संकेत बिंदु-(1) जन्म और जन्मकुंडली (2) पारिवारिक पृष्ठभूमि और शिक्षा (3) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रवेश (4) जनसंघ के द्वारा राजनीति में प्रवेश (5) उच्च कोटि के विचारक, लेखक-वक्ता और राजनीतिज्ञ।
ग्रामीणों जैसा सादा परिधान और सौम्य मुखाकृति वाले एवं व्यवहार में सरलता के धनी पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म अपने नाना पंडित चुन्नीलाल जी के घर धनकिया (राजस्थान) में आश्विन कृष्णा त्रयोदशी, चंद्रवार संवत् 1973 तदनुसार 25 सितंबर, 1916 ई. को हुआ। नाना धनकिया के स्टेशन मास्टर थे। इनके पिता का नाम पंडित भगवती प्रसाद उपाध्याय और माता का नाम श्रीमती रामप्यारी था। पंडित भगवतीप्रसाद जी ‘जलेसर रोड’ स्टेशन के स्टेशन मास्टर थे। वैसे, मूलतः वे भगवान कृष्ण की पावन जन्मभूमि मथुरा जिले के फरह नामक गाँव के रहने वाले थे।
नाना जी ने ज्योतिषी बुलवाकर जन्म-नक्षत्र का विचार करवाया। ज्योतिषी ने बताया, ‘बालक अत्यंत विलक्षण और प्रतिभाशाली होगा। वैरागी, तपस्वी, विचारक, विद्वान् तथा देश-विदेश में सम्मान का भागी बनेगा। विवाह नहीं करेगा, परिवार नहीं बसाएगा।’ जहाँ बालक की तेजस्विता की बात सुनकर नाना जी गद्गद हो गए, वहाँ ‘वंश-परंपरा अवरुद्ध हो जाएगी’ की पीड़ा उनके मन को कचोटती रही।
दीनदयाल जी के जन्म के दो वर्ष पश्चात् एक छोटे भाई ने और जन्म लिया। उसका नाम रखा गया ‘शिवदयाल’। जब शिवदयाल जी केवल 6-7 मास के और दीनदयाल जी लगभग ढाई वर्ष के थे, तब एक दुर्घटना हो गई। इनके पिता को श्राद्धों के दिनों में किसी ने खिचड़ी में विष दे दिया। विष प्रकोप से उनका शारदीय नवरात्रों की चतुर्थी को ‘देहावसान हो गया।
तदनंतर इनकी माताजी दोनों पुत्रों को लेकर अपने पिता के घर आ गई। अभी चार वर्ष बीते होंगे कि 8 अगस्त, 1924 को माता रामप्यारी का निधन हो गया। आठ वर्षीय दीनदयाल और छह वर्षीय शिवदयाल अनाथ हो गए; माता-पिता के स्नेह से वंचित हो गए।
दोनों भाई मामा के संरक्षण में बढ़ रहे थे कि विधि को यह जोड़ी भी एक आँख न भाई। सन् 1934 की कार्तिक कृष्ण एकादशी (18 नवंबर, 1934) को छोटे भाई शिवदयाल की निमोनिया से मृत्यु हो गई और दीनदयाल अब जीवन में सर्वथा एकाकी रह गया।
विपरीत परिस्थितियों में भी दीनदयाल जी ने एम. ए. (प्रथम वर्ष) तक की उच्च-शिक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पर रहकर उत्तीर्ण की। ममेरी बहिन की बीमारी में अत्यधिक सेवा संलग्नता और बाद में उसकी मृत्यु के कारण एम. ए. द्वितीय वर्ष की परीक्षा न दे सके। तत्पश्चात् प्रशासनिक सेवा परीक्षा तथा एल. टी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं।
शिक्षण समाप्त करने के बाद, जीवन में संघ की विचारधारा को पूर्णतः आत्मसात् कर लेने के कारण आपने देश हितार्थ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारकं बनना स्वीकार किया। शादी कर, घर बसाने और अपने पिता की एकमात्र जीवित संतान होने के कारण वंश-बेल को पुष्पित-पल्लवित करने की प्रचंड मानवीय अभिलाषा लुप्त हो गई। देश की स्वतंत्रता व अखंडता के लिए उन्होंने अपना खिलता हुआ जीवनपुष्प भारत माता के चरणों में ही अर्पित करने का संकल्प किया और चल पड़े राष्ट्र भक्ति की अलख जगाने के लिए। उत्तर-प्रदेश के लखीमपुर जिले की एक तहसील में प्रचारक के रूप में सन् 1942 में आपकी नियुक्ति हुई।
इनकी योग्यता, कुशलता एवं लोकप्रियता देखकर संघ के अधिकारियों ने उन्हें 1945 में उत्तर प्रदेश का सह प्रांत प्रचारक बनाकर उस प्रदेश के संघटन का भार आपके कन्धों पर लाद दिया।
इसी लोक संग्रही मनोवृत्ति को देखकर परम पूजनीय गुरु जी ने दीनदयाल जी के बारे में एक बार उनका आत्म-दर्शन करते हुए कहा था, “दिल गरम एवं दिमाग ठंडा रखने की कला में वे प्रवीण हैं। दिल की गरमी ऊपर चढ़कर कभी भी उनके दिमाग के संतुलन को नष्ट नहीं कर सकती है एवं दिमाग की ठंडक कभी भी नीचे आकर उनके दिल की आग को बुझाने में समर्थ नहीं हो पाती है।”
उत्तर-प्रदेश में जनसंघ की स्थापना के साथ आप श्री गुरु जी की आज्ञा से जनसंघ में आ गए और संघ का सांस्कृतिक कार्य राजनीतिक चिंतन में अग्रसर हो गया।
21 सितंबर, 1951 को उन्होंने लखनऊ में उत्तर प्रदेश का सम्मेलन बुलाकर प्रादेशिक जनसंघ की स्थापना की। उसी सम्मेलन में आपने जनसंघ को अखिल भारतीय रूप देने का प्रस्ताव रखा, जो सर्वसम्मति से पारित हुआ और ठीक 1 माह के बाद अर्थात् 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में अखिल भारतीय सम्मेलन किया गया। डॉ. मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ ने अखिल भारतीय रूप ग्रहण किया। 1952 के दिसंबर में कानपुर में जनसंघ का प्रथम अखिल भारतीय विशाल सम्मेलन हुआ। पंडित दीनदयालजी की प्रतिभा, संगठन कौशल व राजनैतिक सूझबूझ देखकर डॉ. श्यामाप्रसाद जी ने उनको जनसंघ का महामंत्री घोषित किया। तब से लेकर 1967 तक आप निरंतर इस पद पर रहकर 15 वर्ष तक भारतीय जनसंघ के राजनीतिक रथ का संचालन करते रहे।
सन् 1963 में उन्होंने जौनपुर से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा, किंतु पराजित हुए। इसके बाद दीनदयाल जी ने आजीवन लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा।
पंडित दीनदयाल जी एक उच्च कोटि के विचारक, प्रतिभा संपन्न लेखक, कुशल पत्रकार, प्रभावी वक्ता, निपुण संघटक, चतुर राजनीतिज्ञ व सफल आंदोलनकर्ता थे। भारतीय संस्कृति, भारतीय अर्थशास्त्र और भारतीय राजनीति के वे पारदर्शक पंडित थे। इस विषय में उनके सुचिन्तित विचारों का लोहा मानने को दिग्गज लोग भी विवश हो जाते थे।
दीनदयाल जी का साहित्यिक जीवन भी अत्यंत गौरवशाली था। राष्ट्रधर्म (मासिक) स्वदेश (दैनिक) तथा पांचजन्य साप्ताहिक का प्रकाशन पंडित दीनदयाल जी के मार्गदर्शन में ही शुरू हुआ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के मराठी जीवन चरित का हिंदी अनुवाद पंडित जी ने किया। उन्होंने कई मौलिक पुस्तकें भी लिखीं। जैसे-‘सम्राट् चंद्रगुप्त’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएँ’, ‘टैक्स या लूट’, ‘एकात्म मानववाद’, ‘लोकमान्य तिलक की राजनीति’, ‘जनसंघ : सिद्धांत और नीति’, ‘जीवन का ध्येय’, ‘राष्ट्रीय आत्मानुभूति’, ‘हमारा कश्मीर’, ‘अखंड भारत’, ‘भारतीय राष्ट्रीय धारा का पुनः प्रवाह’, ‘भारतीय संविधान पर एक दृष्टि’, ‘इनको भी आजादी चाहिए’ आदि।’ अमरीकी अनाज पी. एल. 480’, ‘पॉलिटिकल डायरी’, ‘भारतीय अर्थनीति विकास की एक दिशा’, ‘बेकारी की समस्या और उसका हल’, ‘विश्वासघात’ आदि रचनाओं ने बुद्धिजीवी समुदाय को झकझोर कर रख दिया था। वे ‘राष्ट्रधर्म’ और ‘पाँचजन्य’ के लिए नियमित लिखते रहे। उनके लेखन का एक ही लक्ष्य था-भारत की प्रतिष्ठा की वृद्धि।
11 फरवरी 1968, रविवार को सभी भारतवासियों ने यह दुखद समाचार सुना कि पंडित दीनदयाल जी का शव मुगलसराय स्टेशन के समीप पड़ा पाया गया। इससे भारत का जन-मानस हिल गया। भारत शोक-सागर में डूब गया।