(जन्म सन् 1478 ई. निधन सन् 1573 ई.)
महाकवि सूरदासजी का जन्म कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के पास सीही नामक गाँव में हुआ था। कई लोगों का मानना है कि इनका जन्म मथुरा के पास रुकना या रेणुका क्षेत्र में हुआ था। इनका जन्मांध होना भी विवादास्पद है। वल्लभाचार्य इनके गुरु थे। इनकी प्रेरणा से वे श्रीनाथजी मंदिर में कृष्ण की लीलाओं से संबंधित पदों की रचना करते थे। ये कृष्ण के अनन्य भक्त थे।
वात्सल्य एवं शृंगार रस के वर्णन में वे अद्वितीय हैं। प्रस्तुत पद में सूरदास की अनन्य भक्ति भावना का परिचय मिलता है। उनका मन सिवाय कृष्ण के कहीं ओर सुख नहीं पाता। जिन आँखों ने कमल के समान नयनवाले श्रीकृष्ण का दर्शन कर लिया हो वे ओर देव की आराधना कैसे कर सकती हैं? आराध्य देव का गुणगान सूरने किया है। दूसरे पद में भी कृष्ण का मनमोहक वर्णन किया है। बालकृष्ण की चेष्टाओं के माध्यम से बालक कृष्ण का मनोरम्य वर्णन किया है।
सूरदास के पद
(1)
विनय तथा भक्ति
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै।
कमल- नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंगा कौं छाँड़ि,पियासौ, दुरमति कूप खनावै।
जिहिँ मधुकर अंबुज – रस चाख्यौ, क्यों करील – फल भावै।
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, तजि, छेरी कौन दुहावै।
(2)
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरूनि चलन रेनु तन- मंडित, मुख दधि लेप किए।
चारू कपोल, लोल लोचन, गोरोचन – तिलक दिए।
लट – लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिँ पिए।
कठुला कंठ, बज्र केहरि-नख राजत रूचिर हिए।
धन्य सूर एक पल इहिं सुख का सत कल्प जिए।
सूरदास के पद – व्याख्या सहित
(1)
विनय तथा भक्ति
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै।
कमल- नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंगा कौं छाँड़ि,पियासौ, दुरमति कूप खनावै।
जिहिँ मधुकर अंबुज – रस चाख्यौ, क्यों करील – फल भावै।
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, तजि, छेरी कौन दुहावै।
जानकारी खंड
यह पद भक्तिकाल के महान कवि सूरदास द्वारा रचित है, जिसमें भक्ति और वैराग्य की भावना प्रकट की गई है। इसमें कवि ने आत्मा (मन) की चंचलता और उसकी ईश्वर के प्रति आसक्ति को अत्यंत सुंदर ढंग से व्यक्त किया है।
व्याख्या
सूरदास जी कहते हैं कि मेरा मन अन्यत्र कहीं सुख-शांति नहीं पाता है जैसे कोई पक्षी जहाज से उड़कर दूर चला जाता है, लेकिन जब उसे कहीं और ठिकाना नहीं मिलता, तो वह वापस जहाज पर लौट आता है। उसी तरह मैं हूँ मुझे कृष्ण के अलावा और कोई नहीं भाता है। सूरदास यहाँ कह रहे हैं कि भगवान श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं और जो व्यक्ति उन्हें छोड़कर अन्य देवी-देवताओं की उपासना करता है, वह ईश्वर की वास्तविक कृपा से वंचित रह जाता है। सूरदास आगे कहते हैं कि जो पवित्र गंगा को छोड़कर प्यास बुझाने के लिए कुआँ खोदता है, वह मूर्खता करता है अर्थात् यहाँ गंगा को श्रीकृष्ण रूपी भक्ति से जोड़ा गया है। गंगा के निर्मल जल के रहते हुए यदि कोई कुआँ खोदकर पानी पीना चाहे, तो यह उसकी नासमझी होगी। इसी तरह, ईश्वर की सीधी भक्ति को छोड़कर अन्य सांसारिक उपायों में सुख की तलाश करना व्यर्थ है। सूरदास जी यह भी कहते हैं कि जिस भौंरे ने कमल के मधुर रस का स्वाद चख लिया हो, वह करील (एक कड़वे वृक्ष) के फल को कैसे पसंद करेगा? अर्थात् जिस व्यक्ति ने भगवान की भक्ति का आनंद अनुभव कर लिया हो, उसे संसार के तुच्छ और अस्थायी सुख अच्छे नहीं लगते। जैसे भौंरा यदि कमल के मधुर रस का स्वाद ले चुका हो, तो वह कड़वे करील के फल की ओर आकर्षित नहीं होता। अंत में सूरदास जी कहते हैं कि ईश्वर रूपी कामधेनु (जो सब इच्छाएँ पूर्ण करने वाली होती है) को छोड़कर यदि कोई सांसारिक सुखों (छोटी-छोटी इच्छाओं) में लिप्त होता है, तो वह मूर्खता करता है। यह संसार बकरी के दूध के समान है, जो सीमित लाभ देता है, जबकि भगवान की भक्ति से अपार सुख और शांति प्राप्त होती है।
(2)
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरूनि चलन रेनु तन- मंडित, मुख दधि लेप किए।
चारू कपोल, लोल लोचन, गोरोचन – तिलक दिए।
लट – लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिँ पिए।
कठुला कंठ, बज्र केहरि-नख राजत रूचिर हिए।
धन्य सूर एक पल इहिं सुख का सत कल्प जिए।
जानकारी खंड
यह पद महान कृष्णभक्त कवि सूरदास द्वारा रचित है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप का सुंदर वर्णन किया गया है। इस पद में वात्सल्य रस की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति हुई है, जहाँ श्रीकृष्ण की माखन चोरी, उनकी चंचलता और उनकी दिव्य सुंदरता को दर्शाया गया है।
व्याख्या
श्रीकृष्ण की माखन चोरी की लीला बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ सूरदास जी उनका बालरूप प्रस्तुत कर रहे हैं, जहाँ वे अपने हाथों में मक्खन लिए हुए अत्यंत मनोहर लग रहे हैं। वे घुटनों के बल चल रहे हैं, जिससे उनके शरीर पर धूल (रेणु) लग गई है और उनके मुँह पर चोरी किया हुआ दही लगा हुआ है। यह दृश्य अत्यंत मोहक और वात्सल्य रस से भरपूर है। उनके सुंदर कपोल (गाल) और चंचल नेत्र हैं, और उनके माथे पर गोरोचन (चंदन का तिलक) लगा हुआ है। उनकी घुँघराली अलकें (केशों की लटें) ऐसे लहरा रही हैं, मानो मदमस्त भौंरों का समूह मधुर रस पीकर मस्ती में झूम रहा हो। उनका कंठ कठुला अर्थात् मजबूत, सुडौल है, उनके नाखून सिंह के नाखून के जैसे हैं और वज्र के समान चमक रहे हैं, और उनका हृदय सुंदरता से दमक रहा है। सूरदास कहते हैं कि एक क्षण के लिए इस सौंदर्य और आनंद का अनुभव करना सौ कल्पों तक जीने से भी अधिक भाग्यशाली है।
अनत – दूसरे स्थान पर, अन्यत्र
पंछी – पक्षी, विहग
महातम – महानता, माहात्म्य
ध्यावै – ध्यान करे
छाँड़ि – छोड़कर
पियासौ – प्यासा
दूरमति – खराब बुद्धिवाला
करीला – कंटीली झाड़ी
छेरी – बकरी
चारु – सुंदर
लोचन – आँख
मादक – नशायुक्त
1. निम्नलिखित प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-
(1) जहाज का पंछी जहाज से उड़कर फिर कहाँ आता है?
उत्तर – जहाज का पंछी जहाज से उड़कर फिर जहाज पर ही आता है।
(2) सूरदास के मधुकर को करील फल क्यों नहीं भाता?
उत्तर – सूरदास के मधुकर को करील फल नहीं भाता क्योंकि उसने कमल के मधुर रस का स्वाद चख लिया है और उसे करील का कड़वा स्वाद कैसे पसंद आ सकता है।
(3) बालकृष्ण के मुख पर किसका लेप किया हुआ है?
उत्तर – बालकृष्ण के मुख पर दही का लेप किया हुआ है।
(4) सूर धन्य क्यों हुए?
उत्तर – सूर धन्य हुए क्योंकि कृष्ण के बालरूप का दर्शन कर उन्होंने सौ साल जीने का सुख प्राप्त कर लिया है।
2. निम्नलिखित प्रश्नों के प्रश्नों के उत्तर विस्तार से लिखिए :-
(1) सूर ने किन उदाहरणों द्वारा अपनी अनन्य भक्ति भावना प्रकट की है?
उत्तर – सूरदास ने अपनी अनन्य भक्ति भावना प्रकट करते हुए कहते हैं कि सच्चा सुख भगवान की भक्ति में ही है। जिस प्रकार जहाज का पक्षी जहाज से उड़कर जाने पर भी लौट आता है, उसी तरह मनुष्य भी संसार में भटकने के बाद अंततः ईश्वर की शरण में ही शांति पाता है। उनका मानना है कि कृष्ण को छोड़कर अन्य देवताओं की पूजा करना मूर्खता है। अंत में सूरदास जी कहते हैं कि ईश्वर रूपी कामधेनु को छोड़कर जो सांसारिक सुखों में लिप्त होता है, तो वह मूर्खता करता है। यह संसार बकरी के दूध के समान है, जो सीमित लाभ देता है, जबकि भगवान की भक्ति से अपार सुख और शांति प्राप्त होती है।
(2) बालक कृष्ण के स्वरूप का वर्णन कीजिए।
उत्तर – बालक कृष्ण के स्वरूप का वर्णन कुछ इस प्रकार है- श्रीकृष्ण अपने हाथों में माखन लिए अत्यंत सुंदर लग रहे हैं। वे घुटनों के बल चल रहे हैं, और उनके शरीर पर धूल लगी हुई है। उनके मुख पर दही का लेप है, जिससे उनकी शरारत का पता चलता है। उनके सुंदर गाल, चंचल नेत्र और माथे पर तिलक उनकी दिव्यता को दर्शाते हैं। उनकी घुँघराली अलकें मदमस्त भौंरों की तरह लहरा रही हैं। उनके नाखून वज्र की तरह चमक रहे हैं और उनका हृदय पवित्रता से भरा है।
(3) सूरदास अपने आपको क्यों धन्य मानते हैं?
उत्तर – कवि सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के बाल रूप का यह दृश्य इतना अद्भुत और दिव्य है कि यदि कोई एक पल के लिए भी इसे देख ले, तो वह सौ कल्पों अर्थात् अत्यंत लंबी अवधि तक जीने के बराबर आनंद पा सकता है।
3. तत्सम रूप दीजिए :-
अनत – अन्यत्र
पंछी – पक्षी
महातम – महानता
पियासौ – प्यासा
दुरमति – दुर्मति
लट – अलकें
मधुहिँ – मधुर
केहरि – सिंह
4. समानार्थी शब्द लिखें :-
पक्षी – खग, विहग
अंबुज – कमल, अरविंद
कूप – कुआँ, कुव
मधुकर – भौंरा, भ्रमर
धेनु – गाय, गौ
छेरी – बकरी, अज
नवनीत – मक्खन, माखन
लोचन – नेत्र, नयन
कंठ – गला, हलक
नख – नाखून, पुनर्भव
चलचित्रों में पाए जानेवाले सूरदासजी के पदों का संग्रह कीजिए।
उत्तर – सूरदास के प्रसिद्ध पद
- बाल कृष्ण लीला:
“मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो।”
(इस पद में बाल कृष्ण की शरारतों और माता यशोदा से उनकी शिकायत का सुंदर चित्रण है।)
- गोपियों का प्रेम:
“अखियाँ हरि दरशन की प्यासी।”
(इस पद में गोपियों की विरह वेदना का सुंदर वर्णन है।)
- वात्सल्य रस:
“कहाँ चले हो मोहन मुरली की तान सुनाय के?”
(इसमें माता यशोदा का वात्सल्य भाव दिखाया गया है।)
सूरदास के जीवन और साहित्य सर्जन के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर – सूरदास – जीवन परिचय और साहित्यिक योगदान
सूरदास का जीवन परिचय
सूरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल (1375-1700 ई.) के प्रमुख कवि थे। वे भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे और हिंदी साहित्य में ‘भक्तिकालीन कृष्ण भक्ति शाखा’ के महान कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं।
जन्म – सूरदास के जन्म को लेकर विभिन्न मत हैं, लेकिन अधिकांश विद्वानों के अनुसार उनका जन्म 1478 ई. में हुआ माना जाता है।
जन्मस्थान – इनके जन्मस्थान को लेकर भी मतभेद है, परंतु अधिकतर विद्वान रुनकता (आगरा के पास), उत्तर प्रदेश को इनका जन्मस्थान मानते हैं।
अंधत्व – कहा जाता है कि सूरदास जन्म से ही नेत्रहीन थे, लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं कि वे बाद में अंधे हुए।
गुरु – सूरदास के गुरु संत वल्लभाचार्य थे, जिन्होंने उन्हें पुष्टिमार्गीय भक्ति परंपरा में दीक्षित किया।
मृत्यु – इनकी मृत्यु 1583 ई. के आसपास मानी जाती है।
सूरदास का साहित्यिक योगदान
सूरदास की रचनाएँ मुख्य रूप से कृष्ण भक्ति पर आधारित हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में भगवान श्रीकृष्ण के बाल्य-रूप, लीला और वात्सल्य भाव का सुंदर चित्रण किया है। उनके काव्य में भक्ति, प्रेम, दर्शन और काव्य-सौंदर्य का अद्भुत समन्वय मिलता है।
मुख्य रचनाएँ:
सूरसागर – यह सूरदास की सबसे प्रसिद्ध कृति है। इसमें श्रीकृष्ण के बाल्य जीवन से लेकर उनकी लीलाओं का अद्भुत वर्णन किया गया है। विशेष रूप से बाल कृष्ण लीला, रास लीला, गोपियों के साथ संवाद, उद्धव-गोपियों की बातचीत का अत्यंत सुंदर चित्रण मिलता है।
सूरसारावली – इसमें भक्तिमार्ग का वर्णन है। इसमें कुल 1008 पद माने जाते हैं। इसमें सृष्टि उत्पत्ति, कृष्ण की लीलाओं और भक्ति के महत्व को समझाया गया है।
साहित्य लहरी – इसमें 118 पद्य हैं। इसमें काव्य और भक्ति से संबंधित गूढ़ बातें समझाई गई हैं। इसमें अलंकार, रस, नायिका भेद आदि काव्यशास्त्रीय तत्वों का समावेश किया गया है।
सूरदास की काव्य विशेषताएँ
कृष्ण भक्ति का सुंदर चित्रण – सूरदास की कविताओं में कृष्ण लीला, बाल्य अवस्था, रास लीला, गोपियों का प्रेम और भक्ति को अद्भुत तरीके से प्रस्तुत किया गया है। उनके काव्य में वात्सल्य और शृंगार रस का सुंदर समावेश मिलता है।
भाषा और शैली – सूरदास ने ब्रज भाषा में काव्य रचना की, जिससे उनकी कविताएँ अत्यंत सरल, मधुर और भावनात्मक बन गईं। उनकी भाषा में स्वाभाविकता, सहजता और प्रवाह मिलता है। उन्होंने अलंकारों और रसों का प्रभावी प्रयोग किया।
नायिका भेद और मनोवैज्ञानिक चित्रण – सूरदास ने गोपियों के मनोभावों को अत्यंत सूक्ष्मता से प्रस्तुत किया है। उन्होंने शृंगार रस का अत्यंत प्रभावशाली प्रयोग किया, विशेष रूप से उद्धव-गोपी संवाद में।
भावनाओं की गहराई – उनकी कविता में शृंगार, वात्सल्य और भक्ति रस का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है। वे मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चरित्र चित्रण करने में भी निपुण थे।
सूरदास के चित्र प्राप्त करें तथा छात्रों से उनके जीवन और कथन के चार्ट्स करवाइए। मल्टीमिड़िया के उपयोग द्वारा सूरदास के पद की सी. डी. बनवाइए।
उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर करें।