भिक्षुक
वह आता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
साथ में दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया-दृष्टि पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओंठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।
यह कविता एक भिखारी को आधार बनाकर लिखी गई है। इसमें उस भिखारी के साथ दो बच्चे भी हैं। उनकी उपस्थिति इस कविता की मार्मिकता को और बढ़ा दे रही है। कविता का चरम-बिंदु है-जूठी पत्तलों को झपट लेने के लिए कुत्तों का अड़ जाना। ‘भिक्षुक’ कविता कलकत्ते से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘मतवाला’ में 17 नवंबर, 1923 को प्रकाशित हुई थी। बाद में यह कविता ‘परिमल’ (1929 ) में संगृहीत हुई। इससे पहले भिक्षुक को विषय बनाकर इतनी अच्छी कविता नहीं लिखी जा सकी थी। कविताओं में भिखारियों की चर्चा तो मिल जाती थी, मगर भिखारी को केंद्र में रखकर कोई कविता नहीं लिखी गई थी।
‘भिक्षुक’ कविता 1923 में लिखी गई है। छायावाद के दौर में लिखी गई यह यथार्थवादी कविता है। इसकी भाषा में बोलचाल की मात्रा अधिक है। इसका छंद-विन्यास भी मुक्तता लिए हुए है। सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करती यह रचना केवल काव्यात्मक न्याय तक सीमित नहीं है। इसमें ‘भाग्य विधाता’ का भी जिक्र है रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘जन-गण-मन’ की रचना इसके काफी पहले कर दी थी। कलकत्ते के कांग्रेस अधिवेशन में इस गीत को 1911 में गाया गया था। इस गीत में ‘भाग्य-विधाता’ था। निराला 1923 में ‘भाग्य-विधाता’ पर अफसोस प्रकट कर रहे थे क्योंकि भिक्षुक के भाग्य का विधाता वह बन नहीं पा रहा था। जो भिक्षुक के मामूली से भाग्य के लिए कुछ न कर सके, उस पर संदेह तो किया ही जाना चाहिए। यह कविता बता रही थी कि मनुष्य का एक रूप ऐसा भी मौजूद है जिसकी हालत गली के कुत्ते जैसी है। यह कविता हिंदी कविता की तत्कालीन स्थिति से काफी आगे जाकर सृजन के दायित्व को, सामाजिक राह दिखा रही थी।
पंक्तियाँ – 01
वह आता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
शब्दार्थ
दो टूक कलेजे के – मन को भावुक करता हुआ
पथ – रास्ता
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक – भूख से पेट-पीठ दोनों एक से लग रहे हैं।
पछताता – पश्चाताप, भिक्षुक का जीवन मानो पछतावे का मूर्त रूप हो
झोली – थैली
लकुटिया टेक – पतली लाठी का सहारा लेना
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ महाप्राण निराला की ‘भिक्षुक’ कविता से ली गई है। इस कविता में एक भिखारी की दयनीय अवस्था का चित्रण किया है। साथ में उसके दो बच्चे भी हैं। उसका स्वास्थ्य अत्यंत बुरी स्थिति में है। मनुष्य होते हुए भी वह इतना विरूप है कि कुत्ते भी उसे मनुष्य मानने को तैयार नहीं हैं। यह कविता यह भी इशारा करती है कि जो लोग मनुष्य के समाज का ‘भाग्य विधाता’ होने का गौरव पालते हैं, उनके पास भी इनके कल्याण की कोई दृष्टि नहीं है।
व्याख्या
कवि निराला कहते हैं कि भिखारी अपनी दयनीय स्थिति में सड़क पर भीख मिल जाने की चाह लिए निकलता है। उसके इस रूप और मानव की इतनी अक्षम अवस्था देखकर हृदय के टुकड़े हो जाते हैं। उसे देखकर ही लगने लगता है कि भिक्षुक का जीवन मानो पछतावे का मूर्त रूप हो। वह इतना दुबला है कि उसका पेट और उसकी पीठ-दोनों मिलकर मानो एक हो गए हैं। कमजोरी के मारे वह एक पतली सी लाठी टेकते हुए चल रहा है। वह एक फटी-पुरानी झोली लेकर चलता है। अपनी भूख मिटाने के लिए उसे मुट्ठी भर अनाज की उम्मीद जहाँ भी दिखती है, वहाँ झोली का मुँह फैला देता है। उसका रास्ते पर चलते हुए दिख जाना मन को भावुकता से भर देता है। उसकी जिन्दगी मानो एक तरह का अफसोस है एक तरह का अभिशाप है।
पंक्तियाँ – 02
साथ में दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया-दृष्टि पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओंठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।
शब्दार्थ
सदा – हमेशा
दया-दृष्टि पाने – लोगों की दया पाने की इच्छा
दाता – भिक्षा देनेवाला
भाग्य-विधाता – भिक्षा देनेवाले मानो उसके भाग्य का निर्णय करनेवालों में से हैं।
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ महाप्राण निराला की ‘भिक्षुक’ कविता से ली गई है। इस कविता में एक भिखारी की दयनीय अवस्था का चित्रण किया है। साथ में उसके दो बच्चे भी हैं। उसका स्वास्थ्य अत्यंत बुरी स्थिति में है। मनुष्य होते हुए भी वह इतना विरूप है कि कुत्ते भी उसे मनुष्य मानने को तैयार नहीं हैं। यह कविता यह भी इशारा करती है कि जो लोग मनुष्य के समाज का ‘भाग्य विधाता’ होने का गौरव पालते हैं, उनके पास भी इनके कल्याण की कोई दृष्टि नहीं है।
व्याख्या
निराला आगे कहते हैं कि भिक्षुक के साथ दो बच्चे भी हैं। वे बच्चे लगातार हाथ फैलाकर माँगने की मुद्रा बनाए हुए हैं। वे बच्चे बाएँ हाथ से अपने भूखे पेट को दबा रहे हैं और दाहिना हाथ लोगों की दया-दृष्टि पाने के लिए बढ़ाए हुए हैं। उन्हें उम्मीद है कि दया आने पर लोग उसके हाथ पर कुछ रख देंगे।
मारे भूख के उनके होंठ सूख जाते हैं। उन्होंने जिन्हें ‘दाता’ समझ रखा था, जिन्हें अपने ‘भाग्य’ का ‘विधाता’ समझ रखा था उनसे भी कुछ प्राप्त न हो पाने की स्थिति में बेचारे आँसुओं के घूँट पीकर रह जाते हैं। भूख और उपेक्षा से उत्पन्न मन की बेचौनी को दबा लेने के अलावा उनके पास और रास्ता ही क्या है?
वे अमानवीयता की स्थिति तक पहुँचकर अपना जीवन जी रहे हैं। सड़क पर फेंकी हुई जूठी पत्तलों को चाट कर अपनी भूख मिटाने की कोशिश मानो इस विकट स्थिति का अंतिम उपाय है। इस स्थिति की विद्रूपता तब और बढ़ जाती है जब निराला कहते हैं कि उन जूठी पत्तलों को उनसे छीन लेने के लिए कुत्ते भी अड़े हुए हैं। वे कुत्ते भी मानो समझ रहे हैं कि ये भिखारी नाम मात्र के मनुष्य हैं, इनसे डरने की जरूरत नहीं है। ये हमारी तरह की ही जिंदगी जी रहे हैं। कुल मिलाकर यह कविता भिक्षुक की अमानवीय स्थिति का मार्मिक चित्रण है।
छायावादी दौर में लिखी गई यह कविता छायावाद की मनोभूमि से भिन्न प्रकृति की है।
इसमें छायावाद की कोई भी प्रवृत्ति दिखाई नहीं पड़ती है।
निराला के प्रयोगधर्मी व्यक्तित्व और यथार्थ-चेतना का एक सुंदर नमूना है यह कविता।
इस कविता की महत्ता का एक कारण यह भी है कि यह जिस समय लिखी गई थी उस समय इस मिजाज की कविताएँ प्रायः नहीं लिखी जा रही थी। यह अपने समय से आगे की कविता थी।
इस कविता में मुक्त छंद का उपयोग किया गया है। कविता के मूल में 22-22 मात्राओं की कुछ पंक्तियाँ हैं। 6 मात्रा से शुरू होकर अंत में 29-29 मात्राओं की दो पंक्तियों से यह कविता निर्मित हुई है।