संकेत बिंदु-(1) धर्म, नीति, दर्शन का समाधान (2) सामाजिक वैषम्म, अनुशासनहीनता के प्रति विद्रोह (3) राजनीति में 1974 के आस-पास का संक्रांतिकाल (4) ‘स्वान्तः सुखाय’ और व्यक्तिनिष्ठ (5) उपसंहार।
साहित्यकार का दायित्व है कि वह अपनी कृति के माध्यम से लोकाचार और लोकनीति का निर्धारण करे। धर्म, नीति, दर्शन आदि गंभीर समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करे। जिस समाज का वह अंग है, उसकी आस्था, धारणा, भावना, विचार और इच्छाओं-आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करे। सम-सामयिक समस्याओं और राजनीतिक चिंतन का पथ प्रशस्त करे।
केवल मनोरंजनार्थ लिखा गया साहित्य शाश्वत नहीं हो सकता।’ कला कला के लिए’ की भावना से लिखा गया साहित्य चिरजीवी नहीं हो सकता। समाज से दूर, राजनीति से अछूते और जीवन की वास्तविकता से मुँह मोड़ कर लिखे गए साहित्य का महत्त्व तोता-मैना की कहानियों से अधिक कुछ नहीं।
भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। इसका प्राचीन साहित्य ज्ञान-राशि का अनंत भंडार है। दूसरी ओर, विश्व-साहित्य में ज्ञान-विज्ञान के नए-नए तत्त्व प्रवेश कर रहे हैं। साहित्यकार का दायित्व है कि नए और पुराने ज्ञान विज्ञान के भंडार को अपनी भाषा में ले आने का महान् दायित्व संभाले। यदि साहित्यकार इस दायित्व की पहल नहीं करेगा, तो वह देश की प्रगति में सहायता तो पहुँचाएगा ही नहीं, बल्कि अपने प्रति देशवासियों की उपेक्षा और अवज्ञा के भाव को दृढ़ बना लेगा।
राजनीति और समाजनीति हमारे जीवन के उपयोगी पहलू हैं। राजनीति के साथ समाज के प्रत्येक सुसंस्कृत व्यक्ति का व्यावहारिक संबंध है। राजनीति से बिल्कुल अलग रहने की कल्पना शायद कोई साधु-संन्यासी ही कर सकता है। समाज में रहने वाला सजग व्यक्ति इस कल्पना को कभी स्वीकार नहीं करेगा। जो समाज में जीता है, उसका समाज के साथ संबद्ध होना और उससे प्रभावित होना स्वाभाविक और अनिवार्य है। साहित्यकार का यह दायित्व है कि वह सामाजिक वैषम्य, असामंजस्य, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, अनीति और अन्याय के प्रति विद्रोह प्रकट करे। राजनीति के छल-कपट, वोट नीति, फूट डालो और राज्य करो की कूटनीति, व्यक्तिवाद की वर्चस्वता, प्रजातंत्र की आड़ में राजतंत्र के कृत्य, भ्रष्टाचार तथा भाई भतीजावाद के प्रति जनता को सचेत करना साहित्यकार का दायित्व है।
डॉ. विजयेन्द्र स्नातक लिखते हैं- ‘हिंदी के साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचंद को हम उच्चकोटि का समर्थ कलाकार मानते हैं। उनकी रचनाओं में प्रायः तत्कालीन भारतीय समाज तथा राजनीति का वर्णन ही मुख्य रूप से पाया जाता है। जिन समस्याओं को प्रेमचंद ने चित्रित किया है, उनका सीधा संबंध सामाजिक वैषम्य तथा भारत की पराधीनता से। मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, ‘दिनकर’ आदि राष्ट्रीय कवियों के सामने भी राजनीति और अर्थनीति के प्रश्न रहे हैं
भारतीय राजनीति में सन् 1974 के आस-पास का काल संक्रातिकाल था। जिसमें लोकनायक जयप्रकाश धर्म ध्वजा को संभाले संघर्षरत थे और सारा देश उनके नेतृत्व में सर्वस्व न्योछावर करने को सन्नद्ध था, किंतु उस समय देश का साहित्यकार देश की भावनाओं से अलग-थलग पड़ गया। परिणामतः देश को 19 मास की आपातकालीन यातनाएँ सहनी पड़ीं। राजनीतिक स्वतंत्रता का अपहरण होने के पश्चात् बुद्धिजीवी कलाकार अपनी चेतना से न तो आत्मोद्धार कर सका और न साहित्य से समाज का अभ्युत्थान हो सका। यदि उस समय भारत के लेखक राजनीति की चुनौती कर जन-मानस को क्रांति के लिए तैयार कर पाते, तो आज भारतीय राजनीति का रूप कुछ और ही होता।
आज का भारत अपनी राजनीति, समाजनीति, धर्मनीति और अर्थनीति से पुनः त्रस्त है। साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। साहित्य रूपी दर्पण में समाज प्रतिबिंबित होता है। अतः जागरूक साहित्यकार को उसका चित्रण करना अनिवार्य है। डॉ. स्नातक का मत है, ‘साहित्य का बीज ऊसर में-जगत और जीवन से तटस्थ होकर पनपता नहीं है। उसके अंकुरित और पल्लवित होने के लिए समाज की उर्वर भूमि ही अपेक्षित है। अतः मैं साहित्य को समाज-निरपेक्ष मानने के पक्ष में नहीं हूँ। साहित्य में राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति आदि सभी आवश्यक तत्त्वों का सम्मिश्रण रहता है और रहना चाहिए।’
कुछ लोग साहित्यकार के दायित्व की सफलता ‘स्वान्तः सुखाय’ और ‘व्यक्तिनिष्ठ’ साहित्य के निर्माण में स्वीकार करते हैं, किंतु वे यह भूल जाते हैं कि तुलसी का ‘स्वान्तः सुखाय’ काव्य ‘सर्वजन हिताय’ प्रमाणित हुआ। वे समाज और राजनीति के दायित्व से भागे नहीं। बल्कि मानस में समाज, धर्म और राजनीति के महान् द्रष्टा सिद्ध हुए। उन्होंने स्वयं कहा है-
‘जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं,
सो स्त्रम-वादि बाल कवि करहीं।’
उन्होंने राजनीति को लक्ष्य करके स्पष्ट करा-
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी॥’
इसी प्रकार व्यक्तिनिष्ठ साहित्यकार यदि यह चाहता है कि उसके साहित्य को कोई छुए नहीं, उससे कोई स्पन्दित न हो, उसका प्रभाव कहीं लक्षित न किया जा सके, तो ऐसे साहित्य की उपयोगिता क्या है? अतीत से अछूते, वर्तमान से विमुक्त और अनागत से असम्पृक्त साहित्य को लेकर भारतीय समाज और साहित्य क्या करेगा? दूसरे, जो भाव या विचार साधारणीकृत होकर पाठक या श्रोता तक नहीं पहुँच पाता; उसे साहित्य क्षेत्र में बहिष्कृत करने की बात काव्य-शास्त्र के ग्रंथों में कही गई है।
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि ‘साहित्यकार को मनुष्यता का उन्नायक होना चाहिए। जब तक वह मानव मात्र के मंगल के लिए नहीं लिखता, तब तक वह अपने दायित्व से पलायन करता है।’ हम इस विचार से सहमत नहीं। मानव घर में जन्म लेकर समाज, देश तथा विश्व की बात क्रमशः सोचता है। समाज और राष्ट्र की बात छोड़कर मानव मात्र की बात संन्यासी को शोभा देती है, साहित्यकार को नहीं। जब समाज छिन्न-विछिन्न हो, राष्ट्र आपदाओं से ग्रस्त हो, तब विश्व-मानवता के प्रति संवेदनशीलता प्रकट करना रोम के जलने पर नीरो के वंशीवादन के समान ही होगा।
साहित्यकार राष्ट्र का पथ-प्रदर्शक होता है, समाज का सुधारक होता है, धर्म का व्याख्याता होता है, नीति का निर्धारक होता है। अतः उसे राष्ट्र की उन्नति के लिए, समाज और धर्म के उत्थान के लिए राष्ट्र की पुरातन नींव पर नई वैज्ञानिक प्रगति की सहायता से साहित्य-सृजन का दायित्व स्वीकार करना चाहिए।