गाँव भला कि शहर/ ग्रामवास अच्छा कि नगरवास

gaon bhala ki shahar par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) गाँव और शहर में अंतर (2) यातायात, शिक्षा, मनोरंजन और स्वास्थ्य की सुविधाएँ (3) गाँवों की समस्याएँ (4) शहरों की समस्याएँ (5) उपसंहार।

वास-स्थान का भला बुरापन, अच्छाई-बुराई व्यक्ति की जीविका की सुविधा तथा अनुकूलता पर निर्भर करता है। निवास स्थान व्यवसाय या नौकरी स्थान से बहुत दूर नहीं होना चाहिए। आवास ऐसे स्थान पर हो जहाँ सगे-संबंधियों, इष्ट मित्रों से संपर्क करने में यातायात-साधन सुलभ हों। बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था हो और यदि दुर्भाग्य से बीमारी आ टपके तो यथाशीघ्र उपचार की सुविधा हो। जीवन की दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता से हो। साथ ही होनी चाहिए अपने स्तर की मित्र-मंडली।

शहर में रहने के लिए सुख-सुविधा संपन्न मकान हैं, जिनमें शौचालय, स्नानघर, शयन कक्ष, भंडार गृह की व्यवस्थाएँ हैं, किंतु गाँव में मकान के नाम पर ईंटों की घेराबंदी है। शौचालय के लिए खुले खेत और मैदान हैं। स्नान के लिए पोखर-तालाब हैं।

शहर नौकरी और व्यवसाय का उपयुक्त स्थान है। यह लाखों लोगों की आजीविका प्रस्तुत करता है। सरकारी, अर्ध-सरकारी कार्यालय, व्यापारिक संस्थानों के कार्यालय, व्यापारिक केंद्र, औद्योगिक संस्थान, मिल-कारखाने-फैक्टरियाँ, शिक्षित-अशिक्षित, सभ्य-असभ्य सभी की जीविका जुटाते हैं। जबकि गाँव में खेती, लघु-कुटीर उद्योग, कुछ ग्राम्य शिल्प तथा मामूली दूकानों के अतिरिक्त आय के अन्य स्रोत नगण्य हैं।

बच्चों की सामान्य तथा उच्च शिक्षा के लिए चाहिए विद्यालय, महाविद्यालय तथा तकनीकी शिक्षा केंद्र। शहर में ये सभी शिक्षा केंद्र सहज में उपलब्ध हैं। महानगरों में तो विश्वविद्यालय आपके बच्चों को विविध विषयों की उच्च से उच्चतम शिक्षा से दीक्षित करने का दायित्व वहन करते हैं। दूसरी ओर गाँव में प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं के विद्यालय आपके अध्ययन पर पूर्णविराम लगाते हैं। हाई-स्कूल या हायर सेकेंडरी स्कूलों की व्यवस्था के लिए तो कहना होगा कि ‘दिल्ली अभी दूर’ है।

जीवन में मनोरंजन का भी अपना स्थान है। इसके बिना जीवन शुष्क और नीरस रहता है। शहरों में सिनेमा घर, क्लब, होटल, क्रीड़ा-मैदान, सरकस, नाट्य-शालाएँ आदि आपके स्वस्थ मनोरंजन के लिए विद्यमान हैं। इसके विपरीत गाँव में मनोरंजन के स्थान पर पर्व विशेष का नाच-गान है कभी-कभार नौटंकी या स्वांग है या है चौपाल की पर-निंदा या पर-स्तुति।

‘शरीरं व्याधिमंदिरम्’ के अनुसार शरीर के साथ रोग भी लगे ही रहते हैं। नजला, जुकाम, बुखार से लेकर रक्तचाप, हार्ट अटेक (हृदय गति रुकना) और मधुमेह (डाइबटीज) सब जीवन के शत्रु हैं। शहर में एम. बी. बी. एस., एम. डी., ऐल्योपेथिक, आयुर्वेदिक तथा होम्योपैथिक, तीनों प्रकार के रोग विशेषज्ञ, प्राइवेट और सरकारी अस्पताल, रोग जाँच की अधुनातन मशीनें, रोग निवारण की नवीनतम दवाइयाँ आपको तत्काल उपलब्ध हो जाती हैं। एक बार तो वे आपको यमदूत से छुड़ा ही लाएँगे, चाहे यमराज के आदेश कितने भी सख्त हों। गाँव में उपचार के नाम पर मिलेंगे टोटके, गण्डे-तावीज, ओझे बहरूपिए या ‘नीम हकीम’। जिनकी उपस्थिति ‘खतरा ए जान’ बनकर जीवन की बलि ले लेती है। 

आइए, जरा जीवन की सुविधाओं के गणित पर गाँव और शहर की उपयोगिता आँक लें। वर्तमान जीवन की परम-सखी बिजली रानी गाँव से अभी दूर है। इसके बिना गाँव का समस्त जीवन ही अंधकारमय है। ‘बिजली’ से नगर प्रकाशित है, इसमें अमावस भी पूनम में बदल जाती है। दूसरा अनिवार्य तत्त्व है-‘पेय जल।’ गाँव में पेयजल के लिए है कुएँ का पानी और शेष कार्यों के लिए है जोहड़ या ताल का कीट दूषित जल। अनचाहे, बिन माँगे रोगों की जड़। नगरों में घर-घर में नल है। कान मरोड़ो और पेय जल प्राप्त करो। जितना चाहो प्रयुक्त करो, बाद में मल-टूटी के कान मरोड़ो और प्रवाह अवरुद्ध कर दो।

शहर-निवास के दोष भी हैं। यहाँ का वायुमंडल प्रदूषित है। पेट्रोल और डीजल वाहनों के ‘एग्जासिस्ट पाइपों’ से, कारखानों की चिमनियों से, रेल के इंजनों से, घरों के स्टोव से, रसायनिक गैसों से, विद्युत् के निर्माण प्रक्रिया से जो वायु प्रदूषण होता है, उसमें साँस लेना भी कठिन हो जाता है। दूसरी ओर नगर का समस्त मल-मूत्र, कारखानों का रासायनिक अवशेष समीपस्थ नदी में बहा दिया जाता है। उससे नदी जल दूषित हो जाता है। उस दूषित नदी जल को शुद्ध कर पेय के लिए प्रस्तुत किया जाता है। अब जरा गाँव में चलिए। शीतल-मंद-सुगंध समीर अपने सुखद स्पर्श से आपका आलिंगन करेगी। फूली हुई सरसों का सुहावना दृश्य मीलों तक पीताम्बरी छटा उपस्थित कर देगा। ऋतु अनुकूल वाँस और मटर की फलियाँ, चने के छोले, मक्का के भुट्टे, गेहूँ, जौ, चना, बाजरा की बालें, मटकती हुई सेंदें, खिलते खरबूजे, रस-भरे रसाल (आम) और गन्ने, हरी सब्जियों के सस्य-श्यामल खेत आपके तब मन को हरा कर देंगे। शुद्ध वायु का कुंज है गाँव और नरक-कुण्ड है शहर।

शहर में पग-पग पर प्रवंचना, ठगी, जेब कटी, आभूषण लुंठन, चोरी, डाके, हत्या, बलात्कार का बाजार गरम है। संवेदनशून्यता शहरी जीवन की पहचान है। यहाँ प्रेम, सहानुभूति, कृपा, दया, उपदेश-कृतार्थता स्वार्थ मिश्रित हैं, बनावटी हैं। जबकि गाँव का वातावरण शांत है, शहरी अपराध वृत्ति से अछूता है। वहाँ युवतियाँ तथा नारियों का मान सुरक्षित है। सच्ची आत्मीयता और प्रेम भाव है। गाँव के गँवईपन में भी एक तरह की शोभन सभ्यता है और शहर ‘गँवई’ कुत्सित क्षेत्र है।

महानगर का जीवन उच्छ्वासहीन, रागहीन, सुरभिहीन, रसहीन है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में ‘नकलीपन का जनसंकुल पर बीहड़ जंगल है, जहाँ रूप नकली, रंग नकली, रस नकली, स्वर लहरी भी नकली, गंध भी नकली, ज्ञान नकली, सिद्धांत नकली, मूल्य नकली, सब सिंथेटिक, कहने को टू कापी (सही नकल) पर सब नकल।’

अच्छाई क्या है और बुराई क्या है? भला क्या है तथा बुरा क्या है? इसका निर्णय एकांगी दृष्टि से करना श्रेयस्कर नहीं। दो टूक निर्णय देना अच्छाई-बुराई, भले-बुरे के साथ अन्याय होगा। सच्चाई तो यह है कि भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है और उसका शरीर शहर में। आत्मा के अभाव में शरीर शव नहीं बना, यह प्रकृति की लीला है। यह परमपिता परमेश्वर की कृपा है और है जगन्नियन्ता का एक रहस्य।

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