संकेत बिंदु-(1) आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि (2) भारत की आर्थिक नीतियों की विफलता (3) विदेशी कर्ज में बढ़ोत्तरी (4) गरीबी को दूर करके विकास संभव (5) उपसंहार।
कमरतोड़ महँगाई जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में निरंतर वृद्धि, उत्पादन की कमी और माँग की पूर्ति में असमर्थता की परिचायक है। बढ़ती हुई महँगाई जीवन-चालन के लिए अनिवार्य तत्त्वों (कपड़ा, रोटी, मकान) की पूर्ति पर गरीब जनता के पेट पर ईंट बाँधती है, मध्यवर्ग की आवश्यकताओं में कटौती करती है, तो धनिक वर्ग के लिए आय के स्रोत उत्पन्न करती है।
देसी घी तो आँख आँजने को भी मिल जाए तो गनीमत है। वनस्पति देवता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए भी बहुत रजत-पुष्प चढ़ाने पड़ते हैं। पेट्रोल, डीजल, मिट्टी के तेल, रसोई गैस की दिन-प्रतिदिन बढ़ती मूल्य वृद्धि ने दैनिक जीवन पर तेल छिड़ककर उसे भस्म करने का प्रयास किया है। तन ढकने के लिए कपड़ा महँगाई के गज पर सिकुड़ रहा है। सब्जी, फल, दालें और अचार गृहणियों को पुकार-पुकार कर कह रहे हैं-’रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी।’ रही मकान की बात, अगर महँगाई की यही स्थिति रही तो लोग जंगल में वास करने लगेंगे। दिल्ली की हालत यह है कि दो कमरे रसोई का सैट तीन-चार हजार रुपये किराये पर भी नहीं मिलता। कैसे गुजारा होगा मध्यम वर्ग का? बढ़ती हुई महँगाई भारत सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलता का परिणाम है। प्रकृति के रोष और प्रकोप का फल नहीं, शासकों की बदनीयती और बदइंतजामी की मुँह बोलती तस्वीर है।
काला धन, तस्करी और जमाखोरी महँगाई वृद्धि के परम मित्र हैं। तस्कर खुले आम व्यापार करता है। काला धन जीवन का अनिवार्य अंग बन चुका है। काले धन की गिरफ्त में देश के बड़े नेताओं से लेकर उद्योगपति और अधिकारी तक शामिल हैं। काले धन का सबसे बुरा असर मुद्रास्फीति और रोजगार के अवसरों पर पड़ता है। यह उत्पादन और रोजगार की संभावना को कम कर देता है और दाम बढ़ा देता है।
इतना ही नहीं सरकार हर मास किसी-न-किसी वस्तु का मूल्य बढ़ा देती है। जब कीमतें बढ़ती हैं तो आगा-पीछा नहीं सोचतीं। दिल्ली बस परिवहन ने किराये में शत-प्रतिशत वृद्धि के परिणामतः थ्रीह्वीलर, टैक्सी वालों ने भी रेट बढ़ा दिए।
विदेशी कर्ज और उसके सेवा शुल्क (ब्याज) ने भारत की आर्थिक नीति को चौपट कर रखा है। भारत का खजाना खाली है।
एक ओर विदेशी कर्ज बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर व्यापारिक संतुलन बिगड़ रहा है। तीसरी ओर 1200 करोड़ रुपये देश की बीमार मिलें और 300 करोड़ रुपये बीस हजार लघु उद्योग नष्ट कर रहे हैं। चौथी ओर राष्ट्रीयकृत उद्योग निरंतर घाटे में जा रहे हैं। इनमें प्रतिवर्ष अरबों रुपयों का घाटा भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाही और बेईमान ठेकेदारों के घर में पहुँच कर जन-सामान्य को महँगाई की ओर धकेल रहा है।
गरीब देश की बादशाही-सरकारों के अनाप-शनाप बढ़ते खर्च देश की आर्थिक रीढ़ को तोड़ने की कसम खाए हुए हैं। मंत्रियों की पलटन, आयोगों की भरमार, शाही दौरे, योजनाओं की विकृति, सब मिलाकर गरीब करदाता का खून चूस रही हैं। देश में खपत होने वाले पेट्रोलियम पदार्थों के कुल खर्च का एक बड़ा हिस्सा राजकीय कार्यों में खर्च होता है, लेकिन प्रचार माध्यमों से बचत की शिक्षा दी जाती है-‘तेल की एक-एक बूँद की बचत कीजिए।’
करोड़ों रुपया लगाकर हम उपग्रह बना रहे हैं, वैज्ञानिक प्रगति में विश्व के महान् राष्ट्रों की गिनती में आना चाहते हैं, किंतु गरीब भारत का जन भूखा और नंगा है। आई. आर. एस. शृंखला उसकी भूख नहीं मिटा पाएगी और न ही ‘इन्सेट’ शृंखला उसकी नग्नता को ढक पाएगी। यदि यह रुपया ईमानदारी से गरीबी दूर करने में लगता, तो निश्चित ही देश की काया पलट होती।
सरकारों द्वारा आयात शुल्क तथा उत्पाद शुल्क बढ़ाए गए हैं। रेलवे ने मालभाड़ा बढ़ाया तथा यात्री किरायों में वृद्धि की है। डाक की दरें भी बढ़ी हैं। लिफाफे का मूल्य एक रुपये से बढ़कर तीन रुपए हो गया है। इन सब बढ़ोत्तरियों का असर कीमतों पर पड़ना लाजिमी है।
1990 के बाद कीमतें बढ़ने का मुख्य कारण आर्थिक उदारीकरण है। उदारीकरण के तहत उद्योगपतियों और व्यापारियों को खुली छूट दी गई है कि वे जितना चाहे ग्राहक से वसूलें। जिन अनेक चीजों पर से मूल्य नियंत्रण उठा लिया गया है, उनमें दवाएँ भी हैं। अनेक अध्ययन यह बताते हैं कि पिछले पाँच-छह वर्षों में दवाओं की कीमतें बेतहाशा बढ़ी हैं। उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत में वृद्धि का एक बड़ा कारण मार्केटिंग का नया तंत्र है, जिसमें विज्ञापनबाजी पर बेतहाशा खर्च किया जाता है। एक रुपया लागत की वस्तु दस रुपये में बेची जाती है।
अधिक नोट छापने का गुर एवं विदेशी और स्वदेशी ऋण घाटे की खाई को पार करने के सेतु हैं, खाई भरने की विधि नहीं। जब घाटे की खाई भरी नहीं जाएगी, तो मुद्रास्फीति बढ़ती जाएगी। ज्यों-ज्यों मुद्रास्फीति बढ़ेगी, महँगाई छलाँग मार-मार कर आगे कूदेगी। जनता महँगाई की चक्की में और पिसती जाएगी।