महाराणा प्रताप

Maharana Pratap ke baare me sabkuch jaane

संकेत बिंदु-(1) स्वाभिमानी और स्वतंत्रता का पुजारी (2) बचपन से ही देश-भक्त और वीरता (3) हल्दीघाटी युद्ध का प्रसंग (4) शक्ति सिंह का देश-निवार्सन (5) उपसंहार।

अपने जीवन को मातृभूमि की स्वतंत्रता रूपी बलिवेदी पर सहर्ष निछावर करने वाले भारतीय सपूतों में महाराणा प्रताप का नाम अग्रगण्य है। अकबर के शासनकाल में जब अनेक हिंदू राजा-महाराजा मुगलों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे, तब अकेले प्रताप ही ऐसे ओजस्वी एवं स्वाभिमानी राणा थे, जो जीवन की अंतिम साँस तक जन्मभूमि चित्तौड़ की स्वाधीनता के लिए जूझते रहे। अकबर उनकी वीरता का लोहा मानता था। महाराणा प्रताप के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए किसी कवि ने ठीक ही कहा है-

माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राणा प्रताप।

अकबर सूतो ओझके, जाण सिराणे साँप॥

इस स्वदेशाभिमानी और स्वतंत्रता के पुजारी का जन्म 31 मई, 1539 ई. को हुआ था। इनके पितामह मेवाड़ मुकुट वीरता के अवतार महाराणा सांगा और पिता महाराज उदयसिंह थे। उदयसिंह में उस वीरता और आत्मगौरव का अभाव था, जो महाराणा साँगा में विद्यमान थी। महाराणा प्रताप में अपने पितामह की वीरता और देश-प्रेम की भावना पल्लवित हुई। उन्हें अपने पिता की दुर्बलता पर खेद था। वे कहा करते थे कि “यदि मेरे और मेरे पितामह के मध्य मेरे पिता न आए होते तो दिल्ली चित्तौड़ के चरणों में होती।”

प्रताप ने अपनी योग्यता, वीरता और देश-भक्ति की भावना का परिचय बचपन से ही देना शुरू कर दिया था। परिणाम यह हुआ कि पिता की इच्छा न होने पर भी सामन्तों ने इन्हें मेवाड़ का महाराणा बनाया। मेवाड़ का सिंहासन उस समय वास्तव में काँटों की शय्या थी। राज्य के बहुत बड़े भाग पर मुसलमान अधिकार कर चुके थे। दिल्लीपति अकबर से टक्कर लेने की भूमिका थी मेवाड़ का महाराणा बनना। प्रताप ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। प्रताप के पास अकबर जैसे कूटनीतिज्ञ एवं शक्तिशाली बादशाह से लड़ने के लिए न पूरे साधन थे और न धन ही था। फिर भी उन्होंने निश्चय किया कि, “जब तक देश का उद्धार नहीं होगा, तब तक राजमहलों का त्याग करके जंगलों में रहूँगा, पलंग छोड़कर तृणों की शय्या पर सोऊंगा और षट्स भोजन छोड़कर जंगली कंद-फल-मूल का आहार करूँगा। इस दृढ़ निश्चय, त्याग और कष्ट सहन से प्रताप के मन में पर्वतों को हिला देने और तूफानों का सामना करने की शक्ति उत्पन्न हो गई।

अकबर ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर अच्छे से अच्छे सेनापतियों के नेतृत्व में बड़ी-बड़ी सेना भेजकर प्रताप को पराजित करने का प्रयत्न किया, किंतु उसे सफलता नहीं मिल सकी। हल्दीघाटी का युद्ध इस प्रसंग की सबसे मुख्य घटना है। एक ओर अकबर के सेनापति मानसिंह के नेतृत्व में एक लाख यवन सैनिक और दूसरी ओर देश-प्रेम के मतवाले महाराणा के 20 हजार योद्धा। महाराणा प्रताप का शौर्य देखने योग्य था। वे मानसिंह के रक्त के प्यासे सिंह के समान शत्रु सेना पर टूट पड़ते थे। अवसर पाकर उन्होंने मानसिंह के हाथी को घायल करके उस पर भाला मारा। मानसिंह ने हौदे के नीचे छिपकर प्राण बचाए। इधर प्रताप पर चारों ओर से यवन-सेना टूट पड़ी। प्रचंड वीरता दिखाने पर भी वे घायल हो गए। महाराणा के प्राणों को संकट में पड़ा देख झाला नरेश वहाँ पहुँचे और प्रताप का राजमुकुट अपने सिर पर रखकर युद्ध करने लगे। यवन सैनिक उन्हें ही प्रताप समझ कर युद्ध करते रहे और प्रताप को युद्ध से हट जाने का अवसर मिल गया।

हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन करते हुए श्याम नारायण पांडे लिखते हैं-

घड़ कहीं पड़ा, सिर कहीं पड़ा / कुछ भी उनकी पहचान नहीं।

शोणित का ऐसा बेग बड़ा / मुरदे बह गए निशान नहीं।

मेवाड़ केसरी देख रहा/केवल रण का न तमाशा था।

वह दौड़-दौड़ करता था रण/ वह मान रक्त का प्यासा था।

राणा प्रताप ने एक बार ब्राह्मण वध के अपराध में अपने छोटे भाई शक्तिसिंह को देश-निर्वासन का दंड दे दिया था तो वह अकबर से जा मिला। महाराणा को युद्ध भूमि से बाहर जाते हुए शक्तिसिंह ने देख लिया और वह बदला लेने के विचार से उनका पीछा करने लगा। दो मुगल सैनिक भी प्रताप का पीछा कर रहे थे। सहसा शक्तिसिंह के हृदय में भ्रातृप्रेम का भाव उमड़ा। उसने दोनों यवनों को मौत के घाट उतारा और महाराणा के सम्मुख जाकर क्षमा-याचना की। प्रताप का स्वामीभक्त घोड़ा चेतक दम तोड़ चुका था। वे शक्तिसिंह का घोड़ा लेकर सुरक्षित स्थान के लिए चले गए।

अपूर्व साहसी, अतुल पराक्रमी, प्रचंड शौर्ययुक्त, हिमाद्रि सदृश्य धीरता और दृढ़ता से युक्त, स्वदेशाभिमानी, तपस्वी, रण कुशल, दृढ़-प्रतिज्ञ एवं मातृभूमि की गौरव गरिमा और स्वाधीनता की रक्षा हेतु अपने युग के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य की शक्ति से अकेले ही जूझने टकराने वाले अमर सेनानी महाराणा प्रताप की चेतक पर सवार विशाल कांस्य प्रतिमा राजस्थान के स्वर्ग उदयपुर के मोती मगरी में अवस्थित है। गहनों से सजे-धजे चेतक का तीन पाँव पर खड़ा होना जहाँ अत्यंत शोभनीय है, वहाँ प्रताप की कमर में लटकती तलवार, हाथ का भाला और युद्ध-पोशाक में वीरता टपकती है। द्वार पर ये शब्द अंकित हैं, “जो राखे दृढ़ धर्म को, तेहि राखे करतार।”

महाराणा प्रताप का बलिदान और यह स्मारक शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिए प्रकाश स्तंभ रहा है और आगे भी रहेगा। चित्तौड़ की उस पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर संदेश झंकृत होता सुना जा सकता है।

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