संकेत बिंदु-(1) साहित्य वाङ्मय का समानार्थक (2) साहित्य की परिभाषा (3) विद्वानों द्वारा साहित्य की परिभाषा (4) साहित्य की विशेषताएँ (5) उपसंहार।
‘साहित्य’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘लिटरेचर’ शब्द का पर्यायवाची माना जाता है। इस शब्द की सीमा बहुत व्यापक है। किसी भाषा में लिखित अर्थात् अक्षरों (Letters) में गुंथी हुई संपूर्ण सामग्री साहित्य या लिटरेचर कहलाती है। जीवन बीमा निगम के कर्मचारी अपने नियम आदि का ज्ञान कराने वाली छपी हुई सामग्री को अपना ‘साहित्य’ कहते हैं। औषधियों की कंपनियों द्वारा प्रचार के लिए छापी हुई पुस्तिकाएँ तथा मूल्यसूची भी ‘साहित्य’ ही कहलाती हैं। राजनीति, ज्योतिष, अर्थशास्त्र आदि विषयों के ग्रंथ भी ‘साहित्य’ के अंतर्गत गिने जाते हैं। इस दृष्टि से साहित्य ‘वाड्मय’ का समानार्थक है।
साहित्य-शास्त्र में ‘साहित्य’ शब्द का प्रयोग सीमित अर्थ में होता है। संस्कृत-आचार्यों ने वाड्मय को दो भागों में विभक्त किया था-काव्य और शास्त्र। काव्य में भावतत्त्व की प्रधानता होती है और शास्त्र में बुद्धि-तत्त्व की। साहित्य-शास्त्र में काव्य के लिए ही साहित्य शब्द का प्रयोग होता है। यह काव्य या साहित्य वही तत्त्व है, जिसे ललित कलाओं में ‘काव्य-कला’ कहा गया है। आधुनिककाल में साहित्य और काव्य शब्दों का प्रयोग भी भिन्न-भिन्न अर्थों में होने लगा है। काव्य के अंतर्गत केवल छन्दोबद्ध रचनाएँ ही ली जाती हैं, जबकि साहित्य में सभी भावतत्त्व-प्रधान रचनाएँ (उपन्यास, कहानी, नाटक आदि) आ जाती हैं। कहा जा सकता है कि काव्य साहित्य का एक अंग है।
‘साहित्य’ शब्द ‘सहित’ शब्द से बना है ‘हितेन सह इति सहितम्। सहितस्य भावः साहित्यम्।’ सहित शब्द के दो अर्थ हैं-
(1) साथ-साथ अथवा मिला हुआ और
(2) हित अर्थात् कल्याण की भावना से युक्त सहित शब्द के इन दोनों अर्थों को ध्यान में रखकर साहित्य के स्वरूप पर विचार किया गया है।
साथ-साथ अर्थात् सम्मिलन के भाव को दृष्टि में रखकर कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने साहित्य की परिभाषा इस प्रकार की है—’ सहित शब्द से साहित्य में मिलने का एक भाव देखा जाता है। वह केवल भाव-भाव का, भाषा-भाषा का, ग्रंथ-ग्रंथ का ही मिलन नहीं है, बल्कि मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथ वर्तमान का, दूर के साथ निकट का अत्यंत अंतरंग मिलन भी है, जो साहित्य के अतिरिक्त अन्य से संभव नहीं है।’ साहित्य का हित अर्थात् कल्याण की भावना से युक्त होना भी अनिवार्य है। सचाई तो यह है कि जिस रचना में मनुष्य-मनुष्य के, दूर और निकट के, अतीत और वर्तमान के समन्वय का भाव होगा, वह निश्चित ही मानव के लिए कल्याणकारी भी होगी। मानव को कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना ही साहित्य का उद्देश्य है। इसी तथ्य को प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए॥
हिंदी के आधुनिक साहित्यकारों ने अपनी साहित्य संबंधी धारणाओं को संस्कृत-काव्यशास्त्र एवं योरुपीय समीक्षा-शास्त्र, दोनों की विचारधाराओं से सम्पुष्ट कर प्रस्तुत किया है। यह समन्वय साहित्य को नए स्वस्थ रूप और दिशा प्रदान करता है।
‘ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।’
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी
‘मानव समाज की चित्तवृत्तियों का प्रतिबिंब साहित्य है।’
-आचार्य रामचंद्र शुक्ल
‘साहित्य संसार के प्रति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया अर्थात् विचारों, भावों और संकल्पों की शाब्दिक अभिव्यक्ति है और वह हमारे किसी-न-किसी प्रकार के हित का साधन करने के कारण संरक्षणीय हो जाती है।’
-बाबू गुलाबराय
साहित्य की परिभाषा निर्धारित करते हुए सहित शब्द के इन अर्थों के अतिरिक्त एक अन्य उक्ति भी सामने आती है। वह है ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्।’ इस उक्ति का सरल अर्थ है कि साहित्य में सत्य का चित्रण होता है, उसमें शिवम् अर्थात् मानव-कल्याण की भावना होती है और उसकी रचना शैली सुंदर होती है। उक्त विवेचन के अनुसार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-
(क) साहित्य में सम्मिलन की शक्ति होती है।
(ख) उसमें जीवन के शाश्वत सत्य का चित्रण होता है।
(ग) वह मानव को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देकर उसका कल्याण करता है। (घ) उसकी रचना-शैली रोचक तथा प्रभावोत्पादक होती है।
जिस प्रकार हमारे जीवन के दो पक्ष हैं-आत्मा और शरीर, उसी प्रकार साहित्य के भी दो पक्ष हैं-भावपक्ष और कलापक्ष। भावपक्ष साहित्य की आत्मा और कलापक्ष उसका शरीर कहा जा सकता है।
साहित्य एक कला है, जिसके द्वारा साहित्यकार अपनी अनुभूति को प्रकट करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि साहित्य के दो पक्ष हैं। पहला पक्ष है-वे अनुभव, भाव आदि, जिन्हें प्रकट करने के लिए साहित्य का निर्माण होता है और दूसरा पक्ष है-वह भाषा-शैली आदि, जिनके द्वारा. साहित्यकार अपने अनुभवों को प्रकट करता है। पहला पक्ष अर्थात् साहित्यकार की अनुभूति ‘भावपक्ष’ कहलाती है और दूसरा पक्ष अर्थात् भाषा-शैली ‘कलापक्ष’। इन्हें क्रमश: अंतरंग (भीतरी) और बहिरंग (बाह्य) पक्ष भी कहते हैं।
साहित्य में भाव पक्ष की प्रधानता होती है। इसे काव्य (साहित्य) की आत्मा स्वीकार किया जाता है। इसके बिना साहित्य का अस्तित्व ही नहीं रह जाता। कलापक्ष (बाह्य पक्ष) तभी साहित्य का सौंदर्य बढ़ा सकता है, जब वह सुंदर भावनाओं रूपी प्राणों से संपन्न हो। भला निर्जीव शरीर आभूषण आदि से सजाने पर भी क्या सुंदर हो सकता है? कलापक्ष का महत्त्व भी कम नहीं है। रोगी शरीर में स्थित आत्मा भी स्वस्थ नहीं रह सकती। सुंदर अनुभूतियों को सुंदर शैली में प्रस्तुत करने पर ही उनका गौरव बढ़ता है।
तात्पर्य यह है कि साहित्य में भावपक्ष और कलापक्ष, दोनों का समन्वयं होना चाहिए। जिस रचना में ये दोनों पक्ष सबल होंगे, वही रचना श्रेष्ठ साहित्य की कोटि में आ सकती है।