CBSE, NCERT, Class – IX, Sparsh, Chapter -3, Sharad Joshi – Tum Kab Jaooge Atithi, शरद जोशी – तुम कब जाओगे, अतिथि (HINDI Course B)

(1931 – 1991)
शरद जोशी का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में 21 मई 1931 को हुआ। इनका बचपन कई शहरों में बीता। कुछ समय तक यह सरकारी नौकरी में रहे, फिर इन्होंने लेखन को ही आजीविका के रूप में अपना लिया। इन्होंने आरंभ में कुछ कहानियाँ लिखीं, फिर पूरी तरह व्यंग्य-लेखन ही करने लगे। इन्होंने व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य कॉलम के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद भी लिखे। हिंदी व्यंग्य को प्रतिष्ठा दिलाने वाले प्रमुख व्यंग्यकारों में शरद जोशी भी एक हैं।
शरद जोशी की प्रमुख व्यंग्य-कृतियाँ हैं : परिक्रमा, किसी बहाने, जीप पर सवार इल्लियाँ, तिलस्म, रहा किनारे बैठ, दूसरी सतह, प्रतिदिन। दो व्यंग्य नाटक हैं : अंधों का हाथी और एक था गधा। एक उपन्यास है : मैं, मैं, केवल मैं, उर्फ़ कमलमुख बी-ए-।
शरद जोशी की भाषा अत्यंत सरल और सहज है। मुहावरों और हास-परिहास का हलका स्पर्श देकर इन्होंने अपनी रचनाओं को अधिक रोचक बनाया है। धर्म, अध्यात्म, राजनीति, सामाजिक जीवन, व्यक्तिगत आचरण, कुछ भी शरद जोशी की पैनी नज़र से बच नहीं सका है। इन्होंने अपनी व्यंग्य-रचनाओं में समाज में पाई जाने वाली सभी विसंगतियों का बेबाक चित्रण किया है। पाठक इस चित्रण को पढ़कर चकित भी होता है और बहुत कुछ सोचने को विवश भी।

प्रस्तुत पाठ ‘तुम कब जाओगे, अतिथि’ में शरद जोशी ने ऐसे व्यक्तियों की खबर ली है, जो अपने किसी परिचित या रिश्तेदार के घर बिना कोई पूर्व सूचना दिए चले आते हैं और फिर जाने का नाम ही नहीं लेते, भले ही उनका टिके रहना मेज़बान पर कितना ही भारी क्यों न पड़े। अच्छा अतिथि कौन होता है? वह, जो पहले से अपने आने की सूचना देकर आए और एक-दो दिन मेहमानी कराके विदा हो जाए या वह, जिसके आगमन के बाद मेज़बान वह सब सोचने को विवश हो जाए, जो इस पाठ के मेज़बान निरंतर सोचते रहे।

आज तुम्हारे आगमन के चतुर्थ दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में घुमड़ रहा है- तुम कब जाओगे, अतिथि?
तुम जहाँ बैठे निस्संकोच सिगरेट का धुआँ फेंक रहे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर है। देख रहे हो ना! इसकी तारीखें अपनी सीमा में नम्रता से फड़फड़ाती रहती हैं। विगत दो दिनों से मैं तुम्हें दिखाकर तारीखें बदल रहा हूँ। तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन है, तुम्हारे सतत आतिथ्य का चौथा भारी दिन! पर तुम्हारे जाने की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती। लाखों मील लंबी यात्रा करने के बाद वे दोनों एस्ट्रॉनाट्स भी इतने समय चाँद पर नहीं रुके थे, जितने समय तुम एक छोटी-सी यात्रा कर मेरे घर आए हो। तुम अपने भारी चरण-कमलों की छाप मेरी ज़मीन पर अंकित कर चुके, तुमने एक अंतरंग निजी संबंध मुझसे स्थापित कर लिया, तुमने मेरी आर्थिक सीमाओं की बैंजनी चट्टान देख ली; तुम मेरी काफ़ी मिट्टी खोद चुके। अब तुम लौट जाओ, अतिथि! तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय अर्थात हाईटाइम है। क्या तुम्हें तुम्हारी पृथ्वी नहीं पुकारती?
उस दिन जब तुम आए थे, मेरा हृदय किसी अज्ञात आशंका से धड़क उठा था। अंदर-ही-अंदर कहीं मेरा बटुआ काँप गया। उसके बावजूद एक स्नेह-भीगी मुसकराहट के साथ मैं तुमसे गले मिला था और मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की थी। तुम्हारे सम्मान में ओ अतिथि, हमने रात के भोजन को एकाएक उच्च-मध्यम वर्ग के डिनर में बदल दिया था। तुम्हें स्मरण होगा कि दो सब्ज़ियों और रायते के अलावा हमने मीठा भी बनाया था। इस सारे उत्साह और लगन के मूल में एक आशा थी। आशा थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार मेहमाननवाज़ी की छाप अपने हृदय में ले तुम चले जाओगे। हम तुमसे रुकने के लिए आग्रह करेंगे, मगर तुम नहीं मानोगे और एक अच्छे अतिथि की तरह चले जाओगे। पर ऐसा नहीं हुआ! दूसरे दिन भी तुम अपनी अतिथि-सुलभ मुसकान लिए घर में ही बने रहे। हमने अपनी पीड़ा पी ली और प्रसन्न बने रहे। स्वागत-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर हम तुम्हें ले जा चुके थे, वहाँ से नीचे उतर हमने फिर दोपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की और रात्रि को तुम्हें सिनेमा दिखाया। हमारे सत्कार का यह आखिरी छोर है, जिससे आगे हम किसी के लिए नहीं बढे़। इसके तुरंत बाद भावभीनी विदाई का वह भीगा हुआ क्षण आ जाना चाहिए था, जब तुम विदा होते और हम तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने जाते। पर तुमने ऐसा नहीं किया।
तीसरे दिन की सुबह तुमने मुझसे कहा, “मैं धोबी को कपड़े देना चाहता हूँ।” यह आघात अप्रत्याशित था और इसकी चोट मार्मिक थी। तुम्हारे सामीप्य की वेला एकाएक यों रबर की तरह खिंच जाएगी, इसका मुझे अनुमान न था। पहली बार मुझे लगा कि अतिथि सदैव देवता नहीं होता, वह मानव और थोड़े अंशों में राक्षस भी हो सकता है।
“किसी लॉण्ड्री पर दे देते हैं, जल्दी धुल जाएँगे।” मैंने कहा। मन-ही-मन एक विश्वास पल रहा था कि तुम्हें जल्दी जाना है।
“कहाँ है लॉण्ड्री?”
“चलो चलते हैं।” मैंने कहा और अपनी सहज बनियान पर औपचारिक कुर्ता डालने लगा।
“कहाँ जा रहे हैं?” पत्नी ने पूछा।
“इनके कपड़े लॉण्ड्री पर देने हैं।” मैंने कहा।
मेरी पत्नी की आँखें एकाएक बड़ी-बड़ी हो गईं। आज से कुछ बरस पूर्व उनकी ऐसी आँखें देख मैंने अपने अकेलेपन की यात्रा समाप्त कर बिस्तर खोल दिया था।
पर अब जब वे ही आँखें बड़ी होती हैं तो मन छोटा होने लगता है। वे इस आशंका और भय से बड़ी हुई थीं कि अतिथि अधिक दिनों ठहरेगा। और आशंका निर्मूल नहीं थी, अतिथि! तुम जा नहीं रहे। लॉण्ड्री पर दिए कपड़े धुलकर आ गए और तुम यहीं हो। तुम्हारे भरकम शरीर से सलवटें पड़ी चादर बदली जा चुकी और तुम यहीं हो। तुम्हें देखकर फूट पड़नेवाली मुसकराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब लुप्त हो गई है। ठहाकों के रंगीन गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब दिखाई नहीं पड़ते। बातचीत की उछलती हुई गेंद चर्चा के क्षेत्र के सभी कोनलों से टप्पे खाकर फिर सेंटर में आकर चुप पड़ी है। अब इसे न तुम हिला रहे हो, न मैं। कल से मैं उपन्यास पढ़ रहा हूँ और तुम फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहे हो। शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चुक गए। परिवार, बच्चे, नौकरी, फिल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, तबादले, पुराने दोस्त, परिवार-नियोजन, मँहगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी ज़िक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है। सौहार्द अब शनैः-शनैः बोरियत में रूपांतरित हो रहा है। भावनाएँ गालियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं, पर तुम जा नहीं रहे। किस अदृश्य गोंद से तुम्हारा व्यक्तित्व यहाँ चिपक गया है, मैं इस भेद को सपरिवार नहीं समझ पा रहा हूँ। बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है- तुम कब जाओगे, अतिथि?
कल पत्नी ने धीरे से पूछा था,
“कब तक टिकेंगे ये?”
मैंने कंधे उचका दिए, “क्या कह सकता हूँ!”
“मैं तो आज खिचड़ी बना रही हूँ। हलकी रहेगी।”
“बनाओ।”
सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो रही थी। डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गए। अब भी अगर तुम अपने बिस्तर को गोलाकार रूप नहीं प्रदान करते तो हमें उपवास तक जाना होगा। तुम्हारे-मेरे संबंध एक संक्रमण के दौर से गुज़र रहे हैं। तुम्हारे जाने का यह चरम क्षण है। तुम जाओ न अतिथि! तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है न! मैं जानता हूँ। दूसरों के यहाँ अच्छा लगता है। अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता। अपने घर की महत्ता के गीत इसी कारण गाए गए हैं। होम को इसी कारण स्वीट-होम कहा गया है कि लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न दौडे़ं। तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है, पर सोचो प्रिय, कि शराफ़त भी कोई चीज़ होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है। अपने खर्राटों से एक और रात गुंजायमान करने के बाद कल जो किरण तुम्हारे बिस्तर पर आएगी वह तुम्हारे यहाँ आगमन के बाद पाँचवें सूर्य की परिचित किरण होगी। आशा है, वह तुम्हें चूमेगी और तुम घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लोगे। मेरी सहनशीलता की वह अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं स्टैंड नहीं कर सकूँगा और लड़खड़ा जाऊँगा। मेरे अतिथि, मैं जानता हूँ कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर मैं भी मनुष्य हूँ। मैं कोई तुम्हारी तरह देवता नहीं। एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते। देवता दर्शन देकर लौट जाता है। तुम लौट जाओ अतिथि! इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा। यह मनुष्य अपनी वाली पर उतरे, उसके पूर्व तुम लौट जाओ!
उफ़, तुम कब जाओगे, अतिथि?

प्रस्तुत पाठ में तुम कब जाओगे, अतिथि में शरद जोशी जी ने ऐसे व्यक्तियों पर व्यंग्य किया है जो अपने परिचित या रिश्तेदार के घर बिना सूचना दिए आ जाते हैं और फिर वहाँ से जाने का नाम नहीं लेते। भले ही उनकी वजह से मेज़बान को कितनी परेशानियाँ उठानी पड़ें।
मेजबानी का चौथा दिन- मेहमाननवाज़ी का चौथा दिन आने पर लेखक को अपने अतिथि के प्रति ऊब होने लगी। उसका मन बार-बार कहता है – अतिथि महोदय, पिछले दो दिन से मैं जान-बूझकर कैलेंडर की तारीखें तुम्हारे सामने बदल रहा हूँ पर तुम्हें इसका अर्थ समझ नहीं आ रहा है। तुम्हें यहाँ आए चार दिन हो गए, चाँद पर भी एस्ट्रोनॉट्स इतने दिन न रुके थे।सारी कुशल-मंगल की बातें समाप्त हो चुकी हैं। अब तो घर की आर्थिक स्थिति भी हिलने लगी है। तुम बताओ अब तुम कब जाओगे?
आतिथ्य के पहले दो दिन – घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर भी अतिथि सत्कार किया गया। पत्नी ने भी आपको भरपूर सम्मान दिया। सामान्य से भोजन करने वाले हम लोगों ने भी रात्रि भोजन को डिनर की गरिमा दी। मन में आशा थी कि बस कल तो तुम चले ही जाओगे। हमारे झूठे आग्रह करने पर भी नहीं रुकोगे। दूसरे दिन दोपहर में लंच कराया व रात को सिनेमा भी दिखाई।
डिनर से खिचड़ी पर आना – लॉण्ड्री से कपड़े धुलकर आ गए किंतु तुम नहीं गए। मिलने और बातचीत की घड़ियाँ अब बोझ बनने लगी हैं। बातचीत के विषय खत्म हो गए। लेखक उपन्यास पढ़ने लगे और अतिथि फिल्मी पत्रिका। पत्नी ने आतिथ्य से ऊबकर अब खिचड़ी बनाने की इच्छा प्रकट कर दी। तुम रुके तो उपवास रखने की भी नौबत आ जाएगी। अब बहुत हो चुका अब तुम्हें यहाँ से चलना चाहिए।
काश, गेट आउट करने की नौबत न आए – तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा होगा पर घरवालों को नहीं क्योंकि तुम्हारी यहाँ कल पाँचवीं सुबह होगी। यदि तुम कल नहीं गए तो मेरी सहनशीलता जवाब दे देगी। मैं यह भूल जाऊँगा कि अतिथि देवता होता है। वैसे भी मनुष्य और देवता का साथ लंबा नहीं निभता। अपना सम्मान बचाना चाहते हो तो चले जाओ।

1. व्यंग्य – मज़ाक
2. उपन्यास -Novel
3. प्रतिष्ठा इज्ज़त-
4. पटकथाएँ -Screenplay
5. परिहास – मज़ाक
6. पैनी – तीक्ष्ण, Sharp
7. बेबाक – बिना डरे
8. मेज़बान – Host
9. विवश – मजबूर
10. आगमन – आना
11. निस्संकोच – संकोचरहित, बिना संकोच के
12. नम्रता – नत होने का भाव, स्वभाव में नरमी का होना
13. सतत – निरंतर, लगातार
14. आतिथ्य – आवभगत
15. एस्ट्रॉनाट्स – अंतरिक्ष यात्री
16. अंतरंग – घनिष्ठ, गहरा
17. आशंका – खतरा, भय, डर
18. मेहमाननवाज़ी – अतिथि सत्कार
19. छोर – किनारा, सीमा
20. भावभीनी – प्रेम से ओतप्रोत
21. आघात – चोट, प्रहार
22. अप्रत्याशित – आकस्मिक, अनसोचा
23. मार्मिक – मर्मस्पर्शी
24. सामीप्य – निकटता, समीपता
25. औपचारिक – दिखावटी, रस्मी
26. निर्मूल – मूलरहित, बिना जड़ का
27. कोनलों – कोनों से
28. सौहार्द – मैत्री, हृदय की सरलता
29. रूपांतरित – जिसका रूप (आकार) बदल दिया गया हो
30. ऊष्मा – गरमी, उग्रता
31. संक्रमण – एक स्थिति या अवस्था से दूसरी में प्रवेश
32. गुंजायमान – गूँजता हुआ

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए-
1- अतिथि कितने दिनों से लेखक के घर पर रह रहा है?
उत्तर – अतिथि लेखक के घर पर पिछले चार दिनों से रह रहा है।
2- कैलेंडर की तारीखें किस तरह फड़फड़ा रही हैं?
उत्तर – कैलेंडर की तारीखें अपनी सीमा में नम्रता से पंछी की तरह फड़फड़ा रही है।
3- पति-पत्नी ने मेहमान का स्वागत कैसे किया?
उत्तर – पति-पत्नी ने भीगी मुस्कान से मेहमान को गले लगाकर उसका स्वागत किया। रात के भोजन में दो प्रकार की सब्जियाँ, रायता और मीठी चीज़ों का भी प्रबंध किया गया।
4- दोपहर के भोजन को कौन-सी गरिमा प्रदान की गई?
उत्तर – दोपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की गई।
5- तीसरे दिन सुबह अतिथि ने क्या कहा?
उत्तर – तीसरे दिन सुबह अतिथि ने लोंड्री में कपड़े देने को कहा क्योंकि वह अपने कपड़े धुलवाना चाहता था।
6- सत्कार की ऊष्मा समाप्त होने पर क्या हुआ?
उत्तर – सत्कार की ऊष्मा समाप्त होने पर डिनर के स्थान पर खिचड़ी बनने लगी। खाने में सादगी आ गई और अगर वह नहीं जाता तो उपवास तक रखना पड़ सकता था।

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (25-30 शब्दों में) लिखिए-
1- लेखक अतिथि को कैसी विदाई देना चाहता था?
उत्तर – लेखक अतिथि को भावपूर्ण विदाई देना चाहता था। वह अतिथि का भरपूर स्वागत कर चुका था। प्राचीनकाल में कहा जाता था,“अतिथि देवो भव” लेखक ने इस कथन की मर्यादा रखी। वह चाहता था कि जब अतिथि विदा हो तब वह और उसकी पत्नी उसे स्टेशन तक छोड़ने जाएँ। वह उसे सम्मानजनक विदाई देना चाहता था।
2- पाठ में आए निम्नलिखित कथनों की व्याख्या कीजिए-
(क) अंदर ही अंदर कहीं मेरा बटुआ काँप गया।
उत्तर – लेखक के घर में जब अतिथि बिना सूचना दिए आ गया तो उसे लगा कि उसका बटुआ हल्का हो जाएगा। उसके हृदय में बेचैनी हो रही थी कि अतिथि का स्वागत किस प्रकार किया जाए। अपनी तरफ़ से लेखक ने अच्छी खातिरदारी का हर संभव प्रयास किया। बावजूद इसके अतिथि जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। इतने दिनों की मेहमाननवाज़ी में लेखक का बटुआ बहुत हल्का हो चुका था।
(ख) अतिथि सदैव देवता नहीं होता, वह मानव और थोडे़ अंशों में राक्षस भी हो सकता है।
उत्तर – आज के युग में अगर अतिथि बिना तिथि के आ जाए तो वह अपना देवत्व अधिकांश मात्रा में खो देता है और अगर कुछ दिन रहने के बाद भी वह जाने का नाम न ले तो वह अपना देवत्व पूर्णत: खोकर लापरवाह आदमी और बाद में राक्षस का रूप धारण कर लेता है।
(ग) लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न दौड़ें।
उत्तर – सभी लोग अपने घर की स्वीटनेस को बरकरार रखना चाहते हैं परंतु बिना तिथि के आया हुआ अतिथि इस स्वीटनेस को बिटरनेस में तब्दील कर देता है। ऐसे में अतिथि को चाहिए कि समझदार बनते हुए कम से कम इतना विचार तो ज़रूर करे कि उसके आने से मेज़बान की दिनचर्या में बदलाव आ गया है और यथासंभव भावपूर्ण विदाई लेकर चला जाए।
(घ) मेरी सहनशीलता की वह अंतिम सुबह होगी।
उत्तर – लेखक का मानना है कि यदि अतिथि एक-दो दिन के लिए ठहरे तो उसका आदर-सत्कार होगा परंतु अगर वह इस दिवस सीमा को पार करता है तो मेज़बान की सहनशीलता टूट जाती है। मेज़बान दिन में कई बार मूक भाषा में अतिथि को ‘गेट-आउट’ कहता है और आतिथ्य-सत्कार का मानो अंत-सा हो जाता है।
(ङ) एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते।
उत्तर – अतिथि को देवता के समान कहा गया है। यदि देवता मनुष्य के साथ ज़्यादा समय तक रहे तो उसका देवत्व समाप्त हो जाता है क्योंकि देवता थोड़े देर के लिए ही दर्शन देकर चले जाते हैं। मनुष्य और देवता में ईर्ष्या-द्वेष की भावना नहीं होती है परंतु यह तब तक ही संभव है जब तक समय सीमा को परिस्थितियाँ प्रभावित न करें।

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (50-60 शब्दों में) लिखिए-
1- कौन-सा आघात अप्रत्याशित था और उसका लेखक पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर – मेहमानों का बिना बताए मेज़बान के घर चले आने का आघात अप्रत्याशित था और उनके द्वारा तरह-तरह की फरमाइशें इस आघात को और भी व्याघात पहुँचाता है। बिना तिथि के अतिथि के आने से एक तो लेखक की दिनचर्या में काफी परिवर्तन आया। दूसरा, लेखक और उसकी पत्नी के बीच भी अनबन होने लगी और सबसे महत्त्वपूर्ण तो यह कि अतिथि के आने से लेखक का बटुआ हल्का हो गया।
2- ‘संबंधों का संक्रमण के दौर से गुज़रना’- इस पंक्ति से आप क्या समझते हैं? विस्तार से लिखिए।
उत्तर – ‘संक्रमण’ का अर्थ है- बदलाव। इस पंक्ति के माध्यम से लेखक यह कहना चाहते है कि अतिथि और उनके बीच का रिश्ता इसी संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है जो धीरे- धीरे मधुरता से कड़वाहट में परिवर्तित हो रहा है। सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो गई है और अब यह तिरस्कार का रूप धारण करने वाला है।
3- जब अतिथि चार दिन तक नहीं गया तो लेखक के व्यवहार में क्या-क्या परिवर्तन आए?
उत्तर – जब अतिथि चार दिन तक नहीं गया तो लेखक के व्यवहार में निम्नलिखित परिवर्तन आए –
i. खाने का स्तर डिनर से गिरकर खिचड़ी तक आ पहुँचा।
ii. लेखक अतिथि को गेट आउट कहने को भी तैयार हो गया।
iii. लेखक को अतिथि राक्षस के समान लगने लगा।
iv. अब अतिथि के प्रति सत्कार की भावना लुप्त-सी हो गई।
v. भावनाएँ गालियों का स्वरूप धारण करने लगीं।

1. निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्याय लिखिए-
चाँद – राकेश शशि
ज़िक्र – उल्लेख वर्णन
आघात – हमला चोट
ऊष्मा – गर्मी घनिष्ठता
अंतरंग – घनिष्ठ आंतरिक

2- निम्नलिखित वाक्यों को निर्देशानुसार परिवर्तित कीजिए-
(क) हम तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने जाएँगे। (नकारात्मक वाक्य)
उत्तर – हम तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने नहीं जाएँगे।
(ख) किसी लॉण्ड्री पर दे देते हैं, जल्दी धुल जाएँगे। (प्रश्नवाचक वाक्य)
उत्तर – किसी लॉण्ड्री पर दे देने से क्या जल्दी धुल जाएँगे?
(ग) सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो रही थी। (भविष्यत् काल)
उत्तर – सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो जाएगी।
(घ) इनके कपड़े देने हैं। (स्थानसूचक प्रश्नवाची)
उत्तर – इनके कपड़े कहाँ देने हैं?
(ङ) कब तक टिकेंगे ये? (नकारात्मक)
उत्तर – ये अब नहीं टिकेंगे।
3. पाठ में आए इन वाक्यों में ‘चुकना’ क्रिया के विभिन्न प्रयोगों को ध्यान से देखिए और वाक्य संरचना को समझिए –
(क) तुम अपने भारी चरण-कमलों की छाप मेरी जमीन पर अंकित कर चुके।
(ख) तुम मेरी काफ़ी मिट्टी खोद चुके।
(ग) आदर-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर हम तुम्हें ले जा चुके थे।
(घ) शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चुक गए।
(ङ) तुम्हारे भारी-भरकम शरीर से सलवटें पड़ी चादर बदली जा चुकी और तुम यहीं हो।

4. निम्नलिखित वाक्य संरचनाओं में ‘तुम’ के प्रयोग पर ध्यान दीजिए –
(क) लॉण्ड्री पर दिए कपड़े धुलकर आ गए और तुम यहीं हो।
(ख) तुम्हें देखकर फूट पड़ने वाली मुस्कुराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब लुप्त हो गई है।
(ग) तुम्हारे भरकम शरीर से सलवटें पड़ी चादर बदली जा चुकी।
(घ) कल से मैं उपन्यास पढ़ रहा हूँ और तुम फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहे हो।
(ङ) भावनाएँ गालियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं, पर तुम जा नहीं रहे।

वाक्यांशों के लिए एक शब्द
1. अतिथि – जिसके आने की कोई तिथि न हो
2. आर्थिक – धन से संबंधित
3. अप्रत्याशित – जिसकी आशा न हो
4. मार्मिक – मर्म (हृदय) को छूने वाला

विलोम शब्द
1. विगत – गत
2. उच्च – निम्न
3. सम्मान – असम्मान
4. समूल – निर्मूल

अनेकार्थी शब्द
1. चरण – छंद, पैर
2. लगन – शादी, मन की एक अवस्था
3. मूल – जड़, मुख्य
4. मगर – किंतु, मगमच्छ
5. पन्ना – पृष्ठ(Page), रत्न

उपसर्ग एवं प्रत्यय
उपसर्ग
1. सम्- संभावना
2. वि – विगत, विश्वास
3. निर् – निर्मूल
4. अ- अतिथि, अज्ञान, अप्रत्याशित, अदृश्य
5. आ – आगमन, आशंका
6. निस् – निस्संकोच
7. सा – सादर
8. अनु – अनुमान
9. स्व – स्वरूप
10. स – सपरिवार
11. उप – उपवास

प्रत्यय
1. एँ- तारीख़ें
2. इत – अंकित,रूपांतरित, परिचित, सुरक्षित
3. ता – नम्रता, देवता, सहनशीलता
4. ई – निजी। लंबी, आखिरी, रिश्तेदारी, नौकरी, फ़िल्मी
5. आहट – मुसकराहट
6. इक – आर्थिक, मार्मिक, औपचारिक
7. दार – शानदार
8. प्य – सामीप्य
9. पन – अकेलापन
10. कर – पड़कर, धुलकर, दिखाकर
11. इका – पत्रिका
12. आन – ढलान
13. वाली – पड़नेवाली
14. आई – महँगाई, विदाई
15. त्व – देवत्व, व्यक्तित्व
16. कार – गोलाकार
17. मान – गुंजायमान
18. पूर्ण – सम्मानपूर्ण
19. इम – अंतिम

पर्यायवाची
1. चरण – पद, पाँव, पैर
2. अतिथि – पाहुन, अभ्यागत, मेहमान
3. पत्नी – भार्या, सहचारिणी, सीता
4. सुबह – प्रत्युष, प्रभात, उषाकाल
5. राक्षस – दानव, निशाचर, दुष्ट
6. दोस्त – मित्र, सखा, बंधु
7. घर – आलय, निकेतन, सदन

1- ‘अतिथि देवो भव’ उक्ति की व्याख्या करें तथा आधुनिक युग के संदर्भ में इसका आकलन करें।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
2- विद्यार्थी अपने घर आए अतिथियों के सत्कार का अनुभव कक्षा में सुनाएँ।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
3- अतिथि के अपेक्षा से अधिक रुक जाने पर लेखक की क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ हुईं, उन्हें क्रम से छाँटकर लिखिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।

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