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(जन्म सन् 1896 ई., निधन सन् 1976 ई.)

सुदर्शनजी का जन्म पश्चिमी पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) में सियालकोट नगर में हुआ था। इन्हें बचपन से ही कहानी लिखने का शौक था। इन्होंने प्रारंभ में उर्दू में लिखना शुरू किया था, बाद में हिंदी में लिखने लगे। इनकी पहली कहानी ‘सरस्वती’ नामक पत्रिका में 1920 में छपी थी। हिंदी कहानी क्षेत्र में प्रेमचंद के बाद सुदर्शनजी का नाम लिया जाता है। इन्होंने फिल्मों के लिए भी कहानियाँ लिखीं जिन पर सफल फिल्मों का निर्माण हुआ। सुदर्शन सुमन, पारस, पनघट इनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।

 

प्रस्तुत कहानी में पंडित शादीराम और लाला सदानंद के बीच जो आर्थिक व्यवहार हुआ उसमें संबंधों को किस तरह बचाया गया, उसका मार्मिक वर्णन है। आजकल पैसों के कारण संबंधों में दरार पड़ जाती है। ऐसे समय में मानव मूल्यों का जतन करने की प्रेरणा इस कहानी से मिलती है।

अलबम

पंडित शादीराम ने ठंडी आह भरी और सोचने लगे – क्या यह ऋण कभी सिर से न उतरेगा?

वे गरीब थे परंतु दिल के बुरे न थे। वे चाहते थे कि जिस तरह भी हो, अपने यजमान लाला सदानंद का रुपया अदा कर दें। उनके लिए एक-एक पैसा मोहर के बराबर था। अपना पेट काटकर बचाते मगर जब चार पैसे जमा हो जाते तो कोई न कोई ऐसा खर्च निकल आता था जिससे सारा रुपया उड़ जाता। शादीराम के हृदय पर बरछियाँ चल जाती थीं और वे कुछ कर न पाते थे।

इसी तरह कई साल बीत गए। शादीराम ने पैसा पैसा बचाकर अस्सी रुपए जोड़ लिए। उन्हें लाला सदानंद के पाँच सौ रुपये देने थे। इस अस्सी रूपए की रकम से ऋण उतारने का दिन आता प्रतीत हुआ। परंतु उनका लड़का लगातार चार महीने बीमार रहा। पैसा-पैसा करके बचाए हुए रुपए दवा-दारू में उड़ गए। पंडित शादीराम ने सिर पीट लिया। अब चारों ओर फिर अंधकार था उसमें प्रकाश की हलकी-सी किरण भी दिखाई न देती थी। उन्होंने ठंडी साँस भरी और सोचने लगे क्या यह ऋण कभी सिर से न उतरेगा?

लाला सदानंद अपने पुरोहित की विवशता को जानते थे। वे चाहते थे कि पंडितजी रुपये देने का प्रयत्न न करें। उन्हें इस रकम की जरा भी परवाह न थी। उन्होंने इसके लिए कभी तगादा तक नहीं किया। इस बात से वे इतना डरते थे, मानो रुपए उन्हीं को देने हों।

शादीराम के दिल में भी शांति न थी। वे सोचा करते कि ये कैसे भलेमानस हैं जो अपनी रकम के बारे में मुझसे बात तक नहीं करते? खैर, ये कुछ नहीं कहते, सो तो ठीक है परंतु इसका तात्पर्य यह थोड़े ही है कि मैं भी निश्चिंत हो जाऊँ? मेरी तरफ इनका रुपया निकलता है, मुझे देना ही चाहिए।

उनमें लाला सदानंद के सामने सिर उठाने का साहस न था। यदि लाला सदानंद ऐसी सज्जनता न दिखलाते और शादीराम से बार- बार अपने पैसे माँगते तब शायद उनके दिल को ऐसा कष्ट न होता। हम अत्याचार का सामना सिर उठाकर कर सकते हैं परंतु भलमनसी के सामने आँखें नहीं उठतीं।

एक दिन लाला सदानंद किसी काम से पंडित शादीराम के घर गए। वहाँ उनकी अलमारी में कई सौ बंगला, हिंदी और अंग्रेजी की मासिक पत्रिकाएँ देखकर बोले, “ये क्या हैं पंडितजी? ”

पंडित शादीराम ने उत्तर दिया, ‘पुरानी पत्रिकाएँ हैं। बड़े भाई को पढ़ने का शौक था। वही ये पत्रिकाएँ मँगवाते थे। वे जब जीवित थे तो किसी को हाथ न लगाने देते थे। अब इन्हें कीड़े खा रहे हैं। कोई पूछता भी नहीं।’

“रद्दी में क्यों नहीं बेच देते? ”

“इनमें चित्र हैं। जब कभी बच्चे रोने लगते हैं तो एक-आध निकालकर दे देता हूँ। इससे उनके आँसू थम जाते हैं इसलिए रद्दी में नहीं बेचता।”

लाला सदानंद ने आगे बढ़कर कहा, ‘दो-चार पत्रिकाएँ दिखाइए तो। जरा देखें, इनमें कैसे चित्र हैं? ‘पंडित शादीराम ने कुछ पत्रिकाएँ दिखाई। हर एक पत्रिका में कई सुंदर और रंगीन चित्र थे। लाला सदानंद कुछ देर तक उलट-पलटकर देखते रहे। सहसा उनके मन में एक विचार उठा। वे बोले, ‘ये चित्रकला के बढ़िया नमूने हैं। अगर किसी शौकीन को पसंद आ जाएँ तो आप हजार दो हजार रुपए बड़ी आसानी से कमा सकते हैं।’

पंडित शादीराम ने एक ठंडी साँस भरकर कहा, ‘ऐसे भाग्य होते तो यों धक्के न खाता फिरता !” लाला सदानंद बोले, ‘एक काम करें !’

“क्या? ”

‘आज बैठकर जितनी अच्छी-अच्छी तसवीरें हैं, सबको अलग छाँट लें।’

‘बहुत अच्छा।’

‘जब यह कर चुकें तो मुझे कहलवा दें।”

‘आप क्या करेंगे? ”

‘मैं एक अलबम बनाऊँगा और आपकी तरफ से विज्ञापन दे दूँगा। हो सकता है, यह विज्ञापन किसी शौकीन के हाथ पड़ जाए और आप दो चार पैसे कमा लें। तसवीरें बहुत बढ़िया हैं।’

पंडित शादीराम को यह आशा न थी कि कोयले की खान में हीरा मिल जाएगा। घोर निराशा ने आशा के सभी द्वार बंद कर दिए थे। वे उन हतभागे लोगों में से थे जो संसार में असफल और केवल असफल रहने के लिए पैदा होते हैं। वे सोने को हाथ लगाते थे तो वह भी मिट्टी हो जाता था। वे सीधी बात भी करते थे तो उलटी पड़ती थी। उनको पक्का विश्वास था कि यह प्रयत्न भी सफल न होगा परंतु लाला सदानंद के कहने से दिनभर बैठकर तसवीरें छाँटते रहे। न उनके मन लगन थी, न उनके हृदय में चाव था, न उनके सीने में उमंग था किंतु लाला सदानंद की बात को टाल न सके। शाम को देखा, दो सौ बढ़िया चित्र जमा हो गए हैं। उस समय वे उन्हें देखकर स्वयं उछल पड़े। उनके मुख पर आनंद की आभा नाचने लगी। वे उन चित्रों की ओर इस तरह देखते मानो उनमें से हर एक दस-दस के नोट हों। बच्चों को उधर देखने तक न देते थे। वे सफलता के विचार से ही प्रसन्न हो रहे थे। यद्यपि आशा कोसों दूर थी। लाला सदानंद की दी हुई आशा उनके मस्तिष्क में निश्चय का रूप धारण कर चुकी थी। वे खुशी से झूमने लगे।

लाला सदानंद ने चित्रों को अलबम में लगवाया और समाचार पत्रों में विज्ञापन दे दिया। अब पंडित शादीराम हर समय डाकिए की प्रतीक्षा करते रहते थे। वे रोज सोचते थे कि आज कोई चिट्ठी आएगी। दिन बीत जाता, कोई चिट्ठी न आती थीं। रात को आशा, सड़क की धूल की तरह बैठ जाती थी। मगर दूसरे दिन लाला सदानंद की बातों से टूटी हुई आशा फिर जुड़ जाती थी। आशा फिर अपना चमकता हुआ मुँह दिखाकर उन्हें दरवाजे पर ला खड़ा कर देती थी। डाक का समय होता, तो वे बाजार चल पड़ते और वहाँ से डाकखाने पहुँच जाते। इसी तरह एक महीना बीत गया, कोई पत्र न आया। पंडित शादीराम बिलकुल निराश हो गए। मगर फिर भी कभी-कभी सफलता का विचार आ जाता था, जैसे अँधेरे में जुगनू चमक जाता है। जुगनू की यह चमक निराश हृदयों के लिए कैसी जीवनदायिनी, कैसी हृदयहारिणी होती है। इसके सहारे भूले हुए मुसाफिर मंजिल पर पहुँचने का प्रयत्न करते हैं और कुछ देर के लिए अपना दुख भूल जाते हैं। इस झूठी आशा के अंदर सच्चा प्रकाश नहीं होता, यह दूर के संगीत के समान मनोहर जरूर होती है। इस वर्षा की कमी दूर हो न हो परंतु इससे काली घटा का जादू कौन छीन सकता है? पंडित शादीराम ने आशा न छोड़ी। या यों कहिए, आशा ने पंडित शादीराम को न छोड़ा। दिन गुजरते गए।

आखिर एक दिन शादीराम के भाग्य जागे। कलकत्ते के एक मारवाड़ी सेठ ने पत्र लिखा कि अलबम भेज दो । अगर पसंद आ गया तो खरीद लिया जाएगा। मूल्य की चिंता नहीं, चीज अच्छी होनी चाहिए। यह पत्र उस करवट के समान था जो सोया हुआ आदमी जागने से पहले बदलता है और उसके बाद उठ बैठता है। यह किसी आदमी की करवट न थी, यह भाग्य की करवट थी दिखाकर बोले, ‘आखिर आज एक पत्र आ गया है। भेज दूँ अलबम?’

छह महीने बीत गए।

पंडित शादीराम दौड़े हुए सदानंद के पास पहुँचे और उन्हें पत्र दिखाकर बोले, “आखिर आज एक पत्र आ ही गया है। भेज दूँ अल्बम।”

लाला सदानंद बीमार थे। पंडित शादीराम उनके लिए दिन-रात माला फेरा करते थे। वे न वैद्य थे, न डॉक्टर और न ही हकीम। उनकी औषधि माला फेरना ही थी और वह काम वे अपनी आत्मा की पूरी शक्ति अपने पूरे मन से कर रहे थे। उन्हें औषधि की अपेक्षा आशीर्वाद और प्रार्थना पर अधिक भरोसा था। सोचते थे, दवा से दुआ अच्छी है।

एक दिन लाला सदानंद चारपाई पर लेटे थे। उनके पास उनकी बूढ़ी माँ उनके दुर्बल और पीले मुँह को देख- देखकर अपनी आँखों के आँसू अंदर ही अंदर पी रही थी। थोड़ी दूरी पर एक कोने में, उनकी नवोढ़ा स्त्री घूँघट निकाले खड़ी थी और देख रही थी कि कोई काम ऐसा तो नहीं, जो रह गया हो। पास पड़ी चौकी पर पंडित शादीराम बैठे, रोगी को भगवद्गीता सुना रहे थे।

एकाएक लाला सदानंद बेसुध हो गए। पंडितजी ने गीता छोड़ दी और उनके सिरहाने बैठ गए। स्त्री गरम दूध लाने के लिए अंदर दौड़ी और माँ घबराकर बेटे को आवाजें देने लगी। इस समय पंडितजी को लगा कि रोगी के सिरहाने के नीचे कोई चुभती हुई चीज रखीं है। उन्होंने नीचे हाथ डालकर देखा तो उनके आश्चर्य की सीमा न रहीं। वह सख्त चीज वही अलबम था, जिसे किसी सेठ ने नहीं बल्कि स्वयं लाला सदानंद ने खरीदा था।

पंडित शादीराम इस विचार से बहुत प्रसन्न थे कि उन्होंने सदानंद का ऋण उतार दिया मगर यह जानकर उनके हृदय को चोट – सी लगी कि ऋण उतरा नहीं अपितु पहले से दुगुना हो गया है। उन्होंने बेसुध यजमान के पास बैठे-बैठे एक ठंडी साँस भरी और सोचने लगे यह ऋण मेरे सिर से क्या कभी न उतरेगा !

कुछ देर बाद लाला सदानंद को होश आया। उन्होंने पंडितजी से अलबम छीन लिया और धीरे से कहा, “यह अलबम अब मैंने सेठ साहब से मँगवा लिया है।”

पंडित जी जानते थे कि यजमान झूठ बोल रहे हैं परंतु वे उन्हें पहले से भी अधिक सज्जन, अधिक उपकारी और ऊँचा समझने लगे थे। वे यह न कह सके कि आप झूठ बोल रहे हैं। उनमें यह हिम्मत न थीं। वे चुपचाप माला फेरने लगे।

ऋण – कर्ज, उधार

अदा करना – चुकाना

विवशता – मजबूरी

परवाह – चिंता

हतभागे – अभागे, भाग्यहीन

आभा – चमक

जीवनदायिनी – जीवन देनेवाली

हृदयहारिणी – मन को लुभानेवाली

चिरंजीवी – बहुत समय तक जीवित रहनेवाला, पुत्र

वैद्य – आयुर्वेदिक चिकित्सक

दुआ – प्रार्थना, विनती, आशिष

बेसुध – बेहोश

मुहावरे

ठंडी आह भरना – दुःखी होना

पेट काटकर बचाना – थोड़े खर्च में काम चलाना

हृदय पर बछियाँ चलाना – अत्यधिक चुभनेवाली बात कहना

1. निम्नलिखित प्रश्नों के नीचे दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प चुनकर उत्तर लिखिए :-

(1) पंडित शादीराम अपना ऋण क्यों नहीं उतार पाते थे?

(अ) वे अत्यंत गरीब थे।

(ब) बचे हुए पैसे किसी न किसी तरह खर्च हो जाते थे।

(क) रुपये देने की उनकी दानत ही नहीं थी।

(ड) पैसे देने जितनी रकम इकट्ठी ही नहीं होती थी।

उत्तर – (ब) बचे हुए पैसे किसी न किसी तरह खर्च हो जाते थे।

(2) शादीराम पुरानी पत्रिकाएँ बेचते नहीं थे क्योंकि

(अ) उनकी कोई ज्यादा रकम नहीं मिल सकती थी।

(ब) उनके भाई की अमानत थी।

(क) उनके रोते हुए बच्चे उनमें के चित्रों को देखकर चुप हो जाते थे।

(ड) पत्रिकाएँ उन्हें बहुत प्रिय थीं।

उत्तर – (क) उनके रोते हुए बच्चे उनमें के चित्रों को देखकर चुप हो जाते थे।

(3) सदानंद के कहने पर शादीराम ने पत्रिकाओं के चित्रों का क्या किया?

(अ) बेच दिए

(ब) अलबम बनाया

(क) बच्चों को बाँट दिए

(ड) दीवारों पर सजा दिए

उत्तर – (ब) अलबम बनाया

(4) पंडित शादीराम को अलबम के कितने रुपये मिले?

(अ) एक हजार

(ब) दो सौ

(क) दो हजार

(ड) एक सौ

उत्तर – (क) दो हजार

(5) सदानंद का मन प्रसन्नता से नाच उठा क्योंकि

(अ) उन्हें अपने पैसे वापस मिल गए।

(ब) पंडित शादीराम की उदारता और सज्जनता के कारण।

(क) परमात्मा ने उनकी बात स्वीकार कर ली।

(ड) मारवाड़ी सेठ ने अलबम खरीद लिया था।

उत्तर – (ब) पंडित शादीराम की उदारता और सज्जनता के कारण।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-

(1) पंडित शादीराम के बचाए हुए अस्सी रुपये किसमें खर्च हो गए?

उत्तर – पंडित शादीराम के बचाए हुए अस्सी रुपये उनके बीमार बेटे के इलाज में खर्च हो गए।

(2) पंडित शादीराम पुरानी पत्रिकाएँ क्यों नहीं बेच देते थे?

उत्तर – पंडित शादीराम पुरानी पत्रिकाएँ नहीं बेचते थे क्योंकि जब उनके बच्चे रोते थे तो वे उन पत्रिकाओं के चित्र बच्चों को दिखा दिया करते थे जिससे उनके बच्चे चुप हो जाया करते थे।

(3) सदानंद ने शादीराम को पुरानी पत्रिकाओं से क्या करने की सलाह दी?

उत्तर – सदानंद ने शादीराम को पुरानी पत्रिकाओं से चित्र काटकर एक अलबम बनाने की सलाह दी।

(4) लाला सदानंद की बीमारी के समय पंडित शादीराम किस तरह सेवा करते थे?

उत्तर – लाला सदानंद की बीमारी के समय पंडित शादीराम उनके समीप बैठकर माला जपते थे और भगवद्गीता का पाठ करके उन्हें सुनाते थे।

(5) ‘अलबम सेठ से मैंने मँगवा लिया है।’ ऐसा सदानंद ने शादीराम से क्यों कहा?  

उत्तर – ‘अलबम सेठ से मैंने मँगवा लिया है।’ ऐसा सदानंद ने शादीराम से कहा क्योंकि वे शादीराम के सामने ये जाहिर नहीं होने देना चाहते थे कि वास्तव में अलबम मँगवाने वाला वह खुद ही है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के दो-तीन वाक्यों में उत्तर लिखिए :-

(1) पंडित शादीराम कर्ज अदा करने के लिए क्यों बेचैन थे?

उत्तर – पंडित शादीराम कर्ज अदा करने के लिए बेचैन थे क्योंकि वे एक भले मनुष्य थे। उन्हें पता था कि किसी का धन हड़पना कई पापों के बराबर है। दूसरा कारण सदानंद की भलमनसाहत भी थी क्योंकि उसने अपने पैसों के लिए कभी भी पंडित शादीराम पर कोई दबाव नहीं बनाया था।

(2) लाला सदानंद ने शादीराम की समस्या का क्या हल निकाला?

उत्तर – लाला सदानंद को इस बात का एहसास था कि पंडित शादीराम उनके पैसे लौटाने के लिए काफी परेशान रहते हैं। उन्हें उनकी समस्या से मुक्ति दिलाने के लिए सदानंद ने शादीराम की अलमारी में पड़ी पत्रिकाओं के चित्र छाँटकर एक अलबम बनाने को कहा ताकि कोई शौकीन उसे अच्छी कीमत पर खरीद ले।

(3) शादीराम ने अपना कर्ज कैसे चुकाया?

उत्तर – लाला सदानंद की बीमारी में जब पंडित शादीराम उनके लिए माला जपते थे और भगवद्गीता का पाठ कर रहे थे तभी उनको अपना अलबम लाला सदानंद के तकिये के नीचे से मिला। यह देखकर उन्हें यह अहसास हुआ कि उन्होंने अपना कर्ज़ अलबम के माध्यम से चुका दिया है।

(4) पंडित शादीराम लाला सदानंद से यह क्यों न कह सके कि वे झूठ बोल रहे हैं?  

उत्तर – पंडित शादीराम लाला सदानंद से यह न कह सके कि वे झूठ बोल रहे हैं क्योंकि वे उनके सद्गुणों और आत्मीयता को पहचान चुके थे। इसके अतिरिक्त उनकी तबीयत भी ठीक नहीं थी इसलिए वे सच्चाई कहकर उनके परेशान नहीं करना चाहते थे।

(5) शादीराम का ऋण उतरने की बजाय दुगुना क्यों हो गया?

उत्तर – शादीराम का ऋण उतरने की बजाय दुगुना हो गया क्योंकि शादीराम द्वारा बनाए गए अलबम को खरीदने वाला और कोई नहीं बल्कि उन्हें पाँच सौ का ऋण देनेवाला लाला सदानंद ही थे। इस लिहाज से विचार किया जाए तो उनके ऊपर लाला सदानंद की सद्भावना का ऋण भी चढ़ गया था।

4. निम्नलिखित प्रश्नों के चार-पाँच वाक्यों में उत्तर लिखिए :-

(1) पंडित शादीराम के दिल में क्यों शांति नहीं थी?

उत्तर – पंडित शादीराम के दिल में शांति नहीं थी क्योंकि हर वक्त उन्हें एक ही चिंता सताती रहती थी कि उन्हें लाला सदानंद का ऋण चुकाना है। इस पाँच सौ रुपए के ऋण को चुकाने के लिए जब भी वे पैसे इकट्ठे करते थे तो वो किसी न किसी आवश्यक कार्य में खर्च हो जाया करते थे।  

(2) पंडित शादीराम खुशी से क्यों झूमने लगा?

उत्तर – लाला सदानंद के कहे अनुसार पंडित शादीराम पत्रिकाओं से चित्र छाँटने लगे। दिन भर इस काम में बिताने के बाद शाम को देखा तो दो सौ बढ़िया चित्र जमा हो गए थे। उस समय वे उन्हें देखकर स्वयं उछल पड़े। उनके मुख पर आनंद की आभा नाचने लगी। वे उन चित्रों की ओर इस तरह देखते मानो उनमें से हर एक दस-दस के नोट हों। उन्हें यह लगने लगा कि उनकी यह चित्रों की अलबम ज़रूर कोई शौकीन व्यक्ति अच्छी कीमत पर खरीद लेगा इसीलिए वे खुशी से झूमने लगे।

(3) लाला सदानंद ने शादीराम से रुपये लेने से मना क्यों कर दिया?

उत्तर – लाला सदानंद ने शादीराम से रुपये लेने से मना कर दिया क्योंकि इसके पीछे कई कारण थे जैसे- उन्हें यह अच्छे से पता था कि पंडित शादीराम की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। उन्हें यह भी पता था कि शादीराम उन्हें पैसे देने के लिए पैसे जमा करते हैं पर किसी न किसी आवश्यक काम में वे खर्च हो जाते हैं। तीसरा कारण यह भी था कि पंडित शादीराम एक सज्जन थे। 

(4) लाला सदानंद के चरित्र पर अपने विचार स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – लाला सदानंद के चरित्र में हमें निम्नलिखित विशेषताएँ नज़र आती हैं-

सहृदयी – लाला सदानंद एक सहृदयी व्यक्ति थे। उन्होंने अपने ऋण के पैसे वापस पाने के लिए कभी भी पंडित शादीराम पर कोई दबाव नहीं डाला।

सज्जन – लाला सदानंद व्यापारी होते हुए भी सभी को एक ही लाठी से नहीं हाँका करते थे। वे यह अच्छे से जानते थे कि कौन सच कह रहा है और कौन झूठ। इसलिए वे पंडित शादीराम की मजबूरी समझते थे।

सहयोगी – जब लाला सदानंद यह अनुभव करते हैं कि पंडित शादीराम उनके ऋण को चुकाने के लिए काफी व्यस्त रहते हैं तो उन्होंने पंडित शादीराम को उनके पास पड़े पत्रिकाओं के चित्र काटकर एक अलबम तैयार करने को कहा ताकि उसे बिक्री करवाकर पंडित शादीराम की सहायता कर सके।

आत्मीयता के धनी – पंडित शादीराम के द्वारा बनाई गई अलबम को वे स्वयं खरीद लेते हैं और इस सत्य का उद्घाटन होने पर वे यह कह देते हैं कि उन्होंने सेठ से यह अलबम अपने पास मँगवा ली थी।

 

5. सूचनानुसार लिखिए :-

(1) पर्यायवाची शब्द दीजिए

हाथ – हस्त, कर

आँख – नेत्र, नयन

ऋण – कर्ज़, उधार

अंधकार – तम, तिमिर

परमात्मा – ईश्वर, परमेश्वर

(2) विलोम (विरोधी) शब्द दीजिए

ठंडी – गर्मी

परवाह – लापरवाह

सज्जन – दुर्जन

जीवित – मृत

निराशा – आशा

सफल – असफल

दया – अत्याचार

(3) निम्नलिखित वाक्यों में से भाववाचक संज्ञा खोजकर बताइए :-

(1) लाला सदानंद पंडितजी की विवशता को जानते थे, परंतु भलमनसी के सामने आँखें नहीं उठती थीं।

उत्तर – विवशता, भलमनसी

(2) पंडित शादीराम को अब कोई आशा नहीं थी।

उत्तर – आशा

(3) आपने जो दया और सज्जनता दिखाई है, उसमें मरते दम तक न भूलूँगा।

उत्तर – दया, सज्जनता

(4) आप झूठ बोल रहे हैं।

उत्तर – झूठ

(4) मुहावरों के अर्थ देकर वाक्य प्रयोग कीजिए :-

(1) ठंडी आह भरना – दुखी होना – पंडितजी अपने ऋण को लेकर ठंडी आह भरते रहते थे।

(2) पेट काट कर बचाना – बड़ी मुश्किल से धन संचय करना- माँ-बाप अपना पेट काटकर बच्चों के लिए धन का संचय करते हैं।

(3) भार उतारना – पारिवारिक बोझ कम करना – सुधांशु ने कड़ी मेहनत करके अफसर का पद प्राप्त किया और अपने पिता का भार उतार दिया।

अपने मित्र को उधार पैसे दिए और अब मित्रता ही नहीं रहीं दो मित्रों के बीच उसकी संवाद में प्रस्तुति करवाइए।

उत्तर – अवि – रमेश ये लो 2 लाख रुपए। तुम्हें इसकी ज़रूरत थी न?

रमेश – सचमुच, तुम ही मेरे सच्चे मित्र हो।

अवि – ठीक है मेरी तारीफ बाद में करना जाओ पहले अपना काम कर लो।

रमेश – धन्यवाद, मित्र। मैं ये पैसे तुम्हें जल्दी ही लौटा दूँगा।

अवि – हो सके तो छह महीने के अंदर दे देना। मैंने भी किसी से लेकर तुम्हें यह दिया है।

रमेश – मैं तुम्हें तीन महीने के अंदर ही दे दूँगा।

अवि – ये तो बहुत अच्छी बात है।

छह महीने बाद

अवि – रमेश अगर तुम वो मुझे दो लाख रुपए दे देते तो मैंने जिससे लिया है उसे वापस कर देता।

रमेश – हाँ, मैं दे दूँगा लेकिन अभी थोड़ी तंगी चल रही है।

अवि – लेकिन फिर भी दे देते तो अच्छा होता।

रमेश – क्या तुम भी ज़िद पकड़ कर बैठ गए हो?

अवि – क्या करूँ मित्र मैंने जिससे लिए हैं वो भी मुझसे माँग रहा है।

रमेश – ठीक-ठीक मैं देखता हूँ।

अवि – तुम दोगे तो या मैं ये समझूँ कि पैसे और दोस्ती दोनों डूब गए।

रमेश – तुम्हारी इच्छा तुम जो समझना चाहते हो।

अवि – ठीक है रमेश मैं समझ गया। अलविदा !

‘हम अत्याचार का सामना सिर उठाकर कर सकते हैं, परन्तु भलमनसी के सामने आँख नहीं उठती।’ का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – इस वाक्य का आशय है कि जब हम किसी प्रकार के अत्याचार का सामना करते हैं, तो हम साहस और गर्व के साथ उसका मुकाबला कर सकते हैं। लेकिन जब हमें किसी के साथ भलमनसी, दयालुता या शांति का सामना करना होता है, तो हमारी स्थिति उससे नीचे होती है। इसका मतलब यह है कि अच्छे और सच्चे लोगों के सामने हमारा अभिमान या वर्चस्व कभी नहीं टिकता और हमें उनके सामने सिर झुका कर रखना पड़ता है। यह विचार हमें यह सिखाता है कि हम दुनिया में कड़ी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं, लेकिन हमें अच्छे और दयालु लोगों के प्रति सम्मान और विनम्रता बनाए रखनी चाहिए।

मानव मूल्यों के जतन करने के प्रति छात्रों को जागरुक कीजिए।

उत्तर – मानव मूल्य वह अदृश्य धारा होती है, जो हमें एक-दूसरे के प्रति सम्मान, सहानुभूति, और समझ से जोड़ती है। ये मूल्य समाज में शांति, भाईचारे, और सौहार्द बनाए रखने के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। मानवता, ईमानदारी, आत्म-निर्भरता, और परस्पर सम्मान जैसे गुण हमें न केवल अपने जीवन को सुखमय बनाते हैं, बल्कि समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने का भी एक सशक्त माध्यम होते हैं। आजकल, भौतिकता और स्वार्थ के इस युग में इन मूल्यों की रक्षा करना अधिक कठिन हो गया है, लेकिन यह जरूरी है कि हम इनकी अहमियत को समझें और अपने व्यवहार में इन्हें अपनाएँ। यदि हम अपनी आत्मा और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाने का संकल्प लें, तो हम न सिर्फ अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं, बल्कि दुनिया को एक बेहतर स्थान भी बना सकते हैं। अतः, मानव मूल्यों का जतन करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है, जो समाज के सर्वांगीण विकास में सहायक साबित होता है।

  • स्वातंत्र्य सेनानियों का तथा प्रसिद्ध खिलाड़ियों के अलबम तैयार करवाइए।

उत्तर – शिक्षक इसे अपने स्तर पर करें।

 

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