Gujrat State Board, the Best Hindi Solutions, Class IX, Karn Ka Jeevandarshan, Ramdhari Singh Dinkar, कर्ण का जीवनदर्शन (खंडकाव्य) रामधारीसिंह दिनकर

(जन्म ई. सन् 1908 निधन ई. सन् 1974)

हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार के मुंगरे जिले के सिमरिया नामक गाँव के एक किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा मुंगेर तथा उच्च शिक्षा पटना में प्राप्त की। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त करके कुछ समय तक अध्यापनकार्य किया। दिनकरजी सीतामढ़ी में सब रजिस्ट्रार और मुज्जफरपुर कॉलेज में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। वे भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति और भारत सरकार की हिंदी सलाहकार समिति के अध्यक्ष भी रहे थे।

दिनकरजी की सब से बड़ी विशेषता है. अपने देश और युग के प्रति जागरूकता। कवि ने तत्कालीन घटनाओं – विषमताओं का खुलकर चित्रण किया है। उनकी वाणी में शक्ति है, ओज हैं। उनकी कविता में शोषित और पीड़ित वर्ग की व्यथा और उससे मुक्ति का संघर्ष है।

‘उर्वशी’, ‘रश्मिरथी’, ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’, ‘कुरूक्षेत्र’ उनकी काव्यकृतियाँ हैं। ‘उर्वशी’ के लिए उन्हें सन् 1972 का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ उनका चिंतन ग्रंथ है, जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘अर्धनारीश्वर’, ‘मिट्टी की ओर’ आदि उनकी प्रमुख गद्य रचनाएँ हैं। उनका कृतित्व गुणवत्ता और परिमाण दोनों दृष्टि से विपुल है।

प्रस्तुत खण्डकाव्यांश में ‘रश्मिरथी’ महारथी कर्ण के करुण किंतु भव्य जीवन की मीमांसा करनेवाला खण्डकाव्य है। सारे अन्यायों को सहकर कर्ण जन्मजात महानता पर पुरुषार्थजन्य महानता की विजय चाहता है। अंत में जब पाण्डवश्रेष्ठ के रूप में सब कुछ प्राप्त करने का प्रलोभन सामने आता है तब भी वह अविचलित रहता है और जिसने आज तक साथ दिया उस मित्र को किसी भी मोल पर छोड़ना नहीं चाहता। कृष्ण, कर्ण को पाण्डवों के पक्ष में ले आने के लिए उससे मिलते हैं, उस कथाप्रसंग से प्रस्तुत काव्यांश लिया गया है।

 

कर्ण का जीवन-दर्शन

वैभव – विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं,

बस यहीं चाहता हूँ केवल, दान की देव सरिता निर्मल,

करतल से झरती रहे सदा,

निर्धन को भरती रहे सदा।

तुच्छ है, राज्य क्या है केशव? पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?

चिन्ता प्रभूत, अत्यल्प हास, कुछ चाकचिक्य, कुछ क्षण विलास।

पर, वह भी यही गँवाना है,

कुछ साथ नहीं ले जाना है।

मुझ से मनुष्य जो होते हैं, कंचन का भार न ढोते हैं,

पाते हैं, धन बिखराने को लाते हैं रतन लुटाने को।

जग से न कभी कुछ लेते हैं,

दान ही हृदय का देते हैं।

प्रासादों के कनकाभ शिखर होते कबूतरों के ही घर,

महलों में गरुड़ न होता है, कंचन पर कभी न सोता है।

बसता वह कहीं पहाड़ों में,

शैलों की फटी दरारों में।

होकर समृद्धि-सुख के अधीन, मानव होता नित तपः क्षीण,

सत्ता, किरीट, मणिमय आसन करते मनुष्य का तेज हरण।

नर विभव – हेतु ललचाता है,

पर, वही मनुज को खाता है।

चाँदनी, पुष्प – छाया में पल, नर गले बने सुमधुर, कोमल,

पर, अमृत क्लेश का पिये बिना, आतप, अंघड़ में जिये बिना;

वह पुरुष नहीं कहला सकता,

विघ्नों को नहीं हिला सकता।

उड़ते जो झंझावातों में, पीते जो वारि प्रपातों में,

सारा आकाश अयन जिनका, विषघर भुजंग भोजन जिनका;

वे ही फणिबंध छुड़ाते है,

धरती का हृदय जुड़ाते हैं।

मैं गरुड़, कृष्ण ! मैं पक्षिराज, सिर पर न चाहिए मुझे ताज,

दुर्योधन पर है विपद घोर, सकता न किसी विध उसे छोड़ ।

रणखेत पाटना है मुझको,

अहिपाश काटना है मुझको।

कर्ण का जीवन-दर्शन – व्याख्या सहित

01

वैभव – विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं,

बस यहीं चाहता हूँ केवल, दान की देव सरिता निर्मल,

करतल से झरती रहे सदा,

निर्धन को भरती रहे सदा।

व्याख्या – कर्ण और श्रीकृष्ण के संवाद का यह अंश जीवन की व्यापक सच्चाई को लयात्मक तरीके से प्रस्तुत करता है। कर्ण अपनी उच्च वाणी से यह उद्घोष करते हैं कि मुझे धन, मान, वैभव, विलास की कोई भी चाह नहीं है। मुझे इसकी तनिक भी परवाह नहीं है। मैं तो केवल इतना ही चाहता हूँ कि मैं दान की निर्मल सरिता को सदा प्रवाहित कर सकूँ अर्थात् मैं सदा इस योग्य रहूँ कि दानादि कर्म में सदैव प्रवृत्त रहूँ। मेरे हाथों से दान कर्म निर्बाध रूप से होता रहे और जरूरमंदों की ज़रूरतें भी पूरी होती रहें।

02

तुच्छ है, राज्य क्या है केशव? पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?

चिन्ता प्रभूत, अत्यल्प हास, कुछ चाकचिक्य, कुछ क्षण विलास।

पर, वह भी यही गँवाना है,

कुछ साथ नहीं ले जाना है।

व्याख्या – आगे कर्ण कृष्ण से कहते हैं कि हे केशव! ये राज्य लिप्सा अति तुच्छ चाह है। अगर गहराई से इस विषय पर विचार किया जाए तो राज्य, वैभव आदि पाकर मनुष्य कुछ क्षणों के लिए तो भौतिक सुख पा सकता है, पर यह शाश्वत नहीं है। यह हमें कभी भी आध्यात्मिक सुख नहीं देता। मृत्यु के बाद सब यहीं रह जाना है फिर भी लोग धन-ऐश्वर्य को बटोरने की स्पृहा में लगे हुए हैं जो निरी मूर्खता है।   

03

मुझ से मनुष्य जो होते हैं, कंचन का भार न ढोते हैं,

पाते हैं, धन बिखराने को लाते हैं रतन लुटाने को।

जग से न कभी कुछ लेते हैं,

दान ही हृदय का देते हैं।

व्याख्या – कर्ण कहते हैं कि मेरे जैसे लोग जो होते हैं वे कभी भी सोने (स्वर्ण) का भार नहीं ढोते अर्थात् धन एकत्रित करने की चाह नहीं रखते बल्कि जो भी धन हमारे पास होता है उसे भी जरूरमंदों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए दान में दे देते हैं। हम जैसे लोग इस दुनिया से कुछ लेते नहीं बल्कि इस दुनिया को अपने हृदय का दान अर्थात् अनमोल वाणी का दान भी देते रहते हैं।

04

प्रासादों के कनकाभ शिखर होते कबूतरों के ही घर,

महलों में गरुड़ न होता है, कंचन पर कभी न सोता है।

बसता वह कहीं पहाड़ों में,

शैलों की फटी दरारों में।

व्याख्या – कर्ण कहते हैं कि बड़े-बड़े स्वर्ण महलों में तो कमजोर कबूतरों का ही निवास होता है। गरुड़ न तो महलों में रहता है और न ही स्वर्ण पर सोता है वह तो पहाड़ों के शिखरों की फटी दरारों में आराम से रहता है। 

05

होकर समृद्धि-सुख के अधीन, मानव होता नित तपः क्षीण,

सत्ता, किरीट, मणिमय आसन करते मनुष्य का तेज हरण।

नर विभव – हेतु ललचाता है,

पर, वही मनुज को खाता है।

व्याख्या – कर्ण का यह दृढ़ विश्वास है कि जो व्यक्ति सदा सुख-समृद्धि में रहता है उसका शरीर और उसकी मानसिकता प्रतिपल क्षीण अर्थात् कमजोर होती जाती है। सत्ता का लालच, राजमुकुट का लोभ और सिंहासन की चाहत उसके तेज का हरण कर लेती है। यदि सच पूछा जाए तो जिस वैभव के लिए मनुष्य जीवन भर ललचाता रहता है वही मनुष्य को मानवता के पथ से पथभ्रष्ट कर देती है।

 

06

चाँदनी, पुष्प – छाया में पल, नर गले बने सुमधुर, कोमल,

पर, अमृत क्लेश का पिये बिना, आतप, अंघड़ में जिये बिना;

वह पुरुष नहीं कहला सकता,

विघ्नों को नहीं हिला सकता।

व्याख्या – कर्ण का विश्वास है कि जो व्यक्ति चाँद की शीतल छाया में रहता है, पुष्पों की कोमलता के संपर्क में बढ़ता है, ऐसे नर सुमधुर और सुकुमार होते हैं। पर जो नर सूर्य की प्रचंड गर्मी को सहता है, आँधी-तूफानों को झेलता है, क्लेश की भावना से मुक्त रहता है, वास्तव में वही मनुष्य कहलाता है। पहले वाली स्थिति के मनुष्य न ही मनुष्य कहला सकते हैं और न ही किसी विघ्नों को दूर कर सकते हैं।

07

उड़ते जो झंझावातों में, पीते जो वारि प्रपातों में,

सारा आकाश अयन जिनका, विषघर भुजंग भोजन जिनका;

वे ही फणिबंध छुड़ाते है,

धरती का हृदय जुड़ाते हैं।

व्याख्या – कर्ण कहते हैं कि जो मनुष्य आँधी-तूफानों में विचरण करते हैं, प्यास लगने पर झरने का पानी पीते हैं, जिनके लिए सारा आकाश ही मार्ग सदृश हो, जो विषैले साँपों को भोजन के रूप में उदरस्थ करते हों, वास्तव में वे ही जीवन रूपी फणिबंध अर्थात् मोह-माया के बंधन को काट पाते हैं और धरती से अपना हृदय जोड़ पाते हैं।

08

मैं गरुड़, कृष्ण ! मैं पक्षिराज, सिर पर न चाहिए मुझे ताज,

दुर्योधन पर है विपद घोर, सकता न किसी विध उसे छोड़ ।

रणखेत पाटना है मुझको,

अहिपाश काटना है मुझको।

व्याख्या – अपने अंतिम संवाद में कर्ण श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे कृष्ण! मैं गरुड़ हूँ जिसे पक्षिराज कहा जाता है। जिस प्रकार पक्षिराज गरुड़ को किसी ताज की ज़रूरत नहीं उसी तरह मुझे भी किसी मुकुट या ताज की ज़रूरत नहीं। वर्तमान, मुझे अपने परम मित्र दुर्योधन का साथ देना है। उस पर घोर विपत्ति आई हुई है। उसे इस विपद स्थिति में मैं कदापि नहीं छोड़ सकता। मुझे अभी युद्ध करना है, रणक्षेत्र को साफ करना है और नागपाश अर्थात् दुर्योधन जिन की बुरी शक्तियों से घिर गया है उसे नष्ट करना है।

विशेष –

यह पूरी कविता त्याग, परोपकार, संघर्ष और पुरुषार्थ का महान संदेश देती है। गरुड़ के माध्यम से रामधारी सिंह दिनकर यह बताते हैं कि—

वैभव और विलास में असली सुख नहीं है।

सत्ता और ऐश्वर्य मनुष्य का तेज और शक्ति छीन लेते हैं।

सच्चा पुरुषार्थ कठिनाइयों और संघर्षों से ही जन्म लेता है।

परोपकार ही सच्चे मनुष्य की पहचान है।

गरुड़ जैसे योद्धा सत्ता और सुख-सुविधा के लोभी नहीं होते, बल्कि वे धर्म और सत्य के रक्षक होते हैं।

यह कविता हमें बताती है कि मित्रधर्म निभाना प्रत्येक मित्र का परमधर्म है।  

 

वैभव – धन-दौलत

विलास – सुखोपभोग चाह इच्छा, अभिलाषा

परवाह – चिंता, व्यग्रता

निर्मल – पवित्र, शुद्ध

करतल – हथेली

निर्धन – धनरहित, कंगाल, दरिद्र

विभव – धन, संपत्ति, ऐश्वर्य

प्रभूत – अधिक प्रचूर

अत्यल्प – बहुत थोड़ा

हास – निंदा, उपहास

चाकचिक्य – चमक, चकाचौंध

कंचन – सुवर्ण, सोना

प्रासाद – देवताओं या राजाओं का घर

कनकाभ – स्वर्णिम आभावाले

शैल – पर्वत, पहाड़, चट्टान

दरार – दरज, चीर, फूट

तपःक्षीण – निर्बल

किरीट – मुकुट

तेज – प्रभाव, कान्ति, चैतन्यात्मक ज्योति, चमक

कोमल – मृदुल, सुकुमार

क्लेश – दुःख, कष्ट, वेदना

अमृत – मुक्ति

आतप – धूप, उष्णता, गरमी

अंधड़ – आँधी झंझावात वर्षा सहित तीव्र आँधी

वारि – जल, पानी

प्रपात – पहाड़ या चट्टान का खड़ा किनारा

अयन – गति, चाल, पथ, गमन

विष – गरल, ज़हर

भुजंग – सर्प

विपद – आपत्ति, संकट

धोर – भयंकर, विकराल

पाटना – ढेर लगा देना

अहिपाश – साँप का बंधन, फणिबंध

1. ऊँचे स्वर में पढ़िए और वाक्य में प्रयोग कीजिए :-

अत्यल्प – रमेश के आचरण में अत्यल्प अभिमान भी नहीं है।

चाकचिक्य – आज की दुनिया के लोग चाकचिक्य से प्रभावित हो जाते हैं।

कनकाभ – साधु का मुख कनकाभ-सा प्रतीत हो रहा है।

तपःक्षीण – भिक्षुक का शरीर तपःक्षीण हो चुका है।

क्लेश – हृदय में क्लेश की भावना बुरे विचारों को जन्म देती है।

झंझावात – ज़ोर की झंझावात से दो पेड़ निर्मूल हो गए।

फणिबंध – सर्प फणिबंध से अपने से बड़े शिकार को फँसा लेते हैं।

2. संक्षेप में उत्तर दीजिए :- 

(1) विभव से क्या प्राप्त होता है?

उत्तर – धन, वैभव से केवल क्षणिक सुख प्राप्त होता है।

(2) धन-संपत्ति किसलिए है?

उत्तर – धन-संपत्ति दान करने के लिए है ताकि जरूरतमंदों की ज़रूरतें पूरी हो सके। 

(3) समृद्धि-सुख के अधीन मानव का क्या होता है?

उत्तर – समृद्धि-सुख के अधीन मानव का शरीर क्षीण अर्थात् कमजोर होने के साथ-साथ उसके तेज का भी हरण हो जाता है।

(4) फणिबंध कौन छुड़ाते है?

उत्तर – जो व्यक्ति जीवन में कर्मयोगी होते हैं वे ही फणिबंध अर्थात् सांसारिक मोह-माया के बंधनों को काटते हैं।

3. निम्नलिखित पंक्तियों का भावार्थ लिखिए :-

(1) वैभव – विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं,

बस यहीं चाहता हूँ केवल, दान की देव सरिता निर्मल,

करतल से झरती रहे सदा,

निर्धन को भरती रहे सदा।

उत्तर – कर्ण और श्रीकृष्ण के संवाद का यह अंश जीवन की व्यापक सच्चाई को लयात्मक तरीके से प्रस्तुत करता है। कर्ण अपनी उच्च वाणी से यह उद्घोष करते हैं कि मुझे धन, मान, वैभव, विलास की कोई भी चाह नहीं है। मुझे इसकी तनिक भी परवाह नहीं है। मैं तो केवल इतना ही चाहता हूँ कि मैं दान की निर्मल सरिता को सदा प्रवाहित कर सकूँ अर्थात् मैं सदा इस योग्य रहूँ कि दानादि कर्म में सदैव प्रवृत्त रहूँ। मेरे हाथों से दान कर्म निर्बाध रूप से होता रहे और जरूरमंदों की ज़रूरतें भी पूरी होती रहें।

(2) मैं गरुड़, कृष्ण! मैं पक्षिराज, सिर पर न चाहिए मुझे ताज,

दुर्योधन पर है विपद धोर, सकता न किसी विध उसे छोड़,

रणखेत पाटना है मुझको,

अहिपाश काटना है मुझको।

उत्तर – अपने अंतिम संवाद में कर्ण श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे कृष्ण! मैं गरुड़ हूँ जिसे पक्षिराज कहा जाता है। जिस प्रकार पक्षिराज गरुड़ को किसी ताज की ज़रूरत नहीं उसी तरह मुझे भी किसी मुकुट या ताज की ज़रूरत नहीं। वर्तमान, मुझे अपने परम मित्र दुर्योधन का साथ देना है। उस पर घोर विपत्ति आई हुई है। उसे इस विपद स्थिति में मैं कदापि नहीं छोड़ सकता। मुझे अभी युद्ध करना है, रणक्षेत्र को साफ करना है और नागपाश अर्थात् दुर्योधन जिन की बुरी शक्तियों से घिर गया है उसे नष्ट करना है।

 

4. टिप्पणी लिखिए-

(1) कर्ण की अभिलाषा

उत्तर – कर्ण की बहुत अभिलाषाएँ थीं, जिसमें महान योद्धा बनने की अभिलाषा, समाज में समानता पाने की अभिलाषा, अर्जुन को पराजित करने की अभिलाषा, दानवीर कहलाने की अभिलाषा और सच्चे मित्र धर्म का पालन करने की अभिलाषा मुख्य थी। कर्ण की ये सारी अभिलाषाएँ पूर्ण तो हुई पर अर्जुन को पराजित करने की अभिलाषा पूरी न हो सकी। लेकिन सच्चे मित्र धर्म का पालन करने की अभिलाषा बखूबी पूरी हुई।  वह अपने परम मित्र दुर्योधन को समस्या से मुक्त करने की हर संभव कोशिश करता है। और इस हेतु वह अपने प्राणों का उत्सर्ग तक कर देता है।

(2) कर्ण का मित्रधर्म

उत्तर – कर्म का मित्रधर्म अनुकरणीय है। अपने मित्र की रक्षा करने के लिए वह अपने प्राणों का भी उत्सर्ग कर देता है। हालाँकि उसे यह ज्ञात था कि कुछ अंशों में उसका मित्र दुर्योधन अनीति कर रहा है फिर भी उसने अपनी मित्रता निभाते हुए अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक दुर्योधन की सहायता की। कर्ण ने कृष्ण और कुंती से आग्रह किया कि वे पांडवों का साथ दें, उसे भी अपनी मित्रता के कारण ठुकरा दिया। कर्ण का मित्रधर्म यही परिभाषित करता है कि सच्चा मित्र वही होता है जो सुख-दुख में साथ निभाए, भले ही परिस्थितियाँ विपरीत हों।

5. विरोधी शब्द लिखिए :-

निर्मल – मलिन

निर्धन – धनी

प्रभूत – अत्यल्प

कोमल – कठोर

अमृत – विष

6. निम्नलिखित शब्दों के समानार्थी शब्द कोष्ठक में से ढूँढकर उन शब्दों का वाक्य में प्रयोग कीजिए :-

सुखोपभोग, हथेली, प्रचूर, दरज, आँधी, पानी, गरल चट्टान

प्र

भू

सं

अं

रा

वि

ला

नि

शै

वा

वि

रि

उत्तर – सुखोपभोग – विलास

हथेली – करतल

प्रचूर – प्रभूत

दरज – दरार

आँधी – अंधड़

पानी – वारि

गरल – विष

चट्टान – शैल

7. अंदाज अपना-अपना : अपना मत स्पष्ट कीजिए :-

(1) यदि कोई जरूरतमंद इन्सान आपसे मदद माँगे तो आप क्या करते?

उत्तर – यदि कोई जरूरतमंद इन्सान मुझसे मदद माँगे तो मैं निश्चित तौर पर अपने तन, मन और धन के सामर्थ्य के अनुसार उसकी मदद करूँगा।

(2) आपको पता चले कि आपका दोस्त संकट में फँसा हुआ है तो आप क्या करेंगे?

उत्तर – यदि मुझे पता चले कि मेरा दोस्त संकट में फँसा हुआ है तो मैं उसके बिना कुछ कहे ही उसकी सहायता के लिए तत्काल पहुँच जाऊँगा और उसकी मदद करूँगा क्योंकि मेरा यही मानना है कि सच्चे मित्र वही होते हैं जो समस्या के समय साथ खड़े मिलें।

(3) आपके पास जरूरत से ज्यादा धन-संपत्ति है, तो क्या करेंगे?

उत्तर – यदि मेरे पास जरूरत से ज्यादा धन-संपत्ति होती है तो, निश्चित रूप से उसे मैं समाज के कल्याण के लिए नियोजित करूँगा। मेरे ऐसा करने के पीछे बहुत बड़ा हाथ इस कविता का ही होगा क्योंकि इस कविता को पढ़ने और समझने के बाद मैं यह जान पाया कि अपने साथ केवल अपने सुकर्म ही जाएँगे और मेरे मृत्यु के बाद मैं अपनी संपत्ति या तो छोड़कर जाऊँगा या दान देकर जाऊँगा साथ ले जाने की कोई व्यवस्था है ही नहीं।

 

प्रकल्प कार्य (Project Work) :

छात्रों से निर्देशित विषय पर प्रकल्प कार्य करवाइए।

(1) भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण योगदान देनेवाली व्यक्तियों की जानकारी प्राप्त कीजिए।

उत्तर – सहायतार्थ

नीचे विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले महान व्यक्तियों की जानकारी दी गई है:

  1. राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम

महात्मा गांधी – अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता का नेतृत्व किया।

डॉ. भीमराव अंबेडकर – भारतीय संविधान के निर्माता और समाज सुधारक।

सरदार वल्लभभाई पटेल – भारत के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले “लौह पुरुष”।

नेल्सन मंडेला – दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ संघर्ष करने वाले महान नेता।

  1. विज्ञान और प्रौद्योगिकी

सी. वी. रमन – भौतिकी में “रमन प्रभाव” की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता।

ए. पी. जे. अब्दुल कलाम – मिसाइल मैन और भारत के पूर्व राष्ट्रपति।

आइजैक न्यूटन – गुरुत्वाकर्षण और गति के नियमों की खोज करने वाले वैज्ञानिक।

अल्बर्ट आइंस्टीन – सापेक्षता का सिद्धांत प्रस्तुत करने वाले भौतिक विज्ञानी।

  1. साहित्य और कला

रवींद्रनाथ टैगोर – नोबेल पुरस्कार विजेता, “गुरुदेव” और “जन गण मन” के रचयिता।

मुंशी प्रेमचंद – हिंदी और उर्दू साहित्य के महान उपन्यासकार।

विलियम शेक्सपीयर – विश्व प्रसिद्ध अंग्रेजी नाटककार।

सुभद्रा कुमारी चौहान – प्रसिद्ध हिंदी कवयित्री, “झाँसी की रानी” कविता की रचयिता।

  1. खेल

सचिन तेंदुलकर – क्रिकेट के महानतम बल्लेबाजों में से एक।

एम. एस. धोनी – भारतीय क्रिकेट टीम के सफलतम कप्तानों में से एक।

मैरी कॉम – विश्व प्रसिद्ध भारतीय महिला बॉक्सर।

उसैन बोल्ट – दुनिया के सबसे तेज धावक।

  1. संगीत और नृत्य

लता मंगेशकर – ‘स्वर कोकिला’, भारतीय संगीत की दिग्गज गायिका।

पंडित रवि शंकर – विश्व प्रसिद्ध सितार वादक।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान – शहनाई वादन में योगदान देने वाले महान कलाकार।

बिरजू महाराज – कथक नृत्य के महान गुरु।

  1. सामाजिक सुधार और परोपकार

मदर टेरेसा – गरीबों और बीमारों की सेवा में जीवन समर्पित करने वाली संत।

राजा राम मोहन राय – समाज सुधारक, जिन्होंने सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन किया।

स्वामी विवेकानंद – भारतीय आध्यात्मिक गुरु और युवा प्रेरणा स्रोत।

डॉ. वरुण गांधी – पर्यावरण और समाज सेवा में योगदान देने वाले नेता।

  1. व्यापार और उद्योग

धीरूभाई अंबानी – रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक।

रतन टाटा – टाटा समूह के पूर्व अध्यक्ष, परोपकारी उद्योगपति।

मुकेश अंबानी – रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के अध्यक्ष, भारत के सबसे अमीर व्यक्ति।

स्टीव जॉब्स – एप्पल कंपनी के सह-संस्थापक।

  1. चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवा

डॉ. देवी शेट्टी – भारत के प्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ।

डॉ. जोनास साल्क – पोलियो वैक्सीन के आविष्कारक।

फ्लोरेंस नाइटिंगेल – आधुनिक नर्सिंग की जननी।

डॉ. पी. के. वारियर – भारतीय आयुर्वेदाचार्य।

उपरोक्त महान व्यक्तियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में असाधारण योगदान दिया है और समाज को प्रेरित किया है।

 

(2) प्रसिद्ध दानवीरों के जीवन-प्रसंगों का संकलन कीजिए।

उत्तर – सहायतार्थ

दानवीर वे होते हैं जो निःस्वार्थ भाव से अपना धन, समय, और संसाधन दूसरों की सेवा में लगाते हैं। भारत और विश्व इतिहास में कई ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपनी दानशीलता से समाज को प्रेरित किया। यहाँ कुछ प्रमुख दानवीरों के जीवन-प्रसंग प्रस्तुत किए जा रहे हैं –

  1. महाराजा हर्षवर्धन (7वीं शताब्दी)

दान का अमर उदाहरण

महाराजा हर्षवर्धन भारतीय इतिहास के सबसे बड़े दानवीरों में से एक थे। कहा जाता है कि वे हर पाँचवें वर्ष प्रयाग (इलाहाबाद) में एक विशाल दान उत्सव का आयोजन करते थे, जहाँ वे अपनी पूरी संपत्ति और राज्य के धन को दान कर देते थे। इस उत्सव के बाद वे स्वयं केवल एक सफ़ेद वस्त्र धारण कर आगे का जीवन व्यतीत करते थे।

  1. राजा कर्ण (महाभारत काल)

दानवीरता का सर्वोच्च उदाहरण

महाभारत के अनुसार, राजा कर्ण सूर्य पुत्र थे और अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध थे। वे कभी किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाते थे। युद्ध के समय जब भगवान इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण कर उनसे स्वर्ण कवच और कुंडल माँगने आए, तब भी उन्होंने बिना संकोच उन्हें दान कर दिया, भले ही यह उनकी रक्षा के लिए आवश्यक था। उनकी इस निःस्वार्थ दानशीलता के कारण उन्हें ‘दानवीर कर्ण’ कहा जाता है।

  1. राजा भोज (11वीं शताब्दी)

विद्या और धर्म का संरक्षण

राजा भोज मालवा (मध्य प्रदेश) के महान शासक और विद्या प्रेमी थे। वे हमेशा विद्वानों, कवियों और ब्राह्मणों को खुले दिल से दान देते थे। उन्होंने कई विद्यालयों और मंदिरों का निर्माण कराया और ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए धन दान किया। उनकी उदारता को दर्शाने के लिए एक प्रसिद्ध कहावत है—

“कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली!”

  1. संत एकनाथ (16वीं शताब्दी)

जल दान और भूखों की सेवा

संत एकनाथ महाराष्ट्र के महान संतों में से एक थे। एक बार जब उन्होंने देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति नदी के किनारे प्यास से तड़प रहा है, तो उन्होंने अपने हाथ से पानी भर-भरकर उसे पिलाया। जब उनके शिष्यों ने कहा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो उन्होंने उत्तर दिया— “यह भगवान की सेवा है!”

वे भूखों को भोजन कराना और ज़रूरतमंदों की मदद करना अपना सबसे बड़ा कर्तव्य मानते थे।

  1. भामाशाह (16वीं शताब्दी)

राणा प्रताप के लिए सर्वस्व दान

भामाशाह मेवाड़ के एक प्रसिद्ध व्यापारी और दानवीर थे। जब महाराणा प्रताप मुगलों से युद्ध कर रहे थे और आर्थिक संकट में थे, तब भामाशाह ने अपनी पूरी संपत्ति दान में दे दी। उनके इस योगदान से राणा प्रताप ने फिर से अपनी सेना संगठित की और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।

  1. जमशेदजी टाटा (19वीं-20वीं शताब्दी)

आधुनिक भारत के दानवीर

भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति जमशेदजी टाटा ने न केवल उद्योगों को बढ़ावा दिया, बल्कि शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में भी महान योगदान दिया। उन्होंने टाटा स्टील, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल जैसी कई संस्थाओं की स्थापना की, जो आज भी लाखों लोगों को लाभ पहुँचा रही हैं।

  1. मदर टेरेसा (20वीं शताब्दी)

गरीबों और बीमारों की माँ

मदर टेरेसा ने अपना पूरा जीवन गरीबों, अनाथों और बीमारों की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने “मिशनरीज ऑफ चैरिटी” नामक संस्था की स्थापना की, जिसने हजारों असहाय लोगों को सहारा दिया। वे कहती थीं— “अगर आप सौ लोगों की मदद नहीं कर सकते, तो कम से कम एक की तो करें।”

  1. रतन टाटा (21वीं शताब्दी)

भारत के आधुनिक दानवीर

रतन टाटा भारतीय उद्योगपति हैं, लेकिन उनकी दानशीलता भी असाधारण है। वे अपनी कंपनी के मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबों की मदद में लगाते हैं। उन्होंने COVID-19 महामारी के दौरान भी बड़े स्तर पर दान दिया। उनकी परोपकार की भावना उन्हें भारत के सबसे बड़े दानदाताओं में शामिल करती है।

निष्कर्ष

यह सभी महान व्यक्तित्व हमें सिखाते हैं कि दान केवल धन का नहीं, बल्कि सेवा, परिश्रम, और प्रेम का भी हो सकता है। समाज को बेहतर बनाने के लिए त्याग और परोपकार आवश्यक हैं। यदि हम भी इनके आदर्शों को अपनाएँ, तो हम समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। “दान से बढ़कर कोई धर्म नहीं!”

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