भारत में भ्रष्टाचार का रोग

bhrashtachaar ke kaaran desh kii barbadi par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) श्री-समृद्धि और काम निकालने की रामबाण औषध (2) दूषित-निंदनीय व्यवहार रोग के लक्षण (3) मानसिक विकार (4) भ्रष्टाचार के रोगियों की विशेषता (5) उपसंहार।

‘भ्रष्टाचार’ वर्तमान युग में भ्रष्टाचारियों के लिए सफलता का सर्वश्रेष्ठ साधन है। काम निकालने तथा श्री-समृद्धि की रामबाण औषध है। ऋद्धि-सिद्धि का प्रदाता है, भाग्योदय का द्वार है। ऐश्वर्यमय जीवन जीने का साधन है। दुःसाहस और अविवेक इसके जनक हैं। आज भारत में यह एक असाध्य रोग बन चुका है।

स्वार्थ और अबाध भौतिक सुखोपभोग की लालसा का आधिक्य इस रोग के कारण हैं। दूषित और निंदनीय आचार व्यवहार इस रोग के लक्षण हैं। करप्शन, रिश्वत, घूस, दस्तूरी इस रोग के पर्याय हैं। मन की शुद्धता, आचार की पवित्रता तथा संतोष इस रोग की औषध हैं।

भ्रष्टाचार का रोग बीमारी होते हुए भी बहुत मीठा है, प्यारा है। कुछ अपवादों को छोड़कर प्रत्येक नर-नारी, गृहस्थी, राजनीतिक-सामाजिक नेता इसका प्यार पाने का आकांक्षी है। इसके प्यार में आकंठ डूब जाने को सबका हृदय मचलता है। ‘निराला’ के शब्दों में आज का मानव कहता है-

मेरे प्राणों में आओ!

शत-शत शिथिल भावनाओं के

उर के तार सजा जाओ।

भ्रष्टाचार एक मानसिक विकार है। चित्तवृत्ति को विकृत करने वाली की एक प्रवृति है। मन का विलास है। आकार, संकेत, गति, चेप्टा, वचन, नेत्र तथा मुख के विकारों से अंतर्मन का ग्रहण हो जाता है। अतः इस रोग की चपेट में मानव शीघ्र आ जाता है। वह ‘क्यू (पंक्ति) में लग कर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा नहीं करता। द्वारपाल को ‘टिप’ देकर सबसे पहले अंदर घुस जाता है। विद्यार्थी पढ़ाई की ओर ध्यान नहीं देता। वह ट्यूशन रखकर अधिक अंक पा जाता है। सरकारी अधिकारियों को उपहार तथा बड़े-बड़े ठेकों में सुरासुंदरी का प्रयोग भ्रष्टाचार के ही तो नमूने हैं। इस प्रकार भ्रष्टाचारी दूसरों को भी अपने समान नंगा करने के लिए अपनी चित्त वृत्ति को विकृत करता है; दूसरों को भ्रष्ट कर उनके मन में इस रोग के कीटाणु घुसा देता है। रक्तचाप और मधुमेह के बारे में यह प्रसिद्ध है कि ये रोग मृत्यु के साथ जाते हैं। इसी प्रकार भ्रष्ट आचरण भी बहु-विधि दंड पाने एवं उत्पीड़न, दमन सहने पर भी स्वच्छ नहीं होता। ललितनारायण मिश्र तथा नागरवाला कांड का अंत उनके देह-विसर्जन पर ही हुआ। भ्रष्ट आचरण में सजा पाए सेठ डालमिया कारावास भोगने के बाद भी और अधिक विस्तार से अपने व्यापार-साम्राज्य को बढ़ाने में संलग्न रहे।

भ्रष्टाचार-रोग के रोगियों को एक विशेषता है-मनसा, वाचा, कर्मणा वे एक हैं। विविध तन होते हुए भी मन से एक हैं। उनके दुख-सुख एक हैं। जैसे काँटा पैर में चुभता है, मन उसके दुख दूर करने के लिए तुरंत चिंतित होता है और हाथ अपना सहयोग प्रदान करते हैं, उसी प्रकार रिश्वतखोर पकड़ा जाए, तो ऊपर से नीचे तक की ‘मशीनरी ‘ उसको छुड़ाने के लिए तन, मन, धन से जुट जाएगी।

आज की स्थिति तो और भी विषम है। जहाँ घोटाले और कांड राजनीति सफलता के अलंकरण हैं। पकड़ में न आना राजनीतिक कौशल तथा सत्ता पर राजनीतिक बदला लेने का आरोप लगाना, घोटाला करने वालों के उलट प्रहार हैं। श्रीमान् लालू प्रसाद यादव तथा श्रीमती राबड़ी देवी के पक्ष में संसद में जो हंगामे होते रहते हैं, वे राजनीतिक बचाव ही तो हैं।

श्री अटलबिहारी वाजपेयी के शब्दों में-‘देश में जब कोई संक्रामक रोग फैलता है तो अच्छे-खासे स्वस्थ लोग भी उसकी चपेट में आ जाते हैं। भ्रष्टाचार एक संक्रामक रोग है। यह सभी दलों को लग चुका है। मेरा दल भी इसका अपवाद नहीं। व्यवस्थागत दोषों से कोई भी दल अछूता नहीं है।’

व्यवस्थागत बदलाव के बिना भ्रष्टाचार के रोग पर चोट कर पाना असंभव है। कोई भी व्यवस्थागत बदलाव तात्कालिक दौर की राजनीतिक चेतना से हटकर नहीं लाया जा सकता। सवाल यह है कि इस वास्तविक और प्रभावी बदलाव का अभिकर्ता कौन होगा? कोई स मग्नतावादी, उदार संवेदनशील तथा औद्योगिक वैज्ञानिक परिवर्तनों पर विवेकपूर्ण दृष्टि रखने वाला अभिकरण ही इस बदलाव का संवाहक हो सकता है।

क्या यह सच नहीं है कि जापान और इटली में कई भ्रष्ट राजनेता सजा काटने के लिए बाध्य किए गए। जब अमरीका जैसे देश में राष्ट्रपति क्लिंटन के खिलाफ भी पब्लिक प्रोसीक्यूटर खड़ा हो सकता है, तो हमारे देश में यह व्यवस्था क्यों नहीं लागू की जा सकती?

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