संकेत बिंदु-(1) अद्भुत और अतुलनीय (2) वृक्षों की अनेक प्रजातियाँ (3) हिमालय के वनों में विभिन्न प्रकार के वृक्ष (4) राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान (5) उपसंहार।
भारत की समृद्ध और विशाल वन संपदा अपूर्व, अद्भुत तथा अतुलनीय है। भारत की वन संपदा बहुरूपणी, विविध वृक्षों, लता-पादपों, गुल्मों और वनस्पतियों युक्त अक्षय स्त्रोतस्विनी-सी है। सुखदायनी तथा कल्याणमयी है। सुषमा की अक्षय निधि है, सौरभ का अजस्र पुंज है।
वन-संपदा अर्थात् प्रकृति प्रदत्त पेड़-पौधों तथा जंगली जानवरों की बहुलता का पर्वतीय या मैदानी निर्जन क्षेत्र का ऐश्वर्य तथा वैभव है अरण्य या काननों की समृद्धि।
भारत की वन संपदा की समृद्धि संपन्नता इसी से ज्ञात होती है कि यहाँ वृक्षों की अनुमानतः 45,000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। संवहिनी वनस्पति के अंतर्गत 15,000 प्रजातियाँ हैं। इसमें से 35 प्रतिशत के लगभग प्रजातियाँ देशीय (स्थानीय) हैं, जो विश्व में और कहीं नहीं पाई जातीं। देश की वन संपदा में न केवल फूलों वाले बड़े पौधे ही हैं बल्कि बिना फूल के पौधे जैसे-फर्न, लिवरवर्थ, शैवाल, फंगाई भी शामिल हैं।
प्रमुख संपदा की दृष्टि से यहाँ के वन काष्ठ (लकड़ी) प्रमुख हैं और गौण संपदा में लाख, राल, गोंद, रबड़, औषधियाँ, जड़ी-बूटियाँ, कत्था, चारा, घास और बीड़ी बनाने की पत्तियाँ (तेंदू पत्ते) शामिल हैं। रूसा और खस घासों से इत्र निकाला जाता है। खैर वृक्षों की टहनियों को उबालकर कत्था प्राप्त किया जाता है। चीड़ से प्राप्त किए जाने वाले राल से तारपीन बनाया जाता है। पलाश और कुसुम जैसे वृक्षों के रस पर जीवित रहने वाले कीड़े के स्राव को लाख कहते हैं। ये मुख्यतः विहार और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं। शहतूत के पत्तों पर रेशम के कीड़े पलते हैं, जिनसे रेशम प्राप्त होता है।
हिमालय प्रदेश के वनों के वृक्षों में चीड़, कैल, पाइन, रई, देवदार, बाँस और बुरांस उल्लेखनीय हैं। शीशम, कैल तथा देवदार वृक्ष देश की मूल्यवती मुलायम लकड़ी के स्रोत हैं। इनका प्रयोग मकान, पुल, स्लीपर, फर्नीचर के लिए किया जाता है। स्प्रूस, रई तथा सिल्वर फर वृक्षों की लकड़ी का प्रयोग सेल्यूलोज तथा अखबारी कागज बनाने में होता है। तुन, साल और सागौन वृक्ष भी बहुतायत में हैं। इनका इमारती लकड़ी के रूप में व्यापक प्रयोग होता है। कारण, इनकी लकड़ी कठोर और टिकाऊ होती है। सागौन के वन अधिकतर पश्चिमी घाट तथा मध्य प्रदेश की सतपुड़ा श्रेणियों में मिलते हैं। बाँस,. महोगनी, रोजवुड तथा चंदन के वृक्ष हमारे वनों के अन्य उत्पाद हैं। बाँस का उपयोग आजकल लुगदी बनाने के लिए होता है। लुगदी से कागज बनता है। रोजवुड का प्रयोग फर्नीचर और लकड़ी की कलात्मक खुदाई वाली वस्तुएँ बनाने के काम आता है। चंदन का प्रयोग सजावटी सामान में होता है। यह अपनी मनोहर सुगंध के लिए प्रसिद्ध है। कर्नाटक राज्य की नीलगिरि पहाड़ियों से चंदन प्राप्त होता है। तेंदु पत्ता, जिससे बीड़ी बनती है, मध्य प्रदेश के वनों का विशिष्ट उत्पाद है।
भारत की वन संपदा की महत्त्वपूर्ण वस्तु जड़ी-बूटियों से औषध का निर्माण होता है, जो मानव जीवन की सुरक्षा का प्रथम प्रहरी है।
भारत की वन संपदा का राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता में महत्त्वपूर्ण योगदान है। वन उत्पाद का विदेशों में निर्यात तथा वन्य सौंदर्य और संपदा को देखने वाले पर्यटकों के आकर्षण केंद्र होने के नाते अर्थोपार्जन के विशिष्ट अंग हैं। प्राकृतिक दिव्य-सुषमा के पुंज होने के नाते देश को हरा-भरा बनाए रखने में इनका विशिष्ट योगदान है। वातावरण को सौरभयुक्त करने में इनका प्रमुख हाथ है। जलवायु में परिवर्तन रोकने, पर्यावरण को संतुलित रखने तथा वायु को प्रदूषण से अप्रभावित रखने में वन संपदा का योगदान है। जल-ग्रहण क्षेत्रों के संरक्षण एवं वर्षा के पानी को सोखने तथा झरनों एवं नदियों में सतत प्रवाह बनाए रखने में वनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इससे भूमि को संतुलित जल मिलता है, उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
वर्तमान में संरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत 75 राष्ट्रीय उद्यानों तथा 421 अभयारण्यों की गिनती की जाती है। इसमें उत्तर प्रदेश का ‘कार्बेट पार्क’, असम का ‘काजीरंगा’, मध्य प्रदेश का ‘कान्हा’, केरल का ‘पेरियर’ और गुजरात का ‘गिर’ प्रसिद्ध अभयारण्य हैं।
जनसंख्या वृद्धि और उद्योग विस्तार के कारण वनों का अवैज्ञानिक तरीके से मनमाने तौर पर दोहन किया गया है और अब भी हो रहा है। इस प्रकार हम अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारकर अपनी वन संपदा को न केवल नष्ट कर रहे हैं, अपितु अपनी अकाल और अनैसर्गिक मृत्यु का प्रबंध भी स्वयं कर रहे हैं। दूसरी ओर हम वन संपदा का महत्त्व भूल गए हैं। अब तो वृक्षारोपण केवल हरियाली एवं शोभा के लिए हैं। प्रकाश-संश्लेषण के जरिए वातावरण में फैली कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोखने तथा अधिकतम ऑक्सीजन युक्त करना ही ध्येय रह गया है।
वन्य की इस संपदा का शत्रु वह शिकारी वर्ग है जो शौक या वन्य पशुओं की खाल-सींग विक्रय के लोभ वश इनकी हत्या कर रहा है। इसके कारण शेर, बाघ, हाथी, चीता, हिरण, गैंडा आदि जंगली जानवरों की विशिष्ट प्रजातियाँ ही लुप्त होती जा रही हैं।
वन-संपदा की सुरक्षा तथा संवर्धन के लिए भारत सरकार का वानिकी अनुसंधान केंद्र कार्यरत है। देहरादून, जोधपुर जोरहाट, बंगलौर, जबलपुर, कोयम्बतूर, शिमला, रांची, इलाहाबाद, छिंदवाड़ा और हैदराबाद में इसके अनुसंधान केंद्र हैं।
मानव प्रकृति प्रेमी है। प्रकृति में उसकी आत्मा का वास है। उसके सौंदर्य और सौरभ में मदमस्त है। अर्थ लाभ से समृद्ध है। ऐसी प्रकृति की देन वन-संपदा के संरक्षण तथा संवर्धन में अंततः मानव का ही कल्याण हैं।