पर्यावरण और हमारा दायित्व

human responsibility towards nature preservation

संकेत बिंदु-(1) वायुमंडल प्रकृति का वरदान (2) औद्योगिक और वैज्ञानिक प्रगति से पर्यावरण दूषित (3) वाहनों और वन कटाई से प्रदूषण (4) वृक्षों द्वारा जल प्रदूषण रोकना (5) ध्वनि प्रदूषण पर रोक।

व्यक्ति के आस-पास की वह परिस्थिति जिसका व्यक्ति के अस्तित्व, जीवन-निर्वाह, विकास आदि पर प्रभाव पड़ता है, पर्यावरण कहलाता है। दूसरे शब्दों में इसे ‘वायुमंडल’ कह सकते हैं।

हमारा वायुमंडल प्रकृति का वरदान है। हमारा पालनकर्ता और जीवनाधार है। हमें स्वस्थ और सुखमय रखने का रक्षाकवच है। पर यदि यह विषाक्त हो जाए तो अभिशाप बनकर मानव-जीवन का संहारक बन जाता है। इसलिए पर्यावरण की सुरक्षा का दायित्व हमारा है।

स्वतंत्रता से बहुत पूर्व जब बड़े-बड़े उद्योगों का विस्तार नहीं हुआ था, हमारा पर्यावरण शुद्ध था। शुद्ध वायु हमारा आलिंगन करती थी। शुद्ध जल हमारा अभिषेक करता था। उर्वरा भूमि हमें स्वास्थ्यप्रद अन्न प्रदान करती थी। जीवन में न अधिक भाग-दौड़ थी, न हाय-हाय संतुष्टि पूर्ण सौम्य जीवन पर्यावरण का वरदान था।

भारत भू सस्य श्यामला थी, वन-उपवनों से हरी-भरी थी। वे पेड़-पौधों, वृक्ष-लताओं से समृद्ध थी। इसलिए वायुमंडल शुद्ध था। हवा की पावन सुगंध जन-जीवन को सुरभित कर रही थी। जनसंख्या बढ़ी। इसकी गति तीव्र हुई। इस बढ़ी हुई जनता के निवास के लिए भूमि चाहिए थी। दूसरी ओर, बढ़ती जनसंख्या की भूख मिटाने और अधिकाधिक सुख-सुविधाएँ प्रदान करने के लिए उत्पादन बढ़ाने की जरूरत थी। उत्पादन बढ़ाने के लिए कारखाने, फैक्ट्रियाँ तथा औद्योगिक संस्थान खड़े किए गए। इनके लिए भूमि की माँग हुई। इसकी माँग पूरी की वन-उपवनों ने, खेत-खलिहानों ने। जहाँ भूमि सस्य श्यामला थी, वहाँ गगन चुंबी भवनों का निर्माण हो गया। भूमि की सस्य श्यामलता क्या कम हुई, हमने प्राणदायिनी वायु को अपने ही हाथों कुछ सीमा तक अवरुद्ध कर अपने लिए अनेक असाध्य रोगों को निमंत्रण दे दिया।

जन-सुख-सुविधा के लिए औद्योगिक संस्थानों नई वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी ने उत्पादन तो बढ़ाया, किंतु पर्यावरण को तीन रूपों में प्रभावित कर दिया।

(1) कारखानों की चिमनियों से जो धूआँ निकला, उसने वायु को प्रदूषित कर दिया। उत्पादन के अवशेष तथा व्यर्थ पदार्थों को (कूड़े-कचरे) जलाया और भराव के काम लिया गया। दोनों ने वायु को प्रदूषित किया

(2) उद्योगों के दूषित रासायनिक द्रवित पदार्थ को समीपस्थ नदी में प्रवाहित कर दिया। जिससे पेय जल दूषित हो गया।

(3) वन के वृक्ष कटने से मौसम का मिजाज बिगड़ा, वर्षा का वर्षण बे-समय हुआ। वर्षा का जल जो पहले वृक्षों के कारण बहने से रुकता था, बे-रोकटोक बहने लगा, फलतः भूमि की उर्वरा शक्ति घटने लगी। कुछ औद्योगिक उत्पादनों के लिए वनों का भी निर्ममता ने विनाश किया गया। इससे भी पर्यावरण दूषित हुआ।

वायु प्रदूषण का प्रथम कारण था वन-उपवन की कटाई कटाई का कारण था जनसंख्या की वृद्धि के साथ निवास के लिए भवनों का निर्माण और औद्योगिक संस्थानों की स्थापना। इसलिए वायु प्रदूषण रोकने के लिए जनसंख्या वृद्धि को रोकना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। दो से अधिक बच्चे उत्पन्न करना, अपराध मानना होगा। दूसरी ओर, औद्योगिक संस्थानों को शहर से बाहर, आबादी से दूर स्थानांतरित करवाना होगा। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालयों के निर्णयों के मानने के लिए बाध्य करना होगा। तीसरी ओर, औद्योगिक कचरे का वैज्ञानिक हल ढूँढ़वाना, हमारी जिम्मेदारी है।

वाहनों के पाइपों से जो गैस सरेआम जीवन में विष घोल रही हैं, उनको रोकें। हम अपने वाहनों को ‘प्रदूषण मुक्त’ का प्रमाण-पत्र मिलने पर ही चलाएँ। धूम्रपान जो हमारे शौक की विवशता है, उसे यथासंभव कम करें। प्रदूषित स्थलों पर नाक पर रूमाल रखने का स्वभाव बनाएँ।

भूमि को पुनः सस्य श्यामला करना होगा। इसके लिए वन-उपवनों का विकास करना होगा तथा वनों के विनाश को रोकना होगा। असंख्य पेड़-पौधे लगाकर उनको पल्लवित-पुष्पित करना हमारा दायित्व होगा। राजमार्गों तथा अत्यधिक व्यस्त मार्गों के बीच या दोनों ओर जैसे भी संभव हो, वृक्षों की पंक्तियाँ सुशोभित करवाना भी हम अपना धर्म समझें। जीवन की दूसरी आवश्यकता है, जल औद्योगिक-संस्थानों ने तो जल को विषाक्त किया ही, किंतु हमने अपनी अव्यवस्था से भी जल को दूषित कर दिया। कपड़े-बरतन-हाथ धोने, स्नान करने तथा फर्श साफ करने पर जो अशुद्ध जल बहता है, उसे हमने समीपस्थ नदी में मिला दिया। ऊपर से प्रवाहित कर दिया उसमें अपना मल और मूत्र। परिणामतः जल और भी प्रदूषित हो गया।

शुद्ध जल पीने को मिले, यह हमारा अधिकार हैं, पर जल को प्रदूषण से बचाना भी हमारा दायित्व है। शहर के गंदे जल का समीपस्थ नदी में प्रवाहित करने के स्थान पर आबादी से दूर उसके विसर्जन की व्यवस्था करवानी होगी। दूसरे, औद्योगिक रासायनिक द्रव को जल में प्रवाहित करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगवाना होगा। तीसरे, रासायनिक प्रक्रिया द्वारा जल के परिशोधन को निश्चित करना होगा। चौथे, जल के अपव्यय को रोकें तथा पेय जल को फिल्टर (छान) करके या उबाल कर प्रयोग में लाएँ।

पर्यावरण को प्रदूषित करने का एक और माध्यम है-‘शोर’। इसे ‘ध्वनि प्रदूषण’ कहा जाता है। ऊँची, तीखी और कर्णकटु ध्वनियाँ जीवन के लिए हानिप्रद हैं। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन की ऊँची आवाज तो घर की चार दीवारी में गूँजती है, जो घर के वातावरण को दूषित करती हैं। धार्मिक स्थानों पर लगे लाउडस्पीकर, दुकानों पर लगे रेडियो, बैंड की आवाज, जलसे-जूलसों की नारे बाजी अनचाहे हमें झेलनी पड़ती हैं। इसी प्रकार सड़कों पर चलते वाहनों के ‘हान’ की आवाज तथा उनकी गड़गड़ाहट भी भयंकर शोर उत्पन्न करती हैं। ‘शोर’ से उत्पन्न होता है ध्वनि प्रदूषण। ध्वनि प्रदूषण से प्रभावित होती है हमारी श्रवण शक्ति।

पावन वायु, शुद्ध जल तथा शक्तिवर्द्धक भोजन हमारे जीवन जीने के लिए अनिवार्य हैं। इनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना हमारा दायित्व है। यदि हमने अपने दायित्व से मुख मोड़ा तो सृष्टि के विनाश के अपराधी हम स्वयं होंगे, प्रकृति या जगत्-नियंता नहीं।

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