संकेत बिंदु-(1) अग्निहोत्र प्रक्रिया (2) हवन से वायु सुगंधित (3) हवन करते समय सावधानियाँ (4) सूर्य किरणों में रोगनाशक गुण (5) उपसंहार।
एक सामान्य व्यक्ति प्रति घंटे 600 लीटर हवा फेफड़ों, वायुकोष्ठों एवं त्वचा के माध्यम से वातावरण से खींचता है। चौबीस घण्टों में यह मात्रा लगभग 14,500 लीटर बैठती है। इस क्रम में प्रति मिनट मात्र 300 मिली लीटर ऑक्सीजन अंदर जाती व 250 मिली लीटर कार्बन डाइऑक्साइड बदले में बाहर निकलती है। यदि आबादी का सघन अनुपात हो, आसपास जंगल न हो एवं ऊपर से प्रदूषण अतिरिक्त मात्रा में कारखानों के माध्यम से हो रहा है, तो कल्पना की जा सकती है, अंदर प्रविष्ट होने वाली ओषजन का हवा में अनुपात क्रमशः कम होता जाएगा एवं कार्बन डाइऑक्साइड भी प्रचुर मात्रा में चारों ओर होगी। यह रक्त में अम्लता बढ़ाने, मानसिक असंतुलन एवं तनाव पैदा करने तथा वायुमंडल को सान्द्र बनाने, साँस घुटने जैसी स्थिति पैदा करेगी। लगभग यही आज शहरों व कस्बों में होता देखा जा सकता है, जहाँ हरीतिमा नाममात्र को है एवं प्रदूषक तत्त्व अधिकाधिक मात्रा में हाल हैं। जब हरीतिमा बढ़ाने हेतु स्थान हो तो विकल्प क्या हो? इसका समाधान अग्निहोत्र प्रक्रिया कर देती है।
अग्निहोत्र प्रक्रिया में जब समिधाओं को या हविष्य औषधियों का होम किया जाता है तो प्राप्त यज्ञ धूम औषधि मिश्रित होता है। उसमें कार्बन डाइऑक्साइड बहुत अल्प मात्रा में उतनी ही रहती है जितनी कि याजक के मस्तिष्क के तंतुओं को उत्तेजना देने हेतु अनिवार्य है। होमी गई औषधियों के मुख्य तत्त्वों के अतिरिक्त क्रियोजोट, फिनॉल, एसीटिलीन, ओजोन आदि भी इस प्रक्रिया में निःस्तृत होते हैं। यहाँ हमें यहाँ समझना होगा कि यज्ञ की ज्वलन प्रक्रिया भट्टी में संपन्न होने वाली क्रियाओं से बहुत अर्थों में भिन्न है। भट्टी में तापमान अधिकतम सीमा तक ले जाया जाता है। ताकि ईंधन तेज गति से जलकर अधिकतम ऊष्मा दे सके। यज्ञ कुण्ड इस प्रकार बनते हैं कि उसकी अग्नि उद्दीपन-प्रज्वलन प्रक्रिया भट्टी से भिन्न होती है। अग्नि के समन्वय से अग्निहोत्र प्रक्रिया में निर्मित ऊर्जा के कारण पदार्थ छोटे-छोटे कणों में विभक्त होता रहता है। यह एक प्रकार से रासायनिक विखंडन की प्रक्रिया है। इससे दो परिणाम निकलते हैं-आवेशित कण को धारण किए सूक्ष्म औषधि घटक या तो वाष्पीभूत हो जाते हैं अथवा अवशिष्ट भस्म का एक अंग बन जाते हैं। चूँकि प्रज्वलन प्रक्रिया धीमी है, अतः जो धूम बनते हैं वे कार्बन डाइऑक्साइड एवं मोनो ऑक्साइड रहित होते हैं। जो गैसों की मात्रा होती है उनमें भी इथीलिन ऑक्साइड, प्रॉपलिन ऑक्साइड, फार्मल्डीहाइड एवं बीटाप्रोपियो लेक्टेन तथा एसीटिलीन का अनुपात अधिक होता है। यह वायु शोधक सम्मिश्रण है जो वृक्ष वनस्पति की वृद्धि भी करता है। पर्यावरण का संशोधन-नियमन करके घातक जीवाणु-विषाणुओं की वृद्धि रोकता है। प्रयोग बताते हैं कि व्यापक स्तर पर किए गए ऐसे उपचार जब वायुमंडल में धूम के बादल बनकर पहुँचते हैं तो बादलों को आकर्षित करने की क्षमता रखते हैं। वायुदाब कम करके वर्षा तक उत्पन्न करने की सामर्थ्य इनमें होती है। पूना के फर्ग्युसन कॉलेज के वैज्ञानिकों ने प्रयोगोपरांत पाया है कि 66°2.8 इंच गहराई के सामान्य ताम्र पात्र में आम की समिधाओं के माध्यम से, युग निर्माण योजना द्वारा प्रयुक्त सामान्य वनौषधि सम्मिश्रण से किया गया अग्निहोत्र एक बार की 108 आहुतियों से 36:22:10 फीट के हाल की 1000 से भी अधिक घनफुट वायु में कृत्रिम रूप से विनिर्मित वायु प्रदूषण समाप्त करने में सफल रहा। नियमानुसार हवा के नमूने लेकर गैस लिक्विड क्रोमेटोग्राफ पर जाँचकर देखा गया है कि परीक्षित वायु पूरी तरह शुद्ध हो गई।
हवन से उपयोगी गैस उत्पन्न कर हम पर्जन्य की अभिवृद्धि करते हैं, जिससे अन्न, फल आदि की उपत्ति होती है। ज्वालामुखी पर्वतों से यह वायु निकलती है। उनके आसपास वृक्ष तथा वनस्पति अधिक होती है। फ्रांस में यूबरीन में एक चश्मे से वह वायु निकली है जिससे वृक्ष आदि की वहाँ बहुतायत है। इसके अतिरिक्त यज्ञ-कुण्ड की वेदी के चारों ओर एक नाली-सी बनी रहती है जिसमें जल भर दिया जाता है कि कार्बन से उत्पन्न होने वाली वायु में विकार जो कि पृथ्वी पर हो सकते हैं अपने भीतर समाविष्ट कर लेता है।
वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि हवन से जो वायु बनती है उसमें अधिक भाग ओषजन होती है। इसका प्रमाण यह है कि हवन की वायु में सुगंधित वायु अधिक मात्रा में होती है और ओषजन उक्त वायु का ही दूसरा नाम प्राण-प्रद वायु है।
हवन करते समय जो सावधानियाँ बरतने का विधान दिया जाता है उनके अनुसार आहुत हव्य पूर्णतया जलकर कार्बनद्विओषित नहीं बनाती, वरन् उनका वाष्पीयन होकर उनमें ऐसे रासायनिक परिवर्तन होते हैं जिनके द्वारा अनेक उपयोगी पदार्थ अत्यंत सूक्ष्म मात्रा में उत्पन्न हो दिग्दिगंत में व्याप्त हो प्राणियों का उपकार करते हैं। हवन करते समय समिधा को केवल बाहर की ओर लगाने का प्रयोजन यह है कि समिधा के जलने से जो ताप उत्पन्न होता है वह हव्यं का केवल वाष्पीयन करे, जलाये नहीं। हवन कुण्ड का ऊपर से खुला होना और नीचे संकुचित होने का भी यही प्रयोजन है कि हव्य में हविपरिमित मात्रा में पहुँचे। अधजले हव्य को कुरेदकर जलाने का निषेध भी यही प्रमाणित करता है कि हवन में हव्य को पूर्णतया जलने न देकर उसका वाष्पीयन किया जाता है, जिनके वाष्पीयन से उपयोगी द्रव्य वायुमंडल में फैलकर प्राणियों का हित साधन करें।
प्रातः ऊषाकाल में जो वायु चलती है वह सबसे अधिक प्राणप्रद मानी जाती है। उसमें भी ओषजन ही अधिक होता है। अतः इससे सिद्ध होता है कि हवन-यज्ञ वायु को शुद्ध करता है और प्राणप्रद वर्षा भी करता है।
वैज्ञानिक परीक्षणों से भी यह सिद्ध हो गया है कि वायुं शोधन का विशेष गुण यज्ञ में है। दुर्गन्धित सीलन युक्त मकान में रोग के कीटाणुओं का अड्डा होता है। वे उसी में छिपे हुए बैठते हैं और जिस भी अवयव में अनुकूलता पाते हैं, वहीं की स्थिति के अनुरूप रोग उत्पन्न करते हैं। इनके निवारण के लिए यज्ञ की ऊर्जा शोधन और मारण का काम करती है। यह ऐसा उपयोगी एण्टीबॉयोटिक है जिसमें उपयोगी कृत्रि-कीटकों, जीवाणुओं को पोषण मिलता है और दमन हानिकारक विजातियों का ही होता है।
गूगल, कपूर आदि पदार्थों के गुण सर्वविदित है। उन्हें रोग वाले स्थानों में जलाया जाता है। घृत दीपक में भी यही विशेषता है। गुड़, शक्कर जलने से भी मात्र रोगकारक जीवाणुओं-विषाणुओं का ही हनन होता है, सजातीय जीवाणु नहीं मरते, जब कि एण्टीबॉयोटिक औषधियाँ सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार के जीवाणुओं को मारकर नफा-नुकसान बराबर कर देती है।
सूर्य की किरणों में रोगनाशक गुण है। इसलिए घरों में खिड़की खोलकर सूर्य की किरणों के प्रवेश की व्यवस्था की जाती है। नित्य कपड़े धोकर उन्हें धूप में सुखाते हैं। बिस्तर आदि जो कपड़े नित्य नहीं धोये जा सकते उन्हें भी तेज धूप में सुखाते हैं। खाद्य-पदार्थों को धूप लगाते रहने की आवश्यकता समझी जाती है। आटा, दाल आदि को धूप लगाते रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि धूप की गर्मी में रोगनिवारक विशेषताएँ हैं। ठीक वही ऊर्जा यज्ञ ऊर्जा में पायी जाती है। सूर्य संपर्क से किसी को हानि नहीं होती, वरन् अन्न, शाक, फल आदि जो भी सूर्य के संपर्क में आते हैं, उनमें उपयोगी विटामिन ‘डी’ उत्पन्न हो जाता है। आहार विज्ञानी इसलिए खाद्य पदार्थों को छिलके समेत सेवन करने की सलाह देते हैं। ताकि उनका सूर्य संपर्क वाला विटामिन ‘डी’ सेवनकर्त्ताओं को उपलब्ध होता रहता है। मनुष्यों को भी प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार प्रातः काल की धूप में नंगे शरीर बैठने की सलाह दी जाती है ताकि त्वचा पर उपयोगी प्रभाव पड़े और वह गर्मी शरीर के भीतर पहुँचकर भी रोग निरोधक क्षमता बढ़ाये।
सूर्य ऊर्जा के सदृश्य ही यज्ञ को भी सशक्त माना गया है। उसमें संरक्षण और परिशोधन के दोनों गुण हैं। वह हानि नहीं पहुँचाती। फागुन सुदी पूर्णिमा को होली जलाई जाती है, वह नवान्न यज्ञ है। पतझड़ के पत्ते, माघ की वर्षा की सीलन पाकर दुर्गन्धित और रोगात्पदक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। उसका सामूहिक उपचार बड़े रूप में अग्नि जलाकर किया जाता है। छोटी होली हर घर में जलाई जाती है। बड़े रूप में बड़े क्षेत्र की ओर छोटे रूप में घर की छोटी परिधि की वायुशोधन प्रतिक्रिया अग्नि जलाकर संपन्न की जाती है। वस्तुतः यह यज्ञ का ही एक अव्यवस्थित रूप है, जिससे हानिकारक तत्त्वों का निवारण होता है।
वातावरण को प्रसन्नतावर्धक आरोग्य समर्थक बनाने के लिए प्रत्येक शुभ कार्य को आरंभ करते समय हवन किया जाता है। जिन लोगों में विधिवत् हवन करने की पद्धति का प्रचलन नहीं है, वे गूगल, कपूर, चंदन आदि वस्तुएँ जलाकर सुगंधित वायु उत्पन्न कर लेते हैं। इसे मांगलिक माना जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक प्रसन्नता बढ़ाने की विशेषता भी इसमें है। ये सब यज्ञ के ही अस्त-व्यस्त रूप हैं। सिद्धांत इनके पीछे यही है कि यज्ञीय ऊर्जा सूर्य किरणों के समतुल्य है और वह मनुष्य के लिए हर दृष्टि से उपयोगी है। दूषित वायु को सुगंधित वायु में परिवर्तित करने के सिद्धांत का इस प्रक्रिया में समावेश है। अतः संवर्धन एवं वातावरण परिशोधन दोनों के लिए किसी-न-किसी रूप में यज्ञ को दैनिक क्रिया में सम्मिलित किया ही जाना चाहिए।