Gujrat State Board, the Best Hindi Solutions, Class IX, Meri Beemari Shyama Ne Lee, Harivandhrai Bacchan, मेरी बीमारी श्यामा ने ली (आत्मकथा अंश) हरिवंशराय बच्चन

(जन्म सन् 1907 ई. निधन सन् 2003 ई.)

हिंदी साहित्य में हरिवंशराय बच्चन का नाम उनकी एकमात्र कृति से ही अमर हो गया। हालां कि विपुल मात्रा में साहित्यसर्जन किया है। छायावादोत्तर काल के कवियों में ‘बच्चन’ एक विशिष्ठ सर्जक रहे हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी के प्राध्यापक के रूप में, तत्पश्चात् दिल्ली में सरकारी सेवा, आकाशवाणी और दो-एक अन्य स्थलों पर आपने सेवाएँ दी।

भारत के एक विशिष्ट कवि के रूप में राष्ट्रपतिजी ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया था। प्रारंभिक नौकरी पायोनियर प्रेस में की थी।

‘मधुशाला’ के कवि के रूप में बच्चनजी को इतनी शोहरत मिली कि उनकी मधुशाला का सभा सम्मेलनों, कवि-गोष्ठि आदि में होता था। लोग बड़ी संख्या में उमड़ते थे।

केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से जोहन पेट्स नामक कवि के समग्र वाङ्मय पर आपने पीएच. डी. की है। केन्द्रीय मंत्रालय दिल्ली में आपने हिंदी – विशेषज्ञ के रूप में अप्रतिम कार्य किया है। आपको कई पुरस्कार जैसे ‘सोवियत लेन्ड पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और ‘पद्म विभूषण’ आदि प्राप्त हुए हैं।

‘तीर पर कैसे रूकूँ मैं आज, लहरों का निमंत्रण।’

और

‘इस पार प्रिये तुम हो मधू है, उस पार न जाने क्या होगा?’

जैसी काव्य पंक्तियाँ आज भी लोगों की जबान पर है।

मधुशाला, निशा- निमंत्रण, सप्त रंगिनी, मिलन- यामिनी, आकुल अंतर और एकांत संगीत नामक इनके सुप्रसिद्ध काव्यसंग्रह हैं. तो ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दश द्वार से सोपान तक’ शीर्षक से चार खंड़ो में लिखी आपकी आत्मकथा है। ‘मेरी बीमारी श्यामा ने ली’ आत्मकथांश है जो ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ?’ में से लिया गया है। बच्चनजी की प्रथम पत्नी का नाम श्यामा था, जो सही अर्थ में एक आदर्श जीवनसंगिनी थी। श्यामा की बीमारी, उसकी खुद की न होकर बच्चनजी की थी। जो सेवा करते करते ले ली गयी थी।’ बच्चनजी का यह मंतव्य श्यामा की पति भक्ति, कर्तव्य परायणता और निष्ठा का प्रतीक है।

प्रस्तुत आत्मकथांश में श्यामा की बीमारी का दर्दनाक और कारुण्य-सभर निरुपण मिलता है, तो दूसरी ओर कवि की भावुकता और संवेदनशीलता का प्रगदीकरण मिलता है। (“ क्या भूलूँ क्या याद करूँ” श्री हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा है। हिंदी के इस सुप्रसिद्ध कवि ने अपने संस्मरण बड़े ही रोचक ढंग से आलेखित किये हैं। कवि अपने जीवन की घटनाओं के साथ उस युग का चित्र भी दे देता है। प्रस्तुत अंश” क्या भूलूँ क्या याद करूँ” से लिया गया है। इसका यह शीर्षक ‘मेरी बीमारी श्यामा ने ली’ विषयवस्तु का भी निर्देश करता है।)

मेरी बीमारी श्यामा ने ली

मैं अपनी बीमारी को दुलरानेवालों में न था। सच कहूँ तो मैं अपनी बीमारियों के प्रति प्रायः निर्भय था। शायद मैंने गांधीजी के ही लेख में कहीं पढ़ा था कि बीमार होना अपराध है। हमें जो शरीर दिया गया है उसे हम स्वस्थ न रखें तो हम अपराधी तो हैं हीं। मैं इस तर्क को कुछ और आगे ले गया था। अपराधी को दंड देना चाहिए। मुझे जब कभी छोटी-मोटी बीमारी होती, जुकाम, बुखार, खाँसी, सिरदर्द तो मैं खाट पर न लेटता; और भी अपने से काम लेता। मुझे भरे भुट्ट बुखार में अपनी रात की ट्यूशनों पर जाने की याद है। बुखार की गर्मी और तेजी में तो मैं और जोश से पढ़ाता – मज़दूरी करके रोटी कमानेवाले को बीमार पड़ने का क्या अधिकार है, बीमारी अमीरों की हरमजदगी हैं, गरीबों को उसे अपने पीछे न लगाना चाहिए- लिखने में तो ऊँचा बुखार मुझे सब तरह से सहायक, प्रेरक और प्रोत्साहक लगता एक तरह की आग, जिससे मेरी अनुभूतियों में ताप आता, जिसमें गल- पिघलकर मेरा हृदय ढलता; एक तरह की भट्ठी जो मेरे विचार, भाव, कल्पनाओं को उबाल देकर उच्छलित करती। यह तो मैं नहीं कहूँगा कि बुखार में मैं अदबदा कर लिखता था, पर अगर मैं लिखना चाहता था तो बुखार मेरे लिए कोई बाधा नहीं बन सकता था। हल्के बुखार में तो मेरे सब काम हस्बमामूल होते रहते थे। कोई मेरा बदन छूकर कभी कहता था कि तुम्हें तो बुखार हैं तो मैं पद से जवाब देता था कि हाँ, बुखार है और मैं भी हूँ। शायद किपलिंग ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कभी-कभी उसे बुखार में भी काम करना पड़ता था और जब वह बुखार में होता था तो और अच्छी कहानियाँ लिखता था। बुखार में कम लिखने की मुझे याद नहीं, वह कैसा बन पड़ा, इसका निर्णय मैं न देना चाहूँगा; प्रसंगवश मुझे याद आ गया है कि अपनी ‘दो चट्टानें’ की दो सबसे बड़ी कविताएँ ‘सात्र के नोबल पुरस्कार ठुकरा देने पर’ और ‘दो चट्टान’ अथवा ‘सिसिफ़स बरक्स हनुमान’ मैंने प्लूरिसी में पड़े पड़े लिखीं थीं। बहरहाल, जब मैं अपनी जवानी पर था, बीमारी मुझे पराजित न करती थी, मैं ही अपनी ज़िद से बीमारी को पराजित कर देता था- बुखार सुखार आखिर कितने दिन चलता। विश्राम तिवारी कहा करते थे, “मार के पीछे भूत भागे।” मैंने अपने प्रयोग से सिद्ध किया था, काम के पीछे बुखार भागे।”

यह बुखार मामूली न था। इसका संबंध उस तूफ़ान से था जो पिछले नौ महीनों से मुझे झकझोर रहा था और जो शांत होने से पूर्व सबसे अधिक विध्वंसक झटका मुझको दे गया था। स्कूल बंद था। ट्यूशनों पर मैं जाता था। उनकी आमदनी की मुझे जरूरत थी। किताबों की बिक्री अभी नियमित नहीं थी। क़र्ज सिर पर चढ़े थे। बुखार दस दिन चला, बीस दिन चला, महीनेभर चला, दो महीने चला, जुलाई आ गई। अब बुखार के साथ ट्यूशन पर ही जाना न होता, दिनभर स्कूल में पढ़ाना भी पड़ता। बुखार का नमूना वही, सुबह बिलकुल नहीं, शाम को 1010– 1020 के बीच कमज़ोरी दिन-दिन बढ़ती हुई, कभी-कभी धीमी खाँसी। दवा, शौकिया दवाबाँटू एक होमियोपैथ कर रहा था। कभी-कभी सोचता, क्या मुझे तपेदिक हो गया है? हो गया हो तो एलोपैथी का इलाज तो अपने बूते के बाहर है। क्या उस समय मेरी जिह्वा पर सरस्वती बैठी थी जब मैंने कहा था कि श्यामा का बुखार मैं लेने जा रहा हूँ? बैठी हों तो कितना अच्छा है! क्या मैं बीमार हूँ इसलिए श्यामा स्वस्थ है जिसने पिछले छह वर्षों से इन महीनों में ज्वर-मुक्ति नहीं जानी है? पर श्यामा को मेरी बीमारी भीतर ही भीतर खाये जा रही थी, उसने अपने इच्छाबल से जैसे अपने को स्वस्थ कर लिया था कि वह भी कहीं मेरी चिंता न बन जाए। उसके अतिरिक्त मेरी बीमारी का शायद किसी को पता भी न था, क्योंकि सारे काम तो मैं सामान्य रूप से किये ही जाता था; गर्मी में तो सभी थोड़े बहुत दुबले हो जाते हैं। एक दिन उसने मुझसे कहा कि मैं डॉ. बी. के. मुखर्जी से अपनी परीक्षा कराऊँ। मैंने टालमटूल की तो उसने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया, मैं जब तक अपने को डॉक्टर को न दिखलाऊँगा वह खाना नहीं खाएगी। ब्रह्मास्त्र तो मानना ही था। डॉ. मुखर्जी को भय था कि मुझ पर क्षय का आक्रमण हुआ है। नुस्खा उन्होंने लिख दिया और कुछ दिन चिंतामुक्त होकर पूरी तरह आराम करने को कहा। नुस्खा मुझे मौत का परवाना लगा – क्या मेरी विदा का समय आ गया? क्या इतने ही दिनों के लिए आया था? इतना ही गाने, गुनगुनाने, केवल इतना श्रम संघर्ष करने, इतने दुःख- संकट उठाने? – ‘स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी, बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन – मधुशाला।’ क्या मैंने अपनी भविष्यवाणी स्वयं कर दी थी? सबसे मर्मवेधी प्रश्न था- क्या श्यामा के भाग्य में वैधव्य भी लिखा है?

मरने से मुझे डर नहीं था; वह मुझे कठिन भी नहीं लगा; कठिन लगा मरने के पहले जीना। पूरे आराम के अर्थ होंगे ट्यूशनें छोड़ दूँ, स्कूल से छुट्टी ले लूँ- ज्यादा लूँ तो बगैर तनख्वाह के लेने को तैयार हूँ, फिर घर का खर्च कैसे चलेगा, शालिग्राम केवल अपनी तनख़्वाह के बल पर घर नहीं चला सकते; कल उनकी बदली हो सकती है, तब वे एक पैसा भी घर भेजने की स्थिति में न होंगे; महँगी – महँगी दवाएँ कहाँ से आएँगी, किताबों से आमदनी अनियमित और अनिश्चित है, कर्ज भी अदा करने को कम नहीं है।

श्यामा ने मेरी बीमारी सुनी तो काँप उठी, पर तुरत सँभल भी गई, दृढ़ भी हो गई, जैसे उसने पलभर में अनुभव कर लिया कि उसका काँपना मैं सहन नहीं कर सकूँगा।

इस खबर से मेरे माता-पिता को तो लकवा – सा मार गया। पिताजी धैर्यवान् व्यक्ति थे, उन्होंने मुझसे कहा, ‘घबराओ नहीं, हम घर बेचकर तुम्हारा इलाज करेंगे।”

शालिग्राम असमर्थता की एक उसाँस लेकर रह गए।

मैंने कुछ दिनों के लिए ट्यूशन और स्कूल से छुट्टी ले ली। किताबों की बिक्री से कुछ रुपये पड़े थे, उनसे दवाएँ मँगा लीं और चारपाई पर लेट गया। श्यामा की सेवा साकार हो गई।

डॉक्टर ने निश्चिंत होकर आराम लेने के लिए कहा था। जब बहुत कुछ करने को रहता था चिंता के लिए समय ही कहाँ था, अब तो चिंता ही चिंता करने को थी। विशेष चिंता भी मुझे सिर पर चढ़े क़र्ज की। मेरा इलाज हो या न हो, पर क़र्ज की किस्तें तो जानी ही चाहिए, उसकी नियमित अदायगी के साथ मेरी साख जुड़ी थी, उसका जाना मेरे मरने से पहले ही मेरी मौत होगी।

श्यामा के लिए मैं पारदर्शी दर्पण था। उसने पूछा, “किसी बात से चिंतित हो? चिंता ही खाती रहेगी तो दवा क्या लाभ पहुँचाएगी?”

मैंने कहा,“ट्रैक्ट सोसायटी के मुझ पर 400, (क़र्ज हैं, करीब 100) अन्य मित्रों के।”

उसने जो उत्तर दिया उससे मैं चौंक पड़ा और सहसा उठकर उसे घूरकर देखने लगा, जैसे श्यामा को एक बार फिर से पहचानने की जरूरत हो।

उसने कहा था, “क़र्ज तो मैं तुम्हारे मरने के बाद भी उतार दूँगी। तुम इसकी चिंता छोड़ो।’

मैं सोचने लगा, श्यामा ने वज्र ही अपनी छाती पर रखकर यह वाक्य कहा होगा। मुझे चिंतामुक्त रखने को वह क्या नहीं कर सकती थी।

मरने के लिए जो मैंने अपने आप को छोड़ दिया था, वह मुझे एकदम गलत लगा। मुझे अपने लिए नहीं तो श्यामा के लिए जीने का संघर्ष करना चाहिए। श्यामा के लिए मैंने जीवन में कुछ नहीं किया, कभी करने के योग्य नहीं रहा। अब यदि मैं उसे ऐसी स्थिति में छोड़ जाऊँ कि वह मेरे मरने पर मेरा क़र्ज उतारने की चिंता करे तो मुझ सा जघन्य अपराधी कौन होगा ! नहीं, मैं श्यामा के लिए चिंताएँ नहीं छोड़ जाऊँगा, जीने का रास्ता खोजूँगा, जीकर अपनी चिंताएँ समाप्त करूँगा। एक रात जैसे मेरे कानों में किसी ने कहा, “एक रास्ता अब भी है।”

पंद्रह दिन के ही इलाज में अपना बटुआ खाली हो गया था। मैं कदापि नहीं चाहता था कि पिताजी घर को हाथ लगाएँ। अपनी वृद्धावस्था में शांति से बैठने को चाहे उनको भूखे नंगे ही बैठना पड़े-उन्होंने एक शरणस्थल बनाया था। मैं उससे उन्हें वंचित करने का कारण नहीं बनना चाहता था। पर यह भी नियति का एक व्यंग्य है. कि मेरे पिता-माता, दोनों में से किसी को अपनी छत के नीचे अपनी अंतिम श्वासें छोड़ने का योग नहीं बना था- ‘ना जाने राम कहाँ लागै माटी’ पर उस समय मैं कैसे जानता।

और एक दिन मुझे वह रास्ता दिखाई दिया, जिस पर अपने बल पर चलकर मैं अपनी चिंताएँ समाप्त कर सकता था। किसी के लिए, विशेषकर श्यामा के लिए, मैं कोई चिंताएँ नहीं छोडूँगा। इस संकल्प ने मुझे दृष्टि भी दी, बल भी दिया।

मैंने डॉ. बी. के. मुखर्जी के पास जाकर कहा,“डाक्टर साहब, आप का इलाज बहुत महँगा है, मेरे पास आपके इलाज के लिए पैसे नहीं…

इसके पूर्व कि मैं कुछ और कहूँ या पूछें उन्होंने अपने बदनाम मुँहफट स्वभाव से कहा,“पैसे नहीं है तो जाओ मरो !”

मुझे जीवन में चुनौती से ही बल मिलता है। वे यदि मुझे सौ बरस जीने का आशीर्वाद भी देते तो शायद जीने के लिए संघर्ष करने का मुझमें इतना बल न आता जितना मैंने उनके ‘जाओ मरो’ शब्दों से संचय किया।

लड़कपन में मेरे पड़ोसी बाबू मुक्ता प्रसाद ने लुई कूने के पानी के इलाज से मुझे परिचित कराया था। मेरी ऐसी बीमारी के लिए ठंडे पानी के टब में बैठकर ‘सिट्ज बाथ’ लेने का विधान था। एलोपैथी में क्षय के रोगी को दूध, घी, मक्खन, अण्डा अधिक से अधिक दिया जाता था। कूने के इलाज में चिकना मना था, सिर्फ कच्ची सब्जियाँ, फल, भीगे चने, गेहूँ आदि पर रहना था। न दवा पर कुछ खर्च, न खुराक पर कुछ खर्च- यही इलाज तो मेरी स्थिति के अनुकूल था और काम-काज साधारण किये जाना था। मैंने बी. के. मुखर्जी का नुस्खा फाड़ डाला और कूने के अनुसार सिट्ज बाथ आरंभ किया, तद्नुसार खुराक आदि रखी। स्कूल भी जाने लगा, केवल रातवाली ट्यूशन छोड़ दी। उसका मोआवजा एक तरह से किताबों की बिक्री से मिल जाता। श्यामा ने मेरा विरोध न किया। जीवनभर मैं जिस रास्ते पर भी चला उसने ‘स्वस्ति पंथा’ कहा और मेरे पीछे चली। मेरी स्नान – चिकित्सा के संबंध में भी वह प्रतिदिन अपनी सेवा सहयोग देती रही, सबसे अधिक अपने इच्छा बल से उसने मुझे अपने रास्ते पर न ठहरने दिया, न पीछे फिरने दिया ‘राह पकड़ तू एक चलाचल पा जाएगा मधुशाला’। लेकिन अपने अड़िग इच्छा-बल से उसने जो सबसे बड़ा सहयोग दिया और जो सबसे बड़ा चमत्कार किया वह यह था कि जितने दिन मेरा इलाज चलता रहा उसने अपने सारे रोगों को जैसे कील दिया और कभी एक उँगली दुःखने की भी शिकायत न की। शायद उसके प्रति इस निश्चिंतता ने मुझे अपने रोग से लड़ने का जितना बल दिया उतना किसी चीज ने नहीं। इस आत्म नियंत्रण, आत्मनिग्रह, इच्छाबल, हठयोग की समझ में नहीं आता उसे क्या नाम दूँ- बड़ी महँगी क़ीमत उसे चुकानी पड़ी। अपने क्षय ज्वर से पूर्णतया मुक्त हो जिस दिन मैंने सामान्य भोजन किया- 15 अप्रैल, 1936 को ठीक उसी दिन वह चारपाई पर गिरी और फिर न उठी 216 दिन बराबर रोग-शय्या पर पड़े रहने के बाद 17 नवम्बर, 1936 को उसने अपना शरीर छोड़ दिया। श्यामा के और अपने विवाहित जीवन के अंतिम अठारह महीनों में मुझे और उसे, दोनों को मौत के साथ संघर्ष करना पड़ा। मेरे संघर्ष में श्यामा ने अपनी इतनी आंतरिक मंगल कामना दी; इतना सहयोग दिया, इतनी अपनी सेवा दी, इतना अपने को दिया, इतना अपनी ओर से मुझे चिंता- विमुक्त रखा कि मैं उस संघर्ष में विजयी हुआ, पर उसके संघर्ष में बहुत मैंने अपनी शुभकामना दी, बहुत सहयोग दिया, बहुत सेवा दी, बहुत अपने को दिया पर वह पराजित हो गई, संभवतः एक मोर्चे की कमज़ोरी से, वह मेरे विषय में मृत्यु की अंतिम साँसों तक चिंता- विमुक्त नहीं हो सकी।

हस्बमामूल – जैसा था वैसा ही।

किपलिंग – एक पाश्चात्य लेखक

प्लूरिसी – दाँतों की बीमारी, फेफड़ों में पानी भर जाना

टाल मटुल – टालना

अदायगी – देना, प्रदान करना

नुस्खा – उपाय

आत्मनिग्रह – आत्मा पर अंकुश

एलोपैथी – अंग्रेजी पद्धति की उपचार पद्धति

नेचरोपथी – प्राकृतिक उपचार पद्धति

मोआवजा – हर्जाना

विमुक्त – स्वतंत्र

1. निम्नलिखित प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-

(1) सामान्यतः लेखक को कौन-कौन सी बीमारियाँ रहती थीं?

उत्तर – सामान्यतः लेखक को सर्दी, जुकाम, लंबे समय तक का बुखार के अतिरिक्त प्लूरिसी और क्षय रोग भी हो गया था।

(2) लेखक एलोपैथी का उपचार क्यों नहीं कराते थे?

उत्तर – लेखक एलोपैथी का उपचार नहीं कराते थे क्योंकि यह अधिक खर्चीला होता है जिसे अपनी कम आय में वे वहन नहीं कर सकते थे।

(3) बच्चनजी को मुक्ता प्रसादजी ने कौन सा उपचार बताया था?

उत्तर – बच्चनजी को मुक्ता प्रसादजी ने लुई कूने के पानी के इलाज के बारे में बताया था जिसमें क्षय रोग की बीमारी के लिए ठंडे पानी के टब में बैठकर ‘सिट्ज बाथ’ लेने का विधान था।

2. सविस्तार उत्तर दीजिए :-

(1) लेखक बीमारी में भी क्यों काम करते थे?

उत्तर – लेखक हरिवंश राय बच्चन बीमारी में भी काम किया करते थे क्योंकि उस समय न ही उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त थी और न ही वे उस बीमारी को गुरुत्व दिया करते थे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि अगर बीमारी में भी वे काम करते रहे तो इसके दो फायदे उन्हें देखने को मिलेंगे। पहला तो यह कि उनकी रचना और भी बेहतरीन होगी और दूसरा यह कि बीमारी में भी काम करने से बीमारी जल्दी ही भाग जाती है।

(2) लेखक की बीमारी सुनकर श्यामा काँपकर तुरंत क्यों संभल गई?

उत्तर – लेखक की बीमारी सुनकर श्यामा काँपकर तुरंत संभल गई क्योंकि वह एक समझदार महिला थी। अपने पति की बीमारी का दुखद समाचार उन्हें पल-भर के लिए तो झकझोर देता है पर दूसरे ही पल उसे यह एहसास होता है कि अब मुझे तो मजबूत रहना ही होगा और इनकी बीमारी को ठीक करने में इनकी सेवा-सुश्रुषा करनी ही होगी। उन्हें यह भी महसूस हुआ कि अगर मैं ही डर जाऊँगी तो इन्हें बहुत बुरा लगेगा जो उन्हें किसी भी कीमत पर स्वीकार न था।

(3) लेखक को ऐसा क्यों लगा कि उन्हें श्यामा के लिए जीने का संघर्ष करना चाहिए?

उत्तर – ट्रैक्ट सोसायटी का लेखक पर 400 रुपए का कर्ज था। इसी चिंता में वे रहते थे जिसे श्यामा ने भाँप लिया था। इस पर एक दिन श्यामा ने हृदय पर वज्र रखकर यह कह दिया कि वह कर्जा तो मैं तुम्हारे मरने के बाद भी चुका दूँगी। उसके इस कथन से लेखक अंदर से विचलित हो गए और सोचने लगे कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी पत्नी श्यामा मेरा कर्ज चुकाएगी। यह तो मेरे लिए किसी जघन्य अपराध से कम नहीं होगा। यही सोचकर लेखक को ऐसा लगा कि उन्हें श्यामा के लिए जीने का संघर्ष करना चाहिए।

(4) बच्चनजी की पारिवारिक आर्थिक विपन्नता के बारे में अपने विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर – बच्चनजी की पारिवारिक आर्थिक विपन्नता उनके लिए साहित्यक दृष्टि से तो लाभकारी सिद्ध हुई क्योंकि अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आधार बनाकर उन्होंने उत्कृष्ट रचना रचीं और साहित्य जगत में अपना नाम अमर कर गए पर इसी क्रम में उन्हें एक ऐसी मार्मिक चोट भी मिली जिसकी क्षतिपूर्ति वे कभी भी नहीं कर सके वो थी उनकी पत्नी श्यामा बच्चन की असामयिक मृत्यु। ये सब उनकी आर्थिक विपन्नता के कारण ही हुआ था। 

3. नीचे दिए गए वाक्यों का भावार्थ समझाइए :-

(1) “बीमारी अमीरों की हरमजदगी है, गरीबों को उसे अपने पीछे न लगाना चाहिए।”

उत्तर – इस कथन का भावार्थ यह है कि समाज में जो गरीब वर्ग है उसे हर दिन परिश्रम करना पड़ता है तब जाकर कहीं उसे दो वक्त की रोटी नसीब होती है। अगर वह बीमार पड़ जाए तो न ही वह मेहनत कर पाएगा न ही अपने और अपने परिवारवालों के लिए रोटी कमा सकेगा। बच्चन जी का यह मानना है कि यह बीमारी वगैरह सब अमीर लोगों के चोंचले होने चाहिए जो बीमार पड़ने पर आराम से आराम कर सकते हैं क्योंकि उन्हें रोटी कमाने की कोई चिंता नहीं होती। गरीबों को कभी भी न ही बीमार पड़ने का अधिकार है न ही बीमारी को अपने पास आने देने का।  

(2) ‘काम के पीछे बुखार भागे।’

उत्तर – प्रस्तुत कथन विश्राम तिवारी जी का है जिसे बच्चन जी ने आत्मसात किया था। उनका मानना था कि बुखार होने पर भी हमें बुखार को गुरुत्व न देकर अपने काम को ही गुरुत्व देना चाहिए। इससे बुखार का असर हम पर नहीं होता और बुखार को भी शायद यह अहसास हो जाता है कि इस आदमी को बुखार का कोई असर नहीं अतः, बुखार भाग जाता है।

4. शब्दसमूह के लिए एक-एक शब्द दीजिए :-

(1) जहाँ शरण लिया जा सके

उत्तर – शरणालय/शरणस्थल  

(2) सौ बरस जीने का आशीर्वाद

उत्तर – शतायु भव/जीवेम शरद शतम्  

(3) शुभ मार्ग पर चलने का आशीर्वाद

उत्तर – स्वस्तिपंथा भव

5. विरोधी शब्द दीजिए :-

चिकना – रूखा

मधु – तिक्त

कलश – घड़ा

विमुक्त – बंधन

 

बीमारी का इलाज करते बच्चन का शब्दचित्र प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर – हरिवंशराय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के तीसरे खंड ‘बसेरे से दूर’ में अपनी गंभीर बीमारी और उसके इलाज का विस्तार से वर्णन किया है। वे लंबे समय तक बीमार रहे और इस दौरान शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के संघर्षों से गुजरे।

उनकी बीमारी और इलाज

बच्चन जी को टी.बी. जैसी गंभीर बीमारी हो गई थी, जो उस समय घातक मानी जाती थी। डॉक्टरों ने उन्हें पूरी तरह आराम करने की सलाह दी। उस समय उनकी पत्नी श्यामा बच्चन ने उनकी देखभाल में विशेष भूमिका निभाई। तेज़ी जी ने हर संभव चिकित्सा उपाय किए और मानसिक रूप से भी बच्चन जी को संबल दिया।

इलाज के दौरान –

उन्हें दवाइयों और विशेष आहार का पालन करना पड़ा।

लंबे समय तक उन्हें पूर्ण विश्राम दिया गया।

मनोबल बनाए रखने के लिए उन्होंने खुद को साहित्य और अध्ययन में व्यस्त रखा।

परिवार और मित्रों के सहयोग ने उनके उपचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

धीरे-धीरे इलाज का असर हुआ, और उचित देखभाल के कारण वे स्वस्थ होने लगे। इस कठिन समय ने उन्हें जीवन की अनिश्चितता और स्वास्थ्य के महत्व का गहरा अहसास कराया। बीमारी से उबरने के बाद उन्होंने अपने अनुभवों को आत्मकथा में दर्ज किया और अपने लेखन के माध्यम से जीवन के प्रति एक नई दृष्टि विकसित की।

हरिवंशराय बच्चन की प्रख्यात रचना ‘मधुशाला’ का कैसेट बच्चों को सुनाइए।

उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर करे।

हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा का एक अंश कैसेट द्वारा सुनाइए।

उत्तर – हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा चार खंडों में प्रकाशित हुई है –

क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1956)

नीड़ का निर्माण फिर (1966)

बसेरे से दूर (1977)

दशद्वार से सोपान तक (1985)

नीचे उनकी आत्मकथा “क्या भूलूँ क्या याद करूँ” से एक प्रसिद्ध अंश दिया गया है, जिसमें वे अपनी प्रारंभिक जीवन यात्रा और संघर्षों का वर्णन करते हैं: –

“मेरा बचपन इलाहाबाद के पास एक छोटे से गाँव में बीता। वह एक साधारण ग्रामीण जीवन था—सीमित आवश्यकताओं और अनगढ़ सपनों वाला। मेरे माता-पिता ने मुझे संस्कारों की गहरी जड़ें दीं, और मैं कविता की दुनिया में धीरे-धीरे प्रवेश करने लगा। जब मैंने ‘मधुशाला’ लिखी, तब मैंने सोचा नहीं था कि यह इतनी प्रसिद्ध होगी। परंतु, जीवन में सफलता जितनी सहज दिखती है, उतनी होती नहीं। संघर्षों से भरा यह जीवन मेरे लिए एक प्रयोगशाला जैसा था, जिसमें हर दिन कुछ नया सीखने को मिलता था।”

“जब मैंने कविता लिखनी शुरू की, तब मैंने यह नहीं सोचा था कि यह मेरी पहचान बनेगी। मेरे मन में केवल शब्दों की एक लय थी, भावनाओं का एक प्रवाह था, जो कागज पर उतरता गया। मधुशाला की रचना से पहले मैंने बहुत कुछ लिखा, पर वह प्रसिद्धि नहीं मिली। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान ही साहित्य के प्रति मेरी रुचि और भी गहरी हो गई।”

“लेकिन जीवन केवल कविता नहीं था, उसमें संघर्ष भी थे। आर्थिक कठिनाइयाँ, समाज की रूढ़ियाँ, और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ—इन सबसे जूझते हुए भी मैंने अपने भीतर के कवि को जीवित रखा। जब मधुशाला प्रकाशित हुई, तो उसे अपार लोकप्रियता मिली, लेकिन आलोचना भी कम नहीं हुई। कुछ लोगों ने इसे मदिरा-प्रशंसा कहकर नकारने की कोशिश की, पर मेरे लिए यह केवल शराब की बात नहीं थी, यह जीवन-दर्शन था।”

“समय के साथ, मैंने जाना कि हर व्यक्ति को अपने संघर्षों से गुजरना होता है, लेकिन यदि हृदय में सत्य और आत्मविश्वास हो, तो राह अपने आप बनती जाती है।”

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