बढ़ती जनसंख्या, सिकुड़ते साधन

badhati jansankhya aur sikudate sadhan par k hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) समाज और राष्ट्र की जन-शक्ति का प्रतीक (2) बढ़ती जनसंख्या वरदान (3) सिकुड़ते साधनों का दुष्परिणाम (4) महँगाई और नकली माल को बढ़ावा (5) उपसंहार। .

बढ़ती जनसंख्या समाज और राष्ट्र की विशाल जन-शक्ति का प्रतीक है। विकास-साधनों में मानवीय श्रम की सहज उलब्धि है। पुलिस और सेना की ताकत की पहचान है। प्रकृति को चुनौती भरा आह्वान है। राष्ट्र की प्रकृति का मेरुदंड है। सभ्यता का संबल है और है संस्कृति की प्रचारक।

सिकुड़ते साधन जीवन जीने की क्षमता को चुनौती हैं। जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान की कमी के परिचायक हैं। जीवन मूल्यों को मलवे में दबा देने की चेष्टा हैं। विकास कार्यों को जन-जन तक पहुँचने से रोकने का पड्यंत्र हैं। सभ्यता को असभ्यता के गर्त में फेंकने की क्रिया है। संस्कृति की विकृति की भविष्यवाणी है। राष्ट्र की प्रगति पर प्रश्न चिह्न हैं। देश को अभावपूर्ण स्थिति में पहुँचाने की अनचाही तैयारी है।

जनसंख्या जितनी अधिक होगी राष्ट्र उतना ही श्रम शक्ति से परिपूर्ण होगा। परिणामतः उसका उपयोग औद्योगिक, तकनीकी, वैज्ञानिक तथा विविध क्षेत्रों में किया जा सकेगा। पाश्चात्य और मुस्लिम राष्ट्र अपनी जनसंख्या की कमी का अभिशाप भुगत रहे हैं, तो भारत के लाखों लोग उनको इस अभिशाप से मुक्ति दिला रहे हैं। उनके राष्ट्र विकास के हर क्षेत्र में सहयोग दे रहे हैं।

बढ़ती जनसंख्या जब विदेशों में खपेगी तो उसके साथ उनकी सभ्यता और संस्कृति भी जाएगी। अपनी सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं की सुगंध से वह विदेश की भूमि को महकाएगी। परिणामतः विदेश में बढ़ती जनसंख्या देश की सांस्कृतिक ध्वजा फहराएगी। नेपाल, मलेशिया, नीदरलैंड, गुयाना, सउदी अरब, सिंगापुर, सूरीनाम, फिजी, मोरिशस, अमेरिका और इंग्लैण्ड की भूमि पर एक छोटा भारत बसता है। वहाँ भारतीय-संस्कृति का ध्वज शान से फहराता हुआ भारत की बढ़ती जनसंख्या के अभिशाप को वरदान में बदल रहा है।

बढ़ती जनसंख्या में विकास के सिकुड़ते साधन जीवन के लिए अभिशाप सिद्ध होंगे। जीवन जीने की आवश्यकताओं को हड़प कर जुगाली भी नहीं करेंगे। जीवन मूल्यों को गिराएँगे और सभ्यता के मुँह पर चांटा मारेंगे।

भारत में बढ़ती जनसंख्या में सिकुड़ते साधनों का दुष्परिणाम यह है कि आज भारत में गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। पापी पेट की आग बुझाने के लिए भोजन नहीं, गर्मी में लू और सर्दी में हड्डियाँ चीर देने वाली शीत लहरों (हवाओं) से बचने के लिए वस्त्र नहीं। खुले नीलगगन के नीचे फैली हुई भूमि ही उसका आवास-स्थल है।

बढ़ती आबादी में सिकुड़ते साधन महँगाई और नकली चीजों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। कारण, माँग अधिक और आपूर्ति कम है, इसलिए महँगाई बढ़ रही है। माँग बढ़ती है गुणन-प्रणाली के अनुसार-2 x 2 = 4 ; 4 x 4 = 16; 16 X 16 = 256, जबकि सप्लाई (आपूर्ति) 1 + 1, 4+ 4, 16 + 16 के अनुपात में बढ़ रही है। महँगाई का बोझ नकली चीजें प्रस्तुत कर दूर किया जा रहा है। खाद्य-पदार्थों में मिश्रण, वस्त्र-निर्माण में हेरा-फेरी एवं जीवन रक्षक औषधियों में मिलावट के कारण जन स्वास्थ्य चौपट हो रहा है। आपूर्ति की कमी महँगाई के साथ-साथ ‘चोर बाजारी’ को बढ़ावा दे रही है, जो राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को चौपट करती है।

बढ़ती हुई आबादी में सिकुड़ते साधनों की समस्या ने रिश्वत को जन्म देकर ‘काला-बाजार’ को प्रेरणा दी है, जिसने राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था की नींव को हिलाकर रख दिया है। बच्चे का विद्यालय प्रवेश, नौकरी की प्राप्ति, लाइसेंस, कचहरी की तारीखें, राजकीय कार्यालयों के काम बिना रिश्वत नहीं हो पाते। परिणामतः भारत में कर्त्तव्य की अवहेलना हो रही है और चरित्र का पतन। योग्यता रिश्वत के घर पानी भरती है. विवेक तथा क्षमता कुंठित होकर आत्म-हत्या करते हैं अथवा विदेश पलायन करते हैं। परिणामतः सरकार और कार्यालय अयोग्य कंधों की बैसाखी पर टिके हैं। विकास की कोई भी योजना पूरी नहीं हो पाती। पूरी होती है तो इतने विलंब से कि उसकी उपयोगिता संदेहास्पद बन कर रह जाती है। वह ‘का वर्षा जब कृषि सुखाने की सूक्ति को चरितार्थ करती है।

भारत की जनता भौतिक दृष्टि से तभी सुखी रह सकती है जब जनसंख्या की बढ़ती हुई गति को धीमा किया जाए और विकास साधनों को फैलाया जाए, बढ़ाया जाए। जनसंख्या की बढ़ती गति को धीमा करना मानव के वश में है और साधनों का विकास प्रकृति की क्षमता पर निर्भर है। अतः सिकुड़ते साधनों में ही जीवन को सौख्यपूर्ण बनाने के लिए जनसंख्या की गति को अपेक्षाकृत धीमा करने में ही भारत का कल्याण है।

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