संकेत बिंदु-(1) स्वामी दयानंद का जन्म (2) मूलशंकर से दयानंद सरस्वती (3) लोगों को सच्चे वैदिक धर्म का ज्ञान कराया (4) षडयंत्र द्वारा स्वामी की हत्या (5) उपसंहार।
भारत में जब-जब भी धर्म और समाज में विकृति आई है, जन-जीवन अवनति के गर्त की ओर चला है, सामाजिक प्रथाओं एवं परंपराओं पर कुठाराघात हुआ है, तब-तब ही इस पुण्य भू पर कोई-न-कोई दिव्य विभूति अवतरित हुई है, जिसने सुप्त भारतीयों को जगाया है। उनको कर्त्तव्य का बोध कराया है। 11वीं शताब्दी में भारत में व्याप्त अज्ञानान्धकार को दूर करने का सर्वाधिक श्रेय स्वामी दयानंद को प्राप्त है।
महर्षि दयानंद का जन्म मोरवी राज्य के टंकारा नामक ग्राम में संवत् 1881 में हुआ था। उनके पिता का नाम कर्षन जी था, जो कि एक बड़े भूमिधर थे। स्वामी दयानंद का बचपन का नाम मूलशंकर था। बालक मूलशंकर शुरू से ही मेघावी था, अतः वह 14 वर्ष की आयु तक बहुत से शास्त्र व ग्रंथ कंठस्थ कर चुका था।
स्वामी जी के पिता शैव धर्म के उपासक थे। उन्होंने एक दिन मूलशंकर से शिवरात्रि का व्रत रखने को कहा। ये अपने पिता के साथ शिवालय चले गए। शिवरात्रि को रात भर जागरण रखने का महत्त्व इन्हें समझाया गया। वहाँ सब लोग सो गए, किंतु मूलशंकर जागता रहा। उन्होंने देखा कि शिवलिंग पर चूहे चढ़ गए हैं और मूर्ति पर चढ़ाई हुई मिठाई खा रहे हैं। इस घटना से स्वामी जी के मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हुईं। पिता ने युक्तियों द्वारा समाधान करना चाहा, किंतु बालक को उनकी कोई भी युक्ति तर्कसंगत न लगी।
कुछ दिन बाद उनकी 14 वर्षीय बहन की मृत्यु हो गई। इस मृत्यु ने मूलशंकर के मन पर गहरा प्रभाव डाला। उन्हें संसार से वैराग्य हो गया। यह दशा देखकर घरवालों ने उनके विवाह की तैयारी शुरू कर दी, किंतु मूलशंकर विवाह के उत्सव से सुशोभित घर से निकल पड़ा।
दो वर्ष के निरंतर भ्रमण के बाद चाडोंदा ग्राम के समीप दक्षिणात्य दंडी स्वामी पूर्णानंद सरस्वती से आपकी भेंट हुई। उन्होंने इनको विधिपूर्वक संन्यास धारण कराया। अब ये मूलशंकर से ‘दयानंद सरस्वती’ बन गए।
गुरुजी द्वारा प्राप्त शिक्षा और दिए हुए आदेश को ग्रहण कर दयानंद वैदिक धर्म के प्रचार के लिए निकल पड़े। संवत् 1924 में आप हरिद्वार के कुंभ मेले में गए और वहाँ ‘पाखंड-खंडिनी’ पताका गाड़ दी। इस मेले में स्वामीजी ने अनेक भाषण दिए, ब्राह्मण और साधुओं से शास्त्रार्थ किया और लोगों को सच्चे वैदिक धर्म के बारे में समझाया।
उन्होंने भारत के सभी छोटे-बड़े शहरों में भ्रमण किया। वे अनेक राजाओं और महाराजाओं से भी मिले। वे मूर्ति पूजा का खंडन कर जनता को ईश्वर का वास्तविक रूप समझाते रहे। उनका कहना था कि ईश्वर एक है और उसका कोई रूप नहीं। उन्होंने बाल-विवाह, अनमेल विवाह, जाति-पाँति और छुआछूत का विरोध किया, अंधविश्वासों और मिथ्या धारणाओं का खंडन किया। लोगों को जनेऊ पहनाया, संध्या सिखाई, गायत्री का जप बताया। लाखों लोगों को सदुपदेश से सन्मार्ग दिखाया। उन्होंने बताया, “गुण और कर्म से वर्ण होते हैं, जन्म से नहीं। वेद पढ़ने और यज्ञ करने का सभी को एक समान अधिकार है।” उन्होंने स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया। सहस्रों हिंदुओं को मुसलमान और ईसाई बनने से बचाया।
खुलेआम शास्त्रार्थ करने और अपने आपको हिंदू-धर्म का ठेकेदार कहने वालों की ठेकेदारी खतरे में पड़ने के कारण बहुत-से लोग उनके शत्रु बन गए। उनको मारने के अनेक प्रयत्न किए गए। अनूपशहर में उन्हें पान में विष दिया गया, गंगा में उठाकर फेंकने और तलवार से मारने का प्रयत्न किया गया। भाषण करते समय उन पर पत्थर फेंके गए। आखिर उनकी मृत्यु एक षड्यन्त्र के कारण ही हुई। एक बार स्वामीजी ने राजा की भर्त्सना की। इससे वह नन्हींजान वेश्या चिढ़ गई। उसने स्वामीजी के विश्वस्त रसोइये को धन देकर उनके दूध में पारा डलवा दिया। अनेक उपचार करने के बाद भी बच न सके और संवत् 1940 में दीपावली के दिन उन्होंने इस नश्वर शरीर को छोड़ दिया।
अपनी मान्यताओं के प्रचार-प्रसार हेतु 10 अप्रैल 1875 को मुम्बई में प्रथम ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। उसके बाद तो ‘ आर्य समाज’ का प्रचार इतना बढ़ा कि आज आर्य समाज मंदिरों का भारत में जाल बिछा हुआ है।
स्वामी जी ने ऋग्वेद के तीन-चौथाई भाग और समस्त यजुर्वेद का भाष्य लिखा। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका और संस्कार-विधि आदि विद्वतापूर्ण अनेक ग्रंथ लिखे।
स्वामी दयानंद ने वैदिक धर्म को ही सच्चा धर्म माना है। उन्होंने घोषणा की कि, “हिंदू धर्म-ग्रंथों में वेद ही मान्य हैं, अन्य शास्त्रों और पुराणों की बात बुद्धि की कसौटी पर कसे बिना नहीं मानी जानी चाहिए।” छः शास्त्रों और अठारह पुराणों को उन्होंने एक ही झटके में साफ कर दिया। वेदों में मूर्ति-पूजा, अवतारवाद, तीर्थों और अनेक पौराणिक अनुष्ठानों का समर्थन नहीं था, अतएव स्वामी जी ने इन सारे कृत्यों और विश्वासों को गलत घोषित किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती महान् पुरुष थे। न केवल हिंदू ही, अपितु यवन और ईसाई नेता भी उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे। उनकी मृत्यु पर सुप्रसिद्ध मुस्लिम नेता सर सैयद अहमद खाँ ने अत्यंत भावपूर्ण शब्दों में संवेदना और शोक प्रकट किया था। मादाम ब्लेवास्की ने स्वामी जी के देहावसान पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था-“ जनसमूह के उबलते हुए क्रोध के सामने कोई संगमरमर की पूर्ति भी स्वामी जी से अधिक अडिंग नहीं हो सकती थी।” थियोसोफिस्ट अखबार ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा था-“उन्होंने जर्जर हिंदुत्व के गतिहीन दूह पर भारी बम का प्रहार किया और अपने भाषणों से लोगों के हृदयों में ऋषियों और वेदों के लिए अपरिमित उत्साह की आग जला दी।”