संकेत बिंदु-(1) जीवन में यथार्थ समस्याओं का चित्रण (2) प्रगतिवाद का अर्थ (3) प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ (4) शोषितों को प्रेरणा और मार्क्सवाद का समर्थन (5) उपसंहार।
जिस प्रकार द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता और उपदेशात्मकता की प्रतिक्रिया में छायावाद का जन्म हुआ था, उसी प्रकार छायावाद की कल्पनात्मकता और पलायनवाद के विरोध में एक नई धारा का जन्म हुआ। इस धारा के कवियों ने कविता को कल्पना के जाल से मुक्त कर जीवन के वास्तविक धरातल पर खड़ा करने का प्रयत्न किया। जीवन की यथार्थ समस्याओं का चित्रण इस धारा का मुख्य विषय बना। यह धारा साहित्य में प्रगतिवाद के नाम से प्रतिष्ठित हुई।
प्रगति का अर्थ है-’ आगे बढ़ना’ और वाद का अर्थ है-‘सिद्धांत’। अतः प्रगतिवाद का अर्थ है-आगे बढ़ने का सिद्धांत। इस अर्थ के अनुसार प्राचीन से नवीन की ओर, आदर्श से यथार्थ की ओर, उच्चवर्ग से निम्नवर्ग की ओर तथा शांति से क्रांति की ओर बढ़ना ही प्रगतिवाद है।
परंतु छायावादी युग के बाद का प्रगतिवाद विशेष अर्थ में रूढ़ हो गया। उसके अनुसार इसका अर्थ है- ‘पश्चिम के साम्यवादी दृष्टिकोण को आधार मानकर आगे बढ़ने का सिद्धांत।’ अतः यह भी कहा जाता है कि राजनीति के क्षेत्र में जो साम्यवाद है, साहित्य के क्षेत्र में वही प्रगतिवाद है।
प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-
(1) सामाजिक यथार्थवाद- समाज की आर्थिक विषमता के कारण दीन-दरिद्र-दलित वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि के प्रसारण को इस वर्ग के कवियों ने प्रमुख स्थान दिया है और कृषक, मजदूर, कच्चे घर, मटमैले बच्चों को अपने काव्य का विषय बनाया है।
सड़े घूर की गोबर की बदबू से दबकर।
महक ज़िंदगी के गुलाब की मर जाती है।
-केदारनाथ अग्रवाल
(2) मानवतावाद का प्रकाशन- वह मानवता की अपरिमित शक्ति में विश्वास प्रकट करता है और ईश्वर के प्रति अनास्था प्रकट करता है-
जिसे तुम कहते हो भगवान, जो बरसाता है जीवन में
रोग, शोक, दुख, दैन्य, अपार, उसे सुनाने चले पुकार!
(3) क्रांति का आह्वान- प्रगतिवादी कवि समाज में क्रांति की ऐसी आग भड़काना चाहता है, जिसमें मानवता के विकास में बाधक समस्त रूढ़ियाँ जलकर भस्म हो जाएँ-देखो मुट्ठी भर दानों को, तड़प रही, कृषकों की काया।
कब से सुप्त पड़े खेतों से, देखो ‘इन्कलाब’ घिर आया॥
(अंचल)
(4) शोषकों, सेठों, सामन्तों के प्रति आक्रोश-प्रगतिवाद दलित एवं शोषित समाज के खटमलों-पूँजीवादी सेठों, साहूकारों और राजा-महाराजाओं के शोषण के चित्र उपस्थित कर उनके अत्याचारों का पर्दाफाश करना चाहता है-
ओ मदहोश बुरा फल हो, शूरों के शोणित पीने का।
देना होगा तुझे एक दिन, गिन-गिन मोल पसीने का॥
(5) शोषितों को प्रेरणा-प्रगतिवादी कवि शोषित समाज को स्वावलंबी बनाकर
उन्हें अपना उद्धार करने की प्रेरणा देता है।
न हाथ एक अस्त्र हो, न साथ एक शस्त्र हो।
न अन्न नीर वस्त्र हो, हटो नहीं, डटो वहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो।
(6) रूढ़ियों का विरोध-इस धारा के कवि बुद्धिवाद का हथौड़ा लेकर सामाजिक कुरीतियों पर तीखे प्रहार कर उनको चकनाचूर कर देना चाहते हैं-
गा कोकिल! बरसा पावक कण, नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन।
(पंत)
(7) सामाजिक समस्याओं का चित्रण-प्रगति का उपासक कवि अपने समय की अकाल आदि समस्याओं की ओर आँखें खोलकर देखता है और उनका यथार्थ रूप उपस्थित कर समाज को जागृत करना चाहता है-
बाप बेटा बेचता है
भूख से बेहाल होकर, धर्म धीरज प्राण खोकर
हो रही अनरीति बर्बर, राष्ट्र सारा देखता है।
(8) मार्क्सवाद का समर्थन-इस धारा के कुछ कवियों ने अपनी संस्कृति की ओर से आँखें मूँदकर साम्यवाद के प्रवर्तक कार्लमार्क्स तथा उसके सिद्धांतों का समर्थन किया
साम्यवाद के साथ स्वर्ग-युग करता मधुर पदार्पण।
और साथ ही साम्यवादी देशों का गुणगान भी किया है-
लाल रूस का दुश्मन साथी! दुश्मन सब इन्सानों का।
(9) साधारण कला-पक्ष-प्रगतिवाद जनवादी है, अतः वह जन-भाषा का प्रयोग करता है। उसे ध्येय को व्यक्त करने की चिंता है, काव्य को अलंकृत करने की चिंता नहीं। अतः वह कहता है-
तुम वहन कर सको जन-जन में मेरे विचार।
वाणी! मेरी चाहिए क्या तुम्हें अलंकार॥
-पंत
छंदों में भी अपने स्वच्छंद दृष्टिकोण के अनुसार उसने मुक्तक छंद का ही प्रयोग किया है।
पंत, निराला, दिनकर, नरेंद्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, उदयशंकर भट्ट, केदारनाथ अग्रवाल आदि प्रसिद्ध प्रगतिवादी कवि हैं।