संकेत बिंदु-(1) सर्वधर्म समभाव पर टिका (2) राष्ट्र के कर्णधार (3) राष्ट्रीय एकता का स्वरूप (4) भारतीय संविधान (5) उपसंहार।
भारत में राष्ट्रीय एकता का स्वरूप सर्वधर्म समभाव पर टिका है। सर्वधर्म समभाव का अर्थ है-सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव। आदर भाव का अर्थ सर्वधर्म सम्मिश्रण या सभी धर्मों का एक धर्म में सम्मिलन नहीं। पर, भारत की राष्ट्रीय एकता सर्वधर्म-समन्वय पर आधारित है। मुसलमानों के धर्म कृत्यों में हिंदुओं की और हिंदुओं के धर्म-कृत्यों में मुसलमानों की उपस्थिति राष्ट्रीय एकता का स्वरूप माना जा रहा है। किसी हिंदू नेता की मृत्यु या पुण्यतिथि पर सभी धर्म-ग्रंथों का पाठ कर देना राष्ट्रीय एकता का स्वरूप बनाया जा रहा है। धर्म सम्मिश्रण (खिचड़ी घाल-मेल) राष्ट्रीय एकता का प्राण लेवा तत्त्व है। यही वह विकृत-अवधारणा है, जिसने भारत का विभाजन किया, स्वतंत्र भारतीय संसद में ‘वंदे मातरम्’ के राष्ट्रीय गान को अवरुद्ध किया और भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देकर भारतीय-जन की सुख-शांति को लूट लिया। देश में सांप्रदायिकता की आग में घी डालने का काम किया।
राष्ट्र के कर्णधार बने सत्ताधारी लोगों ने और सत्ता के पक्षधरों ने समन्वय को एक आँख से देखा, एक पक्षीय ढंग से सोचा, एक विशेष शैली से आचरित किया। यहाँ महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी की जन्म तथा पुण्य तिथियों पर तो गीता, कुरान, बाइबिल का पाठ होता है, किंतु फखरुद्दीन अली अहमद, अब्दुल कलाम ‘आजाद’ की पुण्य तिथियों पर केवल कुरान का पाठ होता है, गीता या बाइबिल का नहीं। ‘हिंदू लॉ’ को ‘गरीब की बहू सबकी भाभी’ मानकर संसद छेड़खानी करती रहती हैं, किंतु ‘मुस्लिम लॉ’ की सर्वोत्तम न्यायालय ने शाहबानो केस में, मानवोचित व्याख्या कर दी तो देश में तूफान खड़ा करा दिया गया। फलतः राजीव गाँधी को संसद में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त करवाना पड़ा। भारत के प्रायः सभी प्रसिद्ध हिंदू तीर्थ मंदिरों की व्यवस्था और आय पर सरकार का अधिकार है, परंतु भारत की किसी भी मस्जिद या गिरिजाघर की व्यवस्था पर सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती। हिंदुओं के परमपूज्य शंकराचार्यों को तो पकड़ कर जेल भेज सकती है, पर जामा मस्जिद, दिल्ली के पूर्व प्रमुख इमाम अब्दुल्ला बुखारी को तीन-तीन बार न्यायालयों के ‘समन’ के बावजूद हाथ भी नहीं लगा सकी। मुस्लिम हज यात्रियों पर केंद्र सरकार करोड़ों रुपया खर्च करती है, पर कुंभ मेलों पर टैक्स लगाती है।
भारत 28 स्वशासित राज्यों तथा सात केंद्र शासित प्रदेशों में बँटा हुआ है। ये राज्य और प्रदेश भारत माता के उसी प्रकार अंग हैं, जिस प्रकार आँख, कान, नाक, मुख आदि शरीर की अंग हैं। मानव का हृदय अपने विभिन्न अवयवों को समान रक्त का संचालन करके एकात्मा बनाए रखता है, परंतु भारत की राष्ट्रीय एकता के स्वरूप में कश्मीर और नगालैंड विशिष्ट स्थिति प्राप्त हैं। भारत का नागरिक तो क्या राष्ट्रपति भी चाहे तो कश्मीर राज्य में एक इंच भूमि नहीं खरीद सकता। प्रांतीय एकता के इस गुर ने कश्मीर में मुस्लिम उग्रवाद को जन्म दिया और नगालैंड में ईसाई उग्रवाद को। परिणामत: दोनों प्रांत स्वतंत्र गणराज्य पाने के लिए की दिशा में संघर्षरत हैं।
भारत के 28 राज्यों तथा 7 केंद्र शासित प्रदेशों में भाषा और भूमि के उग्र-प्रेम का प्रोत्साहन हमारी राष्ट्रीय एकता का विचित्र स्वरूप है। हम बबूल बोकर आम की कल्पना साकार करना चाहते हैं। भारत के विभिन्न प्रांत नदी जल पर ऐसे झगड़ते हैं, जैसे बंगला देश और भारत में गंगा-जल का बँटवारा हो रहा हो। विभिन्न प्रदेश भाषा के आधार पर दो-चार गाँव अपने में मिलाने के लिए ऐसी युद्ध-स्थिति का निर्माण करते हैं, जैसे पाकिस्तान ने निर्मित की हुई है। प्रांत मोह में ही भारत में तथाकथित राष्ट्रीय एकता का स्वरूप दीखता है।
भारत में राष्ट्रीय एकता के स्वरूप-दर्शन का दर्पण है भारत का संविधान। भारतीय संविधान विभिन्न धर्मों, जातियों, प्रांतों में विभेद खड़ा करने में ‘राष्ट्रीय एकता’ का स्वरूप निर्धारित करता है। अहिंदू एक से अधिक विवाह कर सकता है, किंतु हिंदू एक पत्नी रहते दूसरा विवाह रचाएँ तो संविधान का उल्लंघन है। संविधान शिक्षा, नौकरी, पदोन्नति में जातीयता को प्रोत्साहन देता है, 50 से लेकर 61, और अब 80 प्रतिशत आरक्षण पर उनकी बपौती मानता है। इस प्रकार योग्यता, विद्वत्ता, और प्रतिभा की मूल्य-हीनता में राष्ट्रीय एकता का स्वरूप प्रकट होता है। चिकित्सा और इंजीनियरी में 80 प्रतिशत अंक पाने वाले वंचित रह जाते हैं और 25 प्रतिशत पाने वाले तो क्या 15 प्रतिशत अंक पाने वाले सर्वथा अयोग्य भी आरक्षण के नाम पर प्रविष्ट हो जाते हैं।
‘अंग्रेजी’ राष्ट्रीय एकता का सूत्र बनी, तो अंग्रेजी सोच ने भारतीय जीवन-मूल्यों और सांस्कृतिक पहचान पर इतना भयंकर आक्रमण किया कि हम आज काले अंग्रेज बनकर रह गए हैं। अपनी सभ्यता से दुराव करने लगे, धर्म को आडंबर समझने लगे और संस्कृति से विमुख हो गए। प्रातः उठने से लेकर रात्रि सोने तक विदेशी वस्तुओं का प्रयोग तथा विदेशी सभ्यता का अन्धानुकरण हमारी राष्ट्रीयता की पहचान बनी। ‘कान्वेंट’ तथा ‘पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान के नेत्र खुलने की पहचान बढ़ी। ‘दून स्कूल संस्कृति’, ‘ममी-पापा’, ‘अंकिल-आंटी’ का संबोधन, बातचीत और संभाषण में अंग्रेजी जुमलों का व्यवहार राष्ट्रीय एकता के सूत्र बने।
भारत में राष्ट्रीय एकता का स्वरूप निर्धारण का एकमात्र मानदंड है-‘वोट बैंक’। जिस सूत्र से वोट बैंक बढ़ता हो, वह राष्ट्रीय एकता का खरा सूत्र है, जिससे वोट-बैंक घटता हो, वह राष्ट्रीय एकता के स्वरूप का विकृति-कारक है। ‘वोट-बैंक’ की वृद्धि और क्षय जब राष्ट्रीय एकता के स्वरूप के मानदंड हों तो राष्ट्रीय एकता समुद्र में डूबकर आत्महत्या नहीं करेगी तो क्या करेगी?