संकेत बिंदु-(1) हिंदी कहानी का समृद्ध इतिहास (2) नई कहानी में यथार्थ चित्रण की परंपरा (3) समकालीन कहानी में विषय वैविध्य (4) समांतर कहानी और उसके बाद का युग (5) उपसंहार।
भारत की स्वतंत्रता के साथ ही हिंदी कहानी को लगभग 50 वर्ष के इतिहास की समृद्ध परंपरा प्राप्त थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही सामाजिक जीवन में जो नवोन्मेष प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई देता है, हमारा साहित्य भी उससे अछूता न रहा। हिंदी कहानी भी स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में एक नई ऊर्जा से संपन्न होने लगी जिसे ‘नई कहानी’ नाम के आंदोलन के रूप में जाना गया। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, नई कहानी ने यद्यपि अपनी पुरानी परंपरा से एकदम से नाता नहीं तोड़ा फिर भी उसमें इतना स्पष्ट परिवर्तन था कि उसे ‘नई कहानी’ के नाम से पुकारा गया। आजादी के बाद से लगभग 2-3 वर्षों में ही कहानी ने अपने इस नए रूप को ग्रहण कर लिया था और 1956 ई. में भैरवप्रसाद गुप्त के संपादन में ‘कहानी’ पत्रिका का नव वर्षांक प्रकाशित हुआ जिसने इस कहानी आंदोलन को पूर्णतः स्थापित कर दिया। इससे पूर्व इस कहानी आंदोलन को लेकर खूब चर्चाएँ-परिचर्चाएँ हुई। कमलेश्वर, मोहन ‘राकेश’ तथा राजेंद्र यादव की त्रयी को यह श्रेय दिया जाता है कि इन तीनों ने मिलकर ‘नई कहानी’ आंदोलन को पूरी तरह प्रस्थापित किया। डॉ. नामवरसिंह जैसे आलोचक ने भी अपने लेखों भाषणों द्वारा नई कहानी की प्रस्थापना में योग दिया।
आखिर ऐसा क्या था इस कहानी में जो इसे ‘नई’ कह कर पुकारा गया। वास्तव में इससे पूर्व व्यक्ति-मन के अंतर्द्वन्द्व, ऊहापोह को लेकर इतनी बारीकी से कभी नहीं लिखा गया। यथार्थ चित्रण की एक नई परंपरा हमें नई कहानी के युग से ही प्राप्त हुई। यह यथार्थ मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन पर केन्द्रित होकर उसकी नित्य की जीवन-चर्या और समस्याओं को कहानी में चित्रित करने लगा। इस चित्रण में एक अभूतपूर्व ईमानदारी के दर्शन होते हैं, इसीलिए इसे ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ भी कहा गया है। कहानीकार का कहना था कि हम अपने भोगे हुए यथार्थ को ही कहानी में कह रहे हैं, जी रहे हैं। इसे ही उन्होंने प्रामाणिक अनुभव कहा। चाहे सामान्य मनुष्य की गरीबी और उससे उत्पन्न मजबूरियों का चित्रण था (‘दोपहर का भोजन’, ‘राजा निरंबसिया’, ‘चीफ की दावत’) चाहे दांपत्य संबंधों के तिड़कते दरकते रिश्ते थे (मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी आदि की कहानियाँ), चाहे प्रेम का निरूपण था (यही सच है, आदि) चाहे समाज में नारी की बदली हुई स्थिति की बात थी (ज़िंदगी और गुलाब के फूल, चाहे अविवाहिता नारी जीवन में ऊब और उकताहट थी (परिन्दे) या वृद्धावस्था का अपनी तरह का अकेलापन था (वापसी)। राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मोहन ‘राकेश’, धर्मवीर ‘भारती’, भीष्म साहनी, अमरकांत, निर्मल वर्मा, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, शिवप्रसाद सिंह, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, मार्कण्डेय, रघुवीर सहाय, शानी, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, हरिशंकर परसाई आदि अनेक कहानीकारों ने अपने-अपने ढंग से हिंदी कहानी के भंडार को समृद्ध किया और लगने लगा कि बदली हुई राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों की विषम स्थितियों, युग-जीवन के सत्य से कहानी अपनी संगति नहीं बिठा पा रही है। इसलिए इससे बाद के समय में, नई कहानी से विद्रोह के रूप में, अनेक आंदोलन उठ खड़े हुए जिन्हें ‘अकहानी आंदोलन’, ‘समकालीन कहानी आंदोलन’, ‘सचेतन कहानी आंदोलन’, ‘सहज कहानी’, ‘समांतर कहानी’, ‘जनवादी कहानी’, ‘सक्रिय कहानी’ आदि नामों से जाना गया। इनमें से कुछ आंदोलन एक के बाद एक भी आए और कुछ समान्तर रूप में भी चलते रहे। इन सब आंदोलनों का पृथक्-पृथक् अध्ययन न करते हुए, इन सभी को हम समकालीन कहानी को सीमा में समेट सकते हैं या कहा जा सकता है कि नई कहानी के बाद का समय, 1965 ई. के बाद की कहानी का समय ‘समकालीन कहानी’ का समय है।
समकालीन कहानी में विषय की दृष्टि से बड़ा विस्तार और वैविष्य मिलता है। हमारे सामाजिक जीवन का कोई पक्ष नहीं है, कोई क्षेत्र नहीं है जिस पर कहानी न लिखी गई हो। समकालीन कहानी केवल यथार्थ का चित्रण-भर करके नहीं रुक जाती है, उसमें एक दृष्टिबोध भी हैं कि कैसे इन विकट स्थितियों से निपटा जाए, अथवा सही और गलत क्या समकालीन कहानी के समय में इतनी अधिक कहानियाँ लिखी गई हैं कि सबके या कहें श्रेष्ठ के भी नाम-भर गिनाना सुकर कार्य नहीं है। प्रयत्न यह होगा कि प्रत्येक आंदोलन और दशक के प्रमुख कहानीकारों के प्रदाय (देन) की संक्षिप्त चर्चा हो जाए। नई कहानी के एकदम बाद के दौर में ‘ अकहानी’ आंदोलन उठा, जिसमें जगदीश चतुर्वेदी, गंगाप्रसाद ‘विमल’, रवींद्र कालिया, परेश, दूधनाथसिंह प्रमुख हैं। इन्होंने स्त्री-पुरुष के संबंधों और प्रेम-संबंधों पर खूब खुल कर लिखा। यदि एक ओर ऐसी कहानियों का योगदान यह है कि इन्होंने एक खुली दृष्टि के विकास में योग दिया तो दूसरी ओर यह कमी भी है कि कहानी को केवल यौन-अनुभवों तक ही सीमित कर दिया। इस सबके प्रति विद्रोह कर सचेतन कहानी आंदोलन आया जिसमें महीप सिंह, मधुकर सिंह, हृदयेश, हिमांशु जोशी, कुलदीप बग्गा, कुलभूषण, रामदरस मिश्र, गिरिराज किशोर आदि लेखकों ने कहानी को पुनः अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं से जोड़ा।
इसके पश्चात् ‘समांतर कहानी आंदोलन’ का संचालन प्रसिद्ध कहानीकार कमलेश्वर ने किया जिसमें सामान्य मनुष्य के आर्थिक संघर्ष को प्रमुखता से चित्रित किया गया। कामतानाथ, मधुकर सिंह, सुधा अरोड़ा, सुदीप, सतीश जमाली, निरुपमा सेवती, मृदुला गर्ग, श्रवण कुमार आदि अनेक लेखकों की पहल पर समांतर कहानी की प्रस्थापना के लिए गोष्ठियाँ आदि आयोजित हुई। बाद में अनेक लेखक ‘सारिका’ पत्रिका के माध्यम से इस आंदोलन से जुड़ गए। सारिका के 1974 अक्तूबर अंक से लेकर 1975 जुलाई अंक तक दस अंकों में समानांतर कहानी की धूम रही। आठवाँ दशक समाप्त होते-होते कहानीकारों को यह बात समझ में आने लगी कि सही कहानी, श्रेष्ठ या सशक्त कहानी, किसी भी आंदोलन के लेबिल की मुहताज नहीं होती। फलतः आठवें, नौवें दशक और बाद के कथा-समय में उभरी पीढ़ी ने केवल अच्छी कहानी लिखने में ही लेखन की सार्थकता मानी। राजी सेठ, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मिथिलेश्वर, स्वदेश दीपक, राकेश वत्स, मृणाल पांडे, मृदुला गर्ग, सत्येन कुमार, गोविंद मिश्र, चित्रा मुद्गल, रमेश उपाध्याय, धीरेंद्र अस्थाना, नमिता सिंह, सिम्मी हर्षिता आदि अनेक नाम हैं, जिन्होंने आठवें दशक में न केवल सामान्य मनुष्य की संघर्ष गाथा को शब्द दिए अपितु अपने समय और समाज की भयंकर विसंगतियों, राजनीति क्षेत्र की गलाजत, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, विभिन्न सामाजिक इकाइयों और संस्थाओं में व्याप्त कदाचार का आँख खोलने वाला चित्रण कर आपादमस्तक भ्रष्टाचार में संलिप्त सारी व्यवस्था की खबर ली। इन बदली हुई समाजार्थिक (सोशिओ इकॉनामिक) स्थितियों में मानवीय रिश्तों और संबंधों के भी समीकरण बदले हुए हैं। आत्मीय संबंधों में वह गरिमा और ऊष्मा शेष ही नहीं रह गई जी जीवन की पूँजी थी। संयुक्त परिवारों के टूटने से घर-परिवार में वृद्ध की स्थिति और भी दयनीय हो चली। संबंधों के इस बदलते सत्य को कहानी ने बखूबी चित्रित किया है। काशीनाथ सिंह, गोविंदमिश्र, अब्दुल विस्मिल्लाह, प्रियंवद आदि पुरुष कथाकारों ने तथा सुधा अरोड़ा, चंद्रकान्ता, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, सिम्मी हर्षिता, मंजुल भगत आदि महिला कथाकारों ने बहुत सशक्त कहानियाँ लिखीं। यह भी निस्संकोच रूप में कहा जा सकता है कि संबंधों के सत्य पर पुरुषों की अपेक्षा महिला कथाकारों ने ज्यादा बेहतर ढंग से लिखा।
इधर कथाकारों की बिलकुल नई पीढ़ी ने कहानी को सांस्कृतिक संकट के सम्मुख खड़ा किया है। टी. वी. कल्चर, उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण के बढ़ते कुप्रभावों, खुले बाजार की अर्थ व्यवस्था ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मायाजाल को जिस रूप में हमारे सामने पसारा है, उसका सजीव चित्रण संजीव, उदयप्रकाश, जयनंदन, प्रभा खेतान, अलका सरावगी, सुषम बेदी, ऋता शुक्ल, जया जादवानी, मैत्रेयी पुष्पा, क्षमा शर्मा, संजय खाती, अशोक शुक्ल, चंद्रकिशोर जायसवाल, रामधारी सिंह दिवाकर आदि अनेक लेखक अपनी सशक्त कलम से कर हिंदी कहानी को समृद्धि के चरम शिखरों पर पहुँचा रहे हैं।