धर्म और विज्ञान

dharm aur vigyaan ka antardwandwa par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) धर्म मानव की आत्मा (2) विज्ञान, धर्म के आगे नतमस्तक (3) राधा कृष्णन का मत (4) धर्म और विज्ञान सत्य पर आधारित (5) उपसंहार।

धर्म मानव की आत्मा है, तो विज्ञान मानव का शरीर है। धर्म का संबंध हृदय से है तो विज्ञान का संबंध मस्तिष्क से है। धर्म आध्यात्मिक अवस्थाओं का परीक्षक और निरीक्षक है, तो विज्ञान बाह्य पदार्थों का विश्लेषणकर्ता। विज्ञान सृष्टि की उत्पत्ति के नियमों को बताता है तो धर्म उन नियमों का नियंता के साथ संबंध दर्शाता है। धर्म विद्या है, संस्कृति है तो विज्ञान अविद्या है, सभ्यता है। धर्म श्रेय है, नि:श्रेयस् है, अमृतत्व का प्रदाता है, तो विज्ञान प्रेय है, अभ्युदय है, भौतिक भोग्य सामग्री का दाता है।

धर्म और विज्ञान एक-दूसरे से दूर दिखाई देते हुए भी जीवन के लिए समान रूप से उपयोगी हैं। अलबर्ट आइन्स्टाइन का कहना है, ‘धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बिना धर्म अन्धा है।’

आधुनिक विचारकों का मत है कि विज्ञान अपनी परम स्थिति पर पहुँच कर धर्म के आगे सिर झुकाता है। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि जहाँ विज्ञान और दर्शन की सीमा समाप्त हो जाती है, वहाँ धर्म की सीमा प्रारंभ हो जाती है और धर्म विज्ञान का विरोधी या नाशक नहीं, बल्कि विज्ञान के राज्याभिषेक का मौलिमणि है। (Religion is Crowing Stone of Science.)

ऐसे विचारकों की भी कमी नहीं, जो केवल विज्ञान अथवा केवल धर्म को ही महत्त्व देते हैं। रूस के प्रसिद्ध विद्वान् टॉलस्टाय लिखते हैं, ‘धर्म का युग चला गया। विज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी बात पर विश्वास करना मूर्खता है। जिस किसी वस्तु की हमको आवश्यकता है, वह सब विज्ञान से प्राप्त हो जाती हैं। मनुष्य के जीवन का प्रदर्शक केवल विज्ञान ही होना चाहिए। तर्तूलियन ने संपूर्ण दर्शनशास्त्र को राक्षसी कहकर उसकी निंदा की है। पूछता है, ‘ईसाई और दार्शनिक के बीच-स्वर्ग के अनुयायी और यूनान के अनुयायी के बीच एक जो सत्य को विकृत करता है और दूसरा, जो उसको पुनः स्थापित करता है और उसकी शिक्षा देता है, इन दोनों के बीच-कोई सादृश्य कहाँ है?”

डॉ. राधाकृष्णन् का भी यही मत है-’वैज्ञानिक स्वभाव अपनी अविश्रांत बौद्धिक जिज्ञासा, किसी भी चीज को केवल विश्वास पर स्वीकार करने में हिचकिचाहट तथा संदेह करने की शक्ति के कारण ही संपूर्ण कृत्यों एवं प्रयोगों को आगे बढ़ाता रहा है। वह किसी विचार को बिना निरीक्षण-परीक्षण एवं आलोचना के स्वीकार नहीं करता। वह प्रश्न करने और मान्यताओं पर संदेह करने में स्वतंत्र है जबकि धर्म में पूर्वाग्रह है। विज्ञान किसी सर्वाधिकारवादिता पर आश्रित नहीं है, बल्कि ऐसे दृष्ट प्रमाणों की ओर इंगित करता है जिनका मूल्यांकन कोई भी प्रशिक्षित मस्तिष्क कर सकता है। विज्ञान चिंतन एवं जिज्ञासा * की स्वतंत्रता के बीच किसी भी प्रतिबंध को स्वीकार नहीं करता। वह नवीन ज्ञान एवं नवीन अनुभव का स्वागत करता है। एक सच्चा वैज्ञानिक कभी पूर्वाग्रह या अंधश्रद्धा का आश्रय नहीं लेता। उसके दृष्टिकोण में, नम्रता, आत्मालोचन और दूसरों से सीखने की तत्परता दिखाई पड़ती है। यदि हम जिज्ञासा की स्वतंत्रता को महत्त्व देते हैं तो हमें यह समझते देर न लगेगी कि वह धर्म के प्रमुख अंग सर्वसत्तावाद या प्राधिकारवादिता के प्रतिकूल है।’

(सत्य की ओर, पृष्ठ 16) विज्ञान बाह्यजगत की आधार शिला पर स्थित जिज्ञासा के प्रासाद में बैठकर सत्य की खोज करता है, वहाँ धर्म अंतर्जगत् में प्रतिष्ठित होकर सत्य का साक्षात्कार करता है। इस प्रकार धर्म और विज्ञान, दोनों सत्य पर आधारित हैं। यह बात दूसरी है कि उनके विकास के क्षितिज भिन्न-भिन्न हैं और उनके आयामों में अंतर है। वस्तुतः धर्म और विज्ञान जिज्ञासा रूपी पेड़ की दो शाखाएँ हैं और दोनों का फल एक ही है। और वह है ‘सत्य की उपलब्धि।’

धर्म-ग्रंथों में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य लोकों की चर्चा है तथा ब्रह्मांड की अण्डाकार माना गया है। आज का वैज्ञानिक धर्मग्रंथों के तथ्य का साक्षात्कार कर रहा है। कभी मंगल-लोक और कभी शुक्र-लोक की दौड़ लगा रहा है। वह धार्मिक बातों की सत्यता स्वीकार करने लगा है। इस प्रकार वैज्ञानिक जिज्ञासा धार्मिक चेतना से विछिन्न नहीं है, प्रत्युत उसी का एक अनिवार्य अंग है। विज्ञान अपनी अति विकसित व्यवस्था में धर्म से एकाकार हो जाएगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

शरीर और आत्मा का जो पारस्परिक संबंध है, वही संबंध धर्म और विज्ञान का है। मानवता का आभ्यन्तर अर्थात् आत्मा धर्म है और बाह्य अर्थात् शरीर विज्ञान है। धर्म इसके नेत्र है और विज्ञान चरण। दोनों मिलकर ही मानवता की शरीर यात्रा को गंतव्य तक पहुँचा सकते हैं। धर्म और विज्ञान के इस मंगलमय मिलन में ही विश्व कल्याण निहित है।

विज्ञान ने मानव को अनगिनत भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रदान कीं, पर शांति न मिल सकी। शांति मिली धर्म से अखंड आनंद और अमृतत्व प्राप्त हुआ धर्म से जीवन को सरल, सुलभ और सफल बनाने के लिए दोनों परमावश्यक हैं।

धर्म और विज्ञान, दोनों मंगलकारी वरदान हैं। दोनों मानव मात्र के हितकारी हैं। दोनों दो तन और एक प्राण हैं। अतः दोनों में विरोध कैसा?

धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। अतः इनका पार्थक्य संभव नहीं। विज्ञान सृष्टि की उत्पत्ति के नियमों का ज्ञापक है और धर्म उन नियमों का नियंता के साथ संबंध दर्शाता है। अतः इनका संबंध-विच्छेद मृत्यु का आलिंगन है और इनका मिलन रत्नगर्भा वसुन्धरा को स्वर्ग बना देगा।

About the author

हिंदीभाषा

Leave a Comment

You cannot copy content of this page