संकेत बिंदु-(1) प्राचीन, उदार और समन्वयशील (2) महात्मा गाँधी के विचार (3) धर्म का साधना-पक्ष अत्यंत व्यापक (4) सतत विकासमान और परिवर्तनशील (5) उपसंहार।
हिंदू-धर्म सृष्टि का आदि धर्म है, यही सनातन धर्म है। जिस प्रकार वेद अपौरुषेय हैं, उसी प्रकार हिंदू-धर्म अपौरुषेय है, अतः यह ईश्वरीय धर्म है। यह सर्वाधिक उदार और समन्वयशील धर्म है। यह वर्तमान जीवी धर्म है और इसमें सत्य तथा ऋत का गठबंधन है। यह प्रकृति और मनुष्य की एकात्मकता का धर्म है। बाहर जो सूर्य का प्रकाश है, वही भीतर बुद्धि का प्रकाश है। बाहर जो अंधकार है, वही इसके भीतर का भय है। बाहर जो तृण, वीरुध और वृक्ष से ऊपर उठने की प्रक्रिया है, वही इसके भीतर की उमंग है।
हिंदू-धर्म मानता है कि ब्रह्माण्ड के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है। जीवात्मा ईश्वरांश है। उसका पुनर्जन्म भी होता है। ज्ञान के भंडार और अनुभव-सिद्ध वेदादि हिंदू वाङ्मय धर्म के द्रष्टा हैं। चार वर्ण, चार आश्रम, चार पुरुषार्थ, सोलह संस्कार और शाश्वत नीति तत्त्व अहिंसा, सत्य आदि हिंदू-धर्म के प्राण हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए विभिन्न रूपों-उपासना, व्रत, पूजन आदि में सत्य के दर्शन पर यहाँ फूल चढ़ाए जाते हैं।
इसी कारण महात्मा गाँधी ने 6-10-1921 के ‘यंग इंडिया’ में लिखा-मैं अपने को सनातनी हिंदू कहता हूँ, क्योंकि-
(1) मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिंदू धर्म-ग्रंथों के नाम से प्रचलित सारे साहित्य में विश्वास रखता हूँ और इसलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी।
(2) मैं वर्णाश्रम धर्म के उस रूप में विश्वास रखता हूँ जो मेरे विचार से विशुद्ध वैदिक है, लेकिन उसके आजकल के लोक-प्रचलित और स्थूल रूप में मेरा विश्वास नहीं।
(3) मैं रक्षा में उसके लोक प्रचलित रूप से कहीं अधिक व्यापक रूप में विश्वास करता हूँ।
(4) मैं मूर्तिपूजा में अविश्वास नहीं करता।
‘हिंदू-धर्म मुझे क्यों प्रिय है’ बताते हुए संत विनोबा ने लिखा है-
(1) इसमें असंख्य सत्पुरुष-वामदेव, बुद्धदेव, ज्ञानदेव आदि हैं।
(2) अनेक सामाजिक एवं वैयक्तिक संस्थाएँ, संस्कार और आचार-यज्ञ, आश्रम, गोरक्षण आदि का विचार है।
(3) शाश्वत नीतितत्त्व-अहिंसा, सत्य आदि हैं।
(4) सूक्ष्म तत्त्व विभाग-भूतमात्र में हरि का निवास आदि माना जाता है।
(5) आत्मनिग्रह का वैज्ञानिक उपाय-योग विद्या है।
(6) जीवन और धर्म की एकता-कर्मयोग है।
(7) अनुभव सिद्ध साहित्य-वेद, उपनिषद्, गीता आदि हैं।
(विचार पोथी क्रमांक 8) हिंदू धर्म का साधना-पक्ष अत्यंत व्यापक है। यहाँ ‘इस्लाम को न मानने वालों के अतिरिक्त अन्य सभी काफिर हैं, का सिद्धांत नहीं है। ईसाई धर्म अब केवल बाइबल में सिमट कर रह गया है। यहाँ तो आस्तिक हो या नास्तिक, भावुक हो या बौद्धिक, प्रतिक्रियावादी हो या क्रांतदर्शी, सभी को हिंदू-धर्म में कोई-न-कोई पथ प्राप्त होता है। अतः सैद्धान्तिक और व्यावहारिक साधना-पक्षों की दृष्टि से हिंदू-धर्म संसार का सर्वाधिक संपन्न धर्म है।
इस विषय में विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर की दृष्टि द्रष्टव्य है, “हमारा धर्म ‘रिलीजन’ (पंथ या संप्रदाय) नहीं है, वह मनुष्यत्व का एकांश नहीं है, वह राजनीति से तिरस्कृत नहीं है, वह युद्ध से बहिष्कृत नहीं है, व्यवसाय से निर्वासित नहीं है, दैनंदिन व्यवहार से दूरीकृत नहीं है।”
(निबंध : धर्म प्रचार)
प्रकृति सतत परिवर्तनशील है। इसलिए जीवन भी सतत परिवर्तनशील है, अत: हिंदू-धर्म भी सतत विकासमान धर्म रहा। जड़ता उसे अवरुद्ध न कर सकी; उसके प्रवाह को विचलित न कर सकी। एक ग्रंथ प्रत्येक युग और भूमंडल के लिए सर्वदा उपयुक्त नहीं रह सकता। इसीलिए हिंदू-धर्म में युगानुरूप स्पष्टीकरण हुए, मान्यताएँ मिलीं, सिद्धांत स्थापित हुए। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद्, स्मृतियाँ, पुराण, उपपुराण, रामायण, महाभारत, रामचरितमानस इसी तथ्य के प्रमाण हैं।
हिंदू-धर्म की प्राणवत्ता, अजर-अमरता का रहस्य है-उसकी उदार प्रकृति और समन्वय प्रवृत्ति। जैन, बौद्ध, सिक्ख मत हिंदू धर्म की शाखाएँ हैं, जैसे कि शैव, स्मार्त या वैष्णव। अपनी उदार प्रकृति के कारण उसने दोनों मत-प्रवर्तकों को महापुरुषों में स्थान दिया। बुद्ध की गणना तो दशावतारों में ही हो गई है। समन्वयात्मक प्रवृत्ति का परिचय विदेशी आक्रमण तथा उनके धर्माक्रमण को आत्मसात् करने में मिलता है। कुषाण, शक, हूण आदि सबका हिंदू-धर्म में सम्मिश्रण हो गया। इतना ही नहीं, उनकी कुछ परंपराएँ और सभ्यताएँ सभी हिंदू-धर्म में पच, खप गई।
स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म के संबंध में कहा है, ‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों को ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं।’
(विवेकानंद साहित्य : प्रथम खंड, पृष्ठ 3) भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय अनुसार, “संसार के किसी भी ‘रिलीजन’ या’ रिलीजियस सीड’ (धार्मिक बीज) पर जो कसौटियाँ लागू हो सकती हैं, वे सभी हिंदू-धर्म के लिए अपर्याप्त हैं। प्रत्येक पंथ या पंथ-बीज निश्चित दार्शनिक प्रत्ययों का एक निकाय है और एक निश्चित पंथ मीमांसात्मक विश्वासों का विश्वास है। हिंदू-धर्म पर ये कसौटियाँ लागू नहीं होंगी।’ हिंदू-धर्म जीवन जीने की एक शैली है। ज्ञान को आचरण से जोड़ने की सतत प्रक्रिया है।
वर्तमान जीवन-मूल्यों के लिए हिंदू धर्म ही सर्व प्रकार से कल्याणकर और मंगलमय। जैसे-जैसे मानव अंतरिक्ष के अन्य ग्रहों का परिचय पाएगा, वैसे-वैसे हिंदुओं के विचार’ सर्व खल्विदं ब्रह्म’ का अर्थ समझता जाएगा, ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ को मानता जाएगा, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की दिशा में बढ़ता जाएगा। हिंदू धर्म की सत्यता और सिद्धांत को स्वीकार कर भौतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को अपनाकर अपने को कृतार्थ करेगा।