स्वामी विवेकानंद

swami vivekanada ke bare me mukhya baate jaane

संकेत बिंदु – (1) विकानंद का जन्म (2) नरेंद्र की शिक्षा-दीक्षा (3) परमहंस रामकृष्ण के संपर्क में (4) श्री रामकृष्ण का देहावसान और विवेकानंद के लक्ष्य (5) उपसंहार।

अध्यात्म-विद्या, भारतीय-दर्शन एवं धर्म के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’, इस प्रकार की दृढ़ भावना रखने वाला परतंत्र भारत का ही एक साधु था, जिसने समस्त विश्व को भारत के अध्यात्मवाद के चरणामृत का पान कराया और विदेशों में भारत का मस्तक ऊँचा किया।

जन्म से नरेंद्रदत्त और बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जगद्विख्यात भारतीय नव-जागरण के इस अग्रदूत का जन्म 12 जनवरी, सन् 1863 को कलकत्ता के एक क्षत्रिय परिवार में श्री विश्वनाथ दत्त के घर में हुआ। विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाई कोर्ट के प्रसिद्ध वकील थे।

मेधावी बालक नरेंद्र सन् 1879 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर कलकत्ता के ‘जनरल असेम्बली’ नामक कालिज में प्रविष्ट हो गया। कालिज में रहकर उसने इतिहास, साहित्य, दर्शन आदि विषयों का अध्ययन किया। अंत में बी. ए. की परीक्षा उत्तम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। ‘ अपने छात्र-जीवन में वे उन हिंदू-युवकों के साथी थे, जो यूरोप के उदार एवं विवेकशील चिंतकों की विचारधारा पर अनुरक्त थे तथा जो ईश्वरीय सत्ता एवं धर्म को शंका की दृष्टि से देखते थे।’ वे जिज्ञासुवृत्ति के थे। ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व की जिज्ञासा लेकर वे ब्रह्मसमाज में गए। उन्होंने केशवचंद्र सेन तथा महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के उपदेश सुने, पर जिज्ञासा शांत न हुई। अनेक धर्म-गुरुओं के संपर्क में होते हुए अंत में नरेंद्र सत्तरह वर्ष की आयु में दक्षिणेश्वर के रामकृष्ण परमहंस के मंत्र से अनुप्राणित हुए। परमहंस जी का नरेंद्र पर बहुत प्रभाव पड़ा।

‘नरेंद्रनाथ का शरीर काफी विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट था। वे कुश्ती, बॉक्सिंग, दौड़, घुड़दौड़ के प्रेमी और इन खेलों में दक्ष थे। वे संगीत के प्रेमी और तबला बजाने में सिद्धहस्त थे। उनका स्वभाव पौरुष के वेगों से उच्छल एवं उद्दाम था और आरंभ से ही उनके भीतर राजसिकता के भाव थे। वे संस्कृत और अंग्रेजी के उद्भट विद्वान् एवं यूरोप के तार्किकों एवं दार्शनिकों की विद्याओं में परम निष्णात थे।’

परमहंस स्वामी रामकृष्ण के समीप आकर उनके विचार परिवर्तित होने लगे। नरेंद्र ने उन्हें अपना दीक्षा गुरु बना लिया। इसी बीच नरेंद्र के पिताजी का देहावसान हो गया और परिवार का दायित्व उनके कन्धों पर आ गया। उन्होंने अच्छी नौकरी तलाश की, किंतु नौकरी न मिली। उन्हें बहुत दुख हुआ।

वे पुनः भगवान के अस्तित्व पर शंका करने लगे। इन शंकाओं में डूबा हुआ नरेंद्र पुनः गुरु की शरण में गया और विनती की “आप मेरे लिए काली माता से वरदान माँगें कि मेरा आर्थिक कष्ट दूर हो जाए।” परमहंस ने कहा- “माता से जो माँगना है, तू स्वयं निःसंकोच माँग ले, वे तेरे दुखों को जानती हैं।” वहाँ से नरेंद्र मंदिर में गए और काली से धन की बात भूलकर उन्होंने भगवान के दर्शनों के लिए बुद्धि और भक्ति की याचना की।

नरेंद्र ने अनेक बार संन्यास लेने का विचार गुरु के सम्मुख प्रकट किया, किंतु परमहंस जी उचित अवसर न समझ इन्कार करते रहे। अंत में एक दिन उपयुक्त अवसर देख रामकृष्ण परमहंस ने अपनी साधना का तेज और अपनी अदृश्य दर्शिनी दृष्टि को नरेंद्रनाथ के हृदय में उतार कर उसे ‘विवेकानंद’ बना दिया। रामकृष्ण और नरेंद्रनाथ का मिलन श्रद्धा और बुद्धि का मिलन था, रहस्यवाद और बुद्धिवाद का मिलन था।

सन् 1886 ई. में श्री रामकृष्ण परमहंस का देहावसान हो गया। तत्पश्चात् स्वामी विवेकानंद कलकत्ता छोड़ उत्तर में स्थित वराद नगर के आश्रम में आकर निवास करने लगे। वहाँ उन्होंने दर्शन एवं अन्य शास्त्रों और धर्म-ग्रंथों का अध्ययन किया। दो वर्ष तपस्या और अध्ययन के उपरांत विवेकानंद समस्त भारत की यात्रा पर चल पड़े। इस यात्रा में स्वामी जी ने निम्नलिखित तीन कार्यों को अपना लक्ष्य बनाया-

(1) बुद्धिवादी समाज में धर्म के प्रति जो अश्रद्धा उत्पन्न हो गई थी, उसको दूर करके धर्म की एक तर्क-संगत व्याख्या प्रस्तुत करना, जो मानव के सांसारिक कृत्यों में बाधक न हो।

(2) हिंदू धर्म पर, कम से कम यूरोपीय विद्वानों द्वारा असमर्थित धर्म और इतिहास पर अविश्वास करने वाले हिंदुओं में स्वधर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना।

(3) भारतीयों को आत्म गौरव की भावना से प्रेरित करना एवं उन्हें भारतीय संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परंपराओं का योग्य उत्तराधिकारी बनाना।

उन्होंने शक्ति की साधना में ही भारत का कल्याण बताया। उनका कहना था, “शक्ति, पौरुष, क्षात्र-वीर्य और ब्रह्म-तेज, इनके समन्वय से भारत की नई मानवता का निर्माण होना चाहिए।” इसके लिए उन्होंने वीरता, बलिदान और निर्भयता की शिक्षाएँ भी धर्म से निकाल एवं रुद्र-शिव तथा महाकाली को लोगों का आराध्य बना दिया। साथ ही यह भी उपदेश दिया, वास्तविक शिव की पूजा निर्धन और दरिद्र की पूजा में है, रोगी और कमज़ोर की पूजा में है।”

कहीं-कहीं तो वे भारत के दारिद्र्य और दीन-हीन दशा पर ईश्वर से भी विद्रोह करते दिखाई देते हैं, “मेरे जीवन का परम ध्येय उस ईश्वर के विरुद्ध संघर्ष करना है, जो परलोक में आनंद देने के बहाने इस लोक में मुझे रोटियों से वंचित रखता है, जो विधवाओं के आँसू पोंछने में असमर्थ है, जो माँ-बाप से हीन बच्चे के मुख में रोटी का टुकड़ा नहीं दे सकता।”

About the author

हिंदीभाषा

Leave a Comment

You cannot copy content of this page