संकेत बिंदु-(1) प्रयोगवाद का जन्म और अर्थ (2) प्रयोगवाद के स्वरूप पर आलोचकों की धारणाएँ (3) प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ (4) वैचित्र्य प्रदर्शन, प्रकृति चित्रण (5) उपसंहार।
‘प्रयोग’ शब्द का अर्थ है, ‘नई दिशा में कार्य करने का प्रयत्न।’ जीवन के सभी क्षेत्रों में निरंतर प्रयोग चलते रहते हैं। काव्य-जगत में भी प्रयोग होते ही रहते हैं। सभी जागरूक कवियों की रचनाओं में रूढ़ियों को तोड़कर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति किसी-न-किसी रूप में अवश्य दिखाई देती है, किंतु सन् 1943 के पश्चात् हिंदी कविता में नवीनता की प्रवृत्ति ने इतना जोर पकड़ा कि इस युग की कविता-धारा का नाम ही ‘प्रयोगवाद’ पड़ गया।
प्रयोगवाद के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए इस धारा के कवियों एवं कुछ प्रमुख आलोचकों की धारणाएँ इस प्रकार हैं-
‘अज्ञेय’- ‘प्रयोगशील कविता में नए सत्यों का, नई यथार्थताओं का जीवित बोध भी है, उन सत्यों के साथ नए रागात्मक संबंध भी और उनको पाठक या सहृदय तक महुँचाने यानि साधारणीकरण की शक्ति भी है।’
डॉ. धर्मवीर ‘भारती’ प्रयोगवादी कविता में भावना है, किंतु हर भावना के आगे एक प्रश्न चिह्न लगा है। इसी प्रश्न चिह्न को आप बौद्धिकता कह सकते हैं। सांस्कृतिक ढाँचा चरमरा उठा है और यह प्रश्न चिह्न उसी की ध्वनि मात्र है।’
प्रयोगवादी कविता में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं-
(1) घोर अहंनिष्ठ वैयक्तिकता प्रयोगवादी कवि समाज- चित्रण की अपेक्षा वैयक्तिक कुरूपता का प्रकाशन करता है। मन की नग्न एवं अश्लील मनोवृत्तियों का चित्रण करता है। अपनी असामाजिक एवं अहंवादी प्रकृति के अनुरूप मानव जगत के लघु और क्षुद्र प्राणियों को काव्य में स्थान देता है। भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता की प्रतिष्ठा करता है-
चलो उठें अब
अब तक हम थे बंधु
सैर को आए-
और रहे बैठे तो / लोग कहेंगे
धुंधले में दुबके दो प्रेमी बैठे हैं
वह हम हों भी / तो यह हरी घास ही जाने।
-अज्ञेय
(2) अश्लील प्रेम प्रदर्शन-प्रयोगवादी कवि मांसल प्रेम एवं दमित वासना की अभिव्यक्ति में रस लेता है। वह अपनी ईमानदारी यौन वर्जनाओं के चित्रण में प्रदर्शित करता है-
चली आई बेला सुहागऩ पायल पहन…
बाण-बिन्द्ध हरिणी-सी
बाँहों में सिमट जाने की
उलझने की, लिपट जाने की
मोती की लड़ी समान।
(3) विद्रोह का स्वर-प्रयोगवादी कवि प्राचीन रूढ़ियों का परित्याग करता है और आततायी सामाजिक परिवेश को चुनौती देता है-
ठहर-ठहर आततायी! जरा सुन ले।
मेरे कुद्ध वीर्य की पुकार आज सुन ले॥
-अज्ञेय
(4) सामाजिक और राजनीतिक विद्रूपता के प्रति व्यंग्य-प्रयोगवादी कवि वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक कुरूपता के प्रति सशक्त व्यंग्य करना अपना धर्म समझता है-
मुसिफ बना दामाद
भतीजे ने पाया प्रमोशन।
बेटे ने पकड़ा
दामोदर वेली कारपोरेशन।
-नागार्जुन
(5) वैचित्र्य प्रदर्शन-कहीं-कहीं वर्णन और वर्ण्य वैचित्र्य प्रदर्शन भी प्रयोगवादी कवियों ने किए हैं। वस्तुतः यह प्रवृत्ति बड़ी हास्यास्पद है। जैसे-
अगर कहीं मैं तोता होता!
तो क्या होता? / तो क्या होता?
तो होता/ तो तो तो तो ता ता ता ता होता होता होता होता।
(6) प्रकृति चित्रण-नई कविता में प्रकृति-चित्रण शुद्ध कला के आग्रह से पूर्ण है, जिसमें साम्य की अपेक्षा वैषम्य की प्रचुरता है। हाँ, प्रकृति-चित्रण में बिम्बों का सफलतापूर्वक अंकन है।
नहीं
साँझ
एक असभ्य आदमी की
जम्हाई है।
-पंत-पंत
(6) व्यापक सौंदर्य-बोध-अति उपेक्षित वस्तु या स्थान का सौंदर्यपूर्ण वर्णन करना प्रयोगवादी कवि की कला का गुण है-
हवा चली
छिपकली की टाँग
मकड़ी के जाले में फँसी रही, फँसी रही।
(8) शैली की नवीनता-प्रयोगवादी कवि कविता के परंपरागत कलापक्ष का भी विरोधी है। यही कारण है कि छायावाद की लाक्षणिक शब्दावली के स्थान पर उसने साधारण लोक-प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया है एवं प्रचलित उपमानों के स्थान पर सर्वथा नए एवं आधुनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले तत्त्वों को उपमान के रूप में प्रयुक्त किया है।
आपरेशन थियेटर-सी
जो हर काम करते हुए चुप है।
प्यार का नाम लेते ही बिजली के स्टोव-सी
जो एकदम सुर्ख हो जाती है।
इन प्रवृत्तियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि प्रयोगवादी कविता में गुण और दोष, दोनों ही विद्यमान हैं। यह धारा आज हिंदी में उत्तरोत्तर विकसित होती जा रही है।
प्रयोगवाद का जन्म सन् 1943 में स्वीकार किया जाता है। इस वर्ष श्री ‘अजेय’ के द्वारा संपादित प्रयोगवादी कविताओं के सर्वप्रथम संग्रह ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन हुआ था। इस संग्रह में सर्वश्री अज्ञेय, गजानन माधव मुक्तिबोध’, नेमिचंद्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर और रामविलास शर्मा की कविताएँ ली गई थीं।
इसके बाद सन् 1951 में ‘दूसरा सप्तक’ प्रकाशित हुआ। उसमें सर्वश्री भवानीशंकर मिश्र, शकुंतला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय तथा धर्मवीर ‘भारती’ की कविताएँ संगृहीत हैं। इस समय तक प्रयोगवादी कविता का स्वरूप बहुत कुछ स्पष्ट हो गया था। अब ‘तीसरा सप्तक’ और ‘चौथा सप्तक’ भी प्रकाशित हो चुका है।