संकेत बिंदु-(1) करोड़पतियों की संख्या में वृद्धि (2) निजी कंपनियों में अधिक वेतन (3) स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अमीर-गरीब में अंतर (4) अमीरी और गरीबी के दायरे में वृद्धि (5) उपसंहार।
हमारे देश भारत में करोड़पतियों की संख्या में प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है और आँकड़े बताते हैं कि उसी स्तर पर देश में गरीबी की भी वृद्धि हो रही है। देश में वर्ष 2003 में एक सर्वेक्षण के अनुसार करोड़पतियों की संख्या 61 हज़ार थी, वह सन् 2004 में बढ़ कर 70 हजार हो गई। वहीं सन् 2007 में आठ लाख करोड़पतियों के बन जाने का अनुमान लगाया जा रहा है, इसके साथ ही यह भी संभावना व्यक्त की जा रही है कि वर्ष 2009 तक करोड़पतियों की संख्या भारत में सोहल लाख हो जाने का अनुमान है।
देश में बढ़ रहे करोड़पतियों की संख्या में जहाँ एक ओर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ेगी वहीं भारत की संसद में मज़दूरों की दशा पर एक रिर्पोट प्रस्तुत की गई है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में एक कमीज सिलाई के आज भी मज़दूर को मात्र दो रुपये ही मिलते हैं और एक हज़ार बीड़ी बनाने की मज़दूरी केवल बीस रुपये रोज़ है। वारह घंटे काम करने वाले मज़दूर की एक दिहाड़ी केवल पचास रुपये है। इन्हीं आँकड़ों के आधार पर देश में आम और अमीर आदमी की आय के बढ़ते फासलों का अनुमान कई स्तरों पर लगाया जा सकता है।
भारत में एक मान्यता प्रचलित रही कि देश के राष्ट्रपति से अधिक किसी का वेतन नहीं होना चाहिए। आज के संदर्भ में यदि देखा जाए तो अब भारत में निजी कंपनियाँ अपने मुख्य अधिकारी या प्रबंधक पर एक करोड़ प्रतिमाह तक खर्च करती हैं। इससे सिद्ध होता है कि एक निजी कंपनी का अधिकारी देश के राष्ट्रपति से अधिक वेतन पाता है तो कंपनी की आय अपनी घोषित आय से नहीं अधिक होगी।
भारत के काले धन पर इंग्लैंड के प्रोफेसर ने अध्ययन कर सन् 1955-56 में बताया था कि भारत में 2-3 प्रतिशत काला धन है। सन् 1990 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेन्स के अनुसार काले धन की मात्रा भारत में 18 प्रतिशत हो गई है। सन् 1995 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ने एक पुस्तक में यह जानकारी दी कि भारत देश में काला धन 40 प्रतिशत बढ़ गया है।
इस प्रकार यदि देखा जाए तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में आय की बढ़ रही इस प्रकरण के पैमाने बदल गए हैं और देश में आय की गति तीव्र हो गई है और इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अमीर और गरीब का अंतर देश में 90 गुना हो गया है, क्योंकि निजी कंपनी जहाँ अपने कार्य अधिकारी या प्रबंध को एक दिन का औसत वेतन साढ़े तीन हज़ार देती है और वहीं भारत देश का एक मजदूर सारा दिन अपना शरीर तोड़ कर मात्र पचास रुपया ही वेतन पाता है। इस प्रकार आय के इस अंतर को कई प्रकार से देखा जा सकता है। बढ़ती आय और घटती आय को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि अमीर भारत बनाम गरीब भारत।
भारत में अमीरी के बढ़ते स्तर को देखकर लगता है कि भारत उन्नतशील हो रहा है और जब गाँव-देहात में ध्यान दिया जाता है तो भारत एक बहुत ही पिछड़ा देश मालूम होता है। धनवानों द्वारा धन के बल पर मौज और किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या देश के नाम पर एक कहावत है। एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि अमीरों की दुनिया के भारत में नाम और सूरत में भी अंतर आया है। भारत में पहले टाटा समूह को सर्वाधिक अमीरों में मिल जाता था और आज हमारे देश में सबसे अधिक धनाढ्य व्यक्तियों में प्रेम जी, दिलीप सिंधवी, रिलायन्स, भारती टेलीवेयर्स, एच.पी.एल., नारायण मूर्ति, सुभाष गोयल आदि अनेक नाम गिनाये जा सकते हैं।
भारत में जहाँ एक ओर अमीरी की शोभा विस्तार पा रही है, वहीं दूसरी ओर गरीबी का दायरा भी उसी गति से बढ़ रहा है। देश के किसानों की दशा दयनीय हो रही है, उनके सरों पर क़र्जे का बोझ बढ़ रहा है, यह सब देखकर तो यहीं अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या अर्थ तंत्र मानवीय त्रासदियों से स्वतंत्र है? सरकार ने इस प्रकार देश में बढ़ रही अमीरी और गरीबी के अंतर पर अब तक कोई स्वतंत्र नीति की घोषणा नहीं की।
भारत में अमीर व्यक्ति अमीर होता जा रहा है और गरीब को गरीब बनाने की सरकारी योजनायें रोज ही देखने को मिलती हैं जिनमें कभी प्रदूषण के नाम पर फैक्ट्रियों का हटाया जाना, कभी दूकानों, रेहड़ी, पटरी वालों को प्रताड़ित करना, कभी रिक्शों के चलन पर रोक लगाना आदि गरीबी को बढ़ाने में सहायक दिखाई देते हैं। इसीलिए देश में आर्थिक नीतियों के भीषण दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, इसी बीच महानगर दिल्ली में काम की तलाश में आने वाले गरीब मजदूरों को लगातार आर्थिक असुरक्षा कर सामना करना पड़ रहा है।
भारत को समृद्धिशील बनाने और अमीरी-गरीबी के अंतर को कम करने का एक ही समाधान है कि देश के ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में अधिक-से-अधिक कारखाने इत्यादि खोले जाएँ ताकि महानगरों की और दौड़ने वाले गरीब मजदूरों को उनके घरों के पास ही रोजगार प्राप्त हो सके। इसके साथ ही महानगरों के ऊँचे भवनों के पास उगने वाली झुग्गियों से मुक्ति पाई जा सके। इसमें मज़दूरों को दी जाने वाली मजदूरी की भी राशि बढ़ाये जाने से गरीबी से कुछ मुक्ति अवश्य होगी और देश में बढ़ रहा अमीरी-गरीबी का अंतर भी कुछ कम हो पाएगा।