, मेरे रामेसुर के लिए कुछ मत कहना। यह तो मैं जानती हूँ कि तीन-तीन बरस मुझसे दूर रहकर उसके दिन कैसे बीतते हैं, पर क्या करे, नौकरी तो आखिर नौकरी ही है। मेरे पास आज लाखों का धन होता तो बेटे को यों नौकरी करने परदेश नहीं दुरा देती पर “और उनके कुछ क्षण पहले पुलकते चेहरे पर मायूसी छा गई। आँखें अनायास ही डबडबा आई।
नर्बदा यहाँ बरसों से काम करती है, अम्मा के लिए उसके मन में अपार श्रद्धा है, पर बेटे के प्रसंग को लेकर वह जब-तब उनका दिल दुखा दिया करती है। कुछ और खरी-खोटी सुनाने का उसका मन हो रहा था, पर आज वह मानो अम्मा पर तरस खाकर चुप रह गई। जब तक वह काम करती रही, अम्मा शून्य में ताकती जाने क्या सोचती रहीं, बोलीं एक शब्द समय ग्वाले को कहती जाना कि कल दूध जल्दी दे जाए, और अब दूध ज्यादा लगेगा। बच्चे वाले घर में तो दूध पूरा ही रहना चाहिए। और जब तक वे लोग यहाँ रहें, तब तक तू चौका बर्तन करके यहीं रहा करना। घर में पाँच प्राणी रहते हैं तो काम तो निकल ही आता है, फिर बच्चे का साथ रहेगा। लेन-देन की चिंता मत करना, मैं रामेसुर को एक कहूँगी, तो वह पाँच देगा।”
कुछ तो गठिया के दर्द ने और कुछ नर्बदा की बातों ने अम्मा का उत्साह तोड़ दिया। बहुत से काम उन्होंने सोच रखे थे, पर वे कुछ न कर सकीं। बस अपनी खाट पर पड़े-पड़े भूली-बिसरी लोरियाँ याद करके गुनगुनाती रहीं। धीरे-धीरे रात के अंधकार में उनके मन की मायूसी भी डूब गई और वे भोर होने के पहले ही उठ बैठीं। घुटने का दर्द मन के उत्साह में खो गया, और बेटे पोते से मिलने की उमंग में मौसम को ठण्डक भी जैसे जाती रही। सात बजते-बजते तो वे सब घर हो पहुँच जाएँगे। साथ छोटा बच्चा है, दूध तो गरम करके रख ही दूँ। फिर उन दोनों को भी तो चाय को आदत होगी, ऐसी सर्दी में चाय तैयार नहीं मिलेगी तो अम्मा को क्या कहेंगे भला? दूसरा चूल्हा भी जला दूँ, नहाने को गरम पानी भी तो चाहिए।
उस कड़कड़ाती सर्दी में ठिठुरते ठिठुरते अम्मा ने बेटे-बहू को गरम करने के सारे आयोजन कर डाले। फिर सोचा-लगे हाथ तरकारी भी काट दूँ, नहीं तो वे इधर आएँगे और उधर में चूल्हे में सिर देकर बैठ जाऊँगी। तीन बरसों में मेरा बेटा आ रहा है, घड़ी दो घड़ी उससे बात भी करूँगी? इनका क्या, ये तो अपनी राजी खुशी पूछकर औषधालय चल देंगे। तरकारी भी कट गई अब क्या करे? अम्मा अपने को इतना व्यस्त कर देना चाहती थीं, जिससे प्रतीक्षा के बोझिल क्षण महसूस न हों, पर समय जैसे बीत ही नहीं रहा था तभी दूर कहीं घोड़ों के घुंघरूओं की आवाज आई और तांगा अम्मा के घर के सामने रुका। अम्मा पागलों की तरह दरवाजे की ओर दौड़ पड़ीं। रामेश्वर की गोद से उन्होंने झपटकर बच्चे को ऐसे छीना, मानो किसी चोर- उचक्के के हाथ से अपने बच्चे को छीन रही हाँ, और कसकर उसे सीने से चिपका लिया। चरण छूते रामेश्वर की पीठ पर हाथ फेरते हुए दूसरे हाथ के घेरे में उसे लपेट लिया। बच्चा एकाएक इतना प्यार और शारीरिक कष्ट पाकर रो उठा और माँ के पास जाने के लिए मचलने लगा। वे उसके आँसू पोंछने लगीं, और उनकी अपनी आँखों से भी आँसू की धारा बहने लगी। पुचकारने पर भी जब बच्चा चुप नहीं हुआ तो बहू की ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, “अभी मुझे पहचानता नहीं। एक बार मुझे पहचानने लगेगा तो छोड़ेगा नहीं।” उपेक्षित-सी एक ओर खड़ी बहू ने बच्चे को ले लिया।
चाय-पानी हो गया, और रामेश्वर नहाने चला गया तो अम्मा ने बहू को अकेले पाकर कहा, “खबर तो दी होती बहू, कि तुम्हारे महीने चढ़े हैं, कितने महीने हैं?”
झेंपते हुए बहू ने उत्तर दिया, “यह भी कोई लिखने की बात थो अम्मा!” फिर जरा रुकते रुकते कहा, मानो कहने का साहस बटोर रही हो, अम्मा, इस बार बेटू को आप ही रखेंगी। जैसे भी हो, जब तक में यहाँ तब तक इसे अपने से हिला लीजिए। में तो इसके मारे ही परेशान थी, दो-दो को तो….”
अम्मा आँखें फाड़-फाड़कर ऐसे देख रही थीं मानो जो कुछ सुन रही हैं उस पर विश्वास करें या नहीं। फिर एकाएक बोल पड़ी, “तुम कह क्या रही हो बहू, बेटू को मेरे पास छोड़ जाएगी, मेरे पास! सच? हे भगवान, तुम्हारी सब बात पूरी हो, तुम बड़भागी होओ। मेरे इस सूने घर में एक बच्चा रहेगा तो मेरा जन्म सफल हो जाएगा।” फिर वे एकाएक रो पड़ीं, “तुम क्या जानो बहू! अपने कलेजे के टुकड़े को निकालकर बंबई भेज दिया। रामेसुर के बिना यह घर तो मसान जैसा लगता है। ये ठहरे सन्त आदमी, दीन-दुनिया से कोई मतलब नहीं। में अकेली ये पहाड़ जैसे दिन कैसे काटती हूँ सो में जानती हूँ। भगवान तुम्हें दूसरा भी बेटा दें, तुम उसे पाल लेना! में समझँगी, तुमने मेरा रामेसुर लेकर मुझे अपना रामेसुर दे दिया! पर देखो, अपनी बात से मुड़ना नहीं… में… में “तभी रामेश्वर ने ठिठुरते हुए रसोई में प्रवेश किया, “अम्मा, एक अंगीठी जरा इधर रख दो। बंबई में रहकर तो सरदी सहने की आदत नहीं रही। यहाँ तो नहाते ही जैसे जम गया।”
अम्मा ने अंगीठी रामेश्वर के पास सरका दी। तभी रामेश्वर का ध्यान अम्मा के कपड़ों की ओर गया, “यह क्या अम्मा, तुम कुछ भी गरम कपड़ा नहीं पहनी हो! सरदी खा गईं तो बीमार पड़ जाओगी। फिर तुम्हें गठिया की भी तकलीफ है, ऐसे कैसे चलेगा? न हो तो बनवा लो कपड़े, में रुपये दे दूँगा।”
पर यह सब अनसुना करके अम्मा बोलीं, “देख, आज बहू ने कह दिया है कि बेटू अब मेरे पास रहेगा, और अब जो बच्चा होगा वह तुम्हारे पास तू कहीं टाल मत जाना, बात पक्की हो गई। आज से बेटू मेरा हुआ !” “अरे, हम सभी तो तुम्हारे हैं अम्मा, भूलो नहीं?” परिहास के स्वर में रामेश्वर बोला।
“हो क्यों नहीं। मेरे नहीं तो और किसके हो! पर बेटू आज से मेरे पास रहेगा।” अम्मा ने कहा।
तभी बेद्याराज जी कुछ खाली शीशियाँ लेकर आए तो अम्मा बोलीं, “सुनते हो जी, इस बार बेटू यहीं रहेगा। बेचारी बहू खुद अभी बच्ची है, दो-दो को कैसे संभालेगी? और फिर पहले बच्चे पर तो यां भी दादी का हक होता है।” उनके हाथों की गति बढ़ गई थी और वे अब उठने-बैठने में जरा भी तकलीफ महसूस नहीं कर रही थीं।
दोपहर को नर्बदा से भी कहा, “बहू के तो फिर बच्चा होने वाला है, बेचारी दो-दो को कैसे संभालेगी, सो मुझसे कहने लगा-अम्मा, बेटू को तो तुम्हें ही रखना पड़ेगा। उसे कहने में बड़ा संकोच हो रहा था कि मुझे बुढ़ापे में तकलीफ होगी, पर तू ही बता, घर के बच्चे को रखने में कैसी तकलीफ भला ! ऐसे समय में घर के ही लोग काम न आएँगे, तो कौन आएँगे भला!”
इसके बाद घर में जो कोई भी आया, उसे यही खबर सुनाई गई। अम्मा इस बात का इतना प्रचार कर देना चाहती थीं कि यदि फिर किसी कारण से बहू का मन फिर भी जाए तो शरम के मारे ही वह अपना इरादा न बदल पाए। अम्मा का सारा दिन बेटू को खिलाने में और उसकी नोन राई करने में ही बीतता। जाने कैसी-कैसी औरतें घर में आती हैं, तन्दुरुस्त – सुंदर बच्चे को कड़ी नजर से देख जाएँ तो लेने के देने पड़ जाएँ। बेटू को लेकर उनके शिथिल और नीरस जीवन में नया उत्साह आ गया था। घुटनों के दर्द के मारे कहाँ तो वे अपने शरीर का बोझ ही नहीं हो पाती थीं, और कहाँ अब वे बेटू को लादे फिरती हैं। शाम को उसके साथ आँख-मिचौनी खेलती। बेटू का घोड़ा बनकर आँगन में दौड़ती-फिरतीं। बेटू के साथ-साथ उनका भी जैसे बचपन लौट आया था। देखने वाले अम्मा के पागलपन पर हँसते, पर उसकी उन्हें जरा भी चिंता नहीं थीं। रामेश्वर ने टोका, “अम्मा, क्यों उसे लादे फिरती हो, यों ही तुम्हारे घुटनों में दर्द रहता है।” तो बिगड़ पड़ीं, “कैसी बातें करता है रामेसुर, इसमें भी कोई वजन है जो उठाना भारी पड़े। फूल जैसा तो हल्का है, खाली-खाली दोनों बेला मिलते टोक दिया। माँ- बाप की नजर ही सबसे ज्यादा लगती हे बच्चों को, तभी तो बेटू एक दिन भी ठीक नहीं रहता है।”
निश्चित समय पर दूध पिलाना, शीशी में दूध भरना, बाद में उसकी सफाई करना आदि सब काम अम्मा के लिए बिल्कुल नए थे। उन्होंने तो रामेश्वर को अपने ढंग से पाला था। जब बच्चा रोया झट दूध पिला दिया। दूध के लिए भी समय देखना पड़ता है, यह बात उनके लिए एकदम नई थी। दो साल तक तो उन्होंने रामेश्वर को अपना दूध पिलाया था, उसके बाद गिलास से पिलाती थीं। यह शीशी का नखरा उस जमाने में था ही नहीं, और होगा भी तो शहरों में पर रमा से बड़ी लगन और तत्परता से एक जिज्ञासु विद्यार्थी की तरह उन्होंने यह सब भी सीखा। पति से जिद करके औषधालय की दीवार घड़ी, जो पिछले बीस वर्षों से वहीं लगी थीं, उतरवाकर घर में लगवाई, और घड़ी देखना सीखा। उनके एकाकी जीवन में समय का कोई महत्त्व ही नहीं था। न पति को दफ्तर जाना रहता था, न बच्चों को स्कूल, जो समय पर कोई काम करना पड़े। पर अब एकाएक ही उन्हें घड़ी की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। यों उनकी याददाश्त बड़ी कमजोर थी, पर दूध के समय उन्होंने जो याद किए तो कभी नहीं भूलीं। शुरू-शुरू में यह सब उन्हें बड़ा अटपटा-सा लगा, पर फिर भी वे सारा काम बड़ी सतर्कता से करतीं। शीशी में दूध भरते समय उनका बूढ़ा हाथ अक्सर काँप जाया करता था, ओर दूध बाहर को गिर जाता था। उस समय वे एक असफल विद्यार्थी की तरह सफाई पेश करती थीं, “बहुत जल्दी सीख लूँगी बहू। जरा-सा हाथ काँप गया था, फिर शीशी का मुँह भी तो कितना छोटा है।” उनका कहने का भाव ऐसा होता मानो वे कह रही हों कि इस छोटी-सी गलती के कारण ही कहीं तुम बेटू को ले मत जाना!
बीस दिन के बाद जब बहू ने अपनी माँ के घर प्रयाण किया तो बेटू ने न जिद की, न वह रोया ही। माँ के कड़े नियन्त्रण के बाद दादी के असीम दुलार में रहना, जहाँ कोई बन्धन नहीं, अकुश नहीं, बेटू को बड़ा अच्छा लगा। बहू चली गई, अम्मा ने निश्चिन्तता की एक साँस ली। महीना बीतते- न बीतते खबर आई कि बहू के दूसरा लड़का हुआ है। अम्मा की छाती पर से जैसे एक भारी बोझ हट गया। संशय का एक काँटा जो रमा के जाने के बाद भी उनके मन में चुभा करता था, वह भी निकल गया। बेटू अब मेरा है, पूरी तरह मेरा है, यह भावना उसी दिन पूरी तरह उनके मन में जम पाई।
जाने से पहले रामेश्वर ने अम्मा और पिताजी के लिए ढेर सारे कपड़े बनवाए थे। अम्मा सारे मोहल्ले की औरतों को दिखाती फिरती। जो कोई आता उसी से कहतीं, “ अम्मा के पीछे तो बस रामेसुर पागल हे, न आगे की सोचता है, न पीछे की। उसका बस चले तो मुझ पर ही सारा घर लुटा दे। लाख मना करती रही, पर एक बात नहीं मानी। अब बुढ़ापे में ये छपी साड़ियाँ पहनकर कहाँ जाऊँगी, पर वह क्यों सुनने लगा?” उनकी झुरियों-भरे चेहरे पर चमक आ जाती, और वे आँखें मूँदकर अपने बेटे की चिरायु होने की कामना करतीं। जब रामेश्वर के जाने का समय आया तो उन्होंने रो-रोकर घर भर दिया। हिचकियाँ लेते हुए बोलीं, “देख रामेसुर, यह तीन-तीन बरस तक घर का मुँह न देखने वाली बात अब नहीं चलेगी। साल में एक बार तो आ ही जाया कर मेरे लाल ! नौकरी की जगह नौकरी है, और माँ-बाप की जगह माँ-बाप ! मेरी तबीयत भी ठीक नहीं रहती, किसी दिन भी आँख मुँदी रह जाएँगी, तो में तेरी सूरत को भी तरस जाऊँगी। सो कम-से-कम अपनी इस बुढ़िया माँ को… “पर आगे वे कुछ नहीं कह सकीं, बस फूट-फूट कर रोने लगीं। आँसू भरी आँखों से वे रामेश्वर के ताँगे को तब तक देखती रहीं, जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गया। उसके बाद उन्होंने कसकर बेटू को अपनी छाती से चिपका लिया।
दूसरे साल रामेश्वर नहीं आया, केवल रमा आई, शायद बेटू को देखने। पर बेटू को जो देखा तो उसका माथा ठनक गया। जिस बेटू को वह छोड़ गई थी, और जिसे अब वह देख रही है, दोनों में कोई सामंजस्य ही नहीं था। बात-बात में उसकी जिद देखकर रमा का खून खौल जाता। खाना वह दादी अम्मा के हाथ से खाता, और सारे दिन चरता रहता था। रात में सोता तो दादी अम्मा के दोनों अँगूठे पकड़कर सोता, और जब तक दादी अम्मा उसे लोरी नहीं सुनातीं तब तक उसे नींद नहीं आती थी। सारे दिन दादी अम्मा की धोती का पल्ला पकड़कर उनके पीछे-पीछे घूमा करता, और शाम को गली- मुहल्ले के गन्दे – गन्दे बच्चों के बीच खेलता। उसे देखकर कौन कहेगा कि यह एक पढ़ी-लिखी सभ्य लड़की का बच्चा है। घर के सामने से जो कोई भी फेरीवाला निकल जाता, उसी से बेटू कुछ-न-कुछ जरूर खरीदता, न दिलवाने से जमीन-आसमान एक कर देता, और मचल मचलकर सारे आँगन में लोटता।
आखिर रमा को जबान खोलनी है पड़ी, “अम्मा, आपने तो इसे बिगाड़कर धूल कर रखा है, इस तरह कैसे चलेगा?”
दादी माँ ने हँसते हुए बड़े सहज भाव से कहा, “अरे, बचपन में कौन जिद नहीं करता बहू ! रामेसुर भी ऐसे ही करता था, यह तो सच हूबहू उसी पर पड़ा है। समय आने पर सब अपने आप छूट जाएगा। यही तो उमर होती है जिद करने की, साल-दो साल और कर ले फिर अपने-आप सब- कुछ छूट जाएगा।” और वे मुग्ध भाव से गोद में बैठे बेटू के बालों में अँगुलियाँ चलाने लगीं। रमा खून का घूँट पीकर रह गई। रमा की इच्छा हुई बेटू को अपने साथ लेती जाए, पर एक साल का पप्पू ही उसे इतना परेशान करता था कि दोनों को साथ रखने का साहस नहीं हुआ। बम्बई जाते हो उसने अम्मा के पास जरा खरी-खरी भाषा में पत्र पहुँचाने आरम्भ कर दिए। जैसे ही वह चार साल का हुआ, रमा ने लिख दिया कि अम्मा अब उसे वहाँ के नर्सरी स्कूल में भर्ती करवा दें, कम-से-कम कुछ तमीज तो सीखेगा ! चिड़ियाँ पढ़ती तो अम्माँ को लगता बहू का दिमाग बौरा गया है। भला चार साल का दूध पीता बच्चा कहाँ स्कूल जा सकता है। रमा के पत्र आते रहे और अम्मा का ढर्रा अपने ढंग से बराबर चलता रहा।
दो साल बाद फिर रमा और रामेश्वर अपने तीन साल के पप्पू को लेकर आए। पप्पू ने अंग्रेजी की छोटी छोटी कविताएँ याद कर रखी थीं ओर बड़े अदब के साथ बोलता था। अभी दो महीने पहले ही रमा ने उसे वहाँ के अंग्रेजी स्कूल में भर्ती करवाया था। पर बेटू वैसा ही था जैसा रमा उसे छोड़ गई थी। उम्र में वह जरूर बड़ा हो गया था बाकी सब कुछ वेसा ही था। रमा उठते-बैठते रामेश्वर से कहती, “जैसे भी हो, इस बार बेटू को लेकर चलना ही होगा। यही हाल रहा तो इसकी ज़िंदगी चौपट हो जाएगी। यह भी कोई ढंग है भला !”
“अम्मा को बड़ा दुख होगा, और बेटू तुम्हारे पास जरा भी तो नहीं आता, वह अम्मा को छोड़कर कैसे रहेगा? ये सारी बातें सोच लो!” रामेश्वर इस प्रसंग को जैसे टालना चाहते थे।
अम्मा के दुख की बात में मानती हूँ।” रमा ने अपने आवेश को दबाते हुए कहा, “पर जब उन्हें लिखा कि स्कूल में डाल दो तो वह भी तो उनसे नहीं हुआ। जैसे बताती हूँ वैसे तो रखती नहीं। अब इनके दो दिन के सुख के लिए बच्चे का सारा भविष्य बिगाड़ कर रख दूँ?” उसका गला भर्रा आया था। रामेश्वर बेचारा बड़े धर्म-संकट में था। उसे पत्नी की बातों में भी सार नजर आता था, और वह अम्मा की भावनाओं को भी ठेस नहीं पहुँचाना चाहता था, सो बिना कुछ निर्णय दिए सारी बात रमा पर छोड़ कर वह बम्बई लौट गया। रमा कभी मिठाई दिलाकर, कभी तांगे में घुमाकर बेटू को अपने से हिलाने की कोशिश करने लगी। बेटू को तांगे में घूमने का बेहद शोक था, जो कम ही पूरा होता था। अम्मा को कभी स्वप्न में भी खयाल नहीं था कि रमा पप्पू के रहते हुए भी बेटू को ले जाने का प्रस्ताव रखेगी। जिस दिन उन्होंने सुना, उनके पैरों तले की जमीन सरक गई। जब रमा ने बेटू को उनके पास छोड़ने का प्रस्ताव रखा था, तब एकाएक उन्हें अपने कानों पर भी विश्वास नहीं हुआ था। ठीक उसी प्रकार ले जाने की बात पर भी उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। फिर भी काँपते स्वर में कहा, “कैसी बात करती हो बहू। मेरे बिना वह पल-भर भी तो नहीं रहता। इतना बड़ा हो गया, फिर भी जब तक में कोर नहीं देती तब तक वह खाता नहीं, तो एकाएक मुझसे दूर कैसे रहेगा?”
“नहीं रहेगा तो थोड़े दिन रो लेगा, आखिर उसकी पढ़ाई का सिलसिला
भी तो जमाना है अम्मा! देखो, पप्पू स्कूल जाने लगा है और यह अभी तुम्हारा पल्ला पकड़े-पकड़े ही घूमता है।”
“अरे पढ़ लेगा, बहू पढ़ लेगा। उमर आएगी तो पढ़ लेगा। यह मत सोचना कि में उसे गँवार ही रहने दूँगी। रामेसुर को भी तो मैंने ही पाला- पोसा है, उसे क्या गँवार रख दिया? फिर यह तो मुझे ओर भी प्यारा है। मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है, इसे तो में खूब पढ़ाऊँगी, तू चिंता मत कर बहू, पर इसे ले जाने की बात मत कर… और वे फफफ-फफककर रो पड़ीं।
रमा की आँखों में भी आँसू तो आ गए, फिर भी उसने अपने पर काबू पाते हुए, और स्वर को भरसक कोमल बना कर कहा, “मैं आपका दिल नहीं दुखाना चाहती अम्मा, पर आपके इस जरूरत से ज्यादा प्यार ने ही तो इसे बिगाड़कर धूल कर दिया है। एक भी आदत तो इसमें अच्छी नहीं है। यदि आप सचमुच ही इसे प्यार करती हैं और इसका भला चाहती हैं तो इसे मेरे साथ भेज दीजिए, और उसके साथ दुश्मनी ही निभानी है तो रखिए इसे अपने पास।” कहने के बाद ही रमा को लगा, जैसे बहुत बड़ी बात कह गई है।
“में…. में अपने बेटू के साथ दुश्मनी निभाऊँगी में उसकी दुश्मन हूँ.. मैं…. तू मेरे प्यार की परीक्षा लेना चाहती है, पर ऐसी कठिन परीक्षा तो मत ले बहू, इससे तो तू मेरे प्राण ही ले ले !” और वे फूट-फूटकर रोने लगीं। कुछ देर बाद एकाएक स्वर संयत करके बोलीं, “ले जा बहू, ले जा। मेरा बेटू फूले-फले, पढ़-लिखकर लायक बने इससे बढ़कर खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है। मेरा क्या है, मेरी चार दिन की हँसी-खुशी के लिए में तेरे बच्चे की ज़िंदगी नहीं बिगाड़ूँगी। में अपढ़-गँवार ओरत ठहरी, इसे लायक कहाँ से बनाऊँगी ! तू इसे ले जा। चार दिन को मेरी ज़िंदगी में हँसी-खुशी आ गई, इसी में तेरा बड़ा जस मानूँगी…” ओर रमा कुछ कहे उससे पहले ही उन्होंने रसोईघर में जाकर भीतर से किवाड़ बन्द कर लिए।
रमा को खुद इस सारी बात से बड़ा दुःख हो रहा था, पर बच्चे की बात सोच कर वह निर्णय बदलने में अपने को असमर्थ पा रही थी। यही सोच सोचकर वह अपने को तसल्ली दे रही थी कि समय का मरहम अम्मा के घाव को अपने-आप भर देगा।
दो दिन बाद औषधालय के एकमात्र नोकर और दोनों बच्चों को लेकर रमा अपनी माँ के यहाँ चल पड़ी। बेटू को बताया ही नहीं गया कि रमा उसे अपने साथ ले जा रही है। रोज की भाँति तांगे में घूमने के लालच में वह चला गया। जाते समय कह गया, “दादी अम्मा, मैं तुम्हारे लिए मिठाई और गोली लेकर आऊँगा।” दादी अम्मा ने उसे कलेजे से लगा लिया। एक बार उनकी इच्छा हुई कि वह बेटू को बता दें कि रमा उसे हेमशा के लिए उनसे अलग करके ले जा रही है, पर फिर भी वे चुप रहीं।
उसके बाद जो भी कोई घर में आया, अपार आश्चर्य से उसने पूछा, “अरे, बहू बेटू को ले गई? तुम तो कहती थी कि बेटू अब तुम्हारे पास ही रहेगा।” अम्मा को लगा, जैसे किसी ने उनके कलेजे पर गरम सलाख दाग दी हो। तिलमिलाकर जवाब देतीं, “कहती तो थी पर अब रखा नहीं जाता। गठिया के मारे मेरा तो उठना-बैठना तक हराम हो रहा है, तो मैंने ही कह दिया कि बहू, अब पप्पू बड़ा हुआ सो बेटू को भी ले जाओ।”
“अरे अम्मा, एक पल तो तुम उसे छोड़ती नहीं थीं, अब रह लोगी उसके बिना?”
“नहीं रह सकती तो भेजती क्यों? अब यह कोई बच्चे पालने की उमर है भला ! जिसकी थाती उसी को सौंपी। बुढ़ापा है, कुछ भजन-पूजन ही कर लूँ। उनके मारे मेरा सब-कुछ छूट गया था।” बड़े ही संदिग्ध भाव से अम्मा की इस दलील को औरतं स्वीकार कर पाती थीं। आज अम्मा के पास कोई काम नहीं था करने को सो, खाली आँगन में दर्दीले स्वर से एक लोरी गुनगुना रही थीं। शाम को गुब्बारे वाला आया, बुढ़िया के बाल वाला आया, खिलौने की मिठाई बेचने वाला आया तो मुरझाये स्वर में अम्मा ने सबको यही जवाब दिया, “जाओ, भाई जाओ। आज तुम्हारा ग्राहक नहीं है। उसे मैंने उसकी अम्मा के साथ भेज दिया। अब यहाँ मत आया करो, कभी मत आया करो, कोई तुम्हारी चीज नहीं खरीदेगा!” और उनका मन सुबक उठता, पर उनकी आँखों के आँसू जैसे सूख गए थे!
तीसरे दिन औषधालय का नौकर वापस आया, तो सबसे पहले खबर दी कि दादी अम्मा को याद करते-करते बेटू को बुखार आ गया और वह उसे भरे बुखार में छोड़कर आया है। वह रमा के हाथ से न कुछ खाता है न दवाई पीता है। अम्मा ने सुना तो ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई। पागलों की भाँति दौड़ती हुई औषधालय में पहुँची, “अरे, सुनते हो, बेटू रो-रोकर बीमार हो गया है। में तो पहले ही जानती थी कि वह मेरे बिना रहेगा नहीं, पर बहू को कौन समझाए। अब तो रात की गाड़ी से ही जाकर मुझे उसे लाना होगा। वह तो रो-रोकर प्राण दे देगा। हे भगवान, मेरी मत पर भी पत्थर पड़ गए थे जो बहू की बात मान गई?”
अम्मा रोती थीं और कपड़े ठीक करती जाती थीं। नर्बदा आई तो आश्चर्य से बोली, “कहाँ की तैयारी कर रही हो अम्माँ?”
“अरे, शिब्बू बहू को छोड़कर लौटा तो बताया कि बेटू ने रो-रोकर बुखार चढ़ा लिया। में तो भेजकर अपनी तरफ से निश्चिन्त हो गई थी, पर वह रह सकता है क्या? उसके तो प्राण मुझमें कुछ ऐसे पड़ गए थे कि क्या बताऊँ। कोई अगले जन्म का संस्कार ही समझो। अब जाकर लाना पड़ेगा, नहीं तो छोरा रो रोकर प्राण दे देगा।” और गर्व और आनन्द से उनकी छाती फूल गई।
तीसरे दिन ही बेटू को लेकर वे लौट आईं। जिसने देखा उसी ने कहा, “अरे, चार दिन में ही बच्चा सूख गया।”
“सूखेगा नहीं, कुछ तो खाया नहीं, और एक पल को आँसू नहीं टूटा। मैं तो सोचती थी कि बहू के हवाले करके सुख से पूजा-पाठ करूँगी, पर अब यह रहता भी तो नहीं।
एक साल उन्होंने इसी प्रकार और निकाल दिया। रमा बंबई से आई और फिर बेटू का वही रवैया देखा तो सोचा कि वह उसे सीधे बंबई ले जाती तो यह सारा कांड नहीं होता। अम्मा बंबई तक आ नहीं सकती थी। सो इस बार फिर एकबार दादी माँ को रुलाकर उनके मना करने पर भी वह बेटू को लेकर बंबई के लिए चल पड़ी। जाने किस आशा से अम्मा ने अपनी सारी जमा पूँजी खर्च करके शिब्बू को साथ कर दिया। रमा मन करती रही कि अब दोनों बच्चे बड़े है और वह सम्भाल लेगी, पर अम्मा ने शिब्बू को साथ भेज ही दिया।
दूसरे दिन से जो कोई भी आता, अम्मा उसी के सामने यह मनोती मनातीं कि किसी प्रकार बेटू रमा के पास हिल जाए तो वह सवा रुपये का परसाद चढ़ाएँगी। उच्च स्वर से वह रात-दिन रट लगाए रहती कि बेटू मुझे किसी तरह भूल जाए। पर सात दिनों के बाद जब शिब्बू लोट कर आया तो वे ऐसे दौड़ पड़ीं मानो वह बेटू को लेकर ही आया हो। झपटकर उन्होंने पूछा, “मेरा बेटू कहाँ है? मेरा बेटू ठीक है शिब्बू, तुझे मैंने किसलिए भेजा था?” उनका स्वर बुरी तरह काँप रहा था।
“इस बार तो अम्मा, बहूजी ने बेटे को हिला दिया। वहाँ बहू जी के मकान में बहुत सारे बच्चे हैं, उन सबसे दोस्ती हो गई, सो खूब खेलता है। ट्राम, बस, बगीचे, झूले- इन सबमें उसका मन लग गया।” शिब्बू ने बताया तो अम्मा शून्य-पथराई आँखों से उसे देख रही थीं मानों कुछ समझ ही नहीं रही हों। शिब्बू कहे चला जा रहा था, “चलो तुम्हारी चिंता दूर हुई। मैं तो अम्मा, दो दिन इसी मारे ज्यादा रुक गया कि कहीं रोया तो अपने साथ लेता आऊँगा, पर इसबार बहूजी ने उसे समझा दिया और वह भी समझ गया। अब वहाँ जम पाएगा। अब तो तुम परसाद चढ़ाओ अम्मा, और मजे से भजन-पूजन करो।”
एकाएक जैसे अम्मा की चेतना लोट आई, “क्या कहा… बेटू भूल गया? वहाँ जम गया? सच, मेरी बड़ी चिंता दूर हुई। इस बार भगवान ने मेरी सुन ली। जरूर परसाद चढ़ाऊँगी रे, जरूर चढ़ाऊँगी। मेरे बच्चे के जी का कलेस मिटा, में परसाद नहीं चढ़ाऊँगी भला?” और फिर गीली आँखा और काँपते हाथों से, उन्होंने जेब से सवा रुपया निकालकर शिब्बू को देते हुए कहा, “ले, पेड़े लेता आ, अब परसादी चढ़ाकर बाँट ही दूँ। कौन, नर्बदा? सुना नर्बदा, बेटू मुझे भूल गया वह भूल ही गया…” और उन्होंने आँचल से भर-भर आती आँखें पोंछीं और हँस पड़ीं।
शब्दार्थ:
ताल ठोंकना – ताल मिलाना;
लट – घुँघराले बाल,
हैरत – हैरानी,
बरतन मलने – बर्तन माँजने;
गठिया में जुड़ी पड़ना – जोड़ों का दर्द
सुध – स्मरण;
पालने – झूले;
टुकुर-टुकुर निहारना – बिना जाने बुझे देखते रहना;
सूरत – चेहरा;
सर्द आह – ठंडी चीत्कार;
नवाई – नई बात;
दुरा देना – दूर कर देना, हटा देना;
मायूसी – उदासी;
खरी खोटी – बुरी बातें सुनाना, गाली देना;
तरस खाना – दया दिखाना;
आदत – अभ्यास;
चूल्हे में सिर देकर बैठ जाना- रसोई के काम में व्यस्त रहना;
राजी खुशी – कुशल-मंगल पूछना;
महसूस – अनुभव;
ताँगा – घोड़ा गाड़ी;
महीने चढ़ना – गर्भ बढ़ना;
मसान – श्मशान , मरघट
बात से मुड़ना – बात से मुकरजाना;
अंगीठी – चूल्हा, आग की आँच;
तकलीफ – असुविधा, कष्ट;
इरादा – इच्छा, लक्ष्य;
आँख-मिचौनी – लुका छिपी
नखरा – झंझट
याददाश्त – स्मरणशक्ति
प्रयाण – प्रस्थान;
दुलार- प्यार;
छपी साड़ियाँ- छींटदार साड़ियाँ
चिरायु – दीर्घायु
आँखों से ओझल – नजर से दूर;
खून का घूँट पीकर रह जाना – गुस्से को दबा लेना;
दिमाग बौरा जाना – बुद्धि भ्रष्ट होना;
धर्म-सकट में पड़ना – असमंजस या द्वंद्व में पड़ना;
ठेस – आघात;
सिलसिला – क्रम;
गँवार – मूर्ख;
लायक – योग्य, काबिल;
तसल्ली – सांत्वना, संतोष
सलाख – लोहे का बाड़ा,
दलील – तर्क;
रवैया – ढंग;
मनौती मनाना – मन्नत माँगना, मानसिक करना।
इस पाठ के बारे में:
‘मजबूरी’ मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियों में गिनी जाती है। उन्होंने खुद ही इसे अपनी प्रिय कहानियों में शामिल किया है। यह कहानी एक ऐसी मजबूरी की कथा कहती है जो बड़ी मार्मिक और संवेदनापूर्ण है। इस कथा के केंद्र में एक नादान बच्चा बेटू है जिसके प्रति उसकी दादी माँ के दिल में बेहद प्यार है और जिसमें वह अपने बेटे रामेश्वर को पाती है। दूसरी ओर बेटू की माँ है जिसके मन में अपनी सास के प्रति प्रेम और हमदर्दी तो है फिर की वह अपने बेटे के भविष्य को लेकर सचेत है। इसलिए दोनों अपनी-अपनी जगह पर सही होते हुए भी हालात के आगे मजबूर हो जाते हैं।
तीन साल के बाद बंबई से बेटा रामेश्वर अपनी पत्नी ‘रमा’ और तीन साल के बेटे बेटू को लेकर घर आ रहा है। घर पर संत स्वभाववाले वैद्यराज पिता और बूढ़ी माँ हैं। पिता के मन में घर गृहस्थी के प्रति कोई लगाव नहीं है। बूढ़ी माँ अपने पुत्र के स्वागत के लिए जी-जान लगा देती है। उसकी आँखें धुंधली हैं तथा जोड़ो में भीषण दर्द है। फिर भी बिना इसकी परवाह किए घर-आँगन की लाल मिट्टी से लीपा-पोती करती है, दूध मँगवाकर रखती है तथा तरकारी काटकर रखती है। घर में काम करने वाली नर्बदा जब यह कहती है- “तीन बरस बाद आ रहा है तो में तो यही कहूँगी कि उनमें मोहमाया नहीं है। तुम यों ही मरी जाती हो उनके पीछे।” तो बूढ़ी अम्मा कहती हैं- ‘देख नर्बदा, मेरे रामेसुर के लिए कुछ मत कहता। यह तो मैं जानती हूँ कि तीन तीन बरस मुझसे दूर रहकर उसके दिन कैसे बीतते हैं, पर क्या करे, नौकरी तो आखिर नौकरी हो है। मेरे पास आज लाखों का धन होता तो बेटे को यों नौकरी करने परदेश नहीं दुरा देती।”
ताँगा आँगन में आ पहुँचता है। अम्मा पागलों की तरह दरवाजे की ओर दौड़ती है। रामेश्वर की गोद से झपटकर बच्चे को छीन लेती हैं और अपने सीने से लगाती हैं। आगे चलकर जब बहू अपनी कोख में पल रहे दूसरे बच्चे की जानकारी देती है और इसी चिंता में बेटू को यहाँ छोड़ जाने की बात करती है तो अम्मा को अपनी आँखों और कानों पर विश्वास नहीं होता। एकाएक बोल पड़ती है- “तुम क्या कह रही हो बहू, बेटू को मेरे पास छोड़ जाएगी; मेरे पास। सच? हे भगवान, तुम्हारी सब बात पूरी हो, तुम बड़भागी होओ, मेरे इस सूने घर में एक बच्चा रहेगा तो मेरा जन्म सफल हो जाएगा।…. तुम क्या जानो बहू, अपने कलेजे के टुकड़े को निकालकर बंबई भेज दिया। रामेसुर के बिना यह घर तो मसान जैसा लगता है।… भगवान तुम्हें दूसरा भी बेटा दें, तुम उसे पाल लेना। मैं समझूँगी, तुमने मेरा रामेसुर लेकर मुझे अपना रामेसुर दे दिया।” अम्मा इस खुश खबरी को हर आनेवाले को सुनाती हैं। बेटू को पाकर उसके शिथिल और नीरस जीवन में नया जोश आ जाता है। घुटनों के दर्द के मारे कहाँ तो वे अपने शरीर का बोझ नहीं हो पाती थीं और कहाँ अब वे बेटू को लादे फिरती हैं। बेटू के लिए घोड़ा बनकर आँगन में दौड़ती-फिरतीं। उसके साथ आँख-मिचौनी खेलतीं। पति से जिद करके औषधालय की दीवार घड़ी को वहाँ से उतरवाकर घर में लगवाती हैं ताकि सही समय पर बेटू को खिला-पिला सके। बीस दिनों के अंदर अम्मा बेटू को ऐसा मिला लेती हैं कि माँ के जाते समय भी बेटू जाना नहीं चाहता, अम्मा के मन में यह बात जम जाती है कि बेटू अब उसका है, पूरी तरह उसका बड़े लाड़ प्यार से बेटू को पाला करती हैं। उसे खिलाने- पिलाने-सुलाने और लोरी कहानी आदि सुनाने में उन्हें आनंद मिलता। यहाँ तक कि उसकी हर इच्छा पूरी कर देतीं। दिन-ब-दिन ज्यादा लाड़-प्यार से बेटू जिद्दी बन जाता है तथा उसका स्वभाव बिगड़ने लगता है। कुछ भी नहीं पढ़ता। दूसरे साल रमा आकर बेटू के ऐसे गलत स्वभाव देखकर दंग रह जाती है ओर अम्मा से कहती है- “अम्मा, आपने तो इसे बिगाड़ कर धूल कर रखा है, इस तरह कैसे चलेगा?” परंतु अम्मा के मन पर इस सवाल की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। रमा खून का घूँट पीकर रह जाती है। बेटू को अपने साथ बंबई ले जाने की इच्छा तो होती है परंतु एक साल के पप्पू की परेशानी की बजह से बेटू को छोड़ जाती है। बैटू की फिक्र में सास के पास बार-बार चिट्टी लिखती है तथा किसी नर्सरी स्कूल में बेटू को भर्ती करवाने के लिए कहती है। परंतु अम्मा चार साल के इस दूधपीते बच्चे को स्कूल भेजना मुनासिब नहीं समझतीं। फिर दो साल बीत जाते हैं। रमा और रामेश्वर घर आते हैं। इस बार बेटू के और अधिक बिगड़े स्वभाव से परेशान होते हैं। रमा इस बार बेटू को ले जाने का अपना निर्णय भी सुना देती है- “मैं आपका दिल नहीं दुखाना चाहती अम्मा पर आपके इस जरूरत से ज्यादा प्यार ने ही तो इसे बिगाड़कर धूल कर दिया है। एक भी आदत तो इसमें अच्छी नहीं है। यदि आप सचमुच ही इसे प्यार करती हैं और इसका भला चाहती हैं तो इसे मेरे साथ भेज दीजिए और उसके साथ दुश्मनी ही निभानी है तो रखिए इसे अपने पास।” अम्मा इस बात से दुखी होती हैं, फूटफूटकर रोने लगती हैं। फिर भी अपने पर काबू पाने का प्रयत्न करती है – “ले जा बहू ले जा। मेरा बेटू फूले-फले; पढ़ लिखकर लायक बने, इससे बढ़कर खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है। मेरा क्या है, मेरी चार दिन की हँसी – खुशी के लिए में तेरे बच्चे की ज़िंदगी नहीं बिगाड़ूँगी।”
रमा को अपने निर्णय से दुख तो होता है फिर भी बेटे की बात सोचकर अपना निर्णय बदलने में असमर्थ रहती है। बेटू को लेकर अपनी माँ के घर जाती है परंतु दादी अम्मा के बिना बेटू रोना-धोना शुरू कर देता हैं। न खाता है, न पीता है। उसे बुखार चढ़ आता है। इससे विवश होकर रमा बेटू को अम्मा के यहाँ छोड़कर बंबई चली जाती है। और फिर एक साल के उपरांत वापस आकर रमा बेटू का वही रवैया देखकर दिल कड़ा करते हुए उसे बंबई ले जाती है। अम्मा भी अपनी सारी जमा पूँजी खर्च करके शिब्बू (नौकर) को उनके साथ भेजदेती हैं। शिब्बू के वहाँ से वापस आने पर अम्मा बेटू की खैरियत के बारे में पूछती हैं। यह सुनकर खुश होती हैं कि इस बार बहू ने बेटू को समझा दिया तथा बेटू का मन वहाँ पर ट्राम, बस, बगीचे, झूले आदि में रम गया है। अम्मा की परेशानी दूर होती है ओर खुशी से सवा रुपया निकालकर शिब्बू को प्रसाद चढ़ाने हेतु देती हैं। इस तरह मन्नू भंडारी ने दादी अम्मा के मन की मजबूरी, समझदारी और उदारता को बड़ी बारीकी से वर्णन किया है।
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दस-बारह वाक्यों में दीजिए:
(क) बूढ़ी अम्मा किस खुशी से गीत गा रही थीं?
उत्तर – जब बूढ़ी अम्मा को पत्र के माध्यम से अपने बेटे रामेश्वर के आने की खबर मिली तो वह फुली न समा रही थी। लगभग तीन साल बाद उसका बेटा बंबई से बहू और पोते के साथ आ रहा था। इसी खुशी में बूढ़ी अम्मा खुशी के गीत गा रही थी। वह इतनी ज़्यादा खुश थी कि अपने जोड़ो के दर्द को भी भूल चुकी थी।
(ख) अम्मा अपने बेटे के आने की खुशी में क्या-क्या तैयारी करती हैं?
उत्तर – अम्मा ने अपने बेटे के आने की खुशी में सारे घर आँगन को लीपना शुरू कर दिया। अपने पोते और बेटे के लिए दूधवाले को पहले ही ज़्यादा दूध देने की बात बता दी। घर का काम करने के लिए आने वाली नर्बदा को भी हिदायत दी कि अभी घर में पाँच लोग रहने लगेंगे तो घर का काम बढ़ जाएगा। इसलिए उसे अभी घर पर ही रहना पड़ेगा। बेटे के आनेवाले दिन सुबह से ही रसोई में लगी रही ताकि बेटे के आने पर उससे जी भरकर बातें कर सके। वह तो इतनी खुश थी की हर किसी से अपने बेटे बहुत और पोते की बात कहने लगी थी।
(ग) अम्मा और नर्बदा के बीच क्या बातचीत चलती है?
उत्तर – अम्मा संत स्वभाव वाली सीधी-सादी महिला थीं और नर्बदा तरह-तरह के लोगों के घरों में काम करने वाली एक अनुभवी महिला। जब नर्बदा को पता चलता है कि बूढ़ी अम्मा का बेटा तीन साल बाद घर आ रहा है तो वह कह उठती है कि उन्हें तुमसे कोई मोहमाया नहीं है। क्या कोई बेटा अपनी माँ से तीन साल मिले बिना रह सकता है? तुम बेकार की ही उनके पीछे मरी जाती हो। अक्सर उन दोनों की बातचीत के दौरान जब भी बूढ़ी अम्मा के बेटे का प्रसंग उठता तो नर्बदा कुछ न कुछ कहकर बूढ़ी अम्मा का दिल दुखा दिया करती थी। बूढ़ी एक तरफ यह सोचकर अपने मन को तसल्ली देती है कि अगर मेरे पास बहुत रुपए होते तो अपने बेटे को पैसे कमाने के लिए शहर थोड़े ही भेजती।
(घ) अम्मा यह क्यों कहती हैं- “रामेसुर के बिना यह घर तो मसान-
जैसा लगता है।”
उत्तर – अम्मा यह कहती हैं कि रामेसुर के बिना यह घर तो मसान-
जैसा लगता है क्योंकि रामेसुर (रामेश्वर) उनका इकलौता पुत्र है। वह भी नौकरी के लिए बंबई चला गया है और सालों-सालों तक घर नहीं आता। घर में रहे दो प्राणी बूढ़ी अम्मा और रामेश्वर के पिता जिनको घर-गृहस्थी से कुछ ज़्यादा लगाव है नहीं। ऐसे में बुढ़िया को अपने घर का खालीपन बहुत खलता है। माँ का दिल तो आखिर माँ का दिल ही होता है। उसे तो अपने बेटे को अपने पास ही रखने का मन है परंतु पैसे कमाने के कारण उसके बेटे को नौकरी के लिए शहर जाना पड़ा। बूढ़ी अम्मा को तो यही लगता है कि अब उनके जीवन का अंतिम समय आ गया है बेटे बहू पोते के साथ यह समय बीत जाए यही उनकी दिली इच्छा है। पर जब अपने खाली घर को देखती है तो कह उठती है कि मेरे बेटे के बिना तो यह घर मसान- जैसा लगता है।
(ङ) अम्मा के पुत्र-प्रेम पर प्रकाश डालिए।
उत्तर – कैकयी जैसे अपवादों को छोड़ दिया जाए तो शायद ही ऐसी कोई माँ होगी जिसे अपने बच्चों से प्यार न हो। इस पाठ में भी बूढ़ी अम्मा अपने बेटे रामेश्वर से बहुत प्यार करती है। जब उसे पता चलता है कि उसका बेटा बहू और पोते के साथ गाँव आ रहा है तो उसके कदम ज़मीन पर नहीं पड़ते हैं। अपने शरीर की पीड़ा को भूलकर अपने बेटे के मनलायक काम करने में जुट जाती है। काम करने के दौरान गीत गाती है और जब गीत की कड़ियाँ भूल जाती है तो कहती है जब रामेसुर छोटा था तब कितनी सारी लोरियाँ और गीत याद थे अब तो लगभग भूल ही गई हूँ। वह यह सोचकर भी बहुत खुश होती है कि इस बार उसके बेटे का बेटा अर्थात् उसका पोता बेटू भी आ रहा है। वह उसके साथ जी भरकर खेलेगी।
(च) बेटू को यहाँ पर छोड़ जाने की बात से अम्मा की क्या प्रतिक्रिया
होती है?
उत्तर – बेटू को बूढ़ी अम्मा के पास छोड़ जाने की बात से अम्मा की बाँछे खिल गई थी। उन्हें तो लगा जैसे मुझ बुढ़िया को जीने का सहारा मिल गया। वह फिर से अपने दूसरे रामेसुर को अपने साथ रखकर बड़ा करने के सपने देखने लगी। उसे तो अपनी बहू की बात पर यकीन भी नहीं हो रहा था इसलिए वह उसे कह रही थी कि बाद में अपने वादे से मुकर न जाना। वह इतनी खुश हो गई कि यह बात हर किसी से कहने लगी कि बहू के पैर भारी है इसलिए बेटू को यहीं छोड़ दे रही है। बूढ़ी अम्मा वास्तव में यही चाहती थी और उसे वह मिल भी गया।
(छ) अम्मा बेटू को किस प्रकार पाला करती हैं?
उत्तर – अम्मा बेटू को बड़े लाड़-प्यार से पालती है। उसे सही समय पर दूध पिलाना, उसे लोरियाँ सुनाना तथा उसकी हर ज़िद पूरी करती थी। वह अपने बेटे से जितना स्नेह किया करती थी उससे कहीं अधिक अपने पोते से स्नेह करती है। कहते हैं न मूल से सूद अधिक प्यारा होता है। बूढ़ी अम्मा का रोग भी उसके पोते ने मानो हर लिया हो। वह दिन भर अपने पोते को गोद में लादे रहती। देखकर ऐसा अगता है कि बूढ़ी अम्मा को फिर से नया जीवन मिल गया हो।
(ज) आखिर रमा ने बेटू को बंबई ले जाने का फैसला क्यों लिया?
उत्तर – बूढ़ी अम्मा के पास बेटू को छोड़ने के बाद दूसरे साल जब रमा अपने बेटे को देखने आई तो वह बेटू को देखकर अचंभित हो गई। वह बहुत जिद्दी हो गया था। दादी से लोरियाँ सुनने के बाद ही सोता। पढ़ाई-लिखाई सब चौपट हो रहा था। यह देखकर रमा का खून खौल गया और उसने अपने साथ बेटू को ले जाने का निर्णय लिया। पर बेटू को लेकर जब वह अपने मायके गई और वहाँ बेटू ने दादी को न पाकर जो धमा-चौकड़ी मचाई कि उसे बुखार ही आ गया और मजबूरन उसे फिर से दादी के पास भेजना पड़ा। इसलिए रमा ने इस बार बेटू को बंबई ले जाने का निर्णय लिया ताकि इतनी दूर से बेटू को फिर से न भेजा जा सके। साथ ही साथ वहाँ कॉलोनी में बहुत से छोटे-छोटे बच्चे और छोटे बच्चों के पार्क थे।
(झ) बेटू को बंबई ले जाने की बात से अम्मा क्यों दुखी होती हैं?
उत्तर – बेटू को बंबई ले जाने की बात से अम्मा दुखी होती हैं क्योंकि बूढ़ी अम्मा के गाँव से बंबई बहुत ही दूर था। बूढ़ी अम्मा को यह भी संशय था कि इस बार शायद बेटू उनके पास न आ सके।
(ञ) अम्मा शिब्बू को बंबई क्यों भेजती हैं?
उत्तर – जब रमा बेटू को अपने साथ बंबई ले जा रही थी तो बूढ़ी अम्मा ने अपनी संचित राशि से शिब्बू को उनके साथ उनकी यात्रा में मदद करने के उद्देश्य से बंबई भेज दिया। लेकिन असल बात तो यह थी कि बूढ़ी अम्मा को यही लगता था कि अगर इस बार भी बेटू मेरे लिए उपद्रव मचाएगा तो शिब्बू उसे अपने साथ ले आएगा। इसीलिए अम्मा शिब्बू को बंबई भेजती हैं।
(ट) अम्मा का चरित्र कैसा था?
उत्तर – अम्मा के चरित्र की खास बात यह थी कि उसे अपने भरे-पूरे परिवार में ही रहना पसंद है। संत स्वभाव वाली बूढ़ी अम्मा के जीवन का उद्देश्य यही है कि उसके परिवार के सभी सदस्य उसकी आँखों के सामने रहे। वह अपने बेटे रामेश्वर से भी यही कहती है कि बेटे कम से कम साल में एक बार अपनी बूढ़ी माँ को याद कर लिया कर। अपने पोते बेटू से भी वह अथाह स्नेह करती है और इस वजह से उसने घड़ी देखना सीखा और अपनी बहू द्वारा निर्देशित समय पर बेटू को दूध पिलाने की आदत भी डाल ली। शीशी में दूध डालते हुए जब उसके हाथ काँप जाया करते थे तो बड़ी विनम्रता से अपनी बहू से कहती थी कि मैं जल्दी ही सीख लूँगी। रमा की बेटू को ले जाने की बात पर वह दुखी हो जाती हैं पर बेटू के भविष्य के लिए वह अपनी अश्रुल सहमति भी दे देती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बूढ़ी अम्मा का हृदय ममत्व की भावना से भरा हुआ है।