Gujrat State Board, the Best Hindi Solutions, Class IX, Kya Nirash Hua Jae, hazareeprasad Dwiwedi, क्या निराश हुआ जाए हजारीप्रसाद द्विवेदी

(जन्म सन् 1907 ई. निधन सन् 1979 ई.)

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया (उ.प्र.) जिले के ‘दूबे का छपरा’ नामक गाँव में हुआ था। पारिवारिक परंपरा अनुसार संस्कृत का अध्ययन शुरू करके उन्होंने हिन्दू काशी विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। गुरुदेव रवींद्रनाथ के आश्रम में 1940 ई. से 1950 ई. तक हिंदी भवन के निर्देशक रहे। तत्पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी विभाग के प्रोफेसर तथा अध्यक्ष पद पर कार्य किया। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया।

हिंदी साहित्य जगत में द्विवेदीजी एक निबंधकार, उपन्यासकार, समालोचक तथा शोधकर्ता इतिहासकार के रूप में प्रचलित हैं। ‘अशोक के फूल’, ‘विचारप्रवाह’, ‘कुटज’, ‘कल्पलता’ आदि निबंधसंग्रह; ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘पुनर्नवा’, ‘चारुचंद्रलेख’, ‘अनामदास का पोधा’, उपन्यास तथा ‘कबीर’, ‘सूरदास’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘साहित्य सहचर’, ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ (हिंदी साहित्य की भूमिका) आदि आलोचना तथा इतिहास ग्रंथ हैं।

प्रस्तुत निबंध में द्विवेदीजी ने यह समझाया है कि तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त अनाचार केवल बाहरी स्तर पर है; वास्तव में आज भी लोगों में मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था कायम है। अपने जीवन में घटित कुछ घटनाओं के द्वारा बताया है कि हमें निराश नहीं होना चाहिए अपितु हमें जीवन के प्रति आस्थावान बने रहना चाहिए।

क्या निराश हुआ जाए

मेरा मन कभी-कभी बैठ जाता है। समाचार पत्र में ठगी, डकैती, चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार के समाचार भरे रहते हैं। आरोप-प्रत्यारोप का कुछ ऐसा वातावरण बन गया है कि लगता है, देश में कोई ईमानदार आदमी ही नहीं रह गया है। हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। जो जितने ही ऊँचे पद पर हैं, उनमें उतने ही अधिक दोष दिखाए जाते हैं।

एक बहुत बड़े आदमी ने मुझसे एक बार कहा था कि इस समय सुखी वही है, जो कुछ नहीं करता, जो कुछ भी करेगा, उसमें लोग दोष खोजने लगेंगे। उसके सारे गुण भुला दिए जाएँगे और दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाने लगेगा। दोष किसमें नहीं होते? यही कारण है कि हर आदमी दोषी अधिक दीख रहा है, गुणी कम या बिल्कुल ही नहीं। स्थिति अगर ऐसी है तो निश्चय ही चिन्ता का विषय है।

क्या यही भारतवर्ष है, जिसका सपना तिलक और गाँधी ने देखा था? रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का महान् संस्कृत-सभ्य भारतवर्ष किसी अतीत के गह्वर में डूब गया? आर्य और द्रविड़, हिन्दू और मुसलमान, यूरोपीय और भारतीय आदर्शों की मिलनभूमि ‘महामानव समुद्र’ क्या सूख ही गया? मेरा मन कहता है, ऐसा हो नहीं सकता। हमारे महान मनीषियों के सपनों का भारत है और रहेगा।

यह सही है कि इन दिनों कुछ ऐसा माहौल बना है कि ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलानेवाले निरीह और भोले भोले श्रमजीवी पिस रहे हैं और झूठ तथा फरेब का रोजगार करनेवाले फल-फूल रहे हैं। ईमानदार को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है, सच्चाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से पड़ी है। ऐसी स्थिति में जीवन के महान मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था ही हिलने लगी है।

परंतु ऊपर-ऊपर जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह बहुत ही हाल की मनुष्यनिर्मित नीतियों की त्रुटियों की देन है। सदा मनुष्य-बुद्धि नई परिस्थितियों का सामना करने के लिए, नए सामाजिक विधि – निषेधों को बनाती है, उनके ठीक साबित न होने पर उन्हें बदलती है। नियम-कानून सबके लिए बनाए जाते हैं, पर सबके लिए कभी- कभी एक ही नियम सुखकर नहीं होते। सामाजिक कायदे-कानून कभी युग-युग से परीक्षित आदर्शों से टकराते हैं, इससे ऊपरी सतह आलोड़ित भी होती है, पहले भी हुआ है, आगे भी होगा। उसे देखकर हताश हो जाना ठीक नहीं है।

भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया है। उसकी दृष्टि से मनुष्य के भीतर जो महान आंतरिक तत्त्व स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है। लोभ-मोह, काम- क्रोध आदि विकार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन

तथा बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना बहुत निकृष्ट आचरण है। भारतवर्ष ने कभी भी उन्हें उचित नहीं माना, उन्हें सदा संयम के बंधन से बाँधकर रखने का प्रयत्न किया है परंतु भूख की उपेक्षा नहीं की जा सकती, बीमार के लिए दवा की उपेक्षा नहीं की जा सकती, गुमराह को ठीक रास्ते पर ले जाने के उपायों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

हुआ यह है कि इस देश के कोटि-कोटि दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए ऐसे अनेक कायदे-कानून बनाए गए हैं, जो कृषि उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को अधिक उन्नत और सुचारु बनाने के लक्ष्य से प्रेरित हैं, परंतु जिन लोगों को इन कार्यों में लगना है, उनका मन हर समय पवित्र नहीं होता। प्रायः वे ही लक्ष्य को भूल जाते और अपनी ही सुख-सुविधा की ओर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं।

व्यक्ति – चित्त सब समय आदर्शों द्वारा चालित नहीं होता। जितने बड़े पैमाने पर इन क्षेत्रों में मनुष्य की उन्नति के विधान बनाए गए, उतनी ही मात्रा में लोभ, मोह जैसे विकार भी विस्तृत होते गए। लक्ष्य की बात भूल गई। आदर्शों को मजाक का विषय बनाया गया और संयम को दकियानूसी मान लिया गया। परिणाम जो होना था, वह हो रहा है। यह कुछ थोड़े-से लोगों के बढ़ते हुए लोभ का नतीजा है, परंतु इससे भारतवर्ष के पुराने आदर्श और भी अधिक स्पष्ट रूप से महान् और उपयोगी दिखाई देने लगे हैं।

भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण हैं कि लोग धर्मभीरु हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।

इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गए हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए। आज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरे को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है। हर आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का अनुभव करता है। समाचार-पत्रों में जो भ्रष्टाचार के प्रति इतना आक्रोश है, वह यही साबित करता है कि हम ऐसी चीजों को गलत समझते हैं और समाज से उन तत्त्वों की प्रतिष्ठा कम करना चाहते हैं जो गलत तरीके से धन या मान संग्रह करते हैं।

दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है। बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के गलत पक्ष को उद्घाटित करते समय उसमें रस लिया जाता है और दोषोद्घाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है। बुराई में रस लेना बुरी बात हैं, अच्छाई को उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है। सैकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं, जिन्हें उजागर करने से लोक-चित्त में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है।

एक बार रेलवे स्टेशन पर टिकट लेते हुए गलती से मैंने दस के बजाय सौ रुपए का नोट दिया और मैं जल्दी-जल्दी गाड़ी में आकर बैठ गया। थोड़ी देर में टिकट बाबू उन दिनों के सेकंड क्लास के डिब्बे में हर आदमी का चेहरा पहचानता हुआ उपस्थित हुआ। उसने मुझे पहचान लिया और बड़ी विनम्रता के साथ मेरे हाथ में नब्बे रुपए रख दिए और बोला,” यह बहुत गलती हो गई थी। आपने भी नहीं देखा, मैंने भी नहीं देखा।” उनके चेहरे पर विचित्र संतोष की गरिमा थी। मैं चकित रह गया।

कैसे कहूँ कि दुनिया में सच्चाई और ईमानदारी लुप्त हो गई हैं, वैसी अनेक अवांछित घटनाएँ भी हुई हैं, परंतु यह एक घटना ठगी और वंचना की अनेक घटनाओं से अधिक शक्तिशाली है।

एक बार मैं बस यात्रा कर रहा था। मेरे साथ मेरी पत्नी ओर तीन बच्चे भी थे, बस में कुछ खराबी थी, रुक-रुक कर चलती थी। गंतव्य से कोई पाँच मील पहले ही एक निर्जन सुनसान स्थान में बस ने जवाब दे दिया। रात के कोई दस बजे होंगे। बस में यात्री घबरा गए। कंडक्टर ऊपर गया और एक साइकिल लेकर चलता बना। लोगों को संदेह हो गया कि हमें धोखा दिया जा रहा है।

बस में बैठे लोगों ने तरह-तरह की बातें शुरू कर दीं। किसी ने कहा,” यहाँ डकैती होती है, दो दिन पहले इसी तरह एक बस को लूट लिया गया था।” परिवार सहित अकेला मैं ही था। बच्चे पानी – पानी चिल्ला रहे थे। पानी का कहीं ठिकाना न था। ऊपर से आदमियों का डर समा गया था।

कुछ नौजवानों ने ड्राइवर को पकड़ कर मारने पीटने का हिसाब बनाया। ड्राइवर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। लोगों ने उसे पकड़ लिया। वह बड़े कातर ढंग से मेरी ओर देखने लगा और बोला, “हम लोग बस का कोई उपाय कर रहे हैं, बचाइए, ये लोग मारेंगे।” डर तो मेरे मन में भी था, पर उसकी कातर मुद्रा देखकर मैंने यात्रियों को समझाया कि मारना ठीक नहीं है, परंतु यात्री इतने घबरा गए कि वे मेरी बात सुनने को तैयार नहीं हुए। कहने लगे,” इसकी बातों में मत आइए, धोखा दे रहा है। कंडक्टर को पहले ही डाकुओं के यहाँ भेज दिया है।”

मैं भी बहुत भयभीत था, पर ड्राइवर को किसी तरह मार-पीट से बचाया। डेढ़-दो घंटे बीत गए। मेरे बच्चे भोजन और पानी के लिए व्याकुल थे। मेरी और मेरी पत्नी की हालत बुरी थी। लोगों ने ड्राइवर को मारा तो नहीं, पर उसे बस से उतार कर एक जगह घेर कर रखा। कोई भी दुर्घटना होती है, तो पहले ड्राइवर को समाप्त कर देना उन्हें उचित जान पड़ा। ये गिड़गिड़ाने का कोई विशेष असर नहीं पड़ा। इसी समय क्या देखता हूँ कि एक खाली बस चली आ रही है और उस पर हमारा बस कंडक्टर भी बैठा हुआ है। उसने आते ही कहा, अड्डे से नई बस लाया हूँ, इस पर बैठिए। वह बस चलाने लायक नहीं है।” फिर मेरे पास एक लोटे में पानी और थोड़ा दूध लेकर आया और बोला,” पंडितजी ! बच्चों का रोना मुझसे देखा नहीं गया। वहीं दूध मिल गया, थोड़ा लेता आया।” यात्रियों में फिर जान आई। सबने उसे धन्यवाद दिया। ड्राइवर से माफी माँगी और बारह बजे से पहले ही सब लोग बस अड्डे पहुँच गए।

कैसे कहूँ कि मनुष्यता एकदम समाप्त हो गई ! कैसे कहूँ कि लोगों में दया माया रह ही नहीं गई ! जीवन में न जाने कितनी ऐसी घटनाएँ हुई हैं, जिन्हें मैं भूल नहीं सकता।

ठगा भी गया हूँ, धोखा भी खाया है, परंतु बहुत कम स्थलों पर विश्वासघात नाम की चीज मिलती है। केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखो, जिनमें धोखा खाया है, तो जीवन कष्टकर हो जाएगा, परंतु ऐसी घटनाएँ भी बहुत कम नहीं हैं. जब लोगों ने अकारण सहायता की है, निराश मन को ढाढ़स दिया है और हिम्मत बँधाई है। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक प्रार्थना गीत में भगवान से प्रार्थना की थी कि संसार में केवल नुकसान ही उठाना पड़े, धोखा ही खाना पड़े तो ऐसे अवसरों पर भी हे प्रभो ! मुझे ऐसी शक्ति दो कि मैं तुम्हारे ऊपर संदेह न करूँ।

मनुष्य की बनाई विधियाँ गलत नतीजे तक पहुँच रही हैं तो इन्हें बदलना होगा। वस्तुतः आए दिन इन्हें बदला ही जा रहा है। लेकिन अब भी आशा की ज्योति बुझी नहीं है। महान् भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है, बनी रहेगी।

मेरे मन ! निराश होने की जरूरत नहीं है।

 

तस्करी – चोरी

मनीषी – पंडित, मेधावी

माहौल – परिस्थिति

निरीह – निराधार

फरेब – धोखा

भीरु – कायर

आलोड़न – मथना, हिलोरना

निकृष्ट – अधम, नीच

गुमराह – भुला हुआ

पैमाना – मापदंड

दकियानूसी – पुराने ख्यालवाला

त्रुटि – कमी, गलती

कातर – लाचार

मुहावरे

मन बैठ जाना – उदास होना,  मन मारना

फलना फूलना – समृद्ध होना, विकसित होना

पर्दाफाश करना – भेद खोलना

ज्योति बुझना – मरना

कातर ढंग से देखना – भयभीत होकर देखना

1. प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-

(1) आज समाचारपत्र में कौन-कौन से समाचार भरे रहते हैं?

उत्तर – आज समाचार पत्र में ठगी, डकैती, चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार के समाचार भरे रहते हैं।

(2) देश का वातावरण आज कैसा बन गया है?

उत्तर – देश का वातावरण आज कुछ ऐसा बन गया है जिसमें आरोप-प्रत्यारोप की बाढ़ आ गई है। देश में कोई ईमानदार आदमी ही नहीं रह गया है। हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। जो जितने ही ऊँचे पद मेँ हैं, उनमें उतने ही अधिक दोष दिखाए जाते हैं।

(3) भारतवर्ष ने किसको अधिक महत्त्व नहीं दिया है?

उत्तर – भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया है।

(4) मनुष्य के मन में कौन-कौन से विचार है?

उत्तर – मनुष्य के मन में ये विचार हैं कि जो काम करेगा उसके ही दोषों की चर्चा की जाएगी। जो अनीति करेगा वही फलेगा-फूलेगा।

(5) भारतवर्ष किसको धर्म रूप में देखता आ रहा है?

उत्तर – भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है।

(6) बस कंडक्टर क्या लेकर लौटा था?

उत्तर – बस कंडक्टर अपने साथ एक नई बस लेकर लौटा ताकि यात्रियों को बस अड्डे तक पहुँचाया जा सके और लेखक के बच्चे के लिए पानी और थोड़ा दूध भी लेकर आया था।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के दो-दो वाक्यों में उत्तर दीजिए :-

(1) लोगों में महान मूल्यों के बारे में आस्था क्यों हिल गई है?

उत्तर – लोगों में महान मूल्यों के बारे में आस्था हिल गई है क्योंकि आज जहाँ देखो वहाँ धोखाधड़ी है। धर्म के नाम पर भी गोरखधंधा चल रहा है। आरोप-प्रत्यारोप का घिनौना खेल चल रहा है। हर व्यक्ति आज के दौर में संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है।

(2) लेखक क्या देखकर हताश हो जाना उचित नहीं मानते?

उत्तर – समाज में व्याप्त परंतु मनुष्यनिर्मित नीतियों की त्रुटियाँ, नियम-कानून जो सबके लिए सुखकर नहीं होते, नए सामाजिक विधि-निषेधों के कुपरिणाम और समाज की अन्य विसंगतियों को देखकर हताश हो जाना लेखक उचित नहीं मानते हैं।

(3) देश के दरिद्रजनों की हीन अवस्था दूर करने के लिए क्या किया गया है?

उत्तर – भारत देश के कोटि-कोटि दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए ऐसे अनेक कायदे-कानून बनाए गए हैं, जो कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को अधिक उन्नत और सुचारु बनाने के लक्ष्य से प्रेरित हैं।  

(4) कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रार्थना गीत द्वारा भगवान से क्या याचना की है?

उत्तर – कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक प्रार्थना गीत में भगवान से प्रार्थना की थी कि अगर मुझे संसार में केवल नुकसान ही उठाना पड़े, धोखा ही खाना पड़े तो ऐसी स्थिति में भी हे करुणामय ! मुझे ऐसी शक्ति दो कि मैं तुम्हारे ऊपर संदेह न करूँ।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के पाँच-छह वाक्यों में उत्तर लिखिए :-

(1) लेखक का मन क्यों बैठ जाता है?

उत्तर – लेखक का मन कभी-कभी बैठ जाता है क्योंकि इस कलियुग की दुर्दशा उन्हें निराश करने की कोशिश करती हैं, जैसे जब लेखक अखबार में ठगी, डकैती, चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार के समाचार पढ़ते हैं। राजनीतिक दलों और सरकारी संस्थाओं में आरोप-प्रत्यारोप का वातावरण देखते हैं। आज देश में ईमानदार आदमी का अस्तित्व ही नहीं रह गया है। आज हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। कुल मिलाकर देश-दुनिया की बिगड़ती स्थिति ही लेखक के उदास मन का कारण है।  

(2) भारतवर्ष को ‘महामानव’ समुद्र क्यों कहा गया है?

उत्तर – भारतमाता ने ऐसे अनगिनत पुत्रों को जन्म दिया है जिन्होंने भारत देश की उन्नति के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया है। तिलक और गाँधी ने भी ऐसे ही समृद्ध भारतवर्ष का सपना देखा था। रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का योगदान महान संस्कृत-सभ्य भारतवर्ष की पहचान है। यह पवित्र भूमि आर्य और द्रविड़, हिन्दू और मुसलमान, यूरोपीय और भारतीय आदर्शों की मिलनभूमि है। इन्हीं सब कारणों से भारतवर्ष को ‘महामानव’ समुद्र कहा गया है

(3) धर्म को भारतवर्ष में श्रेष्ठ क्यों माना गया है?

उत्तर – भारतवर्ष अति प्राचीन देश है। जब यहाँ संविधान भी लागू नहीं था तबसे यह देश धर्म को ही अपना संविधान मानता आ रहा है। यहाँ की सामाजिक स्थिति, राजा का प्रजावत्सल रूप, धार्मिक अनुष्ठान, सोलह संस्कार सभी धर्म से ही अनुसाशित होते थे। आज के संदर्भ में भी लोग धर्म को आधार बनाकर ही अपने कार्यों का संपादन करते है। जो इस बात को प्रमाणित करता है कि भारतवर्ष सदा से कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। इसलिए धर्म को भारतवर्ष में श्रेष्ठ माना गया है।

(4) कंडक्टर ने अपनी ईमानदारी कैसे बताई?

उत्तर – कंडक्टर ने खराब हुई बस के ऊपर से साइकिल उतारी और बस अड्डे जाकर वहाँ से दूसरी बस लाई और सारे यात्रियों को उस बस में बैठने को कहा ताकि वे बस अड्डे पहुँच सके। इसी क्रम में उस कंडक्टर ने लेखक के बच्चे के लिए एक लोटे में पानी और थोड़ा दूध ले आया था क्योंकि लेखक के बच्चों का रोना उससे देखा नहीं गया। कंडक्टर के इन सब कामों से ही उसकी ईमानदारी प्रदर्शित होती है।

 

4. मुहावरों का अर्थ देकर वाक्य में प्रयोग कीजिए :-

मन बैठ जाना – उदास हो जाना – आज के विसंगतियों को देखकर मन बैठ जाता है।

पर्दापत्रक करना – किसी चीज़ को उजागर करना या प्रकट करना – पत्रकार ने भ्रष्टाचार के मामले का पर्दापत्रक कर दिया।

फलना-फूलना – उन्नति करना – बड़े हमें सदा फलने-फूलने का आशीर्वाद देते हैं।

हवाइयाँ उड़ना – घबरा जाना – अचानक एक जहरीले साँप को देखकर रमेश के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी।

पर्दाफाश – सत्य का उद्घाटन होना – पत्रकारों ने नेता के कुकर्मों का पर्दाफाश कर दिया।

ढाँढस बँधाना – हिम्मत देना – बुरे वक्त से आत्मीय जन हमारा ढाँढस बँधाने की कोशिश करते हैं।

कातर ढंग से देखना – भयभीत होकर देखना – चोर पकड़े जाने के डर से पुलिस को कातर ढंग से देख रहा है।

शब्द- समूह के लिए एक-एक शब्द दीजिए :-

धर्म से डरनेवाले – धर्मभीरू

मिलन की भूमि – संगम

सुख देनेवाला – सुखद

  1. विशेषण बनाइए

भारत – भारतीय

समाज – सामाजिक

क्रोध – क्रोधी

समय – सामयिक

धर्म – धार्मिक

  1. भाववाचक बनाइए :-

डाकू – डकैती

आदमी – आदमीयत

बहुत – बाहुल्य

सभ्य – सभ्यता

मानव – मानवता

7. विरोधी शब्द बनाइए :-

ईमानदार – बेईमान

भ्रष्टाचार – सदाचार

आंतरिक – बाह्य

सबल – दुर्बल

दोनों विधानों को समझाइए :

इस समय सुखी वहीं है, जो कुछ नहीं करता।

उत्तर – यह कथन वर्तमान समाज की जटिलता और प्रतिस्पर्धा को दर्शाता है। इसे सही या गलत ठहराने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण करना आवश्यक है।

समर्थन में तर्क:

मानसिक शांति – जो व्यक्ति किसी गतिविधि में संलग्न नहीं होता, उसे तनाव, प्रतिस्पर्धा और असफलता का भय नहीं होता।

कम जिम्मेदारियाँ – कुछ न करने वाले व्यक्ति पर कोई दबाव नहीं होता, जिससे उसका जीवन अपेक्षाकृत सरल और चिंतामुक्त रहता है।

संतोष की भावना – यदि कोई व्यक्ति इच्छाओं को सीमित रखता है और भौतिक उपलब्धियों की दौड़ में शामिल नहीं होता, तो वह अधिक सुखी रह सकता है।

विरोध में तर्क:

निष्क्रियता दुख का कारण बन सकती है – जीवन में सार्थकता और उद्देश्य की आवश्यकता होती है। अगर कोई कुछ नहीं करता, तो धीरे-धीरे वह अस्तित्वहीनता और निराशा की ओर बढ़ सकता है।

समाज में योगदान की कमी – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यदि हर कोई निष्क्रिय हो जाए, तो समाज का विकास रुक जाएगा, जिससे सामूहिक दुख बढ़ सकता है।

वास्तविक सुख कर्म में है – संतोष और आत्म-संतुष्टि केवल आराम करने से नहीं, बल्कि अपने कर्तव्यों को निभाने और कुछ रचनात्मक करने से मिलती है।

निष्कर्ष:

यह कथन केवल उन परिस्थितियों में सही प्रतीत हो सकता है जहाँ व्यक्ति सांसारिक उलझनों और प्रतिस्पर्धा से दूर रहकर मानसिक शांति चाहता है। लेकिन दीर्घकालिक रूप से, कर्महीनता न सुख दे सकती है और न ही जीवन को सार्थक बना सकती है। अतः संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है, जहाँ व्यक्ति अपनी क्षमता और इच्छानुसार कर्म करे, परंतु मानसिक शांति बनाए रखने का भी प्रयास करे।

हर अंधकार के पीछे सुबह का सूरज अवश्य छिपा होता है।

उत्तर – यह कथन आशावाद (Optimism) और जीवन में सकारात्मक सोच को प्रोत्साहित करता है। इसका गहरा अर्थ यह है कि किसी भी कठिनाई, संकट या दुख के बाद सुख और सफलता अवश्य आती है, ठीक वैसे ही जैसे रात के अंधकार के बाद सूर्य का प्रकाश नई सुबह लेकर आता है। इसे विभिन्न पहलुओं से समझा जा सकता है –

  1. जीवन में संघर्ष और सफलता

हर व्यक्ति को जीवन में कभी न कभी कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन अगर वह धैर्य और आत्मविश्वास बनाए रखे, तो अंततः उसे सफलता ज़रूर मिलती है।

  1. समय बदलता है –

जैसे रात हमेशा नहीं रहती और सुबह निश्चित रूप से आती है, वैसे ही बुरे समय का दौर भी स्थायी नहीं होता। समय के साथ परिस्थितियाँ बदलती हैं और अच्छे दिन वापस आते हैं।

  1. धैर्य और सकारात्मकता का महत्व –

इस कथन का संदेश है कि जब भी हम कठिन समय से गुजर रहे हों, हमें हार नहीं माननी चाहिए। हमें धैर्य रखना चाहिए और यह विश्वास रखना चाहिए कि उजाला अवश्य आएगा।

  1. ऐतिहासिक और व्यक्तिगत उदाहरण:

महात्मा गांधी, भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में उन्होंने अनेक कठिनाइयाँ झेलीं, लेकिन अंततः सत्य और अहिंसा की जीत हुई। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, उन्होंने गरीबी और संघर्षों का सामना किया, लेकिन अपनी मेहनत और सकारात्मक सोच से भारत के ‘मिसाइल मैन’ बने।

निष्कर्ष:

यह कथन हमें सिखाता है कि किसी भी अंधकार (समस्या, असफलता, दुख) को स्थायी नहीं मानना चाहिए। यदि हम निरंतर प्रयास करते रहें और उम्मीद बनाए रखें, तो निश्चित रूप से हमारे जीवन में सफलता और खुशहाली का सूरज चमकेगा।

“निराश नहीं होना चाहिए।” इस विषय की चर्चा कीजिए।

उत्तर – निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। हर कठिनाई के साथ एक नया अवसर भी जुड़ा होता है। असफलता केवल सफलता की दिशा में उठाया गया एक कदम होती है। यदि हम किसी कार्य में असफल होते हैं, तो हमें उससे सीख लेकर और अधिक मेहनत करनी चाहिए। धैर्य और सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ने से सफलता अवश्य प्राप्त होती है। आत्मविश्वास बनाए रखना और हार न मानना ही सच्ची जीत की निशानी है। इसलिए, हमें कभी भी निराश नहीं होना चाहिए और निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।

भारतवर्ष के ‘महान मनीषियों के बारे में वर्ग में अधिक जानकारी दीजिए।

उत्तर – भारतवर्ष महान मनीषियों की भूमि है, जिन्होंने अपने ज्ञान, तपस्या और विचारों से संपूर्ण मानवता को दिशा प्रदान की है। यहाँ वेदव्यास, महर्षि वाल्मीकि, चाणक्य, आदिगुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी और डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे अनेक विद्वान हुए, जिन्होंने समाज को सही मार्गदर्शन दिया। इन महान विभूतियों ने धर्म, दर्शन, राजनीति, शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी शिक्षाएँ आज भी लोगों को सत्य, अहिंसा, सदाचार और परिश्रम की राह पर चलने की प्रेरणा देती हैं। ऐसे महान मनीषियों के कारण ही भारत आध्यात्मिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध राष्ट्र बना हुआ है।

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