संकेत बिंदु-(1) चोली-दामन का संबंध (2) प्रेम की परिणति काम (3) अश्लील दृश्यों से भरपूर फिल्में (4) अश्लीयता से भरे गीत (5) उपसंहार।
आज सिनेमा और अश्लीलता का चोली-दामन का संबंध बन गया है। नैतिक तथा सामाजिक आदर्शों से च्युत दृश्यों की शूटिंग सिनेमा का अनिवार्य तत्त्व बन गया है। सभ्य और सुसंस्कृत-जनों के बीच में तथा कुटुंब के छोटे-बड़ों के मध्य प्रतिकूल लगें, ऐसे दृश्यों को दर्शाना सिनेमा जगत का टॉनिक बन गया है। इसलिए नंगापन, बलात्कार तथा कामोत्तेजक दृश्य आज के सिनेमा-साफल्य की कसौटी बन गए हैं।
सिनेमा आज एक शुद्ध व्यवसाय बन गया है। व्यापारी उसी व्यापार में पूँजी लगाता है, जिसमें उसे लाभ की संभावना रहती है। सिनेमा का निर्माता व्यापारी उसमें करोड़ों रुपए फूँकता है तो उससे कहीं बहुत अधिक पा लेना चाहता है। इस ‘पा लेने की चाह’ में अपनी प्रत्येक फिल्म में थोड़ी-सी हिंसा, थोड़ा-सा नंगापान, थोड़ा-सा आदर्श, थोड़ी-सी तड़क-भड़क, थोड़ा-सा संयोग, थोड़ा-सा वियोग, थोड़ी-सी दुर्घटना, थोड़ी-सी सुघटना, थोड़ा-सा रहस्य, थोड़ा-सा रोमांस गूंथता है। ऊपर से डालता है नायक-नायिका’ के आलिंगन-चुंबन और कामोत्तेजक दृश्यों की चासनी। थोड़ा और आकर्षण बनाने के लिए डालेगा ‘बैडरूम’ का नंगापन, चोली-बिकनी का स्नान दृश्य, बलात्कार के दृश्य।
फिल्मों का मूल उद्देश्य हमेशा से मनोरंजन रहा है। प्रेम के बिना मनोरंजन असंभव-सा हो गया है। मनोरंजन की स्थिति युग-युग में बदलती रही है। पहले सिनेमा देखना ही मनोरंजन का कारण था। बाद में नृत्य और संगीत ने मनोरंजन को बढ़ावा दिया। फिर नृत्य की उत्तेजकता ने मनोरंजन दिया। जब इन सब दृश्यों को दर्शक ‘पिटे-पिटाए’ मानने लगा तो स्नान दृश्य और बलात्कार के दृश्य जोड़े गए और यह क्रम बढ़ते-बढ़ते नग्न वासनात्मक दृश्यों में उतर आया। प्रश्न वासनात्मक दृश्यों की आवश्यकता, अनावश्यकता या अनिवार्यता का नहीं, प्रश्न है केवल मनोरंजन में वृद्धि का।
श्री शिवसारंग फिल्मों में सेक्स की ‘शल्यक्रिया’ इन शब्दों में करते हैं- ‘सर्वेक्षणों के अनुसार द्रोहकाल, आस्था, आर-पार, माया मेमसाब, कामशास्त्र : ए टेल ऑफ लव, इस रात की सुबह नहीं, जहाँ तुम ले चलो, गंगा, ट्रेन टू पाकिस्तान, 1947 अर्थ, फायर, बाम्बे बायज, कामतंत्र, दिल से, ऐलिजाबेथ, बैंडिट क्वीन, खोज, खूबसूरत आदि फिल्मों के कुछ दृश्यों ने एक कीर्तिमान बनाया। 1947: अर्थ निर्देशिका ने समलैंगिक फिल्म की चर्चित 29 वर्षीय विंदास नंदिता दास को नायिका लिया। भारत पाक विभाजन पर आधारित अर्थ में राहुल खन्ना और नंदिता दास का प्रणय दृश्य बैंडिट क्वीन की याद दिलाता है। फिल्म की अविवाहिता नायिका का विवाह पूर्व प्रेमी से सम्भोग करने का दृश्य बहुत ही रुचि लेकर फिल्मांकित किया गया है। नंदिता ने भी पूरी उदारता से यह दृश्य दिया है। सबसे आपत्तिजनक यह है कि इस सैक्स दृश्य को एक बच्ची देख रही थी।
विन्दास नंदिता दास ने ‘फायर’ में अपनी जेठानी शबाना आजमी से ‘समलैंगिक सैक्स’ के लंबे दृश्यों से सनसनी मचा दी थी। ‘फायर’ में कामोद्दीपन से ग्रस्त नग्न नंदिता पर नग्न शबाना सम्भोग करने जाती है। निर्देशिका ने शबाना आजमी और नंदिता की देह रेखा को कला के नाम पर बाजाप्ता प्रदर्शित किया। इन दृश्यों के अलावा ‘फायर’ में वृद्धा के सामने नौकर द्वारा ब्लू फिल्म देखना और हस्तमैथुन के विकृति भरे दृश्य है। विकृति यहाँ तक है कि ‘फायर’ में वीडियो पार्लर से बच्चों को ब्लू फिल्म ले जाते दिखाया गया है। ‘कामतंत्र’ में उर्वशी और दीप्ति भटनागर के नृत्य कामोत्तेजक हैं। उर्वशी से कामक़ला के आसनों की मुद्राएँ करवायी गई है। कामतंत्र में स्वामीजी और नायक द्वारा सेक्स के लंबे दृश्यों ने सभी सीमाएँ तोड़कर रख दीं। जबकि कथानक का इनसे कोई लेना-देना नहीं था। खुजहारों की सेक्स मुद्राओं का उत्तेजक संगीत में भौंड़ा प्रदर्शन शर्मनाक रहा। ये दृश्य दर्शकों में काम-वासना का प्रचंड प्रवाह उत्पन्न करते हैं।
‘आर पार’ और ‘माया मेमसाब’ में हीरोइन दीपा साही के जिस्म की भरपूर नुमाइश की गई है। ‘माया मेमसाब’ फिल्म के अंत में दीपा साही और शाहरुख खान के उन्मुक्त सेक्स का दृश्य है, जिसमें नग्न दीपा साही को शाहरुख खान उठाये हैं।” आर पार’ में जैकी श्राफ और दीपा साही का पानी की पारदर्शी शैया पर रति प्रसंग दर्शकों में उत्तेजना भरने में सक्षम है। इसे लंबा करने के लिए कामुक गाना भी जोड़ा गया है। दुखद यह है कि दोनों फिल्मों के निदेशक हीरोइन दीपा साही के पति हैं। बासु भट्टाचार्य जैसे चोटी के निर्देशक की ‘आस्था’ में मडोना, रेखा और नवीन निश्चल के सेक्स के तीन लंबे दृश्यों ने भी सभी सीमाएँ तोड़ीं। इनमें रेखा नवीन निश्चल को उत्तेजित करने के लिए क्या नहीं करती है। निर्देशक ने यही क्रम पुरी और रेखा के मध्य दोहराया है। ये प्रसंग स्वयं में शर्मनाक हैं। रेखा ‘खिलाड़ियों के खिलाड़ी’ में अक्षयकुमार के साथ मिट्टी लपेटे इससे भी अधिक सेक्सी प्रसंग कर चुकी है। बासु भट्टाचार्य के लिए क्या सेक्स प्रदर्शन ही शेष रहा था। परंतु हिंदी फिल्मों की सभी सीमाएँ संवाद और दृश्यों में ‘बैंडिट क्वीन’ ने तोड़ी। बैंडिट क्वीन में सीमा विश्वास को नग्न देह में लगभग दस मिनिट तक कुएँ पर आते और पानी भरते दिखाया गया है। सीमा विश्वास के इस बोल्ड दृश्य ने होलीवुड की अभिनेत्रियों के भी होश उड़ा दिये। अमेरिकी, फ्रांसीसी, रूसी फिल्में हीरोइन के शरीर का नाभी से नीचे का भाग प्रदर्शित नहीं करती हैं। धन्य हैं, हमारे शेखर कपूर जिन्होंने गलियों की सड़ांध भी समाज में फैला दी। शेखर कपूर की ‘ऐलिजाबेथ’ के कुछ दृश्यों पर हंगामा मचा। कपूर सेंसर बोर्ड पर बरसे भी। वास्तविकता के नाम पर नारी देह के गुप्तांग प्रदर्शन अश्लीलतम चेष्टा है।
हिंदी फिल्मों की सफलता के पीछे गीतों का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। अब तो गीत पहले प्रचलित होते हैं और फिल्म बाद में प्रदर्शित होती है। गीतों में प्रेम और शृंगार का चित्रण सदा ही रहा है। राजकपूर की संगम का गीत, ‘मैं क्या करूँ राम मुझे बुड्ढा मिल गया, ‘गाइड’ का गीत, ‘आज फिर जीने की तम्मना है, आज फिर मरने का इरादा है’, मुगले आजम का गीत ‘प्यार किया तो डरना क्या?’ आदि गीतों ने दर्शकों को हृदयों को हर लिया था।
आज के गीत पुराने प्रेम-गीतों के परिवर्तित खुले रूप हैं, श्रवण-सुखद हैं। दिल को झकझोरते हैं। जैसे-खलनायक का ‘चोली के पीछे क्या है?’ राजा बाबू का ‘सरकाय लो खटिया जाड़ा लगे, जाड़े में बलमा प्यारा लगे।’ ‘शूल’ का ‘आई हूँ दिल वालों का करार लूटने, मैं आई हूँ यू. पी., बिहार लूटने।’ ‘रोजा’ का, ‘शादी के बाद क्या-क्या हुआ?” कुछ-कुछ होता है’, ‘मेरा पाँव भारी हो गया’, ‘चुम्मा चुम्मा दे दे’ आदि।
निर्माता निर्देशक महेश भट्ट के शब्दों में तो-‘सेक्स में बुराई क्या है? क्या हर जीवित प्राणी इसका आनंद नहीं लेता? केवल कुछ व्यक्ति ही सेक्स की बात चलने पर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। जिस चीज में आपको मजा आता है उसके बारे में छद्मलज्जा की बात समझ में नहीं आती। साफ कहिए कि आपको मजा आता है और आपको कुछ ज्यादा चाहिए। केवल कुछ लोगों के कहने से सेक्स बुरी चीज नहीं हो जाती है। लोगों की समझदारी के बारे में कुछ लोगों का निर्णय लेना असंगत है। सेक्स के बारे में लोगों की धारणाएँ अलग हैं। यह किसी भी व्यक्ति की अपनी समझदारी पर निर्भर करता है कि वह उसे किस रूप में लेता है। सेक्स के बारे में ‘हाँ’ या ‘ना’ में जवाब नहीं दिया जा सकता। मैं मानता हूँ कि छोटे बच्चों को सेक्स के बारे में नहीं बताना चाहिए, क्योंकि वे गलत रूप में इसे ले सकते हैं। पर हम यहाँ वयस्कों की बातें कर रहे हैं, जो सेक्स का सही अर्थ जानते हैं। कोई भी व्यक्ति किसी फिल्मकार को सेक्स के चित्रण या दर्शकों को उसे देखने से कैसे रोक सकता है? क्या यह कहने की जरूरत है कि हम अपनी बात को बिगाड़कर ही पेश कर पाते हैं। चूँकि हमें सब कुछ दबे और छिपे रूप में बताना पड़ता है, इसलिए हमारी फिल्में न इधर की और न उधर की रह पाती हैं। (राष्ट्रीय सहारा : 19.7.1997)
कोई भी कला रूप या मनोरंजन का माध्यम समाज से निरपेक्ष नहीं रह सकता। आज का सिनेमा समाज का दर्पण नहीं हो सकता तो समाज से बाहर भी नहीं है। भारतीय समाज जिस पाश्चात्य सभ्यता को जबरदस्ती ओढ़कर संकर-जीवन जी रहा है, आज का सिनेमा उसकी मुँह बोलती तस्वीर ही तो है। आज के युवक-युवती के सम्मुख ‘सेक्स’ के खुले प्रदर्शन में कोई बुराई नहीं। आज की तथाकथित सभ्यता, ‘Eat, Drink & Be marry’ (खाओ, पीओ और मौज करो) में ही है।