दादू दयाल – जीवन परिचय
दादू दयाल का जन्म अनुमानतः संवत् 1601 में अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ था। इनके जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती। कहा जाता है वे गृहस्थी त्यागकर 12 वर्षों तक कठिन तप करते रहे। उसके बाद वे नरेना (जयपुर) आ बसे। दादू दयाल जी के अनुभव वाणी (दादूवाणी) से प्रेरित होकर उनके अनुयायियों ने एक पंथ की स्थापना की, जिसे दादू पंथ के नाम से जाना गया। दादू दयाल की कविता अपने विचारों में कबीर की कविता के निकट प्रतीत होती है। दादूवाणी व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा देती है। उनके शिष्यों में रज्जब, सुंदरदास, और गरीबदास भी प्रसिद्ध कवि हैं। दादू दयाल की कविता में कबीर की ही तरह सबद, साखी और पद मिलते हैं। यहाँ उनके दो पद और कुछ दोहे दिए जा रहे हैं।
01
अजहूँ न निकसे प्रान कठोर
दरसन बिना बहुत दिन बीते, सुंदर प्रीतम मोर
चारि पहर चारो जुग बीते रैनि गँवाई भोर
अवधि गई अजहूँ नहिं आए, कतहुँ रहे चितचोर
कबहूँ नैन निरखि नहिं देखे, मारग चितवत तोर
दादू ऐसे आतुर बिरहिनि जैसे चंद चकोर।
व्याख्या
पद 1 – अजहूँ न निकसे प्रान कठोर
यह पद विरह की अवस्था और ईश्वर के दर्शन की तीव्र लालसा को व्यक्त करता है, जिसमें आत्मा को चकोर पक्षी के समान चंद्रमा (प्रभु) की प्रतीक्षा में तड़पते हुए दर्शाया गया है।
अजहूँ न निकसे प्रान कठोर
व्याख्या – अभी तक मेरे कठोर प्राण (जीवन) नहीं निकले। यहाँ दादू अपनी आत्मा की तड़प का वर्णन करते हैं, जो प्रभु के दर्शन के बिना कठिनाई से जीवित है। प्राणों का “कठोर” होना उनकी तीव्र इच्छा और दृढ़ता को दर्शाता है।
दरसन बिना बहुत दिन बीते, सुंदर प्रीतम मोर
व्याख्या – मेरे सुंदर प्रियतम (प्रभु) के दर्शन के बिना बहुत दिन बीत गए। यहाँ दादू ईश्वर के प्रति अपनी प्रेममयी भक्ति और उनके दर्शन की लालसा को व्यक्त करते हैं।
चारि पहर चारो जुग बीते रैनि गँवाई भोर
व्याख्या – चार पहर (दिन-रात के चार भाग) और चार युग बीत गए, रात और भोर (सारा समय) व्यर्थ चला गया। यहाँ समय की लंबी अवधि और प्रभु के बिना खालीपन का भाव है।
अवधि गई अजहूँ नहिं आए, कतहुँ रहे चितचोर
व्याख्या – समय की अवधि बीत गई, फिर भी चितचोर (मन को हरने वाले प्रभु) नहीं आए, वे कहाँ हैं? दादू प्रभु की प्रतीक्षा में व्याकुलता और उनके छिपे होने का प्रश्न उठाते हैं।
कबहूँ नैन निरखि नहिं देखे, मारग चितवत तोर
व्याख्या – कभी भी आँखों से उन्हें (प्रभु को) नहीं देखा, मैं रास्ता ताकता रहता हूँ। यहाँ दादू की तीव्र इच्छा और निरंतर प्रभु की प्रतीक्षा का वर्णन है।
दादू ऐसे आतुर बिरहिनि जैसे चंद चकोर।
व्याख्या – दादू कहते हैं कि मेरी आत्मा ऐसी व्याकुल है जैसे चकोर पक्षी चंद्रमा के लिए तड़पता है। चकोर और चंद्रमा का यह प्रतीक भक्त की ईश्वर के प्रति तीव्र लालसा को दर्शाता है।
02
भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा
द्वैपख रहितपंथ गह पूरा अबरन एक अधारा
बाद बिबाद काहू सौं नाहीं मैं हूँ जग से न्यारा
समदृष्टि सूँ भाई सहज में आपहिं आप बिचारा
मैं, तैं, मेरी यह गति नाहीं निरबैरी निरविकारा
काम कल्पना कदै न कीजै पूरन ब्रह्म पियारा
एहि पथि पहुँचि पार गहि दादू सों तत् सहज संभारा
व्याख्या
यह पद दादू दयाल के निर्गुण और सहज भक्ति के मार्ग का वर्णन करता है, जो विवादों से मुक्त, समदृष्टि और आत्म-चिंतन पर आधारित है।
भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा
व्याख्या – भाई, मेरा पंथ (मार्ग) ऐसा है। दादू अपने भक्ति मार्ग की विशेषता को संबोधित करते हुए बता रहे हैं।
द्वैपख रहितपंथ गह पूरा अबरन एक अधारा
व्याख्या – मेरा मार्ग द्वैत (दो का भाव) से मुक्त है, पूर्ण है, और एकमात्र ईश्वर पर आधारित है। यहाँ निर्गुण भक्ति का उल्लेख है, जिसमें केवल एक ईश्वर का आधार लिया जाता है।
बाद बिबाद काहू सौं नाहीं मैं हूँ जग से न्यारा
व्याख्या – किसी से वाद-विवाद नहीं, मैं संसार से अलग हूँ। दादू कहते हैं कि उनका मार्ग विवादों से मुक्त है और वे संसारिक बंधनों से अलग हैं।
समदृष्टि सूँ भाई सहज में आपहिं आप बिचारा
व्याख्या – समदृष्टि (सबको समान देखने) के साथ, सहज रूप से मैंने स्वयं को जान लिया। यहाँ आत्म-चिंतन और सहज भक्ति का महत्त्व बताया गया है।
मैं, तैं, मेरी यह गति नाहीं निरबैरी निरविकारा
व्याख्या – “मैं”, “तू”, “मेरा” जैसी भावना मेरे मार्ग में नहीं है, यह शत्रुता और विकारों से मुक्त है। दादू निर्गुण भक्ति की शुद्धता और अहंकार-मुक्त अवस्था का वर्णन करते हैं।
काम कल्पना कदै न कीजै पूरन ब्रह्म पियारा
व्याख्या – कामनाओं और कल्पनाओं को कभी न करें, पूर्ण ब्रह्म ही प्रिय है। दादू कहते हैं कि सच्चा भक्त केवल पूर्ण ईश्वर की भक्ति करता है, सांसारिक इच्छाओं से दूर।
एहि पथि पहुँचि पार गहि दादू सों तत् सहज संभारा
व्याख्या – इस मार्ग पर चलकर दादू ने संसार सागर से पार उतरने का सहज तत्व प्राप्त कर लिया। यहाँ भक्ति मार्ग के द्वारा मुक्ति की प्राप्ति का उल्लेख है।
02
भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा
द्वैपख रहितपंथ गह पूरा अबरन एक अधारा
बाद बिबाद काहू सौं नाहीं मैं हूँ जग से न्यारा
समदृष्टि सूँ भाई सहज में आपहिं आप बिचारा
मैं, तैं, मेरी यह गति नाहीं निरबैरी निरविकारा
काम कल्पना कदै न कीजै पूरन ब्रह्म पियारा
एहि पथि पहुँचि पार गहि दादू सों तत् सहज संभारा
व्याख्या
यह पद दादू दयाल के निर्गुण और सहज भक्ति के मार्ग का वर्णन करता है, जो विवादों से मुक्त, समदृष्टि और आत्म-चिंतन पर आधारित है।
भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा
व्याख्या – भाई, मेरा पंथ (मार्ग) ऐसा है। दादू अपने भक्ति मार्ग की विशेषता को संबोधित करते हुए बता रहे हैं।
द्वैपख रहितपंथ गह पूरा अबरन एक अधारा
व्याख्या – मेरा मार्ग द्वैत (दो का भाव) से मुक्त है, पूर्ण है, और एकमात्र ईश्वर पर आधारित है। यहाँ निर्गुण भक्ति का उल्लेख है, जिसमें केवल एक ईश्वर का आधार लिया जाता है।
बाद बिबाद काहू सौं नाहीं मैं हूँ जग से न्यारा
व्याख्या – किसी से वाद-विवाद नहीं, मैं संसार से अलग हूँ। दादू कहते हैं कि उनका मार्ग विवादों से मुक्त है और वे संसारिक बंधनों से अलग हैं।
समदृष्टि सूँ भाई सहज में आपहिं आप बिचारा
व्याख्या – समदृष्टि (सबको समान देखने) के साथ, सहज रूप से मैंने स्वयं को जान लिया। यहाँ आत्म-चिंतन और सहज भक्ति का महत्त्व बताया गया है।
मैं, तैं, मेरी यह गति नाहीं निरबैरी निरविकारा
व्याख्या – “मैं”, “तू”, “मेरा” जैसी भावना मेरे मार्ग में नहीं है, यह शत्रुता और विकारों से मुक्त है। दादू निर्गुण भक्ति की शुद्धता और अहंकार-मुक्त अवस्था का वर्णन करते हैं।
काम कल्पना कदै न कीजै पूरन ब्रह्म पियारा
व्याख्या – कामनाओं और कल्पनाओं को कभी न करें, पूर्ण ब्रह्म ही प्रिय है। दादू कहते हैं कि सच्चा भक्त केवल पूर्ण ईश्वर की भक्ति करता है, सांसारिक इच्छाओं से दूर।
एहि पथि पहुँचि पार गहि दादू सों तत् सहज संभारा
व्याख्या – इस मार्ग पर चलकर दादू ने संसार सागर से पार उतरने का सहज तत्व प्राप्त कर लिया। यहाँ भक्ति मार्ग के द्वारा मुक्ति की प्राप्ति का उल्लेख है।
शब्दार्थ —
निरखि – ध्यान से देखना
चितवत – देखना
जनि – नहीं
बिरहिन – विरह (वियोग) में व्याकुल
मसीत – मस्जिद
समदृष्टि- समान भाव से देखना, तटस्थ दृष्टि
निरबैरी – बैरी विहीन
कदै – कहै
गहि – पकड़ना
तुरक – तुर्क
चीन्हाँ – पहचानना
आरसी – दर्पण;
निरविकरा – निर्विकार
साँईकेरी – ईश्वर कृपा, साँईंकृपा
भरमत – भ्रम
जाणे – जानना
यह भी पढ़िए
आपै मारे आपको, आप आपको खाइ॥1॥
आप अपना काल हे, दादू कह समझाई॥
आपै मारे आपको, आप आपको खाइ॥
व्याख्या – स्वयं (अहंकार) ही स्वयं को मारता है और स्वयं को खा जाता है। दादू कहते हैं कि मनुष्य का अहंकार ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है, जो उसे नष्ट करता है। यहाँ “आप” से तात्पर्य अहंकार या स्वार्थी मन से है।
आप अपना काल हे, दादू कह समझाई॥
व्याख्या – यह अहंकार ही तुम्हारा काल (मृत्यु या विनाश का कारण) है, दादू समझाते हुए कहते हैं। दादू बताते हैं कि अहंकार और स्वार्थ मनुष्य को बंधन में डालते हैं और उसका आध्यात्मिक पतन करते हैं।
आपा मेटे हरि भजै, तन मन तजे विकार॥2॥
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहू मत सार॥
आपा मेटे हरि भजै, तन मन तजे विकार॥
व्याख्या – अहंकार को मिटाकर हरि (ईश्वर) का भजन करो, और शरीर व मन के विकारों (दोषों) को त्याग दो। यहाँ दादू भक्ति के माध्यम से अहंकार और बुराइयों को छोड़ने का उपदेश देते हैं।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहू मत सार॥
व्याख्या – सभी जीवों के प्रति वैर-भाव छोड़ दो, दादू कहते हैं कि यही विचार का सार है। दादू समदृष्टि और सभी जीवों के प्रति प्रेम की भावना को भक्ति का मूल तत्व बताते हैं।
आतम भाई जीव सब, एक पेट परिवार॥3॥
दादू मूल विचारिए, दूजा कौन गंवार॥
आतम भाई जीव सब, एक पेट परिवार॥
व्याख्या – सभी जीव आत्मा के भाई हैं, सभी एक ही परिवार के हैं। यहाँ दादू सभी प्राणियों में एक ही ईश्वरीय तत्व की उपस्थिति और समानता पर जोर देते हैं, जैसे एक परिवार के सदस्य एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।
दादू मूल विचारिए, दूजा कौन गंवार॥
व्याख्या – दादू कहते हैं कि मूल (ईश्वर) का विचार करो, दूसरा (अहंकार या भेदभाव) कौन मूर्ख करता है? यहाँ वे ईश्वर की एकता को समझने और भेदभाव त्यागने की सलाह देते हैं।
निगुर्ण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के मूर्धन्य कवि कबीर की निम्नांकित पंक्तियाँ पढ़िए। दादू दयाल व कबीर की पंक्तियों में काफी समानता देखने को मिलता है।
कस्तुरी कुंडलि बसै मृग दूढें वन माहि
ऐसे घट-घट राम है दुनिया देखे नाहिं।
कस्तुरी कुंडलि बसै मृग दूढें वन माहि
व्याख्या – कस्तूरी मृग की नाभि में बसती है, पर वह उसे जंगल में ढूँढता है। यह प्रतीकात्मक रूप से बताता है कि ईश्वर हमारे भीतर ही है, पर हम उसे बाहर खोजते हैं।
ऐसे घट-घट राम है दुनिया देखे नाहिं।
व्याख्या – इसी तरह राम (ईश्वर) हर हृदय में बस्ता है, पर दुनिया उसे देख नहीं पाती। दादू कहते हैं कि अज्ञानता के कारण लोग ईश्वर को बाहर खोजते हैं, जबकि वह हर जीव के भीतर मौजूद है।
पाठ से
- अपने पदों में मीरा खुद को दासी कहती हैं। ऐसा कहने के पीछे क्या आशय है? लिखिए।
उत्तर – मीरा बाई अपने पदों में स्वयं को भगवान कृष्ण की “दासी” कहती हैं, जिसका आशय उनकी पूर्ण समर्पण और निस्वार्थ भक्ति से है। “दासी” शब्द यहाँ उनकी विनम्रता, भक्ति और प्रभु के प्रति पूर्ण निष्ठा को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि मीरा ने अपने अहंकार, सामाजिक बंधनों और सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर स्वयं को पूरी तरह से कृष्ण की सेवा में समर्पित कर दिया है। दासी कहकर वे यह भी व्यक्त करती हैं कि वे प्रभु की इच्छा के अधीन हैं और उनकी भक्ति में कोई स्वार्थ नहीं है। यह भक्ति का वह भाव है, जो प्रभु को सर्वस्व मानता है और भक्त को उनकी सेवा में आनंद मिलता है। उदाहरण के लिए, “मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे” में मीरा अपनी भक्ति को पूर्ण समर्पण के रूप में प्रस्तुत करती हैं।
- ‘गई कुमति, लई साधु की संगति से कवि का क्या आशय है? लिखिए।
उत्तर – इस पंक्ति में मीरा बाई कहती हैं कि साधु-संगति के प्रभाव से उनकी “कुमति” (अज्ञान, बुरे विचार या सांसारिक मोह) चली गई। कवि का आशय यह है कि साधु-संतों की संगति में रहने से मनुष्य के अंदर की अज्ञानता, स्वार्थ और बुरे विचार नष्ट हो जाते हैं। साधु-संगति मन को शुद्ध करती है और उसे भक्ति व आत्म-ज्ञान की ओर ले जाती है। मीरा कहती हैं कि इस संगति से उनकी चेतना शुद्ध हुई और वे सच्ची भक्त बन गईं। यह पंक्ति भक्ति मार्ग में सत्संग के महत्त्व को रेखांकित करती है, जो मनुष्य को सांसारिक भटकाव से बचाकर ईश्वर की ओर उन्मुख करती है।
- मीरा को जो अमोलक वस्तु मिली है उसके बारे में वे क्या-क्या बता रही हैं? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – मीरा को जो “अमोलक वस्तु” मिली है, वह भगवान राम (या कृष्ण) की भक्ति और उनके प्रति प्रेम है, जिसे वे “राम रतन धन” कहती हैं। अपने पद में वे इस अमूल्य वस्तु के बारे में निम्नलिखित बातें बताती हैं –
यह वस्तु सतगुरु की कृपा से प्राप्त हुई है, जो अनमोल और अमर है।
यह जन्म-जन्म की पूँजी है, अर्थात् यह कई जन्मों तक साथ रहने वाली आध्यात्मिक संपदा है।
इसे न तो खाया जा सकता है, न खर्च किया जा सकता है, न ही चोर इसे चुरा सकता है, और यह दिन-दिन बढ़ती जाती है।
यह सत्य की नाव है, जिसके खेवनहार सतगुरु हैं और जो भवसागर (संसार सागर) से पार उतारती है।
अपने शब्दों में कहें तो मीरा इस अमूल्य वस्तु को ईश्वर की भक्ति और उनकी प्राप्ति मानती हैं, जो सांसारिक धन से कहीं अधिक मूल्यवान है और जीवन को मुक्ति की ओर ले जाती है।
- राम रतन धन को जनम जनम की पूंजी कहने का आशय क्या है? लिखिए।
उत्तर – मीरा बाई “राम रतन धन” को “जनम जनम की पूंजी” कहकर यह व्यक्त करती हैं कि भगवान राम (या कृष्ण) की भक्ति एक ऐसी आध्यात्मिक संपदा है, जो न केवल इस जन्म में, बल्कि कई जन्मों तक साथ रहती है। यह पूँजी सांसारिक धन की तरह नष्ट नहीं होती, बल्कि यह आत्मा को मुक्ति और शांति प्रदान करती है। इसका आशय यह है कि भक्ति वह अमर धन है, जो मनुष्य को संसार के बंधनों से मुक्त करके ईश्वर से जोड़ता है और हर जन्म में उसका मार्गदर्शन करता है। यह सांसारिक सुखों से कहीं अधिक मूल्यवान है, क्योंकि यह आत्मा की शाश्वत यात्रा में साथ देती है।
- राणा ने मीरा बाई को विष का प्याला क्यों भेजा होगा और मीरा बाई उस विष को पीते हुए क्यों हँसी? अपने विचार लिखिए।
उत्तर – राणा ने विष का प्याला क्यों भेजा होगा?
राणा (मीरा के ससुराल पक्ष के राजा) ने मीरा को विष का प्याला इसलिए भेजा होगा, क्योंकि मीरा की भक्ति और सामाजिक मानदंडों के प्रति उदासीनता राजपरिवार की मर्यादा और प्रतिष्ठा के लिए चुनौती बन रही थी। मीरा का कृष्ण भक्ति में डूबकर नाचना-गाना, साधु-संतों की संगति और राजसी जीवन का त्याग करना राणा को अस्वीकार्य था। समाज और परिवार की नजर में यह कुल की नाक कटाने जैसा था। इसलिए, राणा ने संभवतः मीरा को मारने की कोशिश की ताकि उनकी भक्ति और व्यवहार को रोका जा सके।
मीरा ने विष पीते हुए क्यों हँसी?
मीरा ने विष का प्याला पीते हुए हँसी, क्योंकि उनकी भक्ति में इतनी अटूट श्रद्धा थी कि उन्हें विश्वास था कि उनके प्रभु (कृष्ण) उनकी रक्षा करेंगे। उनकी हँसी उनके दृढ़ विश्वास, निर्भयता और प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। ऐतिहासिक कथाओं के अनुसार, कृष्ण की कृपा से विष अमृत में बदल गया, और यह चमत्कार मीरा की भक्ति की सत्यता को दर्शाता है। उनकी हँसी यह भी दर्शाती है कि वे मृत्यु से भयभीत नहीं थीं, क्योंकि उनकी आत्मा प्रभु में लीन थी।
- “भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा कविता में दादू के पंथ के बारे में पद में क्या-क्या बताया गया है? अपनी बातें तर्क सहित लिखिए।
उत्तर – दादू दयाल के पद “भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा” में उनके निर्गुण भक्ति मार्ग की विशेषताओं का वर्णन किया गया है। दादू के पंथ की निम्नलिखित विशेषताएँ इस पद में उल्लिखित हैं –
द्वैत से मुक्ति – दादू का पंथ द्वैत (दो का भाव) से मुक्त है और एकमात्र ईश्वर पर आधारित है। यह तर्कसंगत है, क्योंकि निर्गुण भक्ति में ईश्वर को निराकार और सर्वव्यापी माना जाता है, जो भेदभाव से परे है।
उदाहरण – “द्वैपख रहितपंथ गह पूरा अबरन एक अधारा।”
विवादों से मुक्ति – दादू का मार्ग किसी भी वाद-विवाद से मुक्त है और संसार से अलग है। यह तर्कसंगत है, क्योंकि सच्ची भक्ति बाहरी विवादों में नहीं उलझती, बल्कि आत्म-चिंतन पर केंद्रित होती है।
उदाहरण – “बाद बिबाद काहू सौं नाहीं मैं हूँ जग से न्यारा।”
समदृष्टि और सहजता – दादू का पंथ समदृष्टि (सबको समान देखना) और सहज भक्ति पर आधारित है। यह तर्कसंगत है, क्योंकि समदृष्टि से मनुष्य में प्रेम और एकता की भावना जागृत होती है, जो भक्ति का आधार है।
उदाहरण – “समदृष्टि सूँ भाई सहज में आपहिं आप बिचारा।”
अहंकार और विकारों का त्याग – दादू का मार्ग “मैं”, “तू” और “मेरा” जैसे अहंकार और विकारों से मुक्त है। यह तर्कसंगत है, क्योंकि भक्ति में अहंकार का त्याग आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है।
उदाहरण – “मैं, तैं, मेरी यह गति नाहीं निरबैरी निरविकारा।”
कामनाओं से मुक्ति और ब्रह्म की भक्ति – दादू का पंथ सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर पूर्ण ब्रह्म की भक्ति पर केंद्रित है। यह तर्कसंगत है, क्योंकि सांसारिक इच्छाएँ मनुष्य को भटकाती हैं, जबकि ब्रह्म की भक्ति मुक्ति की ओर ले जाती है।
उदाहरण – “काम कल्पना कदै न कीजै पूरन ब्रह्म पियारा।”
मुक्ति का मार्ग – इस मार्ग पर चलकर दादू ने सहज रूप से तत्व की प्राप्ति की, जो भवसागर से पार उतारता है। यह तर्कसंगत है, क्योंकि भक्ति का अंतिम लक्ष्य मुक्ति है।
उदाहरण – “एहि पथि पहुँचि पार गहि दादू सों तत् सहज संभारा।”
- उपासना के सगुण और निर्गुण दोनों पक्षों को आपने कविताओं में पढ़ा है। आपके अनुसार दोनों में से कौन-सा पक्ष अधिक सरल है?
उत्तर – सगुण और निर्गुण भक्ति दोनों ही अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण भक्तों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन मेरे विचार से सगुण भक्ति अधिक सरल है।
सगुण भक्ति की सरलता – सगुण भक्ति में ईश्वर को साकार रूप में देखा जाता है, जैसे मीरा बाई के पदों में कृष्ण की मूर्ति, उनके सौंदर्य और लीलाओं का वर्णन है। यह मनुष्य के लिए सरल है, क्योंकि साकार रूप में प्रभु की छवि को प्रेम और भक्ति के साथ जोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए, “बसो मोरे नैनन में नंदलाल” में कृष्ण के सौंदर्य का चित्रण भक्त के लिए भावनात्मक और दृश्यात्मक रूप से आकर्षक है।
निर्गुण भक्ति की जटिलता – निर्गुण भक्ति, जैसा कि दादू दयाल के पदों में देखा गया, निराकार ईश्वर की उपासना पर केंद्रित है, जो आत्म-चिंतन और दार्शनिक गहराई की मांग करती है। यह सामान्य व्यक्ति के लिए जटिल हो सकती है, क्योंकि इसमें अहंकार का त्याग और सभी में एक ही तत्व की अनुभूति की आवश्यकता होती है, जैसे “कस्तुरी कुंडलि बसै मृग दूढें वन माहि।”
निष्कर्ष – सगुण भक्ति की सरलता इसकी भावनात्मक और दृश्यात्मक प्रकृति में है, जो सामान्य भक्तों के लिए अधिक आकर्षक और सहज है, जबकि निर्गुण भक्ति गहन चिंतन और वैराग्य की मांग करती है।
- निम्नलिखित पंक्तियों का भाव सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
“करता है रे सोई चीन्हों, जिन वै रोध करै रे कोइ।
जैसैं आरसी मंजन कीजै, राम-रहीम देही तन धोइ।
उत्तर – इन पंक्तियों में दादू दयाल ने ईश्वर की सर्वशक्तिमानता और भक्ति के शुद्धिकरण प्रभाव को सुंदरता से व्यक्त किया है।
पहली पंक्ति – “करता है रे सोई चीन्हों, जिन वै रोध करै रे कोइ।”
भाव सौंदर्य – यहाँ दादू कहते हैं कि वही ईश्वर सब कुछ करने वाला है, और उसे उसी को पहचानना चाहिए, जिसे कोई रोक नहीं सकता। यह पंक्ति ईश्वर की सर्वोच्चता और उसकी अनंत शक्ति को दर्शाती है। इसका भाव सौंदर्य इसकी गहनता और विश्वास में है, जो भक्त को ईश्वर की एकमात्र सत्ता पर ध्यान केंद्रित करने को प्रेरित करता है।
दूसरी पंक्ति – “जैसैं आरसी मंजन कीजै, राम-रहीम देही तन धोइ।”
भाव सौंदर्य – यहाँ दादू दर्पण को माँजने की उपमा देते हैं, जैसे दर्पण साफ करने से उसकी चमक लौट आती है, वैसे ही राम और रहीम (हिंदू और इस्लाम के ईश्वर के प्रतीक) की भक्ति से मनुष्य का शरीर और आत्मा शुद्ध हो जाता है। इस पंक्ति का भाव सौंदर्य इसकी समन्वयवादी भावना और उपमा की सुंदरता में है, जो हिंदू-मुस्लिम एकता और भक्ति की शुद्धिकरण शक्ति को दर्शाती है।
पाठ से आगे
- क्या आपको कोई ऐसी वस्तु मिली है जिससे बेहद खुशी महसूस हुई हो। उसके बारे में बताइए।
उत्तर – हाँ, मुझे एक बार अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक सामाजिक सेवा कार्य में भाग लेने का अवसर मिला, जब हमने एक अनाथालय में बच्चों के लिए किताबें और खिलौने दान किए। बच्चों की खुशी और उनके चेहरों पर मुस्कान देखकर मुझे अपार आनंद हुआ। यह अनुभव मेरे लिए अमूल्य था, क्योंकि यह न केवल भौतिक वस्तु थी, बल्कि दूसरों की खुशी में योगदान देने का भाव था, जो मेरे लिए आध्यात्मिक सुख के समान था।
- कभी-कभी लोग अपने जीवन मूल्यों, आदर्शों और त्याग के कारण ज्यादा अमूल्य वस्तुओं को छोड़कर साधारण वस्तुओं का चयन करते हैं। आपके अनुभव में भी ऐसी घटनाएँ होंगी जब आपने ऐसा कुछ होते देखा-पढ़ा अथवा सुना हो। एक या दो उदाहरण लिखिए।
उत्तर – उदाहरण 1 – मेरे एक पड़ोसी ने अपनी उच्च वेतन वाली नौकरी छोड़कर एक गैर-लाभकारी संगठन में काम शुरू किया, क्योंकि उनका मानना था कि समाज सेवा उनके जीवन मूल्यों के अनुरूप है। उन्होंने धन और ऐश्वर्य को त्यागकर दूसरों की मदद को प्राथमिकता दी।
उदाहरण 2 – मैंने एक किताब में पढ़ा कि महात्मा गांधी ने वकालत और सुखी जीवन को छोड़कर सादा जीवन और स्वतंत्रता संग्राम को चुना। उनका त्याग और सादगी उनके आदर्शों का प्रतीक था, जो देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित था।
- क्या आज भी हमारे समाज में महिलाओं के साथ भेद-भाव होता है? तर्क देकर अपनी बात को पुष्ट कीजिए।
उत्तर – हाँ, आज भी हमारे समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव होता है, हालाँकि इसकी तीव्रता पहले की तुलना में कुछ कम हुई है।
तर्क 1 – शिक्षा और रोजगार – कई ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को उच्च शिक्षा या नौकरी के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए, लड़कियों को जल्दी विवाह के लिए दबाव डाला जाता है, जबकि लड़कों को करियर बनाने की स्वतंत्रता दी जाती है।
तर्क 2 – लैंगिक हिंसा और असुरक्षा – कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न और घरेलू हिंसा के मामले आज भी प्रचलित हैं, जो दर्शाते हैं कि महिलाओं को पुरुषों के समान सुरक्षित माहौल नहीं मिलता।
तर्क 3 – सामाजिक मान्यताएँ – कुछ परिवारों में आज भी यह धारणा है कि महिलाओं का मुख्य दायित्व घर संभालना है, जिसके कारण उनकी स्वतंत्रता और महत्वाकांक्षाओं को सीमित किया जाता है।
हालाँकि, शिक्षा, जागरूकता और कानूनी प्रावधानों के कारण स्थिति में सुधार हो रहा है, फिर भी पूर्ण समानता के लिए और प्रयासों की आवश्यकता है।
- आज भी हमारे देश में जाति और संप्रदाय के नाम पर झगड़े होते हैं। आपके अनुसार इसके क्या कारण हैं? इन कारणों का समाधान किस तरह से किया जा सकता है? विचार कर लिखिए।
उत्तर – कारण –
अज्ञानता और रूढ़ियाँ – जाति और संप्रदाय के नाम पर भेदभाव की जड़ें गहरी सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों में हैं, जो लोगों को एक-दूसरे से अलग करती हैं।
राजनीतिक स्वार्थ – कुछ राजनीतिक दल और नेता वोट बैंक के लिए जाति और धर्म के मुद्दों को भड़काते हैं, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ता है।
आर्थिक असमानता – जातिगत और धार्मिक समूहों के बीच आर्थिक असमानता भी तनाव का कारण बनती है, क्योंकि संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ती है।
शिक्षा और जागरूकता की कमी – शिक्षा का अभाव लोगों को भेदभाव और अंधविश्वासों से मुक्त नहीं होने देता।
समाधान –
शिक्षा और जागरूकता – स्कूलों और समुदायों में समानता, सहिष्णुता और एकता की शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए।
सामाजिक समन्वय – अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना, जैसे सांस्कृतिक उत्सव और सामुदायिक गतिविधियाँ।
कानूनी सख्ती – भेदभाव और हिंसा को बढ़ावा देने वालों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।
आर्थिक समानता – सभी समुदायों के लिए समान आर्थिक अवसर प्रदान करने से तनाव कम हो सकता है।
दादू दयाल की तरह समन्वयवादी दृष्टिकोण, जो सभी में एक ही ईश्वर को देखता है, को अपनाकर समाज में एकता स्थापित की जा सकती है।
- मध्यकाल के कवियों के बारे में कहा जाता है कि वे अशिक्षित या अल्पशिक्षित थे फिर भी उन्होंने अच्छे ग्रंथों और काव्यों की रचना की। वे ऐसा कैसे कर पाए होंगे? अपने साथियों और शिक्षक से चर्चा करके लिखिए।
उत्तर – मध्यकाल के कवियों, जैसे मीरा बाई, कबीर, दादू दयाल आदि, भले ही औपचारिक शिक्षा में अल्पशिक्षित थे, फिर भी उनकी रचनाएँ गहन और प्रभावशाली थीं। इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं –
आध्यात्मिक अनुभव – इन कवियों की भक्ति और आत्म-चिंतन ने उन्हें गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान की, जिसे उन्होंने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया।
साधु-संगति – कबीर, दादू दयाल और सूरदास भक्तों और आध्यात्मिक साधकों से घिरे हुए थे, जिसने उन्हें गहन अंतर्दृष्टि प्राप्त करने और अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्तियों को परिष्कृत करने में मदद की।
लोक भाषा और संस्कृति – इन कवियों ने लोक भाषा (जैसे अवधी, ब्रज) का उपयोग किया, जो आम जनता से जुड़ी थी और उनकी रचनाओं को सरल और प्रभावी बनाया।
मौखिक परंपरा – मध्यकाल में ज्ञान का प्रसार मौखिक परंपरा के माध्यम से होता था। इन कवियों ने गुरुओं और शास्त्रों की सीखों को सुना और आत्मसात् किया, जिसका प्रभाव उनकी रचनाओं में दिखता है।
ईश्वरीय प्रेरणा – ये कवि अपनी रचनाओं को ईश्वर की प्रेरणा मानते थे, जिससे उनकी रचनाएँ भावपूर्ण और गहन बनती थीं।
उदाहरण के लिए, मीरा की भक्ति और दादू की निर्गुण दृष्टि उनकी रचनाओं में प्राण फूंकती थी।
- वर्तमान समय में समाज का झुकाव भौतिक सौंदर्य के प्रति बढ़ता जा रहा है। इन परिस्थितियों में अध्यात्म के जरिए आन्तरिक सौंदर्य की ओर उन्मुख होना (लौटना) आपकी समझ में कितना महत्त्व रखता है? शिक्षक से चर्चा कीजिए और लिखिए।
उत्तर – वर्तमान समय में भौतिक सौंदर्य (बाहरी दिखावट, धन, प्रसिद्धि) पर अत्यधिक ध्यान समाज में बढ़ रहा है, जो सतही और अस्थायी सुख देता है। अध्यात्म के माध्यम से आंतरिक सौंदर्य (आत्म-शांति, प्रेम, सहानुभूति) की ओर उन्मुख होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि –
आत्मिक शांति – अध्यात्म मन को शांति और संतुष्टि प्रदान करता है, जो भौतिक सुखों से नहीं मिलती।
नैतिक मूल्य – यह व्यक्ति को नैतिकता, करुणा और समदृष्टि की ओर ले जाता है, जो सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है।
स्थायी सुख – भौतिक सौंदर्य अस्थायी है, जबकि आंतरिक सौंदर्य जीवन को अर्थपूर्ण और स्थायी सुख देता है।
उदाहरण के लिए, दादू दयाल की शिक्षाएँ हमें सिखाती हैं कि सच्चा सुख आत्म-ज्ञान और ईश्वर की भक्ति में है। अध्यात्म सामाजिक तनाव को कम करने और व्यक्तिगत विकास में सहायक है।
भाषा के बारे में
- पाठ में दी गई कविताओं में ऐसे शब्द आए हैं जिनका चलन आजकल नहीं है। उन्हें पहचान कर लिखिए।
उत्तर – कविताओं में प्रयुक्त कुछ शब्द जो आजकल प्रचलन में कम हैं –
पग घुँघरू (पैरों में घुंघरू)
आपहि (स्वयं)
न्यात (नात या रिश्तेदार)
कुलनासी (कुल की मर्यादा को नष्ट करने वाला)
साँवरे (साँवला, कृष्ण के लिए)
बसैयन (बस्ती या गाँव में)
छैयन (छायादार स्थान)
ठठ्ठ (समूह)
अटैयन (अट्टालिका, ऊँची इमारत)
झमकैयन (झमाझम माहौल)
द्वैपख (द्वैत पक्ष)
निर्वैरी (शत्रुता से मुक्त)
आतम (आत्मा)
ये शब्द मध्यकालीन हिंदी या ब्रज/अवधी भाषा के हैं, जो आज की आधुनिक हिंदी में कम प्रयोग होते हैं।
- पाठ में प्रयोग हुई भाषा आपके घर की भाषा से किस प्रकार भिन्न है? इससे मिलते-जुलते शब्द आपकी भाषा मे भी होंगे। उन्हें छाँट कर लिखिए।
उत्तर – भिन्नता –
मध्यकालीन भाषा – पाठ में प्रयोग हुई भाषा (ब्रज, अवधी) मध्यकालीन है, जिसमें काव्यात्मक और भक्ति रस से भरे शब्द हैं। ये शब्द औपचारिक, प्राचीन और क्षेत्रीय हैं, जैसे “पग घुँघरू,” “नैनन,” “साँवरे,” आदि।
घर की भाषा – मेरे घर में आधुनिक हिंदी बोली जाती है, जो सरल, बोलचाल की और कम काव्यात्मक है। इसमें क्षेत्रीय शब्द कम हैं, और अंग्रेजी शब्दों का मिश्रण अधिक है।
मिलते-जुलते शब्द –
हरि (ईश्वर के लिए, आज भी “हरि भजन” जैसे वाक्यांशों में प्रयोग)
प्रभु (आज भी भक्ति संदर्भ में प्रयोग)
राम (आधुनिक हिंदी में भी प्रचलित)
नैन (आँखें, काव्यात्मक भाषा में आज भी प्रयोग)
संगति (संगत, आज भी बोलचाल में प्रयोग)
गुण (आज भी “गुण गान” जैसे वाक्यांशों में)
- अपने शिक्षक और सहायक पुस्तक की मदद लेकर इस बात पर चर्चा करें की गद्य और पद्य की भाषा में किस प्रकार का अंतर होता है?
उत्तर – गद्य की भाषा –
गद्य की भाषा सरल, स्पष्ट और बोलचाल के करीब होती है।
इसमें वाक्य संरचना लंबी और विवरणात्मक होती है।
यह तथ्यों, विचारों और कथाओं को क्रमबद्ध और तार्किक ढंग से प्रस्तुत करती है।
उदाहरण – कहानियाँ, निबंध, समाचार लेख।
पद्य की भाषा –
पद्य की भाषा काव्यात्मक, लयबद्ध और अलंकारिक होती है।
इसमें छंद, तुकबंदी और भावनात्मक गहराई होती है।
यह संक्षिप्त, प्रतीकात्मक और रसपूर्ण होती है, जो भावनाओं को उभारती है।
उदाहरण – मीरा और दादू के पद, जो भक्ति और भावनाओं को व्यक्त करते हैं।
अंतर –
गद्य तार्किक और सूचनात्मक है, जबकि पद्य भावनात्मक और काव्यात्मक।
गद्य में संरचना स्वतंत्र होती है, जबकि पद्य में छंद और लय का बंधन होता है।
गद्य रोजमर्रा के संवाद के करीब है, जबकि पद्य में प्राचीन और साहित्यिक शब्दों का प्रयोग अधिक होता है, जैसे “नैनन,” “साँवरे।”
- कविता में लय और गेयता लाने के लिए भाषा की स्वर ध्वनियों को लघु (। = ह्रस्व) और गुरु (S = दीर्घ) के अनुसार उपयोग किया जाता है। स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्रा कहा जाता है। इन स्वरों को ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत इन तीन वर्गों में बाँटा गया है।
ह्रस्व स्वर- जिन वर्णों के उच्चारण में एक मात्रा का समय लगता है उसे ह्रस्व स्वर (वर्ण) कहते हैं। यथा – अ, इ, उ, ऋ, और अनुनासिक।
दीर्घ स्वर – जिन वर्णों के उच्चारण में दो मात्राओं का समय लगता है उसे दीर्घ स्वर (वर्ण) कहते हैं। यथा – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ (अनुस्वार एवं संयुक्ताक्षर के पहले का वर्ण)
प्लुत स्वर – जिन वर्णों के उच्चारण में दो से अधिक मात्रा का समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। वैदिक मंत्रों एवं संगीत में इन स्वरों का उपयोग किया जाता है।
नीचे दो पंक्तियों में इन मात्राओं को गिनने का प्रयास किया गया है-
इसी गणना के आधार पर छंद की पहचान की जाती है। यह 28 मात्रा वाला हरिगीतिका छंद है। इसी प्रकार आप भी मीरा के पदों में मात्राओं की गणना कीजिए और छंद का नाम शिक्षक से पता कीजिए।
योग्यता विस्तार
- छत्तीसगढ़ में भी कई महान संत हुए हैं। आप उनकी रचनाओं को संग्रहित कीजिए और मित्रों के साथ उन पर चर्चा कीजिए।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करेंगे।
- पाठ में से अपनी पसंद के पदों की लय बनाकर संगीतमय प्रस्तुति कीजिए।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करेंगे।
- कबीरदास जी की साखियों को ढूँढ कर पढ़िए व आपस में चर्चा कीजिए।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करेंगे।

