संकेत बिंदु-(1) राष्ट्र के मस्तक पर कलंक (2) बेरोजगारी के प्रकार (3) गलत औद्योगिक-योजना और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा न देना (4) बेकारी के अन्य कारण (5) उपसंहार।
बेरोजगारी राष्ट्र के भाल पर कलंक का टीका है। देश की गिरती आर्थिक स्थिति का सूचक है। सामाजिक अवनति का प्रतीक है। उद्योग-धंधों की राष्ट्र-व्यापी कमी का द्योतक है। जब काम की कमी और काम करने वालों की अधिकता हो, तब बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न होती है। जो अपने श्रम को बाजार में बेच पाने में असमर्थ हैं या व्यवसायहीन हैं, वे बेरोजगार हैं।
बेरोजगारी भी चार प्रकार की हैं।
(1) संपूर्ण बेकारी: जहाँ श्रम का कुछ भी महत्त्व नहीं आँका जाता।
(2) अर्ध बेकारी अर्थात् ‘पार्टटाइम जॉब’ : जहाँ 2-4 घंटों के लिए श्रम को खरीदा जाता है।
(3) मौसमी बेकारी: जैसे-फसल कटते समय मजदूरों को रख लिया जाता है। कोई भवन निर्माण के समय मजदूर रख लिए जाते हैं, बाद में वे बेरोजगार हो जाते हैं।
(4) स्टेटस बेकारी। जहाँ योग्यता तथा क्षमता से गिर कर काम न करने के कारण बेकारी है।
स्तर की दृष्टि से बेरोजगारी के चार प्रकार हैं-
(1) शिक्षित जनों की बेकारी।
(2) शिल्पीय दक्षता प्राप्त जन की बेकारी
(3) अकुंशल जनों की बेकारी।
(4) कृषक-जन की बेकारी।
बेकारी का सर्वप्रथम कारण देश की बढ़ती जनसंख्या है। देश में प्रतिवर्ष एक करोड़ शिशु जन्म लेते हैं। जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ रही है, उस अनुपात में रोजगार के साधन नहीं बढ़ रहे। फलतः बेकारी प्रतिपल-प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है।
बेकारी का दूसरा बड़ा कारण है-दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली। हाईस्कूल तक की थोड़ी-सी शिक्षा पाकर हर नवयुवक नौकरी की ओर भागता है, बाबूगिरी में ही जीवन का स्वर्ग देखता है। किसान का बेटा किसानी से मुँह मोड़ता है। चमार का बेटा चमारी से घृणा करता है तथा कर्मकांडी पंडित का बेटा कर्मकांड को पाखंड मानता है। श्रम से पलायन की प्रवृत्ति के कारण बेकारी दूध के उबाल की भाँति उफन रही है।
बेकारी का तीसरा कारण है, देश की गलत औद्योगिक योजना। देश ने पहली पंचवर्षीय योजना से ही विशाल, विशालतर और विशालतम उद्योगों को बढ़ावा दिया, किंतु छोटे उद्योग सिसकियाँ लेते रहे। ‘बाटा’ ने चमारों का धंधा छीना, ‘टाटा’ ने लुहारों को चौपट किया, बिड़ला-भरतराम ने बुनकरों की रोजी पर लात मारी और तेल मिलों ने तेलियों का रोजगार ठप्प किया, साबुन की बड़ी कंपनियों ने लघु-उद्योगों का गला घोंटा। विदेशी कंपनियाँ तो भारतीय औद्योगिक उत्पादनों की कब्र खोदने पर उतारू हैं।
बेकारी का चौथा कारण है, सरकार की ओर से घरेलू उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन का अभाव। बड़ी मिल लगाने के लिए बैंक करोड़ों रुपये कर्ज दे देते हैं, किंतु लघु उद्योगों के लिए वे तड़पा-तड़पाकर कर्ज देते हैं। परिणामतः लघु उद्योग-धन्धे विकसित नहीं हो पा रहे। दूसरे, उनकी बिक्री का बाजार नहीं, उनके पास खपत का सुनियोजित माध्यम नहीं।
बेकारी का पाँचवाँ कारण है, मशीनीकरण एवं यन्त्रों के अभिनवीकरण को प्रोत्साहन। जैसे कंप्यूटर का प्रयोग देशहित में है, किंतु इससे बेकारों की संख्या में तो वृद्धि हुई है।
बेकारी के अन्य कारण हैं-(1) कृषि पर बढ़ता दबाव। (2) परंपरागत हस्तशिल्प उद्योगों का ह्रास। (3) दोषपूर्ण नियोजन (4) व्यवसायपरक शिक्षा की उपेक्षा। (5) श्रमिकों में गतिशीलता का अभाव। (6) स्वरोजगार की इच्छा का अभाव।
देश की बेकारी दूर करने के लिए दूरदर्शिता से काम लेना होगा। उसके लिए सर्वप्रथम परिवार नियोजन पर बल देना होगा। जो पालन-पोषण नहीं कर सकता, उससे प्रजनन का अधिकार छीनना होगा। आपत् काल की भाँति कठोर हृदय होकर इस कार्यक्रम को सफल बनाना होगा। धर्म-विशेष के आधार पर प्रजनन की छूट को प्रतिबंधित करना होगा।
शिक्षा का व्यवसायीकरण करना होगा। ताकि ‘स्वरोजगार’ के प्रति युवा वर्ग में दिलचस्पी पैदा हो। नई तकनीक द्वारा विकास के साथ नए कौशल (स्किल) तेजी से बढ़ेंगे। बाबूगिरी के प्रति मोह भंग होगा।
प्रत्येक तहसील में लघु उद्योग-धन्धे खोलने होंगे। लघु उद्योगों के कुछ उत्पादन निश्चित करने होंगे, ताकि वे बड़े उद्योगों की स्पर्धा में हीन न हों, पिछड़ न जाएँ।
शिक्षित युवकों को शारीरिक श्रम का महत्त्व समझना होगा। श्रम के प्रति उनके मन में रुचि उत्पन्न करनी होगी, ताकि वे घरेलू उद्योग-धंधों को अपनाएँ।
उद्योग राष्ट्र की प्रगति के प्रतीक होते हैं। आज राष्ट्र का उत्पादन गिर रहा है। इसे बढ़ाना होगा, नए-नए उद्योग स्थापित करने होंगे। नए उद्योगों से राष्ट्र को आवश्यक चीजों की प्राप्ति होगी और रोजगार के साधन बढ़ेंगे।
भारत की अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में जीवनयापन करती है और कृषि पर निर्भर रहती है। कृषकों का बहुत-सा समय व्यर्थ जाता है। इसलिए जरूरत है रोजगारपरक ग्रामीण विकास नियोजन तथा कृषि पर आधारित उद्योग-धंधों के विकास की। साथ ही गाँवों में बिजली देकर गाँवों के जीवन में क्रांति लाई जा सकती है।
प्राकृतिक साधनों का पूर्ण विदोहन, विनियोग में वृद्धि, रोजगार की राष्ट्रीय नीति निर्धारण तथा औद्योगिक विकास सेवाओं की तीव्रता द्वारा बेरोजगारी कम की जा सकती है।