(जन्म सन् 1714 ई. निधन : सन् 18वीं शताब्दी)
सुविख्यात कवि गिरिधर राय के जीवन के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि ये अपने समय के अत्यंत लोकप्रिय कवि थे। इनके द्वारा रचित पाँच सौ से अधिक कुण्डलियाँ ‘गिरिधर कविराय ग्रंथावली में संकलित हैं। इनकी कुण्डलियाँ नीति विषयक हैं। कवि के व्यापक जीवन अनुभवों का संचित अमृत इनकी रचनाओं में जीवन संदेश बनकर प्रकट हुआ है। कवि की भाषा-शैली सरल एवं सहज होते हुए भी नीति जैसे विषयों को समझाने में सक्षम है।
प्रथम कुण्डली में कवि ने छोटे के महत्त्व को कम नहीं आँकने के लिए कहा क्योंकि कुल्हाड़ी छोटी होते हुए भी बड़े से बड़े विशालकाय वृक्ष को गिरा देती है। दूसरी कुण्डली में कवि ने बीती हुई घटना को भूल जाने में ही भलाई माना है। तीसरी कुण्डली में उन्होंने कार्य सम्पन्न होने तक अपने मन को एकाग्र चित्त रखने को कहा है इससे कार्य पूरा भी हो जाता है और लोगों को हँसने का मौका भी नहीं मिलता।
कुण्डलियाँ
(1) सांई ये न विरोधिए, छोट बड़े सब भाय।
ऐसे भारी वृक्ष को, कुल्हरी देत गिराय॥
कुल्हरी देत गिराय, मारि के जमीं गिराई।
टूक-टूक के काटि, समुद्र में देत बहाई॥
कह ‘गिरिधर कविराय’, फूट जेहि के घर आई।
हिरणाकश्यप, कंस, गए बलि, रावण सांई।
(2)
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेई।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित्त देई॥
ताही में चित्त देई, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हँसे न कोई, चित्त में खता न पाचै॥
कह गिरिधर कविराय यह कर मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, हो, बीती सो बीती॥
(3)
साईं अपने चित्त की, भूलि न कहिए कोई।
तब लग मन में राखिए, जब लग कारज होई॥
जब लग कारज होई, भूलि कबहुँ नहिं कहिए।
दुरजन हँसे न कोइ, आप सियरे हवे रहिए॥
कह गिरिधर कवि राय बात चतुरना की ताई।
करतूती कहीं देत आप कहिए नहीं साँई॥
(1) सांई ये न विरोधिए, छोट बड़े सब भाय।
ऐसे भारी वृक्ष को, कुल्हरी देत गिराय॥
कुल्हरी देत गिराय, मारि के जमीं गिराई।
टूक-टूक के काटि, समुद्र में देत बहाई॥
कह ‘गिरिधर कविराय’, फूट जेहि के घर आई।
हिरणाकश्यप, कंस, गए बलि, रावण सांई।
व्याख्या –
यह कुंडलिया भक्त कवि गिरिधर कविराय द्वारा रचित है और इसमें अहंकार (घमंड) और अत्याचार के विनाश का उल्लेख किया गया है। यहाँ गिरधर कहते हैं कि हमें किसी से बैरभाव नहीं रखना चाहिए। छोटे हों या बड़े, सभी भगवान के ही बनाए हुए हैं। इसलिए हमें सभी के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। संकेत के माध्यम से इस पंक्ति में यह कहा गया है कि चाहे कोई कितना भी बलवान और शक्तिशाली क्यों न हो, यदि वह अहंकार और अधर्म के मार्ग पर चलेगा, तो अंततः उसका विनाश निश्चित है क्योंकि जब किसी का घमंड बढ़ जाता है, तो वह अंततः अपने विनाश की ओर अग्रसर होता है। उदाहरण के माध्यम से अपनी बातों को पुष्ट करने के लिए कवि कहते हैं कि यदि कोई बहुत बड़ा और शक्तिशाली वृक्ष भी हो, तो कुल्हाड़ी उसे काटकर गिरा देती है और उसके छोटे-छोटे टुकड़े करके समुद्र में बहा देती है। ठीक उसी प्रकार घमंड से भरे व्यक्ति का अंत हो जाता है, उसी तरह बड़े-बड़े अत्याचारी भी नष्ट हो जाते हैं। कवि यह बताते हैं कि जब किसी का अहंकार बढ़ जाता है और उसका अंत निकट आ जाता है, तब उसके घर में ही फूट और कलह उत्पन्न हो जाती है। अहंकार और अन्याय के प्रतीक हिरण्यकश्यप, कंस, राजा बलि और रावण का भी अंत हो गया, भले ही वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न रहे हों। इसी तरह जो भी व्यक्ति घमंड और अधर्म के रास्ते पर चलेगा, उसका पतन निश्चित है।
विशेष
इस कुंडलिया में गिरिधर कविराय हमें यह सिखा रहे हैं कि अहंकार और अन्याय की जड़ें कितनी भी गहरी क्यों न हों, वे अंततः कटकर गिर जाती हैं। इतिहास इसका गवाह है कि चाहे हिरण्यकश्यप, कंस, बलि, या रावण हों—जो भी अधर्म के रास्ते पर चला, उसका अंत हो गया। इसलिए हमें सदैव नम्रता, प्रेम और धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए।
(2)
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेई।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित्त देई॥
ताही में चित्त देई, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हँसे न कोई, चित्त में खता न पाचै॥
कह गिरिधर कविराय यह कर मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, हो, बीती सो बीती॥
व्याख्या – यह दोहा भक्त कवि गिरिधर कविराय द्वारा रचित है, जिसमें अतीत की चिंताओं को छोड़कर वर्तमान और भविष्य पर ध्यान देने की प्रेरणा दी गई है। कवि कहते हैं कि जो बीत गया, उसे भूल जाओ और आगे की चिंता करो। कवि हमें समझा रहे हैं कि जो समय बीत चुका है, उसकी चिंता करके दुखी रहने का कोई लाभ नहीं। बल्कि हमें अपने वर्तमान और भविष्य पर ध्यान देना चाहिए। कवि कहते हैं कि जो सहज रूप से मिल जाए, उसी में मन लगान चाहिए। हमें किसी भी चीज़ के लिए व्यर्थ चिंता नहीं करनी चाहिए। जो कुछ भी स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो, उसी में संतोष रखना चाहिए। हमें मन को उसी में स्थिर करना चाहिए जिसमें हम अच्छा कर सकते हैं। कवि हमें संतोष का पाठ पढ़ा रहे हैं कि परिस्थितियाँ जैसी भी हों, हमें उन्हें सहज रूप से स्वीकार करना चाहिए और अपने मन को उसी के अनुरूप ढालना चाहिए। यहाँ कवि यह भी बताते हैं कि हमें अपने कर्मों को ऐसा रखना चाहिए कि कोई दुष्ट व्यक्ति हमारे ऊपर हँसने का अवसर ही न पाए। साथ ही, यदि कोई गलती हो भी जाए, तो उसे दिल में दबाकर बैठने के बजाय आगे बढ़ जाना चाहिए। गिरिधर कविराय यहाँ यह सुझाव दे रहे हैं कि हमें इस सीख को मन में दृढ़ता से रखना चाहिए। जीवन में सुख और आनंद बनाए रखने के लिए अतीत की चिंताओं को छोड़ देना ही श्रेष्ठ है।
विशेष
यह कुंडलिया हमें सिखाता है कि अतीत की दुखद घटनाओं को भुलाकर, वर्तमान और भविष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
जो कुछ सहजता से मिल जाए, उसी में संतोष करना चाहिए।
अपनी गलतियों को दिल में नहीं रखना चाहिए, बल्कि उनसे सीख लेकर आगे बढ़ना चाहिए।
जीवन में आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक सोच आवश्यक है।
सुखी जीवन के लिए यह स्वीकार करना जरूरी है कि “जो बीत गया, उसे बीत जाने दो।”
अर्थात्, बीते हुए का शोक करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि हमें भविष्य को सुधारने का प्रयास करना चाहिए।
(3)
साईं अपने चित्त की, भूलि न कहिए कोई।
तब लग मन में राखिए, जब लग कारज होई॥
जब लग कारज होई, भूलि कबहुँ नहिं कहिए।
दुरजन हँसे न कोइ, आप सियरे हवे रहिए॥
कह गिरिधर कवि राय बात चतुरना की ताई।
करतूती कहीं देत आप कहिए नहीं साँई॥
व्याख्या – यह दोहा भक्त कवि गिरिधर कविराय द्वारा रचित है, जिसमें बुद्धिमानी, चतुराई और गोपनीयता के महत्व पर जोर दिया गया है। इसमें यह सिखाया गया है कि जब तक हमारा कोई कार्य पूरा न हो जाए, तब तक हमें अपनी योजनाओं को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए।
कवि हमें समझा रहे हैं कि अपनी मन की बातें भूलकर भी किसी से मत कहो। अपनी योजनाओं, रहस्यों और निजी विचारों को दूसरों के सामने जाहिर नहीं करना चाहिए। कई बार लोग इन बातों का गलत फायदा उठा सकते हैं। जब तक आपका सोचा हुआ कार्य पूरा नहीं हो जाता, उसकी चर्चा मत करो अन्यथा वह बिगड़ सकता है। यदि हम पहले से ही अपनी योजना सबको बता देंगे, तो कई बार विरोधी या ईर्ष्यालु लोग उसमें बाधा डाल सकते हैं। यहाँ दोबारा इस बात पर जोर दिया गया है कि किसी भी अधूरे कार्य की चर्चा करना असावधानी भरा हो सकता है और इससे वह कार्य विफल भी हो सकता है। यदि किसी कारणवश हमारी योजना असफल हो जाती है और हमने उसे पहले ही दूसरों को बता दिया हो, तो लोग हमारा मज़ाक बना सकते हैं। इसलिए जब तक सफलता नहीं मिलती, तब तक अपनी बातों को गुप्त रखना ही बुद्धिमानी है। वास्तव में यह शिक्षा बुद्धिमान और चतुर व्यक्ति के लिए आवश्यक है। आगे कवि कह रहे हैं कि जो काम हमने किया है, उसकी प्रशंसा स्वयं नहीं करनी चाहिए। जो अच्छा कार्य होगा, वह खुद अपने आप बोलने लगेगा। हमें अपने कार्यों का बखान स्वयं नहीं करना चाहिए, बल्कि अपने कर्मों से ही अपनी पहचान बनानी चाहिए।
मुख्य संदेश:
गोपनीयता बनाए रखें – जब तक आपका कोई कार्य पूरा न हो जाए, तब तक उसे दूसरों को न बताएँ।
अपने कर्मों की प्रशंसा खुद न करें – जो अच्छा कार्य होता है, वह खुद बोलता है, उसे दिखाने की जरूरत नहीं।
बुद्धिमानी और चतुराई जरूरी है – अपनी योजनाओं को सार्वजनिक करने से वे बाधित हो सकती हैं।
दुर्जनों को अवसर न दें – अगर कार्य असफल हो गया और पहले ही लोगों को बता दिया था, तो वे हँस सकते हैं।
संक्षेप में: “जब तक आपका लक्ष्य पूरा न हो जाए, तब तक उसे गुप्त रखें और खुद अपनी तारीफ न करें।”
शब्दार्थ और टिप्पणी
कुंडलियाँ एक छंद – विशेष, जिसमें पहली दो पंक्तियाँ दोहे की और अंतिम चार पंक्तियाँ रोला की होती हैं। दोहे के अंतिम चरण को रोला छंद के प्रथम चरण के रूप में दोहराया जाता है और पहला शब्द ही छंद का अंतिम शब्द होता है।
विरोधिए – विपरीत भाव
कुल्हरी – कुल्हाड़ी
खता – कसूर
करूमन – कर्म, करनी
परतीती – प्रतीति
सियरे – शांत
चतुरन की ताई – समझदारों के लिए
करतूती – कर्म गुण