डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

संकेत बिंदु-(1) बीसवीं सदी की महान विभूति (2) हेडगेवार का जन्म और परिवार (3) जन्मजात देश-भक्ति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक की स्थापना (4) प्रारंभ में संघ का स्वरूप (5) उपसंहार।

बीसवीं शताब्दी का यह युधिष्ठिर वस्तुतः अजातशत्रु था। महान् मानव-शिल्पी था। वह संगठन मंत्र का उद्गाता और हिंदू जीवन में जन-जागरण का शंखनाद करने वाला ऋषि था। राष्ट्र-चिति की स्वयंभू अभिव्यक्ति-कर्ता था।

भारतीय इतिहास के दैदीप्यमान नक्षत्र प्रातः स्मरणीय डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जीवन राष्ट्र भक्ति की प्रेरणा का अखंड स्रोत है। ‘क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां

नोपकरणे’ का सुभाषित उन पर पूरी तरह घटित होता है। मातृभूमि के उत्थान की भावना की अखंड ज्योति उनके मन-मंदिर में जीवन पर्यंत ज्योतित रही।

श्री हेडगेवार का जन्म विक्रम संवत् 1946 की वर्ष प्रतिपदा (1-4-1889) के पावन दिन नागपुर में एक निर्धन ब्राह्मण कुल में हुआ। इनके पूर्वज कर्नाटक से यहाँ आए थे। उनके पिताजी का नाम श्री बलिराम पंत और माता का नाम श्रीमती रेवतीबाई था। उनके दो अग्रज सर्वश्री महादेव और सीताराम थे। उनकी तीन बहनें थीं- सर्वश्रीमती सरु, तंजु और रंगु। कुल परंपरा के अनुसार श्री बलिराम पंत उपजीविका के लिए पौरोहित्य तथा कर्तव्य समझकर विद्यादान, दोनों ही करते थे। कुछ काल पश्चात् उन्होंने भोजन के लिए यजमानों के घरों में जाना छोड़ दिया। हाँ, कुछ निश्चित घरों से ‘सीधा’ (आमान्न) वे स्वीकार करते थे।

यथा-समय बालक केशव की विधिवत् पाठशाला शिक्षा प्रारंभ हुई। घर पर उन्हें अनेक स्तोत्र, श्लोक, रामरक्षा आदि के मंत्र सीखने को मिले। यज्ञोपवीत संस्कार होने पर संध्या, पूजा, रुद्रीपाठ आदि ब्रह्मकर्म का दैनिक शिक्षण आरंभ हुआ।

देश-भक्ति उनमें जन्मजात थी और विदेशी शासन की पीड़ा उन्हें बचपन से ही ग्रस्त करने लगी। 22 जून, 1897 को महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के साठवें वर्ष दिन पर स्कूल में मिली मिठाई न खाकर उन्होंने कूड़े के ढेर में यह कहकर फेंक दी, “भाँसले के राज्य को जीतने वाले राजा के समारोह का आनंद कैसा?” इसी प्रकार एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर ‘एम्प्रेस मिल’ की ओर से की गई विशाल आतिशबाजी देखने से उन्होंने इसलिए इंकार कर दिया कि, “विदेशी राजा का राज्यारोहण-उत्सव मनाना हमारे लिए लज्जा का विषय है।”

सन् 1925 की विजयदशमी के पावन दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य प्रारंभ हुआ। डॉक्टर साहब ने 15-20 व्यक्तियों को अपने घर में एकत्र कर कहा, “हम लोग आज से संघ शुरू कर रहे हैं।” इस प्रथम बैठक में सर्वश्री भाऊजी कावरे, अण्णा सोहोनी, विश्वनाथ राव केलकर, बाला जी हुद्दार और बापूराव भेदी के नाम प्रमुख हैं। यहाँ से डॉक्टर जी के जीवन में नया मोड़ लिया और प्रारंभ हुआ उनका हिंदू राष्ट्र के पुनरुद्धार के लिए चारित्र्यपूर्ण, ध्येयनिष्ठ तथा सेवामय जीवन।

प्रारंभ में संघ के सदस्य से इतनी ही अपेक्षा थी कि वह किसी भी व्यायामशाला में जाकर पर्याप्त व्यायाम करे। हाँ, सप्ताह में एक दिन रविवार को सभी स्वयंसेवक ‘इतवार दरवाजा प्राथमिक शाला’ के मैदान में एकत्रित होते थे। कुछ दिनों बाद श्री मार्तण्डराव जोग के निरीक्षण में सैनिक शिक्षण प्रारंभ हुआ। अखाड़ों से निकलकर संघ जीवन ने लाठी शिक्षण में प्रवेश किया। सेवा वृत्ति की दृष्टि से इन स्वयंसेवकों ने रामटेक में रामनवमी के मेले में अप्रैल 1926 में अत्यंत सुंदर प्रबंध किया। इससे प्रभावित होकर संघ के स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ने लगी। इधर, श्री सोहोनी के नेतृत्व में जो लाठी शिक्षण का कार्य चल रहा था, उससे आकर्षित हो, नए-नए तरुण संघ में आने लगे। श्री अण्णा सोहोनी के घोर प्रयत्न से अंग्रेजी भाषा के आदेशसूचक शब्दों का ‘दक्ष’, ‘सावधान’ आदि संस्कृत शब्दों में परिवर्तन हुआ।

वर्तमान संघ शाखाओं जैसा कार्यक्रम 28 मई, 1926 से विधिवत् आरंभ हुआ, जिसमें शारीरिक कार्यक्रम और लाठी शिक्षण का महत्त्व था। शाखा-समाप्ति पर प्रार्थना गाई जाती थी।

1-10 नवंबर, 1929 को संघचालकों और कार्यकर्ताओं की बैठक हुई, जिसमें संघटन का स्वरूप ‘एक चालकानुवर्ती’ रखने का निश्चय किया गया। साथ ही सर्वसम्मति से प्रथम सरसंघचालक का पद डॉ. हेडगेवार जी को दिया गया। प्रथम कार्यवाहक बने श्री बाला जी हुद्दार और सरसेनापति श्री मार्तण्डराव जोग। 11 नवंबर 1929 को डॉ. हेडगेवार जी को प्रथम सरसंघचालक प्रणाम दिया गया।

संघ के प्रारंभ से लेकर मृत्युपर्यंत डॉक्टर हेडगेवार ने संघ के माध्यम से विराट् हिंदू-संघटन को देश के विभिन्न भागों में फैलाया। अनेक कर्मठ, निःस्वार्थ, लोकेषणा से बहुत दूर तपः पूत प्रचारकों की शृंखला खड़ी की, जिन्होंने माता-पिता का स्नेह, परिवार का प्रेम और बंधु-बांधवों का बंधन छोड़कर संघकार्य के लिए अपने जीवन समर्पित कर दिए। इन त्यागी, वैरागी प्रचारकों ने रात-दिन चौबीसों घंटे लगकर, हिंदू-संगठन की नींव को सुदृढ़ किया। वस्तुतः वे पारस थे। उन्होंने अपने संपर्क से लाखों लोगों को सोने जैसा देदीप्यमान बनाया। .

संघ का विस्तार और कार्य सुचारु रूप से चलाते हुए भी डॉक्टर जी ने राष्ट्र की अन्य गतिविधियों में भाग लेना नहीं छोड़ा। गाँधी जी के नमक सत्याग्रह के समय डॉक्टर जी ने जंगल सत्याग्रह शुरू कर दिया और 29 जुलाई, 1930 को 9 मास के सश्रम कारावास का दंड प्राप्त हुआ।

अपने व्यक्तिगत कारणों से संघ की हानि न हो, इसका डॉक्टर साहब सदा ध्यान रखते थे। अतः जंगल सत्याग्रह के लिए जाते समय वे सरसंघचालक का भार डॉ. परांजपे को साँप गए।

21 जून, 1940 को प्रातः 9 बजकर 25 मिनिट पर हिंदूराष्ट्र का यह अनन्य पुजारी अपना कार्य पूर्ण कर परलोक को प्रस्थान कर गया। वह हिंदू समाज को सुगठित कर उसमें आत्मबल भर गया। देश पर जब भी विपत्ति आई, राष्ट्र के कर्णधारों को ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ ही याद आया।

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