धर्म और राजनीति

dharm aur vigyaan par ek shandaar hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) श्रेष्ठ सिद्धांतों का समूह (2) मानव जीवन मौलिक सिद्धांतों पर अवस्थित (3) गाँधी जी के विचार (4) धर्म राजनीति से संबंधित (5) उपसंहार।

धर्म क्या है? जीवन को चलाने वाले श्रेष्ठ सिद्धांतों का समूह ही धर्म है। इतना ही नहीं, धर्म मनुष्य के समस्त व्यावहारिक कार्य-कलापों को एक संगतिपूर्ण अर्थवत्ता में ढालने का जीवंत प्रयोग है। इसलिए धर्म का क्षेत्र व्यापक है। धर्म व्यक्ति का सहज स्वभाव है, धर्म कर्तव्य है। ‘धर्म चक्र प्रर्वतनाय’ इसीलिए कहा गया है।

राजनीति राज्य प्रशासन चलाने की नीति या पद्धति का नाम है। ‘पॉलिटिक्स’ के अर्थ में यह ‘गुटों वर्गों आदि की पारस्परिक स्पर्धावाली तथा स्वार्थपूर्ण नीति है।’ डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘राजनीति भुजंग से भी अधिक कुटिल, असिधारा से भी अधिक दुर्गम तथा विद्युत् शिखा से भी अधिक चंचल है।’ शायद इसीलिए नीतिशतक में भर्तृहरि ने इसका परिचय ‘वारांगनेव नृपनीतिनेक रूपा’ अर्थात् राजनीति वेश्या की तरह अनेक रूपिणी होती है, कहकर दिया है। अतः राजनीति में दोष की संभावना बनी ही रहती है।

मानवी जीवन धर्म के मौलिक सिद्धांतों पर टिका है। चाहे हिंदू धर्मावलंबी व्यक्ति हो, ईसाई मत का अनुयायी हो या मुस्लिम मतावलंबी हो। वह जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यंत धार्मिक सिद्धांतों को न केवल मानता है, अपितु उन पर श्रद्धा सुमन भी चढ़ाता है। फलतः धर्म मानव के स मग्न जीवन-तंत्र को प्रभावित करता है। इसलिए धर्म मनुष्य के समस्त व्यावहारिक कार्य-कलापों को एक संगतिपूर्ण अर्थवत्ता में ढालने का जीवंत प्रयोग है।

धर्म का अभिप्राय है धारण करने वाला (धारणाद्धर्ममित्याहुः)। यह धारणा है कर्तव्य; राजा का देश तथा प्रजा के प्रति कर्तव्य, परिवार प्रमुख का अपने कुटुंब के प्रति कर्तव्य। कर्तव्य धर्म से तय होता है। इसलिए राज कर्तव्य का राज धर्म से सुसंचालन संभव है। दूसरी ओर, राजनीति भुजंग समान कुटिल, असिधारा के समान दुर्गम, विद्युत् शिखा समान चंचल तथा वारांगना समान बहुरूपिणी है। इसलिए इसमें दोष की संभावना सदा बनी रहती है। उसे दोष मुक्त करने के लिए एक मानक की जरूरत है। धर्म ही वह मानक है, वह दर्पण है, जिसमें राजनीति अपने सत्कर्मों और दुष्कर्मों का चेहरा देख सकती है।

गाँधी जी ने कहा है, ‘धर्म से अलग राजनीति की कल्पना मैं नहीं कर सकता।’ (हरिजन 10.2.1940)। श्री अरविंद का कहना है, ‘राष्ट्रवाद राजनीति नहीं, वरन् एक धर्म है, एक पंथ है।’ स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘अपने धर्म को फेंकने में सफल होकर राष्ट्रीय जीवन शक्ति के रूप में यदि तुम राजनीति को अपना केंद्र बनाने में सफल हो गए तो तुम समाप्त हो जाओगे।’ विपिनचंद्रपाल ने तो एक कदम आगे बढ़कर कहा, ‘जो भी धर्म-निरपेक्ष तथा नागरिक अनुष्ठान हैं, उनमें धार्मिक अनुष्ठान तथा धार्मिक विधि का तत्त्व होना आवश्यक है।’ डॉ. लोहिया भी धर्म और राजनीति के समन्वय की बात करते हुए कहते थे, ‘अल्पकालिक धर्म राजनीति है, दीर्घकालिक राजनीति धर्म है।’

आज भी धर्म राजनीति से जुड़ा है। शाहबानों केस में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को संसद द्वारा निरस्त करवाना, अल्पसंख्यकों को ‘रिलिजियस स्कूल’ खोलने की स्वीकृति देना, हज यात्रियों को करोड़ों रुपये का अनुदान देना, प्रधानमंत्री का किसी औलिया की कबर पर जाकर चादर चढ़ाना तथा देवहरा बाबा की पैर की ठोकर में जीवन-मुक्ति समझना, अपनी सफाई में सीता माता के पावित्र्य का उद्धरण देना धर्म को राजनीति से जोड़ना ही तो है।

धर्म को सहस्राब्दियों से अर्जित अनुभवों का सार या आत्मबोध मानने पर ही हम झूठ को सच से, न्याय को अन्याय से, ज्ञान को अज्ञान से अलग करने का प्रयास करते हैं। सुप्रसिद्ध चिंतक निर्मल वर्मा का कहना है कि ‘यह वह भावबोध है जिसमें मनुष्य की अंतश्चेतना उसकी कॉनशस, उसकी अंतरात्मा वास करती है। मनुष्य का मजहब, रिलीजन, विश्वासतंत्र कुछ भी क्यों न हो, वह एक पतली डोर से इस भाव बोध, इस अंतश्चेतना के साथ जुड़ा रहता है। इस डोर का एक सिरा मनुष्य के आत्म के साथ जुड़ा है, दूसरा दुनियावी लोक के साथ। इन दोनों सिरों के बीच फैले तंतुजाल से मनुष्य की लोक-परलोक, उसकी लौकिक मर्यादाएँ और अलौकिक आस्थाएँ, उसका धर्म-कर्म उसका नैतिक विवेक मन, राज्य समुदाय के साथ उसके संबंध अंतर्निहित होते हैं। जब हम उसकी राजनीति से धर्म को अलग की बात करते हैं, तो वस्तुतः हम इस डोर को बीच में से काट डालते हैं, जिसका घातक परिणाम यह होता है कि एक छोर पर उसका आत्म नीति शून्य हो जाता है और दूसरे छोर पर उसकी राजनीति आत्मशून्य।’

धर्म को विवादास्पद, हेय, निंदित, घृणित सांप्रदायिकता के हद तक ले जाने का काम सत्ता के लोभी करते हैं। कांग्रेस ने आजीवन यही काम किया है। आज कांग्रेस ही धर्म को राजनीति से अलग करने का उपदेश देती है। वह भूल जाती है कि भारतमाता का विभाजन विशुद्ध धार्मिकता के आधार पर कांग्रेस की स्वीकृति से ही हुआ है। पड़ोस में एक नहीं दो-दो मजहबी राज्य (पाकिस्तान और बंगलादेश) बनाने की जुम्मेवार भी कांग्रेस ही है। सत्ता के लिए वह केरल में मुस्लिमलीग से गलबहियाँ डाले है तो मीजोरम में ईसाई सरकार बनाने के लिए ईसायत के नाम पर वोट माँगती रही है। कांग्रेस की इस अपराधपूर्ण नीतियों का परिणाम है कि एक ओर वे धर्म के खिलाफ तलवार चलाते रह जाते हैं, दूसरी ओर धार्मिकता का चोर राष्ट्रीय आत्म-बोध के किले में सेंध लगाने में कामयाब हो जाता है।

आज धर्म को राजनीति से अलग करने का विचार हिंदुत्व भावना के सम्मुख कांग्रेस के वैचारिक चिंतन की हार है। उसके धर्म निरपेक्ष चिंतन के बांझपन का परिचायक है। भारत के आध्यात्मिक रूप और गौरव को विश्व के सम्मुख धूमिल करने का षड्यन्त्र है, जिसे धर्मप्राण भारत कभी स्वीकार नहीं करेगा।

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