महावीर स्वामी

Mahaveer swami ke baare me sabkuch jane

संकेत बिंदु-(1) महावीर स्वामी का अवतरण (2) जैन ग्रंथों में चमत्कार के रूप में वर्णन (3) सांसारिक क्रिया-कलापों से मोहभंग (4) महावीर स्वामी की शिक्षाएँ (5) उपसंहार 1.

देश की धार्मिकता कर्मकांड की प्रबलता से विकृत थी। पशुओं और नर-पुत्रों के रक्त से यज्ञ में आहुतियाँ दी जाती थीं। देव-देवी प्रतिमा के सम्मुख नर-मेध किया जाता था। माँस-मंदिरा का भोग लगाया जाता था। नारी भोग का साधन बन गई थी। धर्म के नाम पर ढोंग चल रहा था। समाज के बंधन ढीले पड़ चुके थे। ऐसी शोचनीय स्थिति में एक महापुरुष उत्पन्न हुआ। इसका नाम था वर्धमान, जो बाद में महावीर स्वामी के नाम से प्रख्यात हुआ।

महावीर स्वामी जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर थे। आपका जन्म लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व चैत्र सुदी त्रयोदशी के दिन बिहार प्रांत के वैशालीनगर के पास कुंडग्राम में लिच्छवीवंशीय क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के घर हुआ था। आपकी माता का नाम त्रिशलादेवी था। पुत्र जन्म से पूर्व माता त्रिशला ने चौदह शुभ स्वप्न देखे थे। इन स्वप्तों में उसे क्रमशः श्वेत हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चंद्र, सूर्य, पताका, कलश, कमल-सरोवर, क्षीर सागर, देव-विमान, रत्नराशि और अग्नि के दर्शन हुए। इससे विश्वास हो गया कि उसकी होने वाली संतान महान गुणों से युक्त पुत्र होगा। उनका विश्वास सत्य सिद्ध हुआ।

जैन धर्म-ग्रंथों में महावीर के जन्म का चमत्कार के रूप में वर्णन किया गया है। वहाँ लिखा है-“प्रकृति प्रसन्न हो उठी। धरती ने फूलों का शृंगार किया। वसंत समीर बहने लगा। सर्वत्र आनंद और उल्लास छा गया, क्योंकि आज धराधाम पर एक महापुरुष का अवतार हुआ था।” पिता ने पुत्र-जन्म पर बहुत उल्लास प्रकट किया। धूमधाम से उत्सव मनाया गया और प्रजा को अनेक प्रकार की सुविधाएँ दी गईं। लिच्छवी वंश उस समय बहुत विख्यात था तथा आपके जन्मकाल से राजा सिद्धार्थ का प्रभाव और अधिक बढ़ने लगा। इस कारण आपका नाम ‘वर्द्धमान’ रखा गया।

वर्द्धमान बाल्यकाल से ही अत्यंत होनहार, ज्ञानी तथा वीर थे। कहा जाता है कि आपने बचपन में ही एक भयानक सर्प तथा एक मदोन्मत्त हाथी को अपने पराक्रम से वश में कर लिया था। तभी से आपका नाम महावीर (महान् वीर) प्रसिद्ध हुआ।

आप अत्यंत दयालु थे तथा जीव-हिंसा और प्राणियों के दुखों को देखकर आपका मन संसार से उदासीन रहता था। आप 30 वर्ष की आयु तक घर में रहे, तत्पश्चात् राज्य, परिवार तथा संबंधियों का मोह छोड़कर साधु बन गए और वन के एकांत-शांत स्थानों में आत्म शुद्धि के लिए कठोर तपस्या करने लगे।

12 वर्ष तक तपस्या करने के पश्चात् वे वीतराग होकर पूर्ण ज्ञानी हो गए। आपने जनता को धर्म का स्वरूप समझाना प्रारंभ कर दिया। इनका सबसे पहला उपदेश राजगृह के निकट विपुलाचल पर्वत पर हुआ। राजगृह का शासक राजा श्रोणिक बिंबसार महावीर स्वामी का परम भक्त था। धीरे-धीरे आपका प्रभाव बढ़ने लगा तथा आपके उपदेशों का प्रभाव सारे भारत में हो गया।

जैन दर्शन की मान्यता है कि जगत का प्रत्येक सत्, प्रतिक्षण परिवर्तित होकर भी कभी नष्ट नहीं होता। वह उत्पाद, व्यय और ध्रौत्य, इस प्रकार त्रिलक्षण है। कोई भी पदार्थ चेतन हो या अचेतन, इस नियम का अपवाद नहीं है।

आपकी मुख्य शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-

(1) किसी प्राणी को मारना, सताना या उसका दिल दुखाना हिंसा कहलाती है। सभी प्राणियों में एक ही आत्मा है। अतः हिंसा करना महापाप है, अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है।

(2) जीव अपने अच्छे-बुरे कार्यों तथा विचारों के अनुसार कर्म करता है और उनके अनुसार तरह-तरह की योनियों में जन्म लेकर दुख-सुख भोगता है। जब वह सब बाहरी पदार्थों से रागद्वेष छोड़कर आत्मचिंतन तथा ध्यान में लगता है, तब दुर्भावों तथा दुखों से छूट जाता है।

(3) सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचरण (रत्नत्रय) ही आत्मशुद्धि के कारण हैं। इन तीनों की पूर्ति होने पर ही संसार से छुटकारा (मोक्ष) मिलता है।

(4) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह-ये पाँच पाप हैं। इनसे आत्मा मलिन होती है। इनका त्याग किए बिना मानव सदाचारी नहीं बन सकता।

(5) मद्य, नशीली वस्तुओं तथा माँस का त्याग प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक बताया गया है।

(6) आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह भी पाप है, क्योंकि इससे दूसरों के अधिकार कुचले जाते हैं।

(7) प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण विद्यमान हैं। अतः विविध दृष्टिकोणों से विचार किए बिना वस्तु का पूर्ण तथा सत्य रूप ज्ञात नहीं हो सकता। दूसरों की बात पर भी गंभीरता तथा शांति से विचार करना चाहिए। अपनी-अपनी ही चलाना अनुचित है।

(8) क्रोध प्रीति का, मान विनय का, माया मित्रता का और लोभ सारे गुणों का नाश करता है। अतः क्षमा से क्रोध को जीतो, नम्रता से अभिमान को जीतो और संतोष से लोभ को जीतो।

इस प्रकार लगातार तीस वर्ष तक प्राणिमात्र को दया, सद्भाव, उदारता तथा आत्मोन्नति का पाठ पढ़ाकर 72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने कार्तिक मास की अमावस्या को प्रातःकाल पावापुर (बिहार) में इस नश्वर शरीर को छोड़कर निर्वाण प्राप्त किया। आप जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर माने जाते हैं।

जैन धर्म में आचरण तथा खान-पान की पवित्रता, तपस्या तथा दान पर विशेष जोर दिया जाता है। भारत के सभी प्रांतों में जैन-धर्म के बड़े-बड़े मंदिर, धर्मशालाएँ तथा औषधालय हैं। श्रवणबेलगोला की गोमटेश्वर की 27 मीटर ऊँची मूर्ति तथा आबू, खजुराहो और देवगण आदि के जैन मंदिर अपनी कला के लिए प्रसिद्ध हैं।

समय के तापसयोगी, महामृत्यु के ध्याता तथा धर्म क्रांति के अग्रदूत भगवान महावीर स्वामी का जन्म-दिवस चैत सुदी ‘महावीर जयंती’ के नाम से सर्वत्र मनाया जाता है।

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