सिनेमा (चलचित्र)

sinema aaj ke yug ka vicharneey vichar par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) मनोरंजन का सस्ता और लोकप्रिय साधन (2) सिनेमा का व्यावसायिक इतिहास (3) शिक्षा और प्रचार का सशक्त माध्यम (4) सिनेमा के दुष्परिणाम (5) उपसंहार।

चलचित्र वर्तमान युग का एक जन-प्रिय आविष्कार है। यह ध्वनि और चित्र का अद्भुत संगम है। मनोरंजन का शक्तिशाली और सस्ता साधन है। वर्तमान सभ्यता का महत्त्वपूर्ण अंग है। जन-जन की इच्छा का मूर्त रूप है।

सिनेमा आज लोकप्रियता के शिखर पर है। एडवांस बुकिंग, टिकट-घर पर लंबी लाइनें, ‘हाउसफुल’ के बोर्ड, टिकटों की ब्लैक, सिनेमा प्रियता के प्रमाण हैं। इसके श्रुति-मधुर गीत सुनने के लिए लोग ट्रॉजिस्टर और रेडियो को ‘ऑन’ (खुला) रखते हैं। चित्रहार, चित्रगीत, चित्रमाला, रंगोली आदि में गीत सुनने और दृश्य देखने के लिए टेलीविजन पर धरना देकर बैठते हैं। आज के शिशु को भी सिनेमा-गीत गाते सुना जा सकता है। युवक-युवतियों का ‘सिनेमा स्टाइल’ के बाल रखना, वेशभूषा अपनाना तथा बातचीत करना तो सामान्य सी बात हो गई है।

चित्रपट पर चलचित्र दिखाने का ढंग वैज्ञानिक है। प्रोजेक्टर के ऊपर और नीचे दो चरखियाँ लगी होती हैं और एक आर्कलैम्प लगा होता है, जो रोशनी फेंकता है। ऊपर की चरखी पर उल्टी फिल्म लगाई जाती है। मशीन चलाने पर ऊपर की चरखी से फिल्म नीचे की चरखी में लिपटती जाती है। जब फिल्म प्रोजेक्टर के उस भाग के सामने आती है, जहाँ प्रकाश बाहर निकलता है, तब वहाँ कुछ क्षण रुकती है। फिल्म के पीछे एक कटा हुआ पहिया घूमता रहता है। जैसे ही फिल्म वहाँ रुकती है, वैसे ही पहिये का कटा हुआ भाग उसके पीछे आ जाता है। इसमें से होकर तेज रोशनी फिल्म पर पड़ती है। यह प्रकाश फिल्म में से होकर प्रोजेक्टर के लैंस में से गुजरता है और चित्र सामने दिखाई देता है। पर्दे के पीछे लगे लाउडस्पीकर ध्वनि उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार चित्रपट पर चित्र और ध्वनि का संगम बनता है।

सिनेमा को व्यवसाय के रूप में स्थापित करने का श्रेय ल्युमिएर बंधुओं को जाता है। उन्होंने 28 दिसंबर 1895 को पेरिस में पहली बार लघुचित्र का व्यावसायिक प्रदर्शन किया था। इसके बाद सन् 1897 में जार्जेस मेलिस ने पेरिस के पास विश्व का पहला स्टूडियो ‘पॅथे गारमान्टे’ स्थापित कर सिनेमा के व्यवसाय को संगठित रूप दिया और केवल 16 वर्षों के अंतराल में 1000 फिल्मों का निर्माण कर ‘फन्तासी जनक’ के रूप में ख्याति प्राप्त की। सिनेमाई जगत की इस नई क्रांति से भारत भी अछूता नहीं रह सका। 1913 में मूक फिल्म ‘राजा हरीशचंद्र’ द्वारा भारत में फिल्म निर्माण शुरू हुआ और 1931 में ‘आलम आरा’ द्वारा उसे वाणी मिली। तब से आज तक यह उद्योग लगातार प्रगति पथ पर है।

आज चलचित्रों ने बहुत उन्नति कर ली है। विभिन्न प्रकार के दृश्य उसमें देखिए। जिन दृश्यों को साक्षात् देखकर मानव-मन दहल उठता है, उसको भी आप वहाँ पाएँगे। रंग-बिरंगे चित्र देखिए और साथ ही सुनिए श्रुति-मधुर गीत।

सिनेमा जहाँ मनोरंजन का साधन है, वहाँ शिक्षा व प्रचार का भी सर्वश्रेष्ठ साधन है। भूगोल, इतिहास और विज्ञान जैसे शुष्क विषयों को अमेरिका और यूरोपीय देशों में चलचित्रों द्वारा समझाया जाता है।

समाज को सुधारने में चित्रपट का पर्याप्त हाथ है। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में सहस्रों प्रचारक जो काम न कर सके, वह चलचित्र ने कर दिखाया। सिनेमा समाज पर अच्छा-बुरा सभी प्रकार का प्रभाव होता है। ‘बॉबी’, ‘प्रेमरोग’, ‘आँधी’, ‘जागृति’, ‘चक्र’, ‘आक्रोश’, ‘फिर भी ‘ आदि फिल्मों ने समाज पर अपना अलग-अलग प्रभाव स्थापित किया है।

इसी भाँति पौराणिक और धार्मिक चलचित्र हमारे पुरातन इतिहास को सम्मुख लाकर धर्म के प्रति जनता की श्रद्धा बढ़ाने का यत्न करते हैं, तो राष्ट्रीय चलचित्र देश के प्रति मर-मिटने की भावना जाग्रत करते हैं। ‘रामराज्य’, ‘झाँसी की रानी’, ‘शहीद’, ‘भगतसिंह’, ‘गाँधी’ आदि चित्रों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।

सिनेमा से जहाँ इतने लाभ हैं, वहाँ हानियाँ भी बहुत हैं। ठीक भी हैं; जहाँ फूल होंगे, वहाँ काँटे भी अवश्य होंगे। आज भारत में अधिकांश चित्र नग्नता, मार घाड़ और अश्लील वासना-वृत्ति पर आधारित होते हैं। इससे जहाँ नवयुवकों और नवयुवतियों के चरित्र का अध: पतन हुआ है, हिंसा बढ़ी है, वहाँ समाज में समाज-विरोधी दुष्कृत्यों की संख्या भी बढ़ गई है। अब तो दिन-प्रतिदिन चल-चित्रों में नग्नता भोड़ेपन का रूप ले रही है। अभिनेत्रियाँ निर्वस्त्र होने में शान समझने लगी हैं। आलिंगन तथा चुंबन के दृश्य इस प्रकार दिखाए जाने लगे हैं कि परिवार के छोटे-बड़े सदस्य एक साथ बैठकर उन्हें नहीं देख सकते।

दूसरे, आजकल सिनेमाओं में जो गाने चलते हैं, वे प्रायः अश्लील और वासनात्मक प्रवृत्तियों को उभारने वाले होते हैं, किंतु उनकी लय और स्वर इतने मधुर होते हैं कि आज तीन-तीन और चार चार वर्ष के बच्चों से भी आप वे गाने सुन सकते हैं।

तीसरे, समाज में आए दिन नए-नए फैशन का रोग फैलाने की जड़ भी सिनेमा ही. है। सिनेमा के अभिनेता जिस रूप में दिखाई देते हैं, नवयुवक वर्ग उसका अन्धानुकरण करने के लिए उतावला हो उठता है। परिणामतः नए फैशन छूत की बीमारी की तरह फैलते चले जाते हैं।

चौथे, अधिक सिनेमा देखने से तीन हानियाँ होती हैं-

(1) सिनेमा की तेज रोशनी से आँखों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

(2) धन और समय का अपव्यय होता है।

(3) पैसा न मिलने पर उसकी प्राप्ति के लिए चोरी आदि बुरे काम करने की आदत पड़ती है।

इन सब बुराइयों के होते हुए भी सिनेमा एक लाभप्रद आविष्कार है। इतना अवश्य ध्यान रखना होगा कि चलचित्र निर्माताओं को सामाजिक दृष्टि से सार्थक, सांस्कृतिक दृष्टि से प्रामाणिक, कला की दृष्टि से संतोषप्रद और शिल्प की दृष्टि से चमत्कारी फिल्में बनानी चाहिए; तभी सिनेमा शिक्षा और मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ साधन सिद्ध हो सकेगा।

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