चिर सजग आँखें उनींदी
चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले,
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जागकर विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
वज्र का उर एक छोटे अश्रु-कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया?
सो गई आँधी मलय की वात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया?
अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!
कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी,
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!
महादेवी वर्मा का जन्म 1907 में फर्रुखाबाद में हुआ था। इनकी पढ़ाई-लिखाई इंदौर और इलाहाबाद में हुई थी। इलाहाबाद में स्थित प्रयाग महिला विद्यापीठ में वे प्रधानाचार्या के पद पर कार्यरत रहीं। उनकी मृत्यु 1987 में हुई।
महादेवी वर्मा ने कविता के अलावा सशक्त गद्य भी लिखा था। उनकी गद्य रचनाएँ भाषा और विचार की दृष्टि से अत्यंत परिपक्व मानी जाती हैं। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ के लेखों में उन्होंने स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को जिस स्तर पर उठाया था वह आश्चर्यजनक है। मैनेजर पाण्डेय ने इस पुस्तक को रेखांकित करते हुए लिखा है कि सिमोन द बोउवार की पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ के प्रकाशन से भी पहले महादेवी की यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी और इसके लेख तो और भी पहले प्रकाशित हो चुके थे। महादेवी वर्मा ने ‘चाँद’ पत्रिका के ‘विदुषी अंक’ का सम्पादन 1935 में किया था। यह अंक हिंदी में हुए स्त्री-विमर्श की परंपरा में विशेष महत्त्व रखता है। यह अंक उस जमाने में आया था जब इस तरह के विषय पर सोच-विचार की प्रवृत्ति आम नहीं थी। महादेवी का वैचारिक गद्य लेखन महत्त्वपूर्ण है।
छायावाद और रहस्यवाद की कवि के रूप में महादेवी वर्मा का स्थान अक्षुण्ण है। उनके पाँच काव्य-संग्रहों की कविताओं में छायावादी-रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ तो हैं ही, उनमें स्त्री की पीड़ा और मुक्ति के प्रसंग भरे पड़े हैं। इनमें पीड़ा का विवरण भी व्यक्तित्व की दृढ़ता को व्यक्त करने के लिए किया गया है। इनमें प्रेम और प्रेमी का जिक्र भी मुक्ति के प्रतीक के रूप में किया गया है। महादेवी कोरी भावुकता की कविताएँ नहीं लिखती हैं। उनकी कविताओं में वैचारिक दृढ़ता हमेशा बनी रही।
काव्य-कृतियाँ
नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1935), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), हिमालय (1963), सप्तपर्णा (अनूदित – 1966), प्रथम आयाम (1982), अग्निरेखा (1990)
गद्य-कृतियाँ
अतीत के चलचित्र (रेखाचित्र – 1941), शृंखला की कड़ियाँ (नारी-विषयक सामाजिक निबंध – 1942), स्मृति की रेखाएँ (रेखाचित्र – 1943), पथ के साथी (संस्मरण – 1956), क्षणदा (ललित निबंध – 1956), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (आलोचनात्मक – 1960), संकल्पिता (आलोचनात्मक – 1969), मेरा परिवार (पशु-पक्षियों के संस्मरण 1971), चिंतन के क्षण (1986)
संकलन
यामा (नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत का संग्रह / 1936), संधिनी (कविता-संग्रह / 1964), स्मृतिचित्र (गद्य-संग्रह – 1966), महादेवी साहित्य (भाग – 1 – 1969), महादेवी साहित्य (भाग – 2 – 1970), महादेवी साहित्य (भाग – 31970), गीतपर्व (कविता-संग्रह – 1970), स्मारिका (1971), परिक्रमा (कविता संग्रह – 1974), सम्भाषण (कविता-संग्रह 1975), मेरे प्रिय निबंध (निबंध – संग्रह – 1981), आत्मिका (कविता-संग्रह – 1983), नीलाम्बरा (कविता-संग्रह – 1983), दीपगीत (कविता-संग्रह – 1983)
‘चिर सजग आँखें उनींदी’ शीर्षक कविता महादेवी वर्मा की उद्बोधनात्मक कविता है। यह ‘सांध्य-गीत’ (1936) में संगृहीत है। इस कविता में महादेवी कहती हैं कि आज तुम शिथिल क्यों हो! तुम्हारी आँखें हमेशा जागरूक रही हैं। अच्छा यही है कि तुम जाग जाओ! अब समय आ गया है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति आए तुम्हें अडिग रहना है। महादेवी जी की यह कविता लोगों में नवीन चेतना का मंत्र फूँकती हैं।
यह कविता ‘चिर सजग आँखें उनींदी’ में महादेवी वर्मा जी आत्म-जागरण, संघर्ष और जीवन में लक्ष्य प्राप्ति की प्रेरणा देती है। कवयित्री कहती हैं कि कोई भी बाधा कितनी भी कठिन और चुनौतियों से भरी हुई क्यों न हो आपके अपने प्रयास से वह सुंदर और मोहक प्रतीत होने लगती हैं। कवयित्री यह भी कहती हैं कि जाग्रत और सचेत रहो! किसी तरह के भ्रम में मत जियो! किसी प्रलोभन में मत पड़ो! अपने प्रति किसी तरह की मोहासक्ति मत रखो! प्रकृति ने तुम्हें चिर सजग आँखें दी हैं। इन्हें सजग बनाए रखो! बाहरी बाधाएँ हमेशा आएँगी, भीतरी कमजोरी भी परेशान करेगी। तुम्हारा अपना व्यक्तित्व भी कभी-कभी तुम्हें बाँध लेगा। मगर, इन सबसे तुम्हें मुक्त होना है। व्यक्ति को अपने पथ से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कठिनाइयों का सामना करना आवश्यक है और एक सच्चे पथिक को अपने संघर्ष की निशानी छोड़ते हुए आगे बढ़ना होगा। यह कविता विशेष रूप से राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी भावना को जाग्रत करने के लिए लिखी गई है, जिससे व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहे और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे।
01
चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
शब्दार्थ –
चिर सजग आँखें – सदा सजग रहनेवाली दृष्टि
उनींदी – नींद के आलस्य में होना
व्यस्त बाना – अव्यवस्थित, वेश-भूषा
जाग – जागृत हो जाओ, सचेत हो जाओ
प्रसंग –
‘चिर सजग आँखें उनींदी’ शीर्षक कविता महादेवी वर्मा की उद्बोधनात्मक कविता है। यह ‘सांध्य-गीत’ (1936) में संगृहीत है। इस कविता में महादेवी कहती हैं कि आज तुम शिथिल क्यों हो! तुम्हारी आँखें हमेशा जागरूक रहनी चाहिए। अच्छा यही है कि तुम जाग जाओ! अब समय आ गया है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति आए तुम्हें अडिग रहना है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।
व्याख्या –
‘चिर सजग आँखें उनींदी’ शीर्षक कविता की पहली दो पंक्तियों में महादेवी वर्मा जनमानस को उद्बोधित करती हुई कहती हैं कि तुम्हारी चिर सजग आँखें आज नींद की खुमारी से भरी हुई क्यों हैं? आज तुम्हारा व्यक्तित्व अस्त-व्यस्त क्यों है? तुम जाग्रत अवस्था में रहने का अभ्यास करो! क्योंकि तुम्हें लंबी दूरी तय करनी है। महादेवी उन लोगों को संबोधित कर रही हैं जिनमें संघर्ष की इच्छा और क्षमता है। वे उन्हें सचेत कर रही हैं कि आलस्य में मत पड़ो! कविता की अगली पंक्तियों में कठिनाइयों का जिक्र किया गया है और कहा गया है कि चाहे जैसी भी कठिनाई आए, तुम्हें संघर्ष से पीछे नहीं हटना है।
02
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले,
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जागकर विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!
शब्दार्थ –
अचल हिमगिरि – अटल भाव से खड़ा हिमालय पर्वत
कम्प – कंपन
प्रलय के आँसुओं में – प्रलयकाल में होनेवाली भीषण बारिश
आलोक – प्रकाश
मौन अलसित व्योम – मानो दुख के कारण आकाश मौन और शिथिल हो गया है।
तिमिर की घोर छाया – घना अंधकार
विद्युत-शिखाओं – बिजली कि चमक
नाश-पथ – मृत्यु के पथ पर
प्रसंग –
‘चिर सजग आँखें उनींदी’ शीर्षक कविता महादेवी वर्मा की उद्बोधनात्मक कविता है। यह ‘सांध्य-गीत’ (1936) में संगृहीत है। इस कविता में महादेवी कहती हैं कि आज तुम शिथिल क्यों हो! तुम्हारी आँखें हमेशा जागरूक रहनी चाहिए। अच्छा यही है कि तुम जाग जाओ! अब समय आ गया है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति आए तुम्हें अडिग रहना है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।
व्याख्या –
कवयित्री महादेवी वर्मा इन पंक्तियों में कठिनाइयों की चर्चा करते हुए कुछ रूपक गढ़ती हैं। वे कहती हैं कि अचल रहनेवाले हिमालय पर्वत के हृदय में आज चाहे कंपन क्यों न उत्पन्न हो जाए! यह आकाश चुपचाप ठहरकर भले ही प्रलयकाल की तरह लगातार बरसता रहे! आज भले ही प्रकाश को अंधकार पी जाए और चारों तरफ केवल डोलती छायाएँ दिखाई पड़ें! आज भले ही आकाश की बिजलियों में निष्ठुर तूफान अट्टहास कर उठे! इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद तुम्हें संघर्षपथ से पथभ्रष्ट या विचलित नहीं होना है। अपने लक्ष्य के प्रति विमुख नहीं होना है। इस नाश-पथ पर अपने निशान छोड़ते हुए तुम्हें आगे बढ़ना ही होगा! तुम्हें यह सब करने के लिए निश्चित रूप से जागरूक और कर्मशील होना ही पड़ेगा!
03
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
शब्दार्थ –
मोम के बंधन सजीले – आकर्षक मगर मिथ्या चीजों से जुड़ाव
पंथ की बाधा – रास्ते की रुकावट
तितलियों के पर रँगीले – झूठे आकर्षण की तरह तितलियों के रँगीले पंख
विश्व का क्रंदन – संसार का दुख
मधुप की मधुर गुनगुन – भौंरों का मीठा गुंजार
फूल के दल ओस-गीले – फूल के पत्ते जो ओस गिरने के कारण गीले हो गए हैं
अपनी छाँह – अपनी कमियों के प्रति आकर्षित होना
कारा – जेल, बंधन
प्रसंग –
‘चिर सजग आँखें उनींदी’ शीर्षक कविता महादेवी वर्मा की उद्बोधनात्मक कविता है। यह ‘सांध्य-गीत’ (1936) में संगृहीत है। इस कविता में महादेवी कहती हैं कि आज तुम शिथिल क्यों हो! तुम्हारी आँखें हमेशा जागरूक रहनी चाहिए। अच्छा यही है कि तुम जाग जाओ! अब समय आ गया है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति आए तुम्हें अडिग रहना है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।
व्याख्या –
इन पंक्तियों में महादेवी जी कहती हैं कि तुम्हारे संघर्ष को कमजोर करने के लिए कुछ मनमोहक चीजें भी रास्ते में मिलेंगी। इन आकर्षणों से बचे बगैर तुम संघर्ष नहीं कर सकते। अगर तुम सचमुच साधक हो, तो ये आकर्षण तुम्हें भटका नहीं पाएँगे। उदाहरण देते हुए वे पुनः रूपकों का सहारा लेती हैं। ये मोम के सजीले बंधन हैं, क्या ये तुम्हें अपने में बाँध लेंगे? ये तितलियों के रँगीले पंख हैं, क्या ये तुम्हारे रास्ते की बाधा बनेंगे? यह विश्व दुखी है, इसके क्रंदन को भौंरों की मधुर गुनगुन की ओट में भुलाया जा सकता है क्या? फूलों की पंखुड़ियों पर ओस की बूँदें बहुत सुंदर लगती हैं, मगर इस सुंदरता में संसार के दुख को भुलाया जा सकता है क्या? तुम अपनी ही छाया की सुंदरता में कैद मत हो जाना, क्योंकि यह छाया एक भ्रम है। तुम्हें सच को पहचानना है! जीवन की छोटी-छोटी सुख-सुविधाओं में उलझकर अपने महान उद्देश्य को कभी भी मत छोड़ना।
04
वज्र का उर एक छोटे अश्रु-कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया?
सो गई आँधी मलय की वात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया?
अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!
शब्दार्थ –
वज्र का उर – वज्र की तरह ताकतवर हृदय
अश्रु-कण – आँसू की बूँदें
धो गलाया – पथभ्रष्ट कर दिया
जीवन सुधा – जीवन रूपी अमृत
मदिरा – शराब
उपधान – तकिया
मलय की वात – पर्वत की ओर से आने वाली वासंती हवा
विश्व का अभिशाप – दुनिया की चुनौतियाँ
अमरता-सुत – अमरत्व की दार्शनिकता से युक्त पूर्वजों की संतान
प्रसंग –
‘चिर सजग आँखें उनींदी’ शीर्षक कविता महादेवी वर्मा की उद्बोधनात्मक कविता है। यह ‘सांध्य-गीत’ (1936) में संगृहीत है। इस कविता में महादेवी कहती हैं कि आज तुम शिथिल क्यों हो! तुम्हारी आँखें हमेशा जागरूक रहनी चाहिए। अच्छा यही है कि तुम जाग जाओ! अब समय आ गया है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति आए तुम्हें अडिग रहना है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।
व्याख्या –
महादेवी जी अपनी प्रेरणामयी वाणी से उद्बोधन करती हुई कहती हैं कि तुम्हारा हृदय मजबूत है। उसकी दृढ़ता वज्र की तरह है। मगर भावुकता के आँसुओं में तुमने अपने मजबूत मन को कमजोर बना लिया है। तुमने न जाने किसे अपना जीवन-अमृत सौंप दिया है। अपने जीवन की अमरता के बदले तुमने मदिरा के कुछ घूँट प्राप्त कर लिए हैं। अर्थात् गलत संगति में पड़कर तुमने अमरता के मार्ग को ठुकरा कर मृत्यु के मार्ग को अपना लिया है। तुम तो आँधी की तरह प्रचण्ड थे, मगर आज लगता है कि वासंती हवा के सहारे तुमने तकिया लेकर सो जाने का निर्णय ले लिया है। ऐसा लगता है कि संसार के संघर्षों से घबरा कर तुमने गहरी नींद में सो जाने का निर्णय ले लिया है। तुम अमर पूर्वजों की संतान हो! तुम मृत्यु को अपने मन में क्यों बसा लेना चाहते हो! तुम जागृति की ओर देखो, तुम्हें लंबी दूरी तय करनी है।
05
कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी,
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!
शब्दार्थ –
ठंडी साँस – चैन की साँस
दृग में सजेगा आज पानी – आँखों में खुशी के आँसू
पताका – झंडा
पतंग – पतंगा, शलभ
अंगार-शय्या – अंगारों से बनी सेज, संघर्ष के कठिन रास्ते
मृदुल कलियाँ बिछाना – कठिनाई में भी कोमलता को बनाए रखना
प्रसंग –
‘चिर सजग आँखें उनींदी’ शीर्षक कविता महादेवी वर्मा की उद्बोधनात्मक कविता है। यह ‘सांध्य-गीत’ (1936) में संगृहीत है। इस कविता में महादेवी कहती हैं कि आज तुम शिथिल क्यों हो! तुम्हारी आँखें हमेशा जागरूक रहनी चाहिए। अच्छा यही है कि तुम जाग जाओ! अब समय आ गया है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति आए तुम्हें अडिग रहना है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।
व्याख्या –
कविता की अंतिम पंक्तियों में हमें महादेवी जी से संघर्ष के इतिहास की प्रेरणा मिलती है। कवयित्री कहती हैं कि ताप से, जोश से या ऊर्जा से भरी हुई उस कहानी को भूलने की ज़रूरत नहीं है। तुम ठंडी साँस लेकर यह मत कहो कि अब मैं संघर्ष की बातों को याद करना नहीं चाहता। हमें संघर्ष की बातों को याद रखना चाहिए कि जब हमारी चेतना में संघर्ष की बेचैनी होती है तभी जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है। हृदय में आग हो, तभी आँखों में सम्मानजनक आँसुओं की सुंदरता भाती है। हो सकता है कि संघर्ष करते हुए तुझे हार का सामना करना पड़े! इससे घबराने की ज़रूरत नहीं है। अपने मान-सम्मान के लिए संघर्ष करते हुए, मिली हुई हार को भी, जय की पताका समझना चाहिए। पतंगा तो क्षण भर में राख हो जाता है, मगर दीपक में उसके संघर्ष की निशानी बनी रहती है। इतना याद रखना कि यह रास्ता आसान नहीं होता है। अंगारों की सेज पर कोमल कलियों को बिछाने का अर्थ है कलियों की शहादत! तुम्हें अपने व्यक्तिगत सुख, सुविधा और आराम को त्यागने के लिए तैयार होना पड़ेगा! इन सबका यही उपाय है कि तुम जागृति की चेतना से युक्त रहो!
काव्य सौष्ठव / विशेष
यह कविता उन लोगों को संबोधित है जिनमें संघर्ष की इच्छा और क्षमता है। उन्हें सचेत किया गया है कि आलस्य में मत पड़ो!
तुम्हारे संघर्ष को कमजोर करने के लिए कुछ मनमोहक चीजें भी रास्ते में मिलेंगी। इन आकर्षणों से बचे बगैर तुम संघर्ष नहीं कर सकते।
इस कविता का यह टुकड़ा प्रसिद्ध हुआ – ‘तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना! जाग तुझको दूर जाना!
पूरी कविता में 28-28 मात्राओं की पंक्तियों का उपयोग हुआ है। टेक की पंक्ति ‘जाग तुझको दूर जाना’ में 14 मात्राएँ हैं।