संकेत बिंदु-(1) नानक जी का जन्म तथा बचपन (2) नानक जी का खरा सौदा (3) नानक जी का गृहत्याग और धर्मोपदेश (4) गुरुनानक जी की शिक्षाएँ (5) उपसंहार।
भारत की पवित्र भूमि पर समय-समय पर अनेक महापुरुष उत्पन्न हुए, जिन्होंने लोगों को धर्म का बोध कराया, ईश्वर-प्राप्ति का सच्चा मार्ग बताया। इन महापुरुषों में गुरु नानकदेव का नाम सदा स्मरणीय रहेगा।
नानक जी का जन्म संवत् 1526 में कार्तिक पूर्णिमा को तलवंडी नामक ग्राम में हुआ। तलवंडी का वर्तमान नाम ‘ननकाना साहब’ है। इनके पिता का नाम कालुचंद पटवारी और माता का नाम तृप्ता था।
इनकी रुचि बचपन से हा भगवान की भक्ति की ओर थी। अतः पढ़ने की बजाय वे ईश्वर स्मरण में ही समय बिताते, जिसे देखकर उन्हें पढ़ाने वाले पंडित और मौलवी दंग रह गए। फिर भी, ये संस्कृति और अरबी फारसी के विद्वान् बन गए।
नानक जी को गौएँ व भैसें चराने का काम सौंपा गया। पशु खेत में चरते रहते और ये ईश्वर-भजन में मग्न रहते। एक बार ये पशु चराते हुए दूर निकल गए और थक गए। धूप प्रचंड थी। ये लेट गए और इन्हें नींद आ गई। तभी एक फनियल साँप ने आकर इन पर छाया कर दी। वहाँ का शासक राय बुलार वहाँ से गुजर रहा था। उसने यह दृश्य देखा तो को हटाने पहुँचा। साँप ने आदमी को देखा तो चुपके से चला गया। रायबुलार बहुत प्रभावित हुआ।
पिता ने नानक को व्यापार में डाला। पिता ने एक बार बीस रुपये देकर लाहौर जाकर सच्चा व्यापार करने को कहा। ये चल पड़े। मार्ग में कुछ साधु मिले, जो भूखे थे। इन्होंने सोचा, “इनकी सेवा करना ही सच्चा व्यापार है।” बस, गाँव से सब रुपयों का आय, दाल और सामान लाकर साधुओं को भेंट कर दिया। घर आने पर इन्हें बहुत दंड मिला।
16 वर्ष की आयु में नानक ने मोदीखाने (सरकारी अनाज की दुकान) में नौकरी कर ली। यहाँ भी वे अपना वेतन गरीबों और साधुओं को बाँट देते। 18 वर्ष की आयु में सुलक्षणादेवी से आपका विवाह हो गया। इनके दो पुत्र हुए-श्रीचंद और लक्ष्मीदास। भक्ति करने वाले का मन गृहस्थी में कैसे लगता? ईश्वर की नौकरी करने वाला नवाब की चाकरी कैसे करता?
गुरु नानक का युग दिल्ली साम्राज्य के पतन का काल था। चारों ओर अत्याचार और अनाचार फैला हुआ था। धर्म के वास्तविक रूप को न हिंदू समझ रहा था, न यवन। एक ओर योगी, यति, साधु, संन्यासी हिंदू जनता को मूर्ख बना रहे थे तो दूसरी ओर मुल्ला, पीर, औलिया, उलमा मुसलमानों पर अपना रोब जमाए हुए थे। हिंदू जनता अपना आत्म-विश्वास, आत्म-गौरव तथा आत्म-सम्मान खो चुकी थी। हिंदुओं की असह्य वेदना से पीड़ित नानक घर बार छोड़कर धर्मोपदेश के लिए चल पड़े।
ऐमनाबाद पहुँचकर वे लालू बढ़ई के यहाँ ठहरे। एक दिन वहाँ के धनी पुरुष मलक ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। नानक जी ने स्वीकार न किया। मलक को क्रोध आया। वह नानक के पास पहुँचा। नानक ने एक हाथ में लालू की रोटी और दूसरे हाथ में मलक की रोटी को लेकर दबाया। लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब लालू की रोटी से दूध की और मलक की रोटी से रक्त की बूँदें टपक पड़ीं। उन्होंने कहा कि लालू का भोजन पवित्र कमाई का है।
गुरु नानक ने इस भाँति ईश्वर के प्रति जनता की रुचि जागृत करते हुए भारत का भ्रमण किया। वे मक्का-मदीना भी गए। वहाँ के मुसलमान उनसे बहुत प्रभावित हुए।
गुरु नानकदेव अधिक विद्वान् एवं शास्त्रज्ञानी नहीं थे, किंतु वे बहुश्रुत तथा निजी अनुभव के धनी अवश्य थे। वे निर्गुण-निराकार ईश्वर की उपासना पर विश्वास रखते थे।
उन्होंने अवतारवाद, मूर्तिपूजा, छुआछूत आदि का घोर विरोध किया। अन्य संतों की भाँति गुरु नानकदेव ने भी अपने उपदेश सीधी सादी सरल भाषा में प्रस्तुत किए।
इनके उपदेश थे-सच्चे मन से भगवान का भजन करो। संयम से जीवन बिताओ। परिश्रम से सच्ची कमाई करो। झूठ मत बोलो, पर निंदा और क्रोध मन को अपवित्र करते हैं। मधुर और परहितकारी वचन बोलने चाहिए। हमें उस भगवान को याद करना चाहिए जो जल और थल में समा रहा है। किसी दूसरे शरीरधारी, जन्मने और मरने वाले का नाम नहीं जपना चाहिए।
12 सितंबर, 1539 को आपने हिंदू और यवन शिष्यों की उपस्थिति में ‘तेरा भाणा मीठा लागे’ शब्द कहते-कहते अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया। इनके शव को जलाने और गाड़ने के प्रश्न पर हिंदू और यवनों में झगड़ा होने लगा। झगड़ते हुए जब ये लोग अंदर गए तो देखा कि सिवाय चादर के वहाँ कुछ नहीं है।
गुरु नानकदेव की वाणी ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में संगृहीत है। इनकी वाणी में एक अद्भुत प्रेरणादायिनी शक्ति है। इतनी प्रभावोत्पादकता अन्य किसी संत कवि की वाणी में नहीं पाई जाती। इस संबंध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-“जिन वाणियों से मनुष्य के अंदर इतना बड़ा अपराजेय आत्मबल और कभी न समाप्त होने वाला साहस प्राप्त हो सकता है, उनकी महिमा निःसंदेह अतुलनीय है। सच्चे हृदय से निकले हुए उद्गार और सत्य के प्रति दृढ़ रहने के उपदेश कितने शक्तिशाली हो सकते हैं, नानक की वाणियों ने स्पष्ट कर दिया है।” इनकी वाणी का अध्ययन धार्मिक एवं साहित्यिक, दोनों दृष्टियों से किया जाता है। धार्मिक दृष्टि से सिख धर्मानुयायी तो इसका पाठ और श्रवण करते ही हैं, करोड़ों हिंदू भी मानसिक शांति के लिए गुरुजी की वाणी का पाठ करते हैं।
गुरु नानक के अनुयायी आज ‘सिक्ख धर्मावलंबी माने जाते हैं और वे गुरु नानक को अपना आदि गुरु मानते हैं।