संकेत बिंदु-(1) एक जीवन-पद्धति का नाम (2) धर्म-निरपेक्षता का नारा (3) हिंदू धर्म की उपासना पद्धतियाँ (4) लोकतंत्र में धर्म तंत्र का कोई मूल्य नहीं (5) उपसंहार।
‘धर्म निरपेक्षता’ एक नारा नहीं, कुछ मूल्यों का नाम है, एक जीवन-पद्धति का नाम है। वर्तमान सांप्रदायिक दंगों की प्रतिक्रिया नहीं, ऐतिहासिक और शाश्वत प्रक्रिया है। सर्वधर्म समभाव का पर्याय है, जिसमें सभी धर्मों की समानता के प्रति समझ और सहिष्णुता का दृष्टिकोण व्याप्त है।
विभिन्न धर्मों में पारस्परिक सहिष्णुता धर्म निरपेक्षता है। धार्मिक-उन्माद को रोकने का नाम है धर्म-निरपेक्षता। यह कार्य अनादिकाल से चल रहा है और यह यज्ञ अनंतकाल तक चलता रहेगा।
‘धर्म निरपेक्षता’ का नारा कांग्रेस पार्टी का नारा नहीं, भारतीय संस्कृति में विद्यमान मंत्र है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा है-‘जनं विभ्रति बहुधा विवाचसम्। नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।’ (यह पृथ्वी जो विभिन्न धर्मों और भाषाओं के लोगों को आश्रय देती है, हम सबका कल्याण करे)। इसमें आगे कहा गया है कि माँ पृथ्वी! हमें अपने पुत्रों के रूप में ऐसी शक्ति दो कि हम आपस में सद्भावनापूर्वक संवाद कायम करें। एक-दूसरे से मिलें और एक-दूसरे के साथ मधुरतापूर्वक बातचीत करें। ऋग्वेद तो ‘एकैव मानुषी जानि: ‘ (सभी प्राणी एक ही जाति के हैं) पर विशेष बल देता है।
क्या भारत की स्वाधीनता के बाद भारत को हिंदू-राज्य घोषित नहीं किया जा सकता था? जबकि पाकिस्तान ने अपने को मुस्लिम राष्ट्र घोषित किया। भारत भी कर सकता था, किंतु ऐसा नहीं हुआ। कारण, भारतीय संस्कृति इसकी आज्ञा नहीं देती।
स्वयं हिंदुत्व में अनेक उपासना पद्धतियाँ हैं। भारतीय संस्कृति ने भी कभी ऐसा नहीं कहा-‘एक ही पुस्तक को मानो; अमुक व्यक्ति में ईमान लाओ, नहीं तो दोजख में जाना पड़ेगा।’ सत्य एक है, लेकिन विद्वान् उसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में करते हैं (एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति)। परमात्मा एक ही है, लेकिन उसकी प्राप्ति के अनेकानेक मार्ग हो सकते हैं।
वस्तुतः धर्म-निरपेक्षता कोई नेतिवाचक (निषेधात्मक) अवधारणा नहीं, सकारात्मक अवधारणा है। इसका अर्थ धर्म-विरोधी या अधार्मिक होना भी नहीं। सीधे-सादे रूप में इसका अर्थ है-सभी धर्मों, आस्थाओं और विश्वासों के प्रति सम्मान तथा नास्तिकवाद सहित किसी भी धर्म को चुनने और पालन करने के लिए अधिकार का प्रयोग। इस अधिकार का प्रयोग इस प्रकार होना चाहिए कि वह दूसरे व्यक्ति द्वारा इस अधिकार के प्रयोग के रास्ते में आड़े न आए। धर्म का पालन सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अनुरूप हो।
धर्म-निरपेक्ष राज्य भले ही स्वयं को किसी विशेष धर्म के साथ न जोड़े, किंतु उसे वह वातावरण उपलब्ध कराना होगा, जिसमें सभी नागरिक इच्छानुकूल उपासना-पद्धति के अधिकार का प्रयोग कर सकें।
लोकतंत्र में धर्मतंत्र का कोई मूल्य नहीं। लोकतांत्रिक और धर्मतांत्रिक राज्य साथ-साथ नहीं चल सकते। उदाहरणतः पाकिस्तान में लोकतंत्र पद्धति असफल रही। अरब राष्ट्रों ने इस पद्धति को स्वीकार ही नहीं किया। भिन्न-भिन्न धर्मानुयायियों के बीच भेद-भाव बताने वाला राज्य लोकतांत्रिक होने का दावा कैसे कर सकता है? क्योंकि यह बात सभी नागरिकों को समान मानने की लोकतंत्र की आधारभूत मान्यता के विपरीत है। इसलिए कहा जा सकता है कि लोकतंत्र और धर्म निरपेक्ष राज्य का भविष्य परस्पर संबद्ध है।
वस्तुतः दुर्भाग्य से आज भारत में हिंदुत्व की बात करना सांप्रदायिकता मानी जाती है। मात्र धर्म पर आधारित मुस्लिम लीग, अकाली दल, द्रविड मुनेत्र कड़गम जैसे दल राष्ट्रीय हैं ! हिंदू युवती मुसलमान से विवाह कर ले, तो भारत का राष्ट्रपति आशीर्वाद देने पहुँचता है, किंतु यवन लड़की हिंदू से विवाह करे, तो सांप्रदायिकता की बू आती है, झगड़े होने का भय होता है। इस प्रकार धर्म को राजनीति से जोड़ना धर्म-निरपेक्षता का गला घोंटना है।
भारत के शासक धर्म-निरपेक्षता की रट तो लगाते हैं, किंतु उनका आचरण धर्माधारित होता है। वे रब्बात जैसे विशुद्ध मुस्लिम धार्मिक सम्मेलन में भाग लेने पहुँचते हैं, तो सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को भी उभारते हैं। पंजाब में सिख उग्रवाद का कारण शासक दल का प्रोत्साहन ही था, जो भस्मासुर बन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को खा गया। दक्षिण में ईसाइयत के सम्मुख घुटने टेक-नीति ने तो भारत की धर्म-निरपेक्षता के मुख पर करारा तमाचा ही जड़ दिया है।
धर्म-निरपेक्षता का पाठ भारत के शिशु को प्राथमिक शाला से ही पढ़ाना होगा। शिक्षा में नैतिकता का विषय अनिवार्य करना होगा। सब धर्मों के समान सूत्रों, सभी धर्म-गुरुओं की आप्तवाणी तथा एकेश्वरवाद के सिद्धांतों को नैतिकता के पाठ्यक्रम के अंतर्गत लाना होगा। तभी भारत का युवक सच्चे अर्थों में धर्म-निरपेक्ष होगा, सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु होगा।
पूर्व राष्ट्रपति श्री शंकरदयाल शर्मा के शब्दों में-‘ भारतीय स्वभाव में धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा तत्त्व है, जिसे सभी नागरिकों को अपने सभी कार्यों से परिपुष्ट करना चाहिए। हमारी राष्ट्रीय राजनीति का यह तथ्य सिर्फ हमारे राष्ट्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें विश्व के सभी लोगों और देशों के लिए एक संदेश निहित है, जो मानवता के भविष्य का पथ प्रशस्त करता है।’
धर्म-निरपेक्षता हमारे जीवन और जागरण का प्रमाण है। हमारी गतिशीलता और विकास का द्योतक है। यह इस संकल्प का उद्घोष है कि हम उज्ज्वल अतीत से प्रेरणा लेकर उज्ज्वलतर शांतिमय और समृद्धिमय भविष्य का निर्माण करने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं।