4. Class +2 Second Year CHSE, BBSR Sahitya Sudha Solutions Bharat BHushan Agrawal, Mahabharat Ki Ek Saanjh भारत भूषण अग्रवाल- महाभारत की एक साँझ

भारत भूषण अग्रवाल मुख्य रूप से प्रयोगवादी कवि और नाटककार हैं। ध्वनि एकांकीकार के रूप में उन्हें विशेष ख्याति मिली है। पत्रकारिता और समालोचना के क्षेत्र में भी उनका सराहनीय योगदान रहा है। वे इतिहास और पुराण की घटनाओं की समसामयिक चेतना के प्रकाश में व्याख्या करते हैं। उनकी रचनाओं में कवित्व और बौद्धिकता का सुंदर समन्वय मिलता है। उनकी भाषा सुबोध और विचारधर्मी है। उनके प्रमुख एकांकी- संग्रहों के नाम हैं- ‘पलायन’, ‘सेतुबंध’, और ‘खाई बढ़ती गई’, ‘युग- युग’ या ‘पाँच मिनट’। उनके लोकप्रिय एकांकियों के नाम है- ‘भादों की रात’, ‘गंगा की गाथा’, ‘अजंता की गूँज’, ‘महाभारत की एक साँझ’।

पात्र

धृतराष्ट्र

संजय

युधिष्ठिर

भीम

दुर्योधन

स्थान : कुरूक्षेत्र के निकट द्वैतवन के जलाशय का किनारा

समय : साँझ

यह नाटक यहाँ श्रव्य रूप में ही प्रस्तुत किया गया है, जैसा कि रेडियो द्वारा प्रसारण के लिए होता है, पर इसे सहज ही मंच पर दृश्याभिनय के अनुकूल बनाया जा सकता है।

(सारंगी पर आलाप उठता है।)

धृतराष्ट्र : (ठंडी साँस लेकर) कह नहीं सकता संजय! किसके पापों का यह परिणाम है, किसकी भूल थी जिसका यह भीषण विषफल हमें मिला। ओह! क्या पुत्र स्नेह अपराध है, पाप हे? क्या मैंने कभी भी… कभी भी…..

संजय : शांत हों महाराज! जो हो चुका उस पर शोक करना व्यर्थ है।

धृतराष्ट्र : (साँस लेकर) फिर क्या हुआ संजय?

संजय : आत्म-रक्षा का और कोई उपाय न देखकर महाबली द्वैतवन के सरोवर में घुस गए, और उसके जलस्तंभ में छिपकर बैठे रहे। पर न जाने कैसे पांडवों को इसकी सूचना मिल गई और वे तत्काल रथ पर चढ़कर वहाँ पहुँच गए।

(रथ की गड़गड़ाहट।)

भीम : लीजिए महाराज! यही है द्वैतवन का सरोवर। वे अहेरी कहते थे कि उन्होंने दुर्योधन को इसी के जल में छिपते हुए देखा।

युधिष्ठिर : आओ, हम लोग उसे निकालने की चेष्टा करें।

जल की कल-कल ध्वनि।)

युधिष्ठिर : (पुकार कर) ओ पापी! अरे ओ कपटी, दुरात्मा दुर्योधन! क्या स्त्रियों की भाँति वहाँ जल में छिपा बैठा है। बाहर निकल आ। देख, तेरा काल तुझे ललकार रहा है।

भीम : कोई उत्तर नहीं। (जोर से) दुर्योधन। दुर्योधन!! अरे अपने सारे सहयोगियों की हत्या का कलंक अपने माथे पर लगाकर तू कायरों की भाँति अपने प्राण बचाता फिरता है। तुझे लज्जा नहीं आती?

युधिष्ठिर : लज्जा! उस पापी को लज्जा!… भीमसेन! ऐसी अनहोनी बात की तुमने कल्पना भी कैसे की। जो अपने सगे-संबंधियों को गाजर- मूली की भाँति कटवा सकता है, जो अपने भाइयों को जीवित जलवा देने में भी नहीं हिचकिचाता, जो अपनी भाभी को भरी सभा में अपमानित कराने में आनंद ले सकता है, उसका लज्जा से क्या परिचय! (सव्यंग्य हँसी)

दुर्योधन: (दूर जल में से) हँस लो, हँस लो दुष्टो! जितना जी चाहे हँस लो, पर यह न भूलना कि में अभी जीवित हूँ, मेरी भुजाओं का बल अभी नष्ट नहीं हुआ है।

युधिष्ठिर : (जोर से) अरे नीच! अब भी तेरा गर्व चूर नहीं हुआ! यदि बल है तो फिर आ न बाहर, और हमको पराजित करके राज्य प्राप्त कर। वहाँ बैठा-बैठा क्या वीरता बघारता है! तू क्या समझता है, हम तेरी थोथी बातों से डर जाएँगे?

दुर्योधन: अपने स्वार्थ के लिए अपने गुरुजनों, बंधु-बांधवों का निर्भयता से वध करने वाले माहत्मा पांडवों के रक्त की प्यास अभी बुझी नहीं है, यह में जानता हूँ। पर युधिष्ठिर। सुयोधन कायर नहीं है, वह प्राण रहते तुम्हारी सत्ता स्वीकार नहीं कर सकता!

भीम : तो फिर आ न बाहर और दिखा अपना पराक्रमः जिस कालाग्नि को तूने वर्षों घृत देकर उभाड़ा है, उसकी लपटों में तेरे साथी तो स्वाहा हो गए… उसके घेरे से अब तू क्यों बचना चाहता है। अच्छी तरह समझ ले, यह तेरी आहुति लिए बिना शांत न होगी।

दुर्योधन : जानता हूँ युधिष्ठिर! भली-भाँति जानता हूँ। किंतु सोच लो, में थककर चूर हो गया हूँ, मेरी सारी सेना तितर-बितर हो गई है, मेरा कवच फट गया है, मेरे शस्त्रास्त्र चुक गए हैं। मुझे समय दो युधिष्ठिर! क्या भूल गए, मैंने तेरह वर्ष का समय दिया था?

युधिष्ठिर : (हँसकर) तेरह वर्ष का समय दिया था? दुर्योधन! तुमने तो हमें वनवास दिया था, यह सोचकर कि तेरह वर्ष वन में रहकर हमारा उत्साह ठंडा पड़ जाएगा, हमारी शक्ति क्षीण हो जाएगी, हमारे सहायक बिखर जाएँगे और तुम अनायास हम पर विजय पा सकोगे। इतनी आत्मप्रवंचना न करो।

दुर्योधन : युधिष्ठिर! तुम तो धर्मराज कहलाते हो! तुम्हारा दंभ है कि तुम अधर्म नहीं करते। फिर तुम्हारे रहते, तुम्हारी आँखों के आगे ऐसा अधर्म हो, सोचो तो!

भीम : (हँसी) अच्छा, तो अब तुझे धर्म का स्मरण हुआ। सच है, कायर और पराजित ही अंत में धर्म की शरण लेते हैं।

युधिष्ठिर : अरे पामर? तेरा धर्म तब कहाँ चला गया था, जब एक निहत्थे बालक को सात-सात महारथियों ने मिलकर मारा था, जब आधा राज्य तो दूर, सुई की नोक बराबर भी भूमि देना तुझे अनुचित लगा था। अपने अधर्म से इस पुण्यलोक भारत भूमि में द्वेष की ज्वाला धधकाकर अब तू धर्म की दुहाई देता है। धिक्कार है तेरे ज्ञान को धिक्कार है तेरी वीरता को!

दुर्योधन : एक निहत्थे, थके हुए व्यक्ति को घेरकर वीरता का उपदेश देना सहज है युधिष्ठिर। मुझे खेद है, में इसके लिए तुम्हारी प्रशंसा नहीं कर सकता। पर मैं सच कहता हूँ तुमसे, इस नर हत्याकांड से मुझे विरक्ति हो गई है। इस रक्तरंजित सिंहासन पर बैठकर राज्य करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। तुम निश्चित मन से जाओ और राज्य भोगो। सुयोधन तो वन में जाकर भगवद्भक्ति में दिन बिताएगा।

भीम : व्यर्थ दुर्योधन! तेरी यह सारी कूटनीति व्यर्थ है! अपने पापों के परिणाम से अब तू किसी भी प्रकार नहीं बच सकता। बाहर निकलकर युद्ध कर, बस यही एक मार्ग है!

दुर्योधन : अप्रस्तुत को मारने से यदि तुम्हे संतोष मिलता हो, तो लो में बाहर आता हूँ। (जल से निकलकर पास आने तक की आवाज) पर में पूछता हूँ युधिष्ठिर! मेरे प्राणों का नाश कर तुम्हें क्या मिल जाएगा?

युधिष्ठिर : अरे पापी। यदि प्राणों का इतना मोह था तो फिर यह महाभारत क्यों मचाया? न्याय को ठोकर मारकर अन्याय का पथ क्यों ग्रहण किया?

दुर्योधन : युधिष्ठिर। मैंने जो कुछ किया, अपनी रक्षा के लिए! मैं जीना चाहता था, शांति और मेल से रहना चाहता था। में नहीं जानता था कि तुम्हारे रहते मेरी यह कामना, यह सामान्य सी इच्छा भी पूरी न हो सकेगी।

भीम: पाखंडी! तुझे झूठ बोलते लज्जा नहीं आती?

दुर्योधन : ले लो राक्षसो! यदि तुम्हारी हिंसा इसी से तृप्त होती है तो ले लो, मेरे प्राण भी ले लो। जब में जीवन-भर प्रयास करके भी अपनी एक भी घड़ी शांति से न बिता सका, जब में अपनी एक भी कामना को फलते न देख सका, तो अब इन प्राणों को रखकर भी क्या करूँगा? लो, उठाओ शस्त्र और उड़ा दो मेरा शोश!… अब देखते क्या हो? मैं निहत्था तुम्हारे सम्मुख खड़ा हूँ! ऐसा सुअवसर कब मिलेगा, मेरे जीवनशत्रुओ!

युधिष्ठिर : पहले वीरता का दंभ और अंत में करुणा की भीख! कायरों का यही नियम है। परंतु दुर्योधन! कान खोलकर सुन लो। हम तुम्हें दया करके छोडेंगे भी नहीं, और तुम्हारी भाँति अधर्म से हत्या कर बधिक भी न कहलाएँगे। हम तुम्हें कवच और शस्त्र देंगे। तुम जिस अस्त्र से लड़ना चाहो, बता दो। हममें से केवल एक व्यक्ति ही तुमसे लड़ेगा। और यदि तुम जीत गए तो सारा राज्य तुम्हारा। कहो, यह तो अधर्म नहीं है? स्वीकार है।

भीम : इस दुराचारी के साथ ऐसा व्यवहार अनावश्यक है।

दुर्योधन : मैं तो कह चुका हूँ युधिष्ठिर। मुझे विरक्ति हो गई है। मेरी समझ में आ गया है कि अब प्राणों की तृप्ति की चेष्टा व्यर्थ है। विफलता के इस मरुस्थल में अब एक बूँद आवेगी भी तो सूखकर खो जाएगी। यदि तुम्हें इसी में संतोष हो कि तुम्हारी महत्वाकांक्षा मेरी मृत देह पर ही अपना जय स्तंभ उठाए तो फिर यही सही। (साँस लेकर) चलो, यह भी एक प्रकार से अच्छा ही होगा। जिन्होंने मेरे लिए अपने प्राणो की बलि दे दी उन्हें मुँह तो दिखा सकूँगा। (रुककर) अच्छी बात है युधिष्ठिर! मुझे एक गदा दे दो, फिर देखो मेरा पौरुष।

(लघु विराम)

संजय : इस प्रकार महाराज! पांडवों ने विरक्त सुयोधन को युद्ध के लिए विवश किया। पांडवों की ओर से भीम गदा लेकर रण में उतरे। दोनों वीरों में घमासान युद्ध होने लगा। सुयोधन का पराक्रम सबको चकित कर देता था। ऐसा लगता था कि मानो विजय- श्री अंत में उसी का वरण करेगी। पर तभी श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम ने सुयोधन की जंघा में गदा का भीषण प्रहार किया। कुरुराज आहत होकर चीत्कार करते हुए गिए पड़े।

धृतराष्ट्र : हाय पुत्र! इन हत्यारों ने अधर्म से तुम्हें परास्त किया।

संजय! मेरे इतने उत्कट स्नेह का ऐसा अंत!! ओह! मैं नहीं सह सकता। मैं नहीं सह सकता…

संजय : धैर्य महाराज, धैर्य, कुरुकुल के इस डगमगाते पोत के अब आप ही कर्णधर हैं।

धृतराष्ट्र : संजय! बहलाने की चेष्टा न करो। (रुककर) पर ठीक कहा तुमने। कुरुकुल का कर्णधार ही अंधा है, उसे दिखाई नहीं देता।

संजय : महाराज! ठीक यही बात सुयोधन ने कही थी।

धृतराष्ट्र : क्या? क्या कहा था सुयोधन ने? कब?

संजय : जब सुयोधन आहत होकर निस्सहाय भूमि पर गिर पड़े, तो पांडव जयध्वनि करते और हर्ष मनाते अपने शिविर को लौट गए। संध्या होने पर पहले अश्वत्थामा आए और कुरुराज की यह दशा देखकर बदला लेने का प्रण करते हुए चले गए। फिर युधिष्ठिर आए। सुयोधन के पास आकर वे झुके और शांत स्वर में बोले-

(दुर्योधन की कराह, जो बीच-बीच में निरंतर चलती रहती है।

युधिष्ठिर : दुर्योधन। दुर्योधन!! आँखें खोलो भाई!

दुर्याधन : (कराहते हुए) कौन? कौन? युधिष्ठिर तुम! आए हो? अब क्यों आए हो? क्या चाहते हो? तुम राज्य चाहते थे, वह मैंने दे दिया, मेरे प्राण चाहते थे, वे भी मैंने दे दिए। अब क्या लेने आए हो मेरे पास? अब मेरे पास ऐसा कौन सा धन है, जिसके प्रति तुम्हें ईर्ष्या हो? जाओ, जाओ, दूर हो मेरी आँखों से जीवन में तुमने मुझे चैन नहीं लेने दिया, अब कम में कम मुझे शांति से मर लेने दो युधिष्ठिर! जाओ! चले जाओ!

युधिष्ठिर : तुमने गलत समझा दुर्योधन में कुछ लेने नहीं आया! मैं तो देखने आया कि…

दुर्योधन : कि अंतिम समय में में किस तरह निस्सहाय निर्बल पशु को भाँति तड़प-तड़पकर अपना दम तोड़ता हूँ। मेरी मृत्यु का पर्व मनाने आए हो। मेरी आहों का आलाप सुनने आए हो। अरे निर्दयी! तुम्हें किसने धर्मराज की संज्ञा दी। जो सुख से मरने भी नहीं देता वही धर्म का ढोल पीटे, कैसा अन्याय है!

युधिष्ठिर : अर्थ का अनर्थ न करो दुर्योधन! मैं तो तुम्हें शांति देने आया था। मैंने सोचा, हो सकता है, तुम्हें पश्चात्ताप हो रहा हो। यदि ऐसा हो, तो तुम्हारी व्यथा हल्की कर सकूँ, इसी उद्देश्य से में आया था।

दुर्योधन : हाय रे मिथ्याभिमानी! अब भी यह दया का ढोंग नहीं छोड़ा? पर युधिष्ठिर। तनिक अपनी ओर तो देखो! पश्चात्ताप तो तुम्हें चाहिए। में क्यों पश्चात्ताप करूँगा? मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया है? मैंने अपने मन के भावों को गुप्त नहीं रखा, मैंने षड्यंत्र नहीं किया, मैंने गुरुजनां का वध नहीं किया।

युधिष्ठिर : यह तुम क्या कह रहे हो दुर्योधन!

दुर्योधन : (किटकिटाकर) दुर्योधन नहीं, सुयोधन कहो धर्मराज! सुयोधन! क्या अब भी तुम्हारी छाती ठंडी नहीं हुई? क्या मुझे मारकर भी तुम्हें संतोष नहीं हुआ जो मेरी अंतिम घड़ी में मेरे मुँह पर मेरे नाम की खिल्ली उड़ा रहे हो? निर्दयी! क्या ईर्ष्या में अपनी मानवता भी भस्म कर दी?

युधिष्ठिर : क्षमा करो भाई! अब तुम्हें और अधिक कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता। पर मेरे कहने न कहने से क्या, आने वाली पीढ़ियाँ तुम्हें दुर्योधन के नाम से ही संबोधित करेंगी, तुम्हारे कृत्यों का साक्षी इतिहास पुकार पुकार कर…  

दुर्योधन : मुझे दुर्योधन कहेगा, यही न? जानता हूँ युधिष्ठिर। में जानता हूँ। मुझे मारकर ही तुम चुप नहीं बैठोगे। तुम विजेता हो; अपने गुरुजनों ओर सगे-संबंधियों के शोणित की गंगा में नहाकर तुमने राजमुकुट धारण किया है। तुम अपनी देख-रेख में इतिहास लिखवाओगे और उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने से क्यों चूकोगे? सुयोधन को सदा के लिए दुर्योधन बनाकर छोड़ोगे। (कराहकर) उसकी देह को ही नहीं, उसका नाम तक मिटा दोगे। वहाँ मैं तुम्हारा हाथ पकड़ने नहीं आऊँगा। पर इस समय अब तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु मर रहा है, उसे इतना न्याय दो कि उसका मिथ्या अपमान मत करो।

युधिष्ठिर : युधिष्ठिर ने सदा ही न्याय दिया है सुयोधन। न्याय के लिए वह बड़े-बड़े दुःख उठाने से भी नहीं चूका है। सगे-संबंधियों के तड़प-तड़पकर प्राण त्यागने का यह भीषण दृश्य, अबलाओं अनाथों का यह करुण चीत्कार किसी भी हृदय को दहलाने के लिए पर्याप्त था। पर सुयोधन। मैं इन संहार के दृश्यों को भी शांत भाव से सह गया, क्योंकि न्याय के पथ पर जो मिले, सब स्वीकार है।

दुर्योधन : यह दंभ है युधिष्ठिर। यह मिथ्या अहंकार है। में तुम्हारी यह आत्मप्रशंसा नहीं सुन सकता, इसे तुम अपने भक्तों के ही लिए रहने दो। तुम विजय की डींग मार सकते हो, पर न्याय-धर्म की दुहाई तुम मत दो! स्वार्थ को न्याय का रूप देकर धर्मराज की उपाधि धारण करने में तुम्हें संतोष मिलता है तो मिले, मेरे लिए वह आत्म- प्रवंचना है। में उससे घृणा करता हूँ।

युधिष्ठिर : स्वार्थ। दुर्योधन, स्वार्थ!

दुर्योधन : और नहीं तो क्या? जिस राज्य पर तुम्हारा रत्ती भर अधिकार नहीं था, उसी को पाने के लिए तुमने युद्ध ठाना, यह स्वार्थ का तांडवनृत्य नहीं तो और क्या है? भला किस न्याय से तुम राज्याधिकार को माँग करते थे?

युधिष्ठिर : सुयोधन, मन को टटोलकर देखो। क्या वह तुम्हारे कथन का समर्थक है? क्या तुम नहीं जानते कि पिता के राज्य पर पुत्र का अधिकार सर्वसम्मत है? फिर महाराज पांडु का राज्य मेरा हुआ या नहीं?

दुर्योधन : बस, तुम्हारे पास एक यही तर्क है। परंतु युधिष्ठिर, क्या तुमने कभी भी यह सोचा कि जिस राज्य का तुम अधिकार चाहते थे वह तुम्हारे पिता के पास कैसे आया? क्या जन्माधिकार से? नहीं। तुम्हारे पिता को राज्य की देख-भाल का कार्य केवल इसलिए मिला कि मेरे पिता अंधे थे। राज्य संचालन में उन्हें असुविधा होती। अन्यथा उस पर तुम्हारे पिता का कोई अधिकार न था, वह मेरे पिता का था।

युधिष्ठिर : यह तो ठीक है। पर एक बार चाहे किसी भी कारण से हो, जब मेरे पिता को राज्य मिल गया, तब उनके पश्चात् उस पर मेरा अधिकार हुआ या नहीं? क्या राज-नियम यह नहीं कहता?

दुर्योधन : राज-नियम की चिंता कब की तुमने? अन्यथा इस बात के समझाने में क्या कठिनाई थी कि तुम्हारे पिता के उपरांत राज्य पर मूल अधिकार मेरे पिता का ही था? वह जिसे चाहते, व्यवस्था के लिए सौंप सकते थे।

युधिष्ठिर : यह केवल तुम्हारा निजी मत है। आज तक किसी ने भी इस प्रकार का कोई संदेह प्रकट नहीं किया। पितामह भीष्म, महात्मा विदुर, कृपाचार्य अथवा स्वयं महाराज धृतराष्ट्र ने भी कभी ऐसी कोई बात नहीं कही।

दुर्योधन : यही तो मुझे दुख है युधिष्ठिर कि तथ्य तक पहुँचने की किसी ने भी चेष्टा नहीं की। एक अन्याय की प्रतिष्ठा के लिए इतना ध्वंस किया गया, और सब अंधों की भाँति उसे स्वीकार करते गए। सबने मेरा हठ ही देखा, मेरे पक्ष का न्याय किसी ने नहीं देखा! और जानते हो इसका क्या कारण था?

युधिष्ठिर : क्या?

दुर्योधन : सब तुम्हारे गुणों से प्रभावित थे, सब तुम्हारी वीरता से डरते थे। कायरों की भाँति, रक्तपात से बचने के प्रयत्न में वे न्याय और

सत्य का बलिदान कर बैठे। वे यह नहीं समझ पाए कि भय जिसका आधार हो, वह शांति टिकाऊ नहीं हो सकती।

युधिष्ठिर : गुरुजनों पर तुम व्यर्थ ही कायरता का आरोप लगा रहे हो। यदि मेरे पक्ष में न्याय न होता तो कोई भी मुझको राज्य देने की माँग क्यों करता?

दुर्योधन : तभी तो कहता हूँ युधिष्ठिर कि स्वार्थ ने तुम्हें अंधा बना दिया, अन्यथा इतनी छोटी-सी बात क्या तुम्हें दिखाई न पड़ जाती कि जितनी धार्मिक और न्यायी व्यक्ति थे, सबने इस युद्ध में मेरा साथ दिया है? यदि न्याय तुम्हारी ओर था तो फिर भीष्म, द्रोण, कृप, अश्वत्थामा- सब मेरी ओर से क्यों लड़े? क्या वे जान-बूझकर अन्याय का साथ दे रहे थे? यहाँ तक कि कृष्ण जैसे तुम्हारे परम मित्र ने भी मेरी सहायता के लिए अपनी सेना दी। वे चतुर थे, दोनों पक्षों से मैत्री  रखना ही उन्होंने अच्छा समझा। ऐसा क्यों हुआ? बोलो! इसीलिए न कि न्याय वास्तव में मेरी ओर था।

युधिष्ठिर : सुयोधन। मैं तुम्हें सांत्वना देने आया था, विवाद करने नहीं। में तो तुम्हारी पीड़ा बाँट लेने आया था। क्योंकि तुम चाहे जो समझो मेरी इस बात का तुम विश्वास करो कि में इस रक्तपात के लिए तैयार न था, यह मेरी कदापि इच्छा नहीं थी।

दुर्योधन में इसका कैसे विश्वास करूँ? क्या तुम्हारे कह देने से ही? पर तुम्हारे वचनों से भी सशक्त स्वर हे तुम्हारे कार्यों का, तुम्हारे जीवन की गतिविधि का, और वह पुकार पुकार कर कह रही है कि युधिष्ठिर शोणिततर्पण चाहता था, युधिष्ठिर खून की होली खेलने के लिए ही सारे अवसर जुटा ररहा  था। भविष्य को भी तुम चाहो तो बहका सकते हो युधिष्ठिर! पर सुयोधन को नहीं बहका सकते! क्योंकि उसने अपने बचपन से लेकर अब तक की एक-एक घड़ी तुम्हारी ईर्ष्या के रथ की गड़गड़ाहट सुनते हुए बिताई है, तुम्हारी तैयारियों ने उसे एक रात भी चैन से नहीं सोने दिया।

युधिष्ठिर : मुझे लगता है, तुम सुध-बुध खो बैठे हो तुम प्रलाप कर रहे हो। भला ज्ञान में भी कोई ऐसी असंभाव्य बातें कहता है। जो पांडव तुमसे तिरस्कृत होकर घर-घर भीख माँगते फिरे, वन जंगलों की धूल

छानते फिरे, उनके संबंध में भला कौन ज्ञानी व्यक्ति तुम्हारे इस कथन का विश्वास करेगा।

दुर्योधन : मैं जानता हूँ युधिष्ठिर! कोई विश्वास नहीं करेगा। और करना चाहे तो तुम उसे विश्वास न करने दोगे। पर इससे क्या? सत्य को दबाकर उसे मिथ्या नहीं किया जा सकता। बचपन से जब हम लोगों ने एक साथ शिक्षा पाई, तब से आज तक के सारे चित्र मेरी दृष्टि में हरे हैं। पुरोचन को कपट से मारकर तुम पंचाल गए, और वहाँ द्रुपद को अपनी ओर मिलाया। तभी तो तुम्हारा बल बढ़ता देखकर पिताजी ने तुम्हें आधा राज्य दिया।

युधिष्ठिर : मैं तो यही जानता हूँ कि आधे राज्य पर मेरा अधिकार था।

दुर्योधन : सत्य को ढकने का प्रयत्न न करो युधिष्ठिर। उसे निष्पक्ष होकर जाँचो। मेरे पास प्रमाणों की कमी नहीं है। आधा राज्य पाकर भी तुमने चैन न लिया, तुमने अर्जुन को चारों ओर दिग्विजय के लिए भेजा। राजसूय यज्ञ के बहाने तुमने जरासंध और शिशुपाल को समाप्त किया। यहाँ तक कि जुए में खेल-खेल में भी तुम अपनी ईर्ष्या नहीं भूले, और तुमने चट से अपना राज्य दाँव पर लगा दिया कि यदि तुम जीते तो तुम्हें मेरा राज्य अनायास ही मिल जाए। वनवास उसी महत्वाकांक्षा का परिणाम था, मेरा उसमें कोई हाथ न था।

युधिष्ठिर : तुमने जिस तरह भरी सभा में द्रौपदी का अपमान किय।  

दुर्योधन : मेरा अपमान भी द्रौपदी ने भरी सभा में ही किया था। तब तुम्हारी यह न्याय भावना क्या सो रही थी? फिर द्रौपदी को दाँव पर लगाकर क्या तुमने उसका सम्मान करने की चेष्टा की थी? जिस समय द्रौपदी सभा में आई, उस समय वह द्रौपदी नहीं थी, वह जुए में जीती हुई दासी थी।

युधिष्ठिर : यह तुम कैसी विचित्र बात कर रहे हो?

दुर्योधन : सत्य को विचित्र मानकर उड़ा नहीं सकते युधिष्ठिर! अपने ही कृत्य से वनवास पाकर भी उसका दोष मेरे ही माथे मढ़ा गया, और फिर उस बनवास का एक-एक क्षण युद्ध की तैयारी में लगाया गया। अर्जुन ने तपस्या द्वारा नए-नए शस्त्र प्राप्त किए विराटराज से मैत्री कर नए संबंध बनाए गए, और अवधि पूर्ण होते ही अभिमन्यु के विवाह के बहाने सारे राजाओं को निमंत्रण भेजकर एकत्र किया गया। युधिष्ठिर। क्या इस कटु सत्य को तुम मिटा सकते हो?

युधिष्ठिर : यदि जो कुछ तुम कह रहे हो वह सत्य है, तो सुयोधन, तुम मेरा विश्वास करो कि तुमने प्रत्येक घटना के उल्टे अर्थ लगाए हैं। जो नहीं है उसे तुमने कल्पना के द्वारा देखा है। यह सब मिथ्या है।

दुर्योधन : किंतु यही बात में तुम्हारे लिए कह सकता हूँ युधिष्ठिर! क्योंकि अंतर्यामी जानते हैं कि मैंने कोई बुरा आचरण नहीं करना चाहा। मैंने एकमात्र अपनी रक्षा की। जब तक तुमने आक्रमण नहीं किया, मैं चुप रहा। जब मैंने देखा कि युद्ध अनिवार्य है, तो फिर मुझे विवश होकर वीरोचित कर्त्तव्य करना पड़ा।

युधिष्ठिर : अभिमन्यु वध भी क्या वीरोचित था?

दुर्योधन : एक-एक बात पर कहाँ तक विचार करोगे, युधिष्ठिर। जब भीष्म, द्रोण और कर्ण का वध वीरोचित हो सकता है, तो फिर अभिमन्यु- वध में ऐसी क्या विशेषता थी? और आज भीमसेन ने मुझे जिस प्रकार पराजित किया है वही क्या वीरोचित कहलाएगा? पर युधिष्ठिर! मेरे पास अब इतना समय नहीं है कि इन सबको विवेचना करूँ। में तो सबकी सार बात जानता हूँ कि तुम्हारी महत्वाकांक्षा ही इस नर संहार का, इस भीषण रक्तपात का मूल कारण है।

(पृष्ठ में सारंगी पर करुण आलाप, जो चढ़ता है।) और उधर वे मेघ घिरे आ रहे हैं, द्रौपदी के बिखरे केशों की भाँति। वे मुझे निगल लेंगे युधिष्ठिर। जाओ, मुझे मरने दो। तुम अपनी महत्वाकांक्षा को फलते-फूलत देखो जाओ, गुरुजनों और बंधु-बांधवों के रक्त से अभिषेक कर राजसिंहासन पर विराजो! मैं तुम्हारे चरणों से रौंदे हुए काँटे की भाँति तुम्हारे मार्ग से हटे जाता हूँ।

युधिष्ठिर इतने उत्तेजित न हो सुयोधन! वीरों की भाँति धेर्य रखो। शांत होओ।

दुर्योधन : घबराओ नहीं युधिष्ठिर। मेरी शांति के लिए तुम जो उपाय कर चुके हो, वह अचूक है। दो क्षण और फिर में सदा को शांत हो जाऊँगा। पर अंतिम साँस निकलने से पहले युधिष्ठिर। एक बात कहे जाता हूँ… तुम पश्चात्ताप की बात पूछने आए थे न? मेरे मन में कोई पश्चात्ताप नहीं है। मैंने कोई भूल नहीं की, मैंने भय से तुम्हारी शरण नहीं माँगी। अंत तक तुमसे टक्कर ली और अब वीरगति पाकर स्वर्ग को जाता हूँ। समझे युधिष्ठिर! मुझे कोई ग्लानि नहीं है, कोई पश्चात्ताप नहीं है। केवल एक… केवल एक दुःख मेरे साथ जाएगा।

युधिष्ठिर : क्या?

दुर्योधन : यही …. यही कि मेरे पिता अंधे क्यों हुए। नहीं तो, नहीं तो… (करुण आलाप उठकर धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है।)

अहेरी – शिकारी।

ललकार – उच्च स्वर में युद्ध के लिए आह्वान।

अनहोनी- असंभव न होने वाली।

हिचकिचाना – संकोच करना।

भुजाओं- बाँहाँ।

बघारना – बढ़ा-चढ़ाकर बोलना, डींग हाँकना।

थोथी बात – फालतू बात, सारहीन बात।

पराक्रम – वीरता।

आत्मप्रवंचना – स्वयं अपने को धोखा देना।

पामर – पापी।

पुण्यश्लोक – पवित्र भूमि (देश)।

अप्रस्तुत – जो तैयार या प्रस्तुत न हो।

दंभ – घमंड, अहंकार।

बधिक – हत्यारा

डगमगाते पोत- हिलते डुलते जहाज,

कर्णधार – रक्षाकर्ता, उद्धार कर्ता।

निस्सहाय – असहाय, लाचार,

मिथ्याभिमानी – झूठा घमंड करने वाला

पश्चात्ताप – अनुताप, पछतावा।

खिल्ली उड़ाना – मजाक करना।

शोणित की गंगा – खून की गंगा।

रत्ती भर अधिकार- थोड़ा-सा अधिकार।

तांडव नृत्य – शिवजी का नृत्य, जिसमें बहुत उछल-कूद हो।

हठ – जिद।

कायर – डरपोक, भीरु।

अश्वत्थामा – गुरु द्रोण का वीर पुत्र

तिरस्कृत – अनादृत।

महत्वाकांक्षा – स्वार्थपूर्ण अभिलाषा।  

अंतर्यामी – हृदय की बात जानने वाला, ईश्वर।  

भ्रांति – भ्रम, गलतफहमी।

‘महाभारत की एक साँझ’ एक महत्त्वपूर्ण एकांकी है। इसकी कथा पौराणिक घटना पर आधारित है। परंतु एकांकीकार ने इसे आधुनिक दृष्टि से देखा है। दुर्योधन की मनःस्थिति को आधुनिक मूल्यों के संदर्भ में रूपायित करने में एकांकीकार को पूर्ण सफलता मिली है। इसमें अच्छे और बुरे, धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य की पुरानी मान्यताओं को ज्यों-का-त्यों स्वीकार न करके सहृदयतापूर्ण ढंग से विश्लेषित किया गया है। दुर्योधन इतिहास में एक खलनायक के रूप में चित्रित है। लेकिन आलोच्य एकांकी में भारत भूषण अग्रवाल ने उसके साथ पूरी सहानुभूति प्रदर्शित की है। उसकी कर्तव्यनिष्ठ, न्यायप्रियता और ईमानदारी को उजागर किया है। युग युग से उपेक्षित दुर्योधन पाठकों की सहानुभूति प्राप्त करने में सफल हुआ है। दुर्योधन के चरित्र के नवनिर्माण के पीछे मनोवैज्ञानिक और तर्कशील दृष्टिकोण सन्निहित है। दुर्योधन परिस्थितियों का शिकार था। धृष्टराष्ट्र का अंधापन जो एक भौतिक तथ्य से बढ़कर उसके पुत्रमोह से उत्पन्न विवेकहीनता का प्रतीक है और युधिष्ठिर की महत्वाकांक्षा इन दोनों ने दुर्योधन को हठी तथा युद्ध के लिए तैयार होने पर मजबूर कर दिया। इस तथ्य की प्रतिष्ठा आलोच्य एकांकी का कथ्य है। इस में दुर्योधन पर से महाभारत के उत्तरदायित्व का कलंक हट गया है। इसमें महत्त्व इस बात का नहीं कि एकांकी में प्रस्तुत दुर्योधन का चरित्र ऐतिहासिक तथ्य के अनुकूल है या नहीं, अपितु इस बात का है कि वह कितना तर्कसंगत तथा विश्वसनीय है। भीम दुर्योधन के चरित्र की कालिमा को स्पष्ट करते हुए कहता है – “जिस कालाग्नि को तूने वर्षों घृत देकर उभाड़ा है, उसकी लपटों में तेरे साथी तो स्वाहा हो गए…. उसके घेरे से अब तू क्यों बचना चाहता है? अच्छी तरह समझा ले, यह तेरी आहुति लिए बिना शांत न होगी।” परंतु दूसरी ओर दुर्योधन युधिष्ठिर से अपने चरित्र की निष्कलंकता प्रकट करते हुए कहता है- “युधिष्ठिर। मैंने जो कुछ किया, अपनी रक्षा के लिए में जीना चाहता था, शांति और मेल से रहना चाहता था। मैं नहीं जानता था कि तुम्हारे रहते मेरी यह कामना, यह सामान्य सी इच्छा भी पूरी न हो सकेगी।” और आगे चलकर दुर्योधन इस सच्चाई का पर्दाफाश करता है कि युद्ध के विजेता ही अपनी मर्जी से इतिहास लिखवाते हैं तथा हारे हुए के चरित्र में कलंक लगाते हैं- “जानता हूँ युधिष्ठिर मैं जानता हूँ। मुझे मारकर ही  तुम चुप नहीं बैठोगे। तुम विजेता हो, अपने गुरुजनों और सगे-संबंधियों के शोणित की गंगा में नहाकर तुमने राजमुकुट धारण किया है। तुम अपनी देख-रेख में इतिहास लिखवाओगे और उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने से क्यों चूकोगे? सुयोधन को सदा के लिए दुर्योधन बनाकर छोड़ोगे। उसकी देह को ही नहीं, उसका नाम तक मिटा दोगे।” एकांकी के अंत में दुर्योधन का यह संवाद अपनी ओर पाठकीय संवेदना खींचने में समर्थ हो जाता है- “पर अंतिम साँस निकलने से पहले युधिष्ठिर एक बात कहे जाता हूँ… तुम पश्चात्ताप की बात पूछने आए थे न? मेरे मन में कोई पश्चात्ताप नहीं है। मैंने कोई भूल नहीं की, मैंने भय से तुम्हारी शरण नहीं माँगी। अंत तक तुमसे टक्कर ली और अब वीरगति पाकर स्वर्ग को जाता हूँ। समझे युधिष्ठिर। मुझे कोई ग्लानि नहीं है, कोई पश्चात्ताप नहीं है। केवल एक… केवल एक दुःख मेरे साथ जाएगा। यही… यही कि मेरे पिता अंधे क्यों हुए। नहीं तो, नहीं तो……।”

1. राज्य पर पांडवों का अधिकार न होने के पक्ष में दुर्योधन ने क्या युक्ति दी?

उत्तर – राज्य पर पांडवों का अधिकार न होने के पक्ष में दुर्योधन ने युधिष्ठिर को युक्ति देते हुए कहा कि जिस राज्य के लिए तुमने युद्ध किया, वह कभी भी तुम्हारा था ही नहीं। क्या तुमने कभी भी यह सोचा कि जिस राज्य का तुम अधिकार चाहते हो, वह तुम्हारे पिता के पास कैसे आया? क्या जन्माधिकार से? नहीं। तुम्हारे पिता को राज्य की देख-भाल का कार्य केवल इसलिए मिला कि मेरे पिता (धृतराष्ट्र) अंधे थे। राज्य संचालन में उन्हें असुविधा होती। अन्यथा उस पर तुम्हारे पिता का कोई अधिकार न था, वह मेरे पिता का था। इस राज्य संचालन के आधार पर तुम अपने को इस राज्य का उत्तराधिकारी मानो यह कहाँ तक संगत है। तुम्हारे पिताजी को केवल प्रबंधन का कार्य दिया गया था पर तुम तो इस राज्य को अपनी पैतृक संपत्ति ही मानने  लगे।  

2. दुर्योधन ने यह कैसे सिद्ध किया कि युधिष्ठिर की न्यायप्रियता वास्तव में उसकी स्वार्थपरता थी?

उत्तर – मरणासन्न दुर्योधन ने युधिष्ठिर से यह कहा कि जिस राज्य के लालच में इतना बड़ा नर संहार हुआ उस पर तुम्हारा अधिकार तो था ही नहीं। वास्तव में स्वार्थ ने तुम्हें अंधा बना दिया है, नहीं तो तुम्हें यह जानते देर न लगती कि युद्ध में जितने भी धार्मिक और न्यायी व्यक्ति थे, सबने इस युद्ध में मेरा साथ दिया है? यदि न्याय तुम्हारी ओर था तो फिर भीष्म, द्रोण, कृपा, अश्वत्थामा- सब मेरी ओर से क्यों लड़े? क्या वे जान-बूझकर अन्याय का साथ दे रहे थे? यहाँ तक कि कृष्ण जैसे तुम्हारे परम मित्र ने भी मेरी सहायता के लिए अपनी सेना दी। वे चतुर थे, दोनों पक्षों से मैत्री रखना ही उन्होंने अच्छा समझा। ऐसा क्यों हुआ? बोलो! इसीलिए न कि न्याय वास्तव में मेरी ओर था। इन्हीं सभी तथ्यों का उद्धरण देते हुए दुर्योधन ने युधिष्ठिर की न्यायप्रियता को उसकी स्वार्थपरता सिद्ध की।

3. राज्य पर पांडवों के अधिकार का गुरुजनों ने जो विरोध नहीं किया, उसका दुर्योधन की राय में क्या कारण था?

उत्तर – राज्य पर पांडवों के अधिकार का गुरुजनों ने जो विरोध नहीं किया, दुर्योधन उसका कारण बताते हुए कहता है कि भीष्म, कृपाचार्य, विदुर आदि ने कभी भी इस तथ्य की ओर ध्यान ही नहीं दिया कि इस राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी कौन है? सबने मुझे हठी ही समझा। दूसरी तरफ सब तुम्हारे गुणों से प्रभावित थे, सब तुम्हारी वीरता से डरते थे। कायरों की भाँति, रक्तपात से बचने के प्रयत्न में वे न्याय और सत्य का बलिदान कर बैठे। वे यह नहीं समझ पाए कि भय जिसका आधार हो, वह शांति टिकाऊ नहीं हो सकती।

4. दुर्योधन ने इस पक्ष में क्या प्रमाण दिए कि वास्तव में युधिष्ठिर ही पूरे राज्य की प्राप्ति के लिए युद्ध की तैयारी करते रहे?

उत्तर – टूटी जंघा की पीड़ा से कराह रहा दुर्योधन अपनी वाणी में बुलंदी  लाकर युधिष्ठिर से कहता है- तुम सत्य को विचित्र मानकर उड़ा नहीं सकते युधिष्ठिर! तुम अपने ही कृत्य से वनवास पाए थे और उसका दोष सभी ने मेरे माथे मढ़ दिया। क्या यह सत्य नहीं कि तुमने वनवास का एक-एक क्षण युद्ध की तैयारी में लगाया। अर्जुन ने तपस्या द्वारा नए-नए शस्त्र प्राप्त किए, विराटराज से मैत्री कर नए संबंध बनाए गए, और अवधि पूर्ण होते ही अभिमन्यु के विवाह के बहाने सारे राजाओं को निमंत्रण भेजकर एकत्र किया। ये सारी बातें भावी युद्ध की ओर ही संकेत करती हैं, युधिष्ठिर। क्या इस कटु सत्य को तुम मिटा सकते हो?  

5. दुर्योधन ने यह कैसे सिद्ध किया कि राज्याधिकार के संबंध में न्याय वास्तव में उसी की ओर था?

उत्तर – पहले तो दुर्योधन ने अपने तर्कों से यह प्रमाणित कर दिया कि राज्य पर वास्तविक अधिकार उसके पिता धृतराष्ट्र का है और उनके बाद उसका खुद। इसके बाद राज्याधिकार के संबंध में वह युधिष्ठिर से कहता है कि जितने भी धार्मिक और न्यायी व्यक्ति थे, सबने इस युद्ध में मेरा साथ दिया है? यदि न्याय तुम्हारी ओर था तो फिर भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा- सब मेरी ओर से क्यों लड़े? क्या वे जान-बूझकर अन्याय का साथ दे रहे थे? यहाँ तक कि कृष्ण जैसे तुम्हारे परम मित्र ने भी मेरी सहायता के लिए अपनी सेना दी। वे चतुर थे, दोनों पक्षों से मैत्री  रखना ही उन्होंने अच्छा समझा। ऐसा क्यों हुआ? बोलो! इसीलिए न कि न्याय वास्तव में मेरी ओर था।

6. दुर्योधन के अनुसार युधिष्ठिर की कौन-सी वृत्तियाँ महाभारत का मूल कारण थीं?

उत्तर – दुर्योधन के अनुसार युधिष्ठिर बचपन से ही उसके प्रति ईर्ष्यालु था। दुर्योधन को गुरुकुल की सारी अप्रिय घटनाएँ याद हैं। वह युधिष्ठिर से कहता है कि तुमने पुरोचन को कपट से मारा और पंचाल गए, और वहाँ द्रुपद को अपनी ओर मिलाया। तुम्हारा बल बढ़ता देखकर पिताजी ने तुम्हें आधा राज्य दिया। आधा राज्य पाकर भी तुम्हें चैन न पड़ा, तुमने अर्जुन को चारों ओर दिग्विजय के लिए भेजा। राजसूय यज्ञ के बहाने तुमने जरासंध और शिशुपाल को समाप्त किया। यहाँ तक कि जुए में खेल-खेल में भी तुम अपनी ईर्ष्या नहीं भूले, और तुमने चट से अपना राज्य दाँव पर लगा दिया कि यदि तुम जीते तो तुम्हें मेरा राज्य अनायास ही मिल जाए। वनवास उसी महत्त्वाकांक्षा का परिणाम था, मेरा उसमें कोई हाथ न था। तुमने वनवास का एक-एक क्षण युद्ध की तैयारी में लगाया। अर्जुन ने तपस्या द्वारा नए-नए शस्त्र प्राप्त किए, विराटराज से मैत्री कर नए संबंध बनाए गए, और अवधि पूर्ण होते ही अभिमन्यु के विवाह के बहाने सारे राजाओं को निमंत्रण भेजकर एकत्र किया। वनवास के दौरान भी तुमने युद्ध की। दुर्योधन के अनुसार युधिष्ठिर की यही वृत्तियाँ महाभारत का मूल कारण थीं।   

7. ‘क्या पुत्र स्नेह अपराध है, पाप है?’ – तर्क सहित व्याख्या कीजिए।

उत्तर – एक सैनिक सीमा पर देश की रक्षा करने के दौरान दुश्मनों से युद्ध करता है और उसे मार गिराता है तो सरकार उसे उसके शोर्य और वीरता के लिए तमगे देती है। पर समाज में जब एक आदमी दूसरे की हत्या कर देता है तो विधि के अनुसार उसे दंड दिया जाता है। दोनों स्थितियों में जान जा रही हैं पर कारण अलग-अलग हैं। यही स्थिति प्रस्तुत कथन ‘क्या पुत्र स्नेह अपराध है, पाप है?’ में प्रदर्शित होता है। पुत्र स्नेह नि:संदेह न तो अपराध है और न ही पाप। परंतु यह अपराध और पाप का रूप तब ले लेगा जब एक पिता अपने पुत्र  के कुकृत्यों को आँखें बंद करके देखता रहे। उसे उसकी गलतियों पर डाँटने, समझाने की जगह उसे पुचकारता चला जाए और उसकी गलतियों को उसकी नादानी का जामा पहनाकर नज़रअंदाज़ कर दे।  

8. ‘कायर और पराजित ही अंत में धर्म की शरण लेते हैं ‘- क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने ‘हाँ’ या ‘नहीं’ के पीछे के कारण की व्याख्या कीजिए।

उत्तर – “कायर और पराजित ही अंत में धर्म की शरण लेते हैं।”- मैं इस कथन से सहमत नहीं हूँ। इसके कुछ कारण हैं। मेरे विचार से जो कायर होगा वह कभी भी युद्धमुखी या अपने बूते पर रक्तपात करने की सोचेगा तक नहीं। दूसरा शब्द जो यहाँ आया है वह है ‘पराजित’।  जो पराजित हुआ है अगर वह अधर्मी होगा तो शायद प्राणरक्षा हेतु धर्म की शरण में चला जाए परंतु जो धर्म की स्थापना के लिए ही युद्ध कर रहा होगा वह पराजित होने के बाद भी अपने धर्म से विमुख होने की तुलना में मृत्यु का वरण करना अधिक श्रेयसकर समझेगा।      

9. भय जिसका आधार हो, वह शांति स्थायी नहीं हो सकती’ यह संवाद किसका है और क्यों कहा है?

उत्तर – “भय जिसका आधार हो, वह शांति स्थायी नहीं हो सकती” यह संवाद दुर्योधन का है और दुर्योधन ने ऐसा कहा है क्योंकि वास्तविक रूप से हस्तिनापुर का असली उत्तराधिकारी दुर्योधन ही था। पर उसके पिता के अंधे होने के कारण पांडु को राज्य संचालन की ज़िम्मेदारी दी गई थी। समय बीतता गया और राजसभा के भीष्म, विदुर और कृपाचार्य जैसे ज्ञानिजन ने इस तथ्य की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। दूसरी तरफ युधिष्ठिर के सदाचार के सभी कायल थे और उसकी वीरता से सभी डरते थे। किसी को किसी भी प्रकार का रक्तपात करना या युद्धमुखी होना सही नहीं लगा। लेकिन जब बात असली उत्तराधिकारी की आएगी तो युद्ध अवश्यंभावी हो ही जाएगा। और ऐसा ही हुआ।   

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